WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

बहमनी साम्राज्य का संस्थापक कौन है , की स्थापना किसने की , कब हुई ? राजधानी bahmani sultanate was founded by

bahmani sultanate was founded by in hindi बहमनी साम्राज्य का संस्थापक कौन है , की स्थापना किसने की , कब हुई ? राजधानी who was the first sultan of bahmani kingdom first capital

उत्तरोतर सल्तनत काल में प्रांतीय राजवंश

दिल्ली सल्तनत के पतनोपरांत कई क्षेत्रीय साम्राज्यों का उदय हुआ, जो दिल्ली सल्तनत के भू-क्षेत्र पर ही खड़े हुए। दक्कन में, विजयनगर एवं बहमनी दो बड़े साम्राज्य अस्तित्व में आए। दिल्ली सल्तनत के पतन के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में कई छोटे-छोटे साम्राज्य भी उदित हुए। इनमें पूर्व में जौनपुर एवं बंगाल तथा पश्चिम में मालवा एवं गुजरात सबसे प्रमुख थे। इस काल की एक प्रमुख घटना पुर्तगाली यात्री वास्कोडिगामा की भारत यात्रा थी, जो 1498 ई. में भारत आया तथा मसालों की खोज के लिए की गयी इस यात्रा ने अंत में भारत में पुर्तगाली साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया।
बहमनी साम्राज्य की स्थापना 1347 ई. में हसन गंगू ने की। इसने दिल्ली सल्तनत की अधीनता मानने से इंकार कर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। इसने बहमनशाह की उपाधि धारण की तथा गुलबर्गा को अपनी राजधानी बनाया।। बहमनी के सुल्तान भी उमरा वर्ग के सहयोग पर निर्भर थे। जैसा कि दिल्ली सल्तनत के सल्तानों के समय था। बहमनी शासकों ने दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था का अनुकरण किया। सुल्तान शासन का सर्वाेच्च पदाधिकारी था तथा विभिन्न विभागों का दायित्व प्रमुखों को सौंपा गया था। सम्पूर्ण बहमनी साम्राज्य चार प्रांतों (अतरफ) में विभक्त था। ये प्रांत थे-गुलबर्गा, दौलताबाद, बीदर एवं बरार। साम्राज्य में एक नियमित सेना भी थी। बहमनी साम्राज्य की सामाजिक संरचना मिली-जुली थी। इससे साम्राज्य सांस्कृतिक विकास भी गहराई से प्रभावित हुआ। विभिन्न परिस्थितियों एवं आंतरिक असंतोष से साम्राज्य में विखंडन की प्रक्रिया का जन्म हुआ, जिससे आगे चलकर बहमनी साम्राज्य पांच भागों में विभक्त हो गया। इस साम्राज्य से अहमदनगर, बीजपुर, गोलकुंडा, बरार एवं बीदर, नामक पांच नए राज्यों का अभ्युदय हुआ। इनमें से बीजापुर सबसे प्रमुख था, जिसकी स्थापना यूसुफ आदिल शाह ने की थी। यह एक योग्य प्रशासक था तथा इसने पुर्तगालियों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए।
विजयनगर साम्राज्य की स्थापना संगम के पांच पुत्रों में से दो, हरिहर एवं बुक्का ने की थी। इनकी राजधानी हस्तिनावती (हम्पी) थी। प्रारंभ में हरिहर एवं बुक्का दिल्ली सल्तनत के अधीन वारंगल के प्रशासक थे, जिन्होंने बाद में अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी तथा विजयनगर नामक एक नए साम्राज्य की स्थापना की। विजयनगर साम्राज्य का प्रायद्वीप पूर्वी एवं पश्चिमी दोनों ओर विस्तारित हुआ तथा दक्षिण की ओर यह तमिल प्रदेश तक पहुंच गया। यद्यपि विजयनगर साम्राज्य का बहमनियों के साथ निरंतर संघर्ष चलता रहा। इस संघर्ष का सबसे प्रमुख कारण कृष्णा एवं तुंगभद्रा नदियों के बीच में स्थित रायचूर दोआब पर नियंत्रण का मुद्दा था। यह क्षेत्र कृषि की दृष्टि से अत्यधिक उपजाऊ था।
