होमरूल आन्दोलन के उद्देश्य एवं कार्यक्रम क्या थे ? , महत्व Indian Home Rule movement in hindi
यहाँ हम जानेंगे कि होमरूल आन्दोलन के उद्देश्य एवं कार्यक्रम क्या थे ? , महत्व Indian Home Rule movement in hindi आदि
प्रश्न: होमरूल आन्दोलन के उद्देश्य एवं कार्यक्रम क्या थे ? राष्ट्रीय आंदोलन में इसकी महत्ता निर्धारित कीजिए।
अथवा
होमरूल आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में लम्बे समय काल से व्याप्त राजनीतिक निष्क्रियता की समाप्ति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: 1907 में सरत विभाजन के पश्चात् राष्ट्रीय आन्दोलन की कमजोर स्थिति। उग्रवादियों की असफल राजनीति, सूरत विभाजन के प्रभाव, 1909 के अधिनियम द्वारा साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली का आना, प्रथम विश्वयुद्ध जनित उत्पन्न परिस्थितियां, क्रांतिकारी आंतकवादी आंदोलन की समाप्ति आदि से राष्ट्रीय आंदोलन की धार कमजोर हो गई। राजनीतिक निष्क्रियता को समाप्त करने के दृष्टिकोण से 1916 में होमरूल आंदोलन शुरू किया। जिसमें लोगों में राष्ट्रीय भावनाओं को जागृत करने का दृष्टिकोण था। जनसमुदाय को होम रूल अर्थात् स्वशासन के प्रति जागृत करने का दष्टिकोण निहित था। तिलक व एनी बेसेंट का इस दिशा में सम्मिलित प्रयास था। होमरूल लीग की स्थापना तिलक के द्वारा अप्रैल, 1916 में व एनी बेसेन्ट के द्वारा सितम्बर, 1916 में की गई। तिलक के नेतृत्व वाले आन्दोलन का क्षेत्र महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रान्त, बरार और बेसेन्ट के नेतृत्व वाला क्षेत्र शेष भारत था।
होम रूल के कार्यक्रम
1. सभाओं का आयोजन।
2. वाद-विवाद व चर्चाओं का आयोजन।
3. भाषण व इसके माध्यम से जन समुदाय को राजनीतिक रूप से शिक्षित करने का प्रयास। जनसमुदाय में स्वशासन की भावना के विकास का प्रयास।
4. सामाजिक कार्य।
होम रूल आंदोलन का महत्व
(i) राजनीतिक निष्क्रियता की स्थिति की समाप्ति के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण भूमिका।
(ii) स्वशासन के विचारों का प्रचार-प्रसार व लोगों को इस दिशा में जाग्रत करने में भूमिका।
(iii) राष्ट्रीय भावनाओं का प्रसार व ब्रिटिश साम्राज्यवादी विरोधी भावनाओं को बल।
(iv) उन प्रान्तों में जहां राष्ट्रीय आन्दोलन अपेक्षाकृत कमजोर था (जैसे- गुजरात, मद्रास आदि) वहां राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिला।
(v) राजनीतिक कार्यकर्ताओं की एक नयी पीढ़ी का जन्म हुआ जो कि राष्ट्रीय राजनीतिक गतिविधियों से जुड़े व कालान्तर में इसके स्थायी हिस्से के रूप में उभरे।
(vi) नगरीय क्षेत्र व ग्रामीण क्षेत्रों के बीच संगठनात्मक सम्पर्क को बल मिला। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में भी कुछ सीमाओं तक राष्ट्रीय चेतना के विकास को बल मिला।
(vii) ब्रिटिश सरकार पर एक नवीन दबाव और ब्रिटिश सरकार के द्वारा एक नयी नीति के प्रतिपादन की प्रक्रिया को तीव्र करने में एक भूमिका। वर्ष 1917 ई. की माण्टेग्यू की घोषणा इस दिशा में संकेत है।
(viii) कांग्रेस मंच पर उदारवादियों के प्रभाव की समाप्ति में एक भूमिका एनी बेसेन्ट का कांगेस की अध्यक्ष के रूप में उभरना इस दिशा संकेत है।
(ix) कांगेस मंच और कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में एक नये चरण की शुरूआत। इसे कांग्रेस राजनीति में ‘स्वशासन के मुद्दे‘ पर कांग्रेस का अधिक प्रबल व प्रभावी दृष्टिकोण‘ देखने को मिलता है। 1916 ई. के लखनऊ पैक्ट के अन्तर्गत यह मुद्दा महत्वपूर्ण था।
अंग्रेजी सरकार का होम रूल आंदोलन के प्रति दृष्टिकोण
दमन का दृष्टिकोण
मांगों को कुछ सीमाओं तक मानने का दृष्टिकोण व संवैधानिक सुधारों का स्वीकारने का दृष्टिकोण।
प्रश्न: खिलाफत आन्दोलन के उद्देश्यों और लक्ष्यों की विवेचना कीजिये। यह कहां तक सफल रहा ?
