सिंधु घाटी सभ्यता के नगर नियोजन की विशेषताएं का मूल्यांकन कीजिए 100 शब्दों में प्रकाश डालिए
जाने – सिंधु घाटी सभ्यता के नगर नियोजन की विशेषताएं का मूल्यांकन कीजिए 100 शब्दों में प्रकाश डालिए ? और नगर नियोजन और व्यापार संजाल के संदर्भ में परिपक्व हड़प्पा चरण की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें ?
सिंधु सभ्यता में वास्तु एवं नगर नियोजन
वेदों, पुराणों, रामायण, महाभारत और अन्य हिंदू धार्मिक और ऐतिहासिक ग्रंथों में तो सिंधु संस्कृति की झांकियां मिलती ही हैं। लेकिन, सिंधु संस्कृति का साफ और सही, भव्य और विशाल स्वरूप संसार के सम्मुख तब प्रकट हुआ, जब 1921 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर से एक उत्खनन कर्मी, राखालदास बगर्जी ने सिंध के लरकाना जिले में डोकरी कस्बे के पास मोहगजोदड़ो की खुदाई करवाई, जिससे सदियों से भूमि तले छिपी हुई एक शानदार संस्कृति दुनिया के सामने आई, जिसे देखकर बड़े-बड़े विद्वान आश्चर्यचकित हो उठे। इस, एक खोज ने भारतीय उपखंड के इतिहास को कई हजारों वर्षों की गहराई दे दी।
मोहगजोदड़ो वाली संस्कृति, जिसे साधारणतः सिंधु घाटी वाली संस्कृति के नाम से जाना जाता है, वह ईसा से कोई 2750 या 3250 वर्ष पहले अपनी पराकाष्ठा पर पहुंची थी। हड़प्पा (पंजाबद्ध से लेकर लोथल (गुजरात) और ढोलावीरा (कच्छ) तक फैली इस संस्कृति ने बड़े-बड़े पुरातत्ववेत्ताओं और शास्त्रवेत्ताओं की आंखें चकित कर दी। जाहिर है कि इतने बड़े भूखण्ड में फैली हुई यह संस्कृति रातोंरात तो विकसित नहीं हुई होगी। उसकी भव्यता और ओजस्वता को देखकर कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि उसको विकसित होने में कई हजार वर्ष लगे होंगे। 1974 में फ्रांस के पुरातत्ववेत्ताओं के एक दल ने सिंधु संस्कृति के पश्चिमी छोर अफगानिस्तान के मेहरगढ़ में उत्खनन करके जो निशान पाए हैं, उनका इन वैज्ञानिकों ने रेडियो कार्बन विधि से विश्लेषण करके यह नतीजा निकाला है कि यह संस्कृति ईसा से कोई 9,000 वर्ष पहले विकसित हुई होगी।
मोहगजोदड़ो से कपड़ा, खाद्यान्न, बैलगाड़ियों के चक्र और अन्य उपादान जैसे पैरों में पहनने के सुंदर जूते इत्यादि मिले हैं। इसका अर्थ हुआ कि आज से दस-गयारह या कम से कम 5000-6000 वर्ष पूर्व सिंधु घाटी के लोग खेतीबाड़ी करना, अन्न और कपास उगाना जागते थे, उन्होंने कपास से सूत बनाने और हथकरघों के जरि, कपड़ा बुनने का हुनर भी सीख लिया था। वे नाजुक और नफीस मलमल का कपड़ा बुनते थे, जिसे मिस्र, सुमेर, रोम की रानियां और अमीर जादियां बेहद पसंद करती थीं। यानी ऐसे समय, जब विश्व के कई भागों में लोग पहाड़ी कंदराओं में रहते थे और नंगे फिरते थे, उस समय सिंधु घाटी के लोगों ने इतने बड़े क्रांतिकारी आविष्कार कर दिए थे।