कृष्णदेव राय (1509-1529 ई.) विजयनगर का एक महान शासक था। इसने कई महत्वपूर्ण सैन्य विजयें प्राप्त की तथा रायचूर-दोआब को बीजापुर से छीन लिया। 1565 ई. में विजयनगर साम्राज्य का उस समय अंत हो गया, जब बीदर, अहमदनगर, बीजापुर एवं गोलकुण्डा की सम्मिलित सेनाओं ने तालीकोटा के युद्ध में इसे पराजित कर दिया तथा सम्पूर्ण साम्राज्य को तहस-नहस कर दिया। विजयनगर साम्राज्य अत्यधिक समृद्ध था। खाद्यान्नों की दृष्टि से यह आत्मनिर्भर था तथा स्थानीय उपयोग की लगभग समस्त वस्तुओं का यहां उत्पादन होता था। इस साम्राज्य में कई महत्वपूर्ण बंदरगाह थे, जहां से विभिन्न देशों के साथ व्यापार किया जाता था।
प्रांतीय राजवंशों को सांस्कृतिक क्षेत्र में हुए कई महत्वपूर्ण विकासों के लिए जाना जाता है। जौनपुर के शर्की शासकों ने स्थापत्य कला की एक सुंदर शैली को जन्म दिया, साहित्यिक विभूतियों को प्रश्रय प्रदान किया तथा भारतीय संगीत जगत को ‘खयाल‘ जैसी नयी राग विधा प्रदान की। मालवा, जो 1435 में स्वतंत्र हुआ था, 1562 में मुगल साम्राज्य द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया। मालवा ने भी वास्तुकला की एक नवीन शैली को जन्म दिया। जैनुल आबदीन कश्मीर का एक प्रसिद्ध शासक था। उसने महाभारत एवं राजतरंगिणी का फारसी में अनुवाद किया। राजस्थान में तीन प्रमुख राज्य उभरे-मेवाड़, मारवाड़ एवं आमेर। राजस्थान के राजाओं ने कई किलों एवं महलों का निर्माण करवाया। गुजरात के शासकों ने भी इस्लामी एवं जैन कला का सुंदर समन्वय किया। बंगाल 1345 में हाजी इलियास द्वारा स्वतंत्र हुआ, जो कि इस क्षेत्र का शासक बना। इस अवधि में बंगाली भाषा का विकास हुआ। इस काल में उड़ीसा (वर्तमान ओडिशा) में सूर्यवंशियों ने शासन किया। कामरूप एवं असम पर अहोमों का शासन था। खानदेश जो, 1388 में मलिक रजा द्वारा स्वतंत्र हआ था, इसकी राजधानी बरहानपर थी।
इस बीच, पुर्तगाली भारत में धीरे-धीरे शक्तिशाली होते जा रहे थे। उन्होंने यहां कई दुर्गों का निर्माण कराया तथा हिन्द महासागर में एक स्थायी सेना रखी। इन्होंने कालीकट, कोचीन, गोवा, चैल, मलक्का तथा कई अन्य तटीय क्षेत्रों में अपनी व्यापारिक कोठियां स्थापित की, जो कालांतर में मसाले के अत्यधिक लाभप्रद व्यवसाय के लिए संचालन केंद्र का काम करेगी तथा एशियाई व्यापार तथा इस पर आरोपित कर से व्युत्पन्न आय को विनियमित करेगी। पुर्तगालियों ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए स्थानीय शासकों के साथ साम, दाम, दंड, भेद सभी तरह की नीतियां अपनाईं। उनकी नीतियों ने हिंद महासागर में स्वतंत्र एवं निशस्त्र व्यापार का अंत किया तथा भारत के पुर्तगाली राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया।

