माइकलसन मोर्ले प्रयोग क्या है , इंटरफेरोमीटर , माइकेल्सन व्यतिकरणमापी सिद्धांत नोट्स michelson morley experiment in hindi
michelson morley experiment in hindi माइकलसन मोर्ले प्रयोग क्या है , इंटरफेरोमीटर , माइकेल्सन व्यतिकरणमापी सिद्धांत नोट्स ?
माइकलसन-मोरले प्रयोग (MICHELSON MORLEY EXPERIMENT)
न्यूटन के अनुसार दूरी, समय तथा द्रव्यमान भौतिक राशियों निरपेक्ष तथा नियत होती है और प्रेक्षक तथा प्रेक्षण स्थिति पर निर्भर नहीं करती है। इनके अतिरिक्त न्यूटन ने एक ऐसे निर्देश तंत्र की खोज करने की चेष्टा की जो इस ब्रह्माण्ड में स्थिर तथा निरपेक्ष हो जिसके सापेक्ष पिण्डों की निरपेक्ष गति को जाना जा सके तथा प्रायोगिक प्रेक्षित परिणामों को निरपेक्ष गति के पदों में ज्ञात किया जा सके। परन्तु न्यूटन ने अंत में यह स्वीकार किया कि किसी निकाय में रहकर निकाय की निरपेक्ष गति का किसी भी यांत्रिक उपकरण द्वारा पता नहीं लगाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि अन्य पिण्डों के सापेक्ष पिण्ड का वेग ही सार्थक होता है तथा निरपेक्ष-वंग का यथार्थ में कोई महत्व नहीं होता है।
प्रकाश के संचरण की प्रकृति की व्याख्या करने लिये दिये गये एक विशेष परिकल्पना ने निरपेक्ष निर्देश तंत्र तथा निरपेक्ष गति की समस्या को प्रकाशीय उपकरण द्वारा हल करने के लिये पुनः आशान्वित किया। इस परिकल्पना के अनुसार प्रकाश तरंगें एक कालानिक प्रकाशवाही ईथर (Luminiferous ether) माध्यम में गति करती है। यह ईथर सर्वव्यापी अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तथा पदार्थों के अंदर विद्यमान होता है। विभिन्न वैज्ञानिकों ने ईथर की परिकल्पना को निरपक्ष निर्देश तंत्र की खोज के लिये उपयोग किया और इस पर विचार किया कि ईथर क्या होता है ? इस सम्बन्ध में विभिन्न वैज्ञानिकों ने भिन्न-भिन्न विचार प्रकट किये। इन में से दो निम्न प्रमुख विचार हैं-
1. गतिशील पिण्ड अपने साथ ईथर को घसीटते है। फलतः पिण्ड तथा ईथर के मध्य सापेक्ष गति नहीं होगी और गतिशील पिण्ड के सापेक्ष प्रकाश के वेग में कोई परिवर्तन नहीं होगा। अतः किसी प्रकाशीय घटना द्वारा पिण्ड की निरपेक्ष गति को ज्ञात नहीं किया जा सकता है।
2. यदि पिण्ड स्थिर ईथर माध्यम में गति करते हैं अर्थात् गतिमान पिण्ड अपने साथ ईथर को नहीं घसीटते है तो इसके परिणामस्वरूप निरपेक्ष ईथर तथा पिण्ड के मध्य सापेक्ष गति होगी और पिण्ड की सापेक्ष गति प्रकाश के वेग में परिवर्तन कर देगा, जिसे प्रकाशीय घटना द्वारा संसूचित किया जा सकता है।
अतः निरपेक्ष ईथर तथा पृथ्वी (पिण्ड) के मध्य सापेक्ष गति के कारण प्रकाश के वंग में परिवर्तन को ज्ञात करने के लिये कई प्रयोग किये गये उनमें से सबसे महत्वपूर्ण प्रयोग माइकलसन – मोरले का प्रयोग है जो प्रकाश के व्यतिकरण सिद्धान्त पर आधारित है।
माइकलसन – मोरले प्रयोग का सिद्धान्त
यदि स्थिर ईथर तथा पृथ्वी के मध्य सापेक्ष गति के कारण प्रकाश के वेग में परिवर्तन सम्भव मान लें तो एक स्थिति में प्रकाश किरण पुंज पृथ्वी की गति की दिशा में निश्चित दूरी तक गति कर लौट आये तथा दूसरी स्थिति में प्रकाश किरण पुंज पृथ्वी की गति की दिशा के लम्बवत् समान दूरी तय कर लौट आये तो दोनों स्थितियों में प्रकाश किरण पुंज द्वारा व्यतीत किये गये समयों में अंतर होगा। इस समयांतर को प्रायोगिक तरीकों से जैसे माइकलसन व्यतिकरणमापी द्वारा नापा जा सकता है। अत: माइकलसन मारलं ने 1887 में पृथ्वी तथा ईथर के मध्य आपेक्षिक गति ज्ञात करने के लिये माइकलसन व्यतिकरणमापी का उपयोग किया। इस उपकरण को चित्र (4.2-1) में दर्शाया गया है।