सिंधु संस्कृति की सबसे बड़ी आश्चर्यकारी तरक्की तो यह थी कि मोहगजोदड़ो में सुनियोजित ढंग से बने मकान पाए गए हैं। वे मकान पक्की ईंटों से बने हुए और रोशनीदार और हवादार थे। शहर में गंदे पानी के विकास के लिए जमीन के अंदर छिपी नालियां और मोरियां व गट्टर भी मिले हैं और सफाई के लिए आजकल प्रचलित ‘मेनहोल’ जैसी व्यवस्था भी पाई गई है। प्रसिद्ध नगर नियोजक प्रोफेसर पे्रलस फोर्ड का कहना है कि यूरोप में इतना सुनियोजित सफाई का प्रबंध उन्नीसवीं सदी तक उपलब्ध नहीं था। सिंधु के सुमेर और बैवीलोन से व्यापारिक संबंध थे। सुमेर में उत्खनन द्वारा मोहगजोदड़ो वाली मोहरें और मुद्राएं मिलीं हैं। मेसोपोटामिया के लोगों ने सिंधु के लोगों से गणित, ज्योतिष, और लिखने व पढ़ने की विद्या,ं सीखीं। गणित यकीनन सिंध से ही मेसोपोटामिया मंे पहुंची, जो आजकल ईराक कहलाता है, और वहां अरबों ने यह विद्या अपनाई, जिसका प्रमाण यह है कि अरबी भाषा में अंकों को आज भी हिन्दसा कहते हैं, जो मौलिक रूप से सिंध-सा है।
सिंधु सभ्यता की नगर-योजना, गृह-निर्माण, मुद्रा, मुहरों आदि के बारे में अधिकांश जागकारी मोहगजोदड़ो से प्राप्त होती है। मोहगजोदड़ो का सबसे प्रसिद्ध भवन वह स्नानागार है जो उत्तर से दक्षिण में 11-89 मी लम्बा, 7-01 मी- चैड़ा और 2-44 मी- गहरा है। इस तक पहुंचने के लिए दोनों तरफ सीढ़ियां हैं। कुण्ड के तल को डामर से जलरोधी बनाया गया था। इसके लिए पानी पास ही एक कक्ष में बने बड़े कुएं से आता था। पानी निकालने के लिए भी एक ढलवां नाली थी। कुण्ड के चारों तरफ मण्डप और कमरे बने हुए थे। विद्वानों का मत है कि इस स्थान का उपयोग राजाओं, या पुजारियों के धार्मिक स्थान के लिए किया जाता था। मोहगजोदड़ो के किले के टीले में पाई गई एक और महत्वपूर्ण इमारत है, अन्न भण्डार। इसमें ईंटों से निर्मित 27 खण्ड हैं जिनमें प्रकाश के लिए आड़े-तिरछे रोशनदान बने हुए हैं। अन्न भण्डार के नीचे ईंटों से निर्मित खांचे थे, जिनसे अनाज को भण्डारण के लिए ऊपर पहुंचाया जाता था। हालांकि कुछ विद्वानों ने इस इमारत को अन्न भण्डारण का स्थान मानने के बारे में संदेह व्यक्त किया है, किन्तु इतना निश्चित है कि इस इमारत का निर्माण किसी खास कार्य के लिए किया गया होगा।
विशाल स्नान-कुण्ड के एक तरफ एक लम्बी इमारत (230 × 78 फुट) है, जिसके बारे में अनुमान है कि वह किसी बड़े उच्चाधिकारी का निवास स्थान रहा होगा। इसमें 33 वग्र फुट का खुला प्रांगण है और उस पर तीन बरामदे खुलते हैं। महत्त्वपूर्ण भवनों में एक सभा-कक्ष भी था। इस सभा-कक्ष में पांच-पांच ईंटों की ऊंचाई की चार चबूतरों की, पक्तियां थीं। यह ऊंचे चबूतरे ईंटों के बने हुए थे और उन पर लकड़ी के खंभे खड़े किए गए थे। इसके पश्चिम की तरफ कमरों की एक कतार में एक पुरुष की प्रतिमा बैठी हुई मुद्रा में पाई गई है।
सिंधु सभ्यता के समय में मिस्र देश में लाखों लोग गुलामों की जिंदगी जी रहे थे। वे पिरामिड बनाने के लिए ढाई-ढाई टन वजन के पत्थर सिर पर ढोकर ऊंचे स्थलों तक पहुंचाते थे या देवी.देवताओं के मंदिरों के निर्माण के लिए रोटी के बदले सारा दिन काम करके गुलामों वाली जिंदगी व्यतीत करते थे। ऐसे समय में भी सिंधु घाटी के लोग अपने पक्के एवं हवादार घरों में रहते थे। मोहगजोदड़ो से व्यक्तिगत साफ-सफाई के लिए बड़े-बड़े सार्वजनिक स्नानघर तो मिले हैं, लेकिन कोई मंदिर या पूजास्थल नहीं मिला। इसका तात्पर्य हुआ कि लोग अपने तन, मन और शहर की शुद्धि और साफ-सफाई से ही संतुष्ट थे।