उत्तर: प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की ने मित्र राष्ट्रों के खिलाफ युद्ध किया था। तुर्की के खलीफा को मुस्लिमों के धार्मिक प्रधान के रूप में देखा जाता था। उन दिनों यह अफवाह फैली कि तुर्की पर ब्रिटिश सरकार अपमानजनक शर्ते थोप रही है। इसी के विरोधस्वरूप 1919-20 में अलीबन्धु (मुहम्मद अली और शौकत अली), मौलाना अबुल कलाम आजाद, हसरत मोहानी तथा अजमल खान के नेतृत्व में खिलाफत आन्दोलन शुरू किया गया। इस आन्दोलन की तीन प्रमुख मांगे थी-
प. खलीफा का अधिकार मुस्लिम शासित क्षेत्रों पर बरकरार रहे।
पप. खलीफा को पर्याप्त क्षेत्र देकर छोड़ देना चाहिए ताकि वह इस्लामी विश्वासों को बनाये रख सके।
पपप. अरब, सीरिया, इराक तथा फिलीस्तीन पर मुसलमानों की संप्रभुता बनी रहे।
दिल्ली में नवम्बर, 1919 में आयोजित अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन ने फैसला किया कि अगर उनकी मांगे न मानी गया तो वे सरकार से सहयोग करना बंद कर देंगे। इस समय मुस्लिम लीग पर राष्ट्रवादियों का नेतृत्व था। उसने राजनातिक प्रश्नों पर राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके आन्दोलनों का पूरा-पूरा समर्थन किया। अपनी तरफ से तिलक और गांधी सहित तमाम कांग्रेसी नेताओं ने भी खिलाफत आन्दोलन को हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने का तथा मुस्लिम जनता को राष्ट्रीय आन्दोलन में लाने का सनहरा अवसर माना। इस बीच सरकार ने रॉलेट कानून को रद्द करने, पंजाब के अत्याचारों की भरपाई करने तथा राष्ट्रवादियों की स्वशासन की आकांक्षा को संतुष्ट करने से इनकार कर दिया था। खिलाफत आन्दोलन ने 31 अगस्त, 1920 को एक असहयोग आन्दोलन आरंभ कर दिया। 1921 तक गांधीजी को छोड़कर सभी महत्वपूर्ण नेताओं को बंद कर दिया गया। इसी बीच चैरा-चैरी की घटना के कारण गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन को भी स्थगित कर दिया।
असहयोग आन्दोलन के स्थगन तथा सरकार के दमन से खिलाफत आन्दोलन बिखर गया। वस्तुतः खिलाफत का प्रश्न भी बहुत जल्द ही अप्रासंगिक हो गया। कमाल पाशा ने तुर्की के आधुनिकीकरण तथा उसे धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने के लिए अनेक कदम उठाये। उसने खलीफा का पद समाप्त कर दिया।
असहयोग आन्दोलन में खिलाफत के आन्दोलन की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही। परिणामस्वरूप ऐसा कहा जाता है कि धार्मिक चेतना का राजनीति में समावेश हुआ और अंततः साम्प्रदायिक शक्तियां मजबूत हुई।
प्रश्न: खिलाफत आंदोलन में गांधीजी की भूमिका का निर्धारण कीजिए। क्या खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने से गांधीजी की धर्मनिरपेक्ष छवि को क्षति पहुँची ?