चित्र (4.2-1 ) के अनुसार जब एक वर्णी प्रकाश स्रोत S से निर्गत प्रकाश किरण पुंज 45 पर झुकं अर्ध रजतित (half silvered ) प्लेट P पर आपतित होती है तो यह समान आयाम की परस्पर लम्बवत् परावर्तित Oa दिशा में तथा पारगमित Ob दिशा में दो किरण पुंजों में विभाजित हो जाती है। ये दोनों किरणें उनकी दिशाओं में प्लेट P से समान दूरी पर स्थित क्रमश: दर्पण M तथा M2 पर अभिलम्बत् आपतित होती है तथा परावर्तित होकर लांटती है। aO एवं bO दिशा में परावर्तित किरणें विभाजक प्लेट P पर पुन: लौटती है तथा प्लेट P से पारगमित व परावर्तित होकर अध्यारोपण से व्यक्तिकरण की फ्रिजें बनाती है जिन्हें दूरदर्शी (telescope) T की सहायता से देखा जाता है। ये व्यतिकरण फ्रिज सकेंन्द्रिक वृतों के रूप में दिखाई पड़ती है।
प्लेट P के समान मोटाई की एक अन्य प्लेट C जिसे प्रतिकारी (compenstory ) प्लेट कहते हैं, इसके समांतर Ob पथ में रखते हैं ताकि OM तथा OM2 की वास्तविक दूरी बराबर होने में साथ-साथ उनकी प्रकाशीय दूरी भी बराबर हो जाये सम्पूर्ण उपकरण पारे के एक कुण्ड (tank) में तैरता रहता है ताकि इसे ऊध्वार्धर अक्ष पर आवश्यकता अनुसार घुमाया जा सके। (i) प्रकाश के 0 से b तथा वापस 0 तक पहुँचने में लगा समय: यदि Oa तथा Oh प्रकाश किरणों का प्रकाशीय पथ बराबर हो और ईथर के सापेक्ष उपकरण स्थिर है तो दोनों किरणें O बिन्दु पर लौटने में समान समय लेंगी अर्थात् दोनों किरणें एक ही कला में पहुँचेगी। अब हम कल्पना करते हैं। कि सम्पूर्ण उपकरण ईथर के सापेक्ष पृथ्वी के वेग v से Ob दिशा में गति कर रहा है तो Ob दिशा में जाते समय प्रकाश का वेग (c-v) तथा bO दिशा में लौटते समय प्रकाश का वग ( c + v) होगा, चित्र (4.2-2 )
यदि Ob पथ की लम्बाई d है तो प्रकाश द्वारा O से b तक जाने तथा b से 0 तक लौटने में लिया गया कुल समय
[द्विपद प्रमेय का उपयोग करने तथा v2/c2 के उच्च घात वाले पदों का उपेक्षणीय मानने पर, क्योंकि v<<c]
(ii) प्रकाश के O से a तथा वापस 0 तक पहुँचने में लगा समय : अब हम Oa दिशा में परावर्तित किरण के बारे में विचार करते हैं जो ईथर के सापेक्ष वेग से गतिशील उपकरण के लम्बवत दिशा में गति करती है। OM दर्पण की दूरी भी रखते है। प्लेट P से परावर्तन के पश्चात् M1दर्पण की ओर जाने वाली प्रकाश किरण जब तक दर्पण M1 पर पहुँचेगी तब तक दर्पण M1 अपनी नयी स्थिति M2 तक पहुँच जायेगी। यदि किरण Oa’ दूरी तय करने में समय 121 लेती है तो इतने समय में दर्पण M, दूरी aa’ = vt21 तयकर लेगा । चित्र (4.3-2)।
अत: O से a’ तक प्रकाश किरण द्वारा तय की गयी दूरी
इसी प्रकार परावर्तित प्रकाश किरण a से लौटकर आयगी तो बिन्दु 0 विस्थापित O’ पर पहुँच जायगा तथा a’ से O’ तक पहुँचन में समय लगा होगा।
इस प्रकार परावर्तित प्रकाश किरण को O से a’ तक तथा वापस O’ तक पहुँचने में लगा कुल
[ द्विपद प्रमेय का उपयोग करने तथा v2/c2 के उच्च घात वाले पदो को उपेक्षणीय मानने पर, क्योंकि v<<c]
(iii) दर्पण M1 तथा M2 से आने वाली प्रकाश किरणों के मध्य पथांतर : तथा M2 से आने वाली परावर्तित तथा अपवर्तित प्रकाश किरणों के मध्य पथांतर