मोहन जोदड़ो से स्त्रियों और पुरुषों के साज-सज्जा का सामान, अच्छे-अच्छे वस्त्र और आभूषण भी प्राप्त हुए हैं। सोने, ताम्बे और धातुओं के आभूषण तो इतने मगधेहक, कलामय और चमकीले हैं कि किसी को भी गुमान नहीं होगा कि वे पांच-छह हजार वर्ष पुराने हैं।
हड़प्पा सभ्यता के नगरों की संरचना और बनावट में असाधारण प्रकार की एकरूपता थी। प्रत्येक नगर दो भागों में बंटा होता था। एक भाग में ऊंचा दुग्र होता था जिसमें शासक और राजघराने के लोग रहते थे। नगर के दूसरे भाग में शासित और गरीब लोग रहते थे। हड़प्पा, मोहगजोदड़ो और कालीबंगन बस्तियों की नगर योजना में कुछ समानताएं हैं। ये शहर दो भागों में विभाजित थे। इन शहरों के पश्चिम में किला बना होता था और बस्ती के पूर्वी सिरे पर नीचे एक नगर बसा होता था। यह दुग्र या किला ऊंचे चबूतरे पर, कच्ची ईंटों से बनाया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि दुग्र में बड़े-बड़े भवन होते थे जो संभवतः प्रशासनिक या धार्मिक केंद्रों के रूप में काम करते थे निचले शहर में रिहायशी क्षेत्र होते थे। मोहगजोदड़ो और हड़प्पा में किलों के चारों ओर ईंटों की दीवार होती थी। कालीबंगन में दुग्र और निचले शहर दोनों के चारों ओर दीवार थी, निचले शहर में सड़कें उत्तर से दक्षिण की ओर जाती थीं और समकोण बनाती थीं। स्पष्टतः सड़कों और घरों की पंक्तिबद्धता से पता चलता है कि नगर योजना के बारे में वे लोग कितने सचेत थे। फिर भी, उन दिनों नगर आयोजकों के पास साधन बेहद सीमित थे। यह पूर्वधारणा मोहगजोदड़ो और कालीबंगन से मिले प्रमाणों पर आधारित है, जहां गलियां और सड़कें अलग-अलग ब्लाकों में अलग-अलग तरह की है और मोहगजोदड़ो के एक भाग मोनार क्षेत्र में सड़कों तथा इमारतों की पंक्तिबद्धता शेष क्षेत्रों से बिल्कुल भिन्न है। मोहगजोदड़ो का निर्माण एक सी सपाट इकाइयों में नहीं किया गया था। वास्तव में, इसका निर्माण अलग-अलग समय में हुआ। हड़प्पा और मोहगजोदड़ो में भवनों और इमारतों के लिए पक्की ईंटों का इस्तेमाल किया गया। कालीबंगन में कच्ची ईंटें प्रयोग की गईं। सिंध में कोटदीजी और अमरी जैसी बस्तियों में नगर की किलेबंदी नहीं थी। गुजरात में स्थित लोथल का नक्शा भी बिल्कुल अलग-सा है। यह बस्ती आयताकार थी जिसके चारों ओर ईंट की दीवार का घेरा था। इसका कोई आंतरिक विभाजन नहीं था, अर्थात् इसे दुग्र और निचले शहर में विभाजित नहीं किया गया था। शहर के पूर्वी सिरे में ईंटों से निर्मित कुण्ड सा पाया गया, जिसे इसकी खुदाई करने वालों ने बंदरगाह के रूप में पहचाना है। कच्छ में सुरकोटड़ा नामक बस्ती दो बराबर के हिस्सों में बंटी हुई थी और यहां के निर्माण में मूलतः कच्ची मिट्टी की ईंटों और मिट्टी के ढेलों का इस्तेमाल किया गया था।