उत्तर: आलोचकों का मानना है कि महात्मा गांधी द्वारा खिलाफत आन्दोलन को समर्थन देना एक प्रतिगामी कदम था। एक अर्थ में यह सत्य भी है क्योंकि पहली बार धर्मनिरपेक्ष राजनीति को छोड़कर कर धार्मिक मुद्दे पर अखिल भारतीय आन्दोलन चलाया गया था। परिणामस्वरूप् साम्प्रदायिक तत्वों को प्रोत्साहन मिला। लेकिन यहां स्पष्ट करना आवश्यक है कि तत्कालीन परिस्थितियों में समाज के सभी वर्गों एवं सम्प्रदायों का समर्थन राष्ट्रीय आन्दोलन की सफलता हेतु प्रमुख आवश्यकता थी।
खिलाफत के मुद्दे पर मुसलमानों का समर्थन कर गांधीजी ने एक विशाल वर्ग को राष्ट्रीय आन्दोलन की ओर आकृर्षित कर लिया था। पुनः 1919-1922 की अवधि में हिन्दू एवं मुसलमानों में उल्लेखनीय एकता रही थी, जो एक हद तक गांधीजी की नीति की सफलता को स्पष्ट करती है।
1916 में लखनऊ पैक्ट द्वारा कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के पृथक निर्वाचन संबंधी प्रावधान को स्वीकार कर लिया था, इसमें गांधी जी की भूमिका नहीं थी। अतः तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की नीति से कांग्रेस पहले से ही हट रही थी। पुनः आगे चलकर गांधीजी ने सदैव धार्मिक मुद्दों पर आधारित राजनीति का विरोध किया एवं धर्म के आधार पर देश के विभाजन का भी। गांधीजी व्यक्तिगत जीवन में धार्मिक मूल्यों में आस्था रखते थे लेकिन सदैव उन्होंने सर्वधर्म सद्भाव पर बल दिया। विभाजन के पूर्व होने वाले व्यापक दंगों के दौरान एकमात्र गांधीजी ही थे, जिनका हिन्दू एवं मुसलमान सम्मान करते थे एवं गांधीजी के प्रयासों से व्यापक हिंसा रूक सकी। अतः यह कहना उचित नहीं होगा कि खिलाफत आन्दोलन को समर्थन देने से गांधीजी की धर्मनिरपेक्ष छवि को क्षति पहुंची थी।
प्रश्न: किन कारणों से 1920 में गांधीजी का संवेदनापूर्ण सहयोग का दृष्टिकोण असहयोग में बदल गया? इसके क्या परिणाम हुए ? समालोचनात्मक आंकलन कीजिए।
उत्तर: महात्मा गांधी, जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में जातीय भेदभाव तथा नागरिक अधिकारों के समर्थन में सफल सत्याग्रह किया था, जनवरी, 1915 में भारत पहुंचे। गांधीजी ने जिस समय भारतीय राजनीति में प्रवेश किया, उस समय ब्रिटिश सरकार प्रथम विश्व युद्ध में संलग्न थी। गांधीजी ने युद्ध प्रयासों का इस आशा में समर्थन किया कि युद्ध समाप्ति के बाद सरकार भारतीयों को स्वराज सौंप देगी। युद्ध के दिनों में गांधीजी ने युवाओं को सेना में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित भी किया। इस सेवा से खुश होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘केसर-ए-हिंद‘ की उपाधि प्रदान की। इस दौरान गांधीजी का सरकार के प्रति संवेदनापूर्ण दृष्टिकोण रहा, परन्तु शीघ्र ही गांधीजी का दृष्टिकोण असहयोग में बदल गया।