यह समयांतर निम्न पथांतर के तुल्य होगा-
अब दूरदर्शी T द्वारा व्यतिकरण प्रतिरूप देखने के पश्चात् सम्पूर्ण उपकरण को 90° से घुमा देते हैं ताकि Ob पथ पृथ्वी की गति की दिशा के लम्बवत् तथा Oa पद समांतर हो जाये। यह घूर्णन विपरीत दिशा में पथांतर उत्पन्न कर देगा जिससे कुल पथांतर
यदि इस पथांतर में n फ्रिंजें आती है तो विस्थापित फ्रिंजों की संख्या
माइकलसन – मोरले प्रयोग में d = 11m तथा A = 5890 × 10-10 m रखा गया था। पृथ्वी का रेखीय वेग v = 3 × 104 m/s तथा प्रकाश वेग c = 3 x 108 m/s होता है। उपर्युक्त मानों को समीकरण में रखने पर विस्थापित फ्रिंजों की संख्या
अत: उपकरण को 90° घुमाने से फ्रिजों में विस्थापन 0.37 होना चाहिये परन्तु माइकल्सन तथा मोरले को सभी प्रायोगिक त्रुटियां का विचार करने पर भी फ्रिजों में कोई विस्थापन प्राप्त नहीं हुआ जबकि उपकरण की सुग्राहिता 0.01 फ्रिंज विस्थापन की कोटि की थी। माइकलसन – मोरले के पश्चात् यह प्रयोग एकवर्णी भिन्न-भिन्न तरंगदैयों के प्रकाश किरणों का उपयोग करके भिन्न-भिन्न स्थानों पर सम्पूर्ण वर्ष में कई बार दोहराया गया परन्तु हर बार फ्रिजों में कोई विस्थापन प्रेक्षित नहीं हुआ। प्रायोगिक दृष्टि से फ्रिजों में विस्थापन प्राप्त नहीं होने के कारण माइकलसन – मोरले का यह परिणाम नकारात्मक परिणाम (negative result) कहलाता है। इस प्रयोग के नकारात्मक परिणाम की व्याख्या करने के लिये भिन्न-भिन्न विचार प्रकट किये गये। इनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्याख्या आइंसटीन द्वारा आपेक्षिकता के विशिष्ट सिद्धान्त द्वारा दी गई। ये विचार है :
(i) ईथर कर्षण (Ether drag ) : जब ईथर माध्यम में पृथ्वी गति करती है तो वह अपने साथ ईथर का बसीटती है इससे ईथर तथा पृथ्वी के मध्य सापेक्ष गति नहीं होगी और प्रकाश का वेग सभी दिशाओं में समान होगा परन्तु यह व्याख्या तारकीय अपरण (aberration of a star) को नहीं समझा सकी इसलिये यह परिकल्पना वैज्ञानिकों द्वारा स्वीकार नहीं की गयी।
(ii) यदि प्रकाश का वेग उसके वास्तविक वेग तथा इसके स्रोत के वेग के सदिश योग के बराबर माना जाये तो नकारात्मक परिणाम की व्याख्या की जा सकती है। यह परिकल्पना भी अमान्य हो गयी क्योंकि प्रकाश के वेग तथा आपेक्षिक वेग में अंतर ज्ञात करना सम्भव नहीं हो पाया।
(iii) लॉरेंज-फिटसगैराल्ड संकुचन (Lorentz-Fitzgerald contraction) : इनके अनुसार ईथर की दिशा के अनुदिश सभी द्रव्य की लम्बाई में √1-V2 /C2 के अनुपात में यदि संकुचन माना जाये तो नकारात्मक परिणाम की व्याख्या की जा सकती है क्योंकि इस प्रकार के संकुचन होने पर व्यतिकरण मापी की भुजाओं में संकुचन होगा तथा दोनों प्रकाश किरणों के पथ समान हो जायेंगे जिसके कारण कोई पथांतर नहीं होगा इसलिये व्यतिकरण फ्रिजों में कोई विस्थापन प्राप्त नहीं होगा। परन्तु प्रायोगिक रूप में यह संकुचन ज्ञात नहीं हो पाया था इसलिये इस परिकल्पना पर किसी का विश्वास नहीं हुआ इस परिकल्पना की व्याख्या बाद में आइंसटीन के आपेक्षिकता के विशिष्ट सिद्धान्त द्वारा दी गई।
(iv) ईथर के अस्तित्व की व्याख्या अर्थ हीन है- इस परिकल्पना का उपयोग कर आइंसटीन ने आपेक्षिकता के विशिष्ट सिद्धान्त द्वारा इस प्रयोग के नकारात्मक परिणामों की सफलतापूर्वक व्याख्या की।
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