हड़प्पा सभ्यता के निवासी पकी हुई और बिना पकी ईंटों का इस्तेमाल कर रहे थे। ईंटों का आकार एक जैसा होता था। इससे पता चलता है कि प्रत्येक मकान मालिक अपने मकान के लिए ईंटें स्वयं नहीं बनाता था, बल्कि ईंटें बनाने का काम बड़े पैमाने पर होता था। इसी तरह, मोहगजोदड़ो जैसे शहरों में सफाई की व्यवस्था उच्च कोटि की थी। घरों से बहने वाला बेकार पानी नालियों से होकर बड़े नालों में चला जाता था जो सड़कों के किनारे एक सीध में होते थे। इस बात से फिर यह संकेत मिलता है कि उस जमाने में भी कोई ऐसी नागरिक प्रशासन व्यवस्था रही होगी जो शहर के सभी लोगों के हित में सफाई संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए गिर्णय लेती थी।
औसत दर्जे के नागरिक निचले शहर में भवन समूहों में रहा करते थे। यहां भी घरों के आकार-प्रकार में विधिवताएं हैं। एक कोठरी वाले मकान शायद दासों के रहने के लिए थे। हड़प्पा में अन्न भण्डार के गजदीक भी इसी प्रकार के मकान पाए गए हैं। दूसरे मकानों में आंगन और बाहर तक कमरे होते थे और अधिक बड़े मकानों में कुंए, शौचालय एवं गुसलखाने भी थे। इन मकानों का नक्शा लगभग एक जैसा था एक चैरस प्रांगण और चारों तरफ कई कमरे। घरों में प्रवेश के लिए संकीर्ण गलियों से जागा पड़ता था। सड़क की तरफ कोई खिड़की नहीं होती थी। इसका मतलब यह हुआ कि मकान की ईंट की दीवारों का मुंह सड़क की ओर होता था।
हड़प्पा सभ्यता के मकानों और नगरों के विवरण से पता चलता है कि ऐसे लोग भी थे जिनके पास बड़े-बड़े मकान थे। उनमें से कुछ तो विशिष्ट तरणताल में नहाते थे। अन्य लोग बैरकों में रहते थे। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि बड़े-बड़े मकानों में रहने वाले लोग धनी वग्र के थे जबकि बैरकों में रहने वाले लोग मजदूर और दास वग्र के रहे होंगे।
हड़प्पा, मोहगजोदड़ो और कालीबंगन में, किले के क्षेत्रों में बड़ी विशाल इमारतें थीं जिनका प्रयोग विशेष कार्यों के लिए किया जाता होगा। यह तथ्य इस बात से स्पष्ट होता है कि ये इमारतें कच्ची ईंटों से बने ऊंचे-ऊंचे चबूतरों पर खड़ी की गई थीं। इनमें से एक इमारत, मोहगजोदड़ो का प्रसिद्ध ‘विशाल स्नान कुण्ड’ है।
भौतिक विशेषताओं की एकरूपताओं के कारण हड़प्पा, मोहगजोदड़ो और घग्घर क्षेत्र में जीवन-निर्वाह के एक जैसे तरीके सामने आए। किंतु अन्य ऐसे स्थान भी थे, जहां जीविका के स्वरूप में वहां की परवर्ती भौगोलिक विशेषताओं के कारण विविधता थी। हड़प्पा सभ्यता के लोगों की नगर योजना अत्यंत कुशल थी। हड़प्पा-सभ्यता के नगरों में मकान और वहां की जलनिकास प्रणाली को देखकर हड़प्पा के सभ्यता के लोगों की अनोखी भौतिक उपलब्धियों का पता चलता है।