रॉलेट एक्ट को 18 मार्च, 1919 को तमाम गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों के विरोध के बावजूद स्वीकार कर लिया गया। इस विधेयक को जनता ने ‘काला कानून‘ कहा। भारतीय जनमानस ने विरोध का एक अनोखा तरीका प्रस्तुत किया। गांधीजी के सत्याग्रह के समर्थन में अमृतसर में सभाएं आयोजित की गयी। 13 अप्रैल, 1919 को वैशाखी के दिन जलियांवाला बाग हत्याकांड हो गया। इस हत्याकांड की जांच के लिए बनाये गये हंटर आयोग की रिपोर्ट को गांधीजी ने ‘‘निर्लज्ज सरकारी लीपापोती‘‘ कहा। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की के परास्त होने पर सरकार इसके विखंडन पर विचार करने लगी। परिणामस्वरूप, मुसलमान नेताओं ने खिलाफत आंदोलन चलाया। गांधीजी इस आंदोलन को हिन्दू-मुस्लिम एकता का सुनहरा अवसर मानते थे। इन्हीं परिस्थितियों में गांधीजी का संवेदनापूर्ण सहयोग का दृष्टिकोण असहयोग में बदल गया।
1920 ई. में ‘एक वर्ष में स्वराज्य‘ का लक्ष्य लेकर गांधीजी ने असहयोग आंदोलन की शुरूआत की। खिलाफत के मुद्दे को लेकर यह वर्ष हिंदू-मुस्लिम एकता का स्वर्ण युग था। आंदोलन में रचनात्मक और ध्वंसात्मक कार्यक्रम तय किये गये थे। इस आन्दोलन के तहत राष्ट्रीय विद्यालयों/महाविद्यालयों की स्थापना तथा स्थानीय न्यायालय पंचायतों का गठन, खादी का प्रसार-प्रचार, स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग को लोकप्रिय बनाना, हिन्दू मुस्लिम एकता को मजबूत करना तथा अस्पृश्यता निवारण जैसे सकारात्मक कार्यक्रम चलाए गए, वहीं विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार, उपाधियों, अवैतनिक पदों तथा स्थानीय निकायों की सदस्यता का परित्याग, सरकारी समारोह का बहिष्कार सैन्य, लिपिक व श्रमिक वर्ग द्वारा मेसोपोटामिया के लिए चयन से इनकार जैसे नकारात्मक कार्यक्रम भी चलाए गए। किंतु इसके केंद्र में लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग अहिंसा रखा गया था। परे देश में यह आंदोलन अपने पूरे शबाब पर था और देशवासियों को लगने लगा था कि ब्रिटिश सरकर अब स्वराज्य प्रदान करेगी तब ही उत्तर प्रदेश के चैरी-चैरा कांड 15 फरवरी, 1922) के हिंसात्मक रूख ने गांधीजी को असहयोग आंदोलन वापस लेने को प्रेरित किया।
जनजागरण के बावजूद यह आन्दोलन राजनैतिक व दार्शनिक (अंहिसा) उद्देश्यों को पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सका। असहयोग आंदोलन के आकस्मिक स्थगन से खिलाफत मुद्दे का भी अंत हो गया और हिंदू-मुस्लिम एकता भी भग हा गयी। हिंदू-मुस्लिम एकता जाग्रत करने का उद्देश्य भी पूर्ण नहीं हुआ। पंजाब त्राशताब्दी में हुए ब्रिटिश राज की गलतिया का सधार भी नहीं करवाया जा सका और स्वराज्य पहुंच से दूर होता चला गया।
किंतु अगर इसके अन्य पक्ष को देखा जाये तो असहयोग आंदोलन बहुत हद तक सफल दिखता है। इसने पहली बार 1857 ई. के बाद देश के हर कोने में राष्ट्रीय आंदोलन उद्वेलित किया तथा सरकार विरोधी वातावरण बनाया। लोगों में अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने की शक्ति आयी तो खादी और स्वदेशी का प्रचार हुआ। देश में राष्ट्रीय शिक्षा संस्थानों जैसे काशी विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया जैसे संस्थान खुले और कांग्रेस की पहुंच किसानों, मजदूरों और विद्यार्थियों तक हो गयी। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि हालांकि असहयोग आंदोलन अपने लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सका, फिर भी भारतीय जनमानस पर इसका दूरगामी प्रभाव पड़ा तथा इसने आगे के आंदोलन के लिए उत्प्रेरक का काम किया।
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