मुगल साम्राज्य

भारत में 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में शासक वंशों के शीघ्रातिशीघ्र परिवर्तन एवं छोटे शासक समूहों के अभ्युदय से राजनीतिक अस्थिरता का माहौल था। दिल्ली सल्तनत के पतन के उपरांत लोदी वंश ने भारत में प्रथम अफगानी साम्राज्य की स्थापना की। बहलोल लोदी, लोदी वंश का संस्थापक एवं प्रभावशाली शासक था, जिसने आत्मसमर्पण कराकर प्रांतों के उग्र नायकों प्रमुखों की संख्या में कमी की। उसका पुत्र सिकंदर लोदी सल्तनत की राजधानी को दिल्ली से आगरा ले गया। आगरा नगर की स्थापना भी उसी ने की। सिकंदर के बड़े पुत्र इब्राहीम लोदी के शासनकाल में. पंजाब के गवर्नर दौलत खां लोदी ने काबुल के शासक बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। इस आमंत्रण से प्रोत्साहित होकर बाबर ने भारत पर आक्रमण किया तथा 1526 में पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहीम लोदी को पराजित कर दिया। इस यद्ध में इब्राहिम लोदी मारा गया तथा उसकी मृत्यु के साथ ही दिल्ली सल्तनत की समाप्ति हो गई। लोदी शासक मुश्किल से 75 वर्षों तक ही शासन कर सके। इस अवधि में लोदियों का अपने शक्तिशाली पड़ोसी राज्यों, यथा-गुजरात, जौनपुर, मालवा एवं मेवाड़ से संघर्ष चलता रहा। ये सभी राज्य भी दिल्ली पर अधिकार के लिए लोदियों से निरंतर संघर्ष करते रहे। लोदी शासकों का दूसरा संघर्ष उन अमीरों तथा जमींदारों से था, जो दुर्बल सुल्तानों के समय अर्द्ध स्वतंत्र हो गए थे। किंतु लोदी सुल्तानों का तीसरा एवं मुख्य संघर्ष अपने अफगान सरदारों से ही हुआ। यही अफगान उत्तरोत्तर लोदी वंश की पराजय या पतन का कारण बने। इसके बावजूद भी सिकंदर लोदी एक महान लोदी सम्राट था, जिसने सुदृढ़ प्रशासनिक सिद्धांतों की नींव डाली तथा आगरा नामक एक नए शहर की स्थापना की।
बाबर, जिसने इब्राहीम लोदी को परास्त किया था, ने तेजी से दिल्ली एवं आगरा पर अधिकार कर लिया। यह तुर्क वंश की ‘चगताई‘ शाखा से संबंधित था। जिसे सामान्यतया ‘मुगल‘ के नाम से जाना जाता था। अपनी मृत्यु से पूर्व बाबर एक बड़ा साम्राज्य विरासत में छोड़ गया। इसमें बदख्शां से बिहार तक का एक बड़ा भू-प्रदेश था। इसमें अफगानिस्तान, पंजाब एवं दिल्ली सम्मिलित थे। दक्षिण की ओर यह राजस्थान तक विस्तृत था। बाबर ने समानता के अफगानी सिद्धांत को त्याग दिया तथा स्वयं को ‘पादशाह‘ या सर्वाेच्च प्राधिकारी घोषित किया। यद्यपि वह नए साम्राज्य के लिए नयी प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना नहीं कर सका। उसने प्रांतीय एवं क्षेत्रों के मुद्दों को पूरी तरह स्थानीय प्रशासकों के हाथों में ही छोड़ दिया। इन सभी मुद्दों को शेरशाह ने सुलझाया। शेरशाह अफगानी शासक था, जिसने 1540-45 ई. के मध्य शासन किया था। इतिहासकारों के मतानुसार वह ‘महान प्रशासक एवं सैन्य संचालकश् था। इसके राजस्व, वित्त एवं सैन्य सुधारों ने अकबर को स्वयं के सुधारों के लिए आधारभूत ढांचा प्रदान किया। यद्यपि उसने राजस्व के अफगानी सिद्धांत में कोई परिवर्तन नहीं किया।
अकबर जो 1556 ई. में मुगल सिंहासन पर बैठा, उसे प्रारंभ में हेमू का सामना करना पड़ा। हेमू ने आगरा तथा दिल्ली पर अधिकार कर लिया। अंततः 1556 ई. में पानीपत के द्वितीय युद्ध में अकबर, हेमू को परास्त कर पुनः सिंहासन प्राप्त कर सका। उसने अपनी सुदृढ़ एवं विशाल सेना की सहायता से कई और क्षेत्रों को जीता। 1576 ई. तक वह एक विशाल साम्राज्य का शासक था, जो अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक एवं हिमालय से नर्मदा के तट तक फैला हुआ था। इसमें अर्द्ध-स्वायत्त काबुल का प्रांत भी सम्मिलित था। उसकी विजयों से भी महत्वपूर्ण उसकी संगठनात्मक क्षमता एवं प्रशासकीय दक्षता महत्वपूर्ण है, जिसने इस विशाल मुगल साम्राज्य के लिए सुदृढ़ प्रशासनिक एवं सैद्धांतिक आधार तैयार किया तथा, जिसके आधार पर यह लगभग 200 वर्षों तक चलता रहा। इसीलिए अकबर को मुगल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है। उसका प्रशासन सैनिक आधार पर अवलंबित था, जिसमें प्रांतीय सूबेदारों/सिपहसालारों को तब तक पूर्ण शक्तियां प्राप्त रहती थीं, जब तक वे पद पर रहते थे। सबेदारों को केंद्रीय सल्तान के समान अपना दरबार आयोजित करने की भी स्वतंत्रता प्राप्त थी। अकबर ने भू-राजस्व व्यवस्था के निर्धारण के लिए भी कई प्रयोग किए। अंततः राजा टोडरमल के सहयोग से उसने आइने-दहसाला पद्धति अपनायी। अपनी प्रजा, जो अधिकांशतः गैर-मुस्लिम थी, पर शासन हेतु अकबर ने सुलह-ए-कुल या सार्वभौमिक सहिष्णुता के सिद्धांत को प्रस्तुत किया। अकबर ने दीन-ए-इलाही नामक एक नए धर्म का प्रतिपादन भी किया। यह सभी धर्मों का एक सार तत्व था। उसने हिन्दू राजकुमारियों से विवाह किया; तीर्थ यात्रा कर का उन्मूलन किया; जजिया समाप्त कर दिया तथा प्रशासन में योग्यता के आधार पर हिन्दुओं को भी मुसलमानों के समकक्ष पद प्रदान किए। अकबर के उत्तराधिकारियों, जहांगीर एवं शाहजहां ने भी उसकी नीतियों को जारी रखा।
मुगलकाल सांस्कृतिक क्षेत्र में कला एवं साहित्य की दृष्टि से उन्नति का काल था। इस काल में मुख्यतया वास्तुकला एवं स्थापत्य कला के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई। आगरा में इस काल में निर्मित कई सुंदर एवं भव्य इमारतें भारतीय एवं विदेशी कला के सुंदर समन्वय की परिचायक हैं। साहित्य के क्षेत्र में उर्दू एवं विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं का विकास हुआ तथा कई साहित्यिक कृतियों की रचना की गई। इस काल में होली, दीपावली एवं दशहरा जैसे विभिन्न हिन्दू त्योहार भी हिन्दू एवं मुसलमान दोनों धर्म के लोगों द्वारा पूरे उत्साह से मनाए जाते थे।