हड़प्पा युग के मिट्टी के बर्तनों, औजारों, और उपकरणों में काफी हद तक एकरूपता पाई जाती है। हड़प्पा सभ्यता की मुहरें, मनके कारीगरी के सुंदर नमूने हैं लेकिन उनकी प्रस्तर मूर्तिकला और पक्की मिट्टी की लघु मूर्तियां तकनीकी उत्कृष्टता में समकालीन मिश्र और मेसोपोटामिया की कला का मुकाबला नहीं कर सकतीं। हड़प्पा सभ्यता की जीवन निर्वाह व्यवस्था अनेक फसलों की खेती और पालतू जागवरों पर निर्भर करती थी। इससे वहां की अर्थव्यवस्था नगरों में बसे लोगों का भरण-पोषण करने में समर्थ हो सकी। नगरों में रहने वाले लोग अपने अन्न का उत्पादन स्वयं नहीं करते थे। उनके लिए खाद्यान्न निकटवर्ती क्षेत्रों से आता था।
हड़प्पाकालीन संस्कृति की विशेषता वहां असंख्य छोटे-बड़े नगरों की उपस्थिति थी। हड़प्पा और मोहगजोदड़ो जैसे शहरों के अलावा अल्लाहदीनों जैसी बहुत-सी छोटी बस्तियों से भी ऐसे प्रमाण मिले हैं जो शहरी अर्थव्यवस्था के सूचक हैं। इस सभ्यता में आंतरिक व्यापार बेहद तेज था। विनिमय कार्यकलाप 10 लाख से 30,000 वग्र किलोमीटर तक के क्षेत्र में होते थे। यह विनिमय कार्यकलाप इस तथ्य से भी स्पष्ट हो जाते हैं कि हड़प्पा सभ्यता की छोटी-सी बस्ती अल्लाहदीनों में भी मुहरें, मुद्राकंण अर्द्धकीमती पत्थरों के मनके और धातु के बर्तन पाए गए हैं। इनमें से अधिकांश वस्तुएं, आयात की जाती थीं। नौगम्य जलमार्गों तथा परम्परागत भू-भागों पर हड़प्पाकालीन बस्तियों का स्थित होना उस बात की ओर संकेत करता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग व्यापार विनिमय गतिविधियों में संलग्न थे। समकालीन पश्चिमी एशियाई संस्कृतियों के साथ उनके संबंधों की पुष्टि की जा चुकी है।
मिट्टी के बर्तन बनाना, धातुओं के काम, मालाएं बनाना तथा अन्य शिल्प कलाएं हड़प्पा सभ्यता का अंग थी। यह हड़प्पा में दस्तकार तथा नगर स्थित श्रमिकों के अस्तित्व का द्योतक है। संभवतः समाज वर्गें में विभाजित था, ऐसे भी संकेत मिलते हैं कि हड़प्पा में किसी न किसी प्रकार की राजनैतिक संरचना विद्यमान थी। नगरों में प्रमुख सामाजिक वग्र प्रशासक, पुजारी, व्यापारियों तथा बड़ी संख्या में श्रमिकों के सामाजिक वग्र रहे होंगे। कुछ बड़ी इमारतें सामूहिक पूजा अथवा धार्मिक संस्कारों की ओर संकेत करती हैं। भारी संख्या में देवी.देवताओं तथा अन्य आराध्यों की पूजा किए जागे के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। प्रमुख रूप से मातृ देवी, शिव तथा कई प्रकार के पशु एवं वृक्ष आराध्य थे। कुछ समष्टि रूपी मिथकीय पशु भी धार्मिक विश्वासों का अंग थे। मुर्दों के अंतिम संस्कार का सर्वाधिक प्रचलित तरीका दफनाना था न कि दाह संस्कार। कब्रों में कई प्रकार के आभूषण तथा अन्य वस्तुएं भी प्राप्त हुई हैं।
मुख्य नगरों में यह विशेषता दिखाई देती है कि वहां के निवासी विभिन्न धार्मिक रीतियों का पालन करते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि मुख्य नगरों का गठन विभिन्न सामाजिक समूहों के राजनैतिक एवं आर्थिक एकीकरण से हुआ। इसके अतिरिक्त मुख्य नगरों में भिन्न धार्मिक रीतियों के अनुयायी विभिन्न क्षेत्रों के व्यापारी निवास करते होंगे। वे लोग अपनी राजनैतिक तथा आर्थिक रीतियों का पालन करते रहे होंगे।
नगर निवेशः सिंधु सभ्यता में सम्पादित उत्खननों पर एक विहंगम दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि यहां के निवासी महान निर्माणकर्ता थे उनके स्थापत्य कौशल को समझने के लिए वहां की विकसित नगर योजना (टाउन प्लानिंग), सार्वजनिक एवं गिजी भवन, रक्षा प्राचीर, सार्वजनिक जलाशय, सुनियोजित माग्र व्यवस्था तथा सुंदर नालियों के प्रावधान आदि का विधिवत् अध्ययन आवश्यक है।
वास्तव में सिंधु सभ्यता अपनी विशिष्ट एवं उन्नत नगर योजना के लिए विश्व प्रसिद्ध है क्योंकि इतनी उच्च कोटि का ‘बस्ती विन्यास’ समकालीन मेसोपोटामिया आदि जैसी अन्य किसी सभ्यता में नहीं मिलता। इस नगर निवेश के अंतग्रत सभी नगरों को समानांतर तथा एक-दूसरे को समकोण पर काटती हुई सड़कों के आधार पर बसाया गया है। इस विधि को आधुनिक काल में ‘ग्रिड प्लानिंग’ कहा जाता है। इस प्रकार चार सड़कों से घिरे आयतों में ‘आवासीय भवन’ तथा अन्य प्रकार के निर्माण किए गए हैं।
यथार्थ रूप में, ‘भवन निर्माण कला’ सैंधव सभ्यता के नगर नियोजन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था। इन नगरों के स्थापत्य में ‘पक्की सुंदर ईंटों’ का प्रयोग उनके विकास के लम्बे इतिहास का प्रमाण है। ईंटों की चुनाई की ऐसी विधि विकसित कर ली गई थी जो किसी भी मानदण्ड के अनुसार वैज्ञानिक तथा ‘आधुनिक इंग्लिश बा.ड’ से अधिकांशतः मिलती जुलती थी।
सैंधव सभ्यता के नगरों के आम लोगों के मकान के मध्य में एक आंगन होता था, जिसके तीन अथवा चारों ओर पांच कमरे, एक रसोईघर तथा स्नानागार रहता था। अधिकांश घरों में एक कुआं भी होता था। ‘जल निकास’ की सुविधा की दृष्टि से ‘स्नानागार’ प्रायः Ûली की ओर स्थित होते थे। स्नानघर के फर्श में अच्छी प्रकार की पक्की ईंटों का प्रयोग किया जाता था। सम्पन्न लोगों के घरों में शौचालय भी बने होते थे। उत्खनन में मोहन जोदड़ो से जो भवनों के अवशेष मिले हैं उनके ‘द्वार’ मुख्य सड़कों की ओर न होकर ‘गलियों की ओर’ खुलते थे। खिड़कियों के चिन्ह कहीं-कहीं मिले हैं। अनुमानतः खिड़कियों की अपेक्षा ‘गवाक्षो’ अथवा ‘झरोखों’ से होकर हवा एवं प्रकाश की दृष्टि से अपेक्षाकृत उपयोगी समझा जाता था।
भवन निर्माण के लिए मोहगजोदड़ो तथा हड़प्पा में ‘पकी हुई ईंटों’ का प्रयोग किया गया है। सभी ईंटें पुलिनमय मिट्टी से बनी हैं। मकानों की दीवारों की चुनाई के समय ईंटों को पहले लम्बाई के आधार पर पुनः चैड़ाई के आधार पर जोड़ा गया है। चुनाई की इस पद्धति को इंग्लिश बाॅ.ड कहते हैं। जबकि लोथल, रंगपुर एवं कालीबंगा में भवनों के निर्माण में कच्ची ईंटों का भी प्रयोग किया गया है।
कालीबंगा में पक्की ईंटों का प्रयोग केवल नालियों, कुओं तथा दहलीज के लिए किया गया था। वस्तुतः मिस्र देश में रोमन कला तक पक्की ईंटें प्रयुक्त हुईं।
सैंधव सभ्यता की नगर योजना के अंतग्रत ‘द्वितीय’ भवनों का भी निर्माण किया गया होगा क्योंकि ऊपरी भवन खण्ड में जागे के लिए ‘सीढ़ियां’ बनी थीं जिसके अवशेष अभी तक विद्यमान हैं।
सिंधु सभ्यता की नगरीय वास्तु या स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण वहां की सुंदर ‘नालियों की व्यवस्था’ से परिलक्षित होता है। इसका निर्माण पक्की ईंटों से होता था ताकि गलियों के ‘जल एवं मल’ का निकास निर्बाध रूप से होता रहे। ऐसी नालियों की चैड़ाई एवं गहराई आवश्यकतानुसार निर्धारित की जाती थी। सभी प्रमुख मार्गों एवं गलियों के दोनों ओर ‘ईंटों की सुंदर पक्की नालियां बनाई गई थी। अधिकतर नालियां 25 इंच गहरी तथा 9 इंच चैड़ी होती थीं। भवनों के छत पर लगे परनाले भी उनसे जोड़ दिए जाते थे। लोथल में अनेक ऐसी नालियों के अवशेष मिले हैं जो एक-दूसरे से जुड़ी हुई थी। इन नालियों को बड़े आकार की ईंटों से ढक दिया जाता था। प्रत्येक भवन की नाली को सड़क के किनारे की बड़ी नाली से जोड़ दिया जाता था। उल्लेखनीय है कि सड़कों के किनारे की नालियों में थोड़ी-थोड़ी दूर पर ‘मानुस मोखे’ (मेनहोल्स) का समुचित प्रावधान रहता था।
हड़प्पा-मोहगजोदड़ो में कुछ ऐसी भी नालियां मिलीं जो ‘सोख्ता गड्ढों’ (Soakpits) में गिरती थीं। इन नालियों में कहीं-कहीं ‘दन्तक मेहराब’ भी पाए गए हैं। नालियों की नियमित सफाई की व्यवस्था थी जिनका स्पष्ट संकेत किनारे पड़े बालू के ढेर से मिलता है। स्वच्छता के प्रति लोग जागरूक थे इसलिए स्थान-स्थान पर ‘कूड़ेदानों’ का प्रावधान था।
इस प्रकार की ढकी नालियां, भवनों में शौचालय एवं स्नानगृह की व्यवस्था नगर योजना के विकसित तकनीक का परिचायक है, जो अन्यत्र सुलभ नहीं था। यहां बड़ी नालियां 18 इंच तक चैड़ी हैं और उनमें ईंटों की जुड़ाई ‘कंकड़ के चुने’ अथवा ‘फूके हुए संगजराहत के चूने’ से की गई हैं। प्रत्येक घर की नालियां सड़क की मुख्य नाली से मिली रहती थी। वास्तव में नालियों की ऐसी सुंदर व्यवस्था तत्कालीन अन्य किसी सभ्यता में नहीं मिलती। इस प्रकार सैंधव सभ्यता के नगर योजना के अंतग्रत ‘भवन-निर्माण’ प्रायः सभी आवश्यकताओं तथा सुविधाओं को दृष्टि में रखकर बना, गए थे किंतु खिड़कियों के प्रावधान का किसी स्थल से कोई निश्चित संकेत उपलब्ध नहीं होता। ऐसा प्रतीत होता है कि मोहगजोदड़ो तथा हड़प्पा नगरों का भवन तथा निर्माण की तकनीक सादा होते हुए भी उच्च कोटि की थी। लोथल तथा कालीबंगा के कतिपय भवनों में अण्डाकार तथा आयताकार ‘वेदी या अग्निकुण्ड’ की उपलब्धता वहां के निवासियों की याज्ञिक अनुष्ठान में आस्था को प्रदर्शित करती है।
सैंधव सभ्यता की वास्तुकला से प्राप्त सार्वजनिक भवन, देवालय, अन्नागार तथा वृहद् स्नानागार आदि स्मारकों के अध्ययन से होता है। मोहन जोदड़ो के दुग्र (citaded) पर जो पुरातात्विक-उत्खनन हुए हैं उससे सभ्यता की सात सतहें प्रकाश में आई हैं। यह उत्खनन कार्य बौद्ध स्तूप के समीप किया गया था। कोटला (citadel) के ऊपरी स्तर पर जो महत्वपूर्ण स्मारक मिले हैं उनमें विशाल या वृहद स्नानागार, विद्यालय या पुरोहित निवास, अन्नागार, सभा भवन विशेष उल्लेखनीय हैं।
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