17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मुगल साम्राज्य

उत्तराधिकार के युद्ध में विजयी होने के उपरांत शाहजहां के पुत्र औरंगजेब ने 1658 में स्वयं को सुल्तान घोषित कर दिया तथा ‘आलमगीर‘ (विश्व विजेता) की उपाधि के साथ गद्दी पर बैठा। विजय की नीतियों के आधार पर औरंगजेब के सम्पूर्ण शासनकाल को 25 वर्षों के लगभग दो समान भागों में विभक्त किया जा सकता हैः पहला 1658 से 1681 तक, जब उसने अपना सम्पूर्ण ध्यान उत्तर भारत पर केन्द्रित किया। दूसरा चरण 1682 से 1707 तक था जब उसने दक्कन की ओर ध्यान दिया। प्रथम चरण के दौरान उसने 1661 में कूच बिहार पर अधिकार कर लिया, गुवाहाटी समेत असम के कई क्षेत्र, बंगाल में चटगांव एवं उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र के कई विद्रोहों का दमन।
औरंगजेब ने अपने जीवन के अंतिम 25 वर्ष दक्कन में बिताए। यहां उसने मराठों, बीजापुर एवं गोलकुण्डा के दमन का प्रयास किया। बीजापुर के विरुद्ध तीन बार अभियान भेजने के उपरांत औरंगजेब ने स्वयं आक्रमण का नेतृत्व संभाला तथा 1686 में बीजापुर पर अधिकार कर लिया। बीजापुर के पतनोपरांत औरंगजेब ने गोलकुण्डा को निशाना बनाया तथा एक कड़े संघर्ष के बाद दुर्ग पर अधिकार कर लिया। किंतु दक्कन में मराठा शक्ति के दमन में औरंगजेब को नाकों चने चबाने पड़े। शिवाजी के योग्य नेतृत्व में मराठों ने अत्यधिक शक्ति प्राप्त कर ली तथा कोंकण, कल्याण, कोल्हापुर एवं माहौली जैसे अनेक क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। शिवाजी ने दक्कन के मुगल गवर्नर को भी शिकस्त दी। औरंगजेब द्वारा मराठों के विरुद्ध लंबा अभियान चलाने के उपरांत उसे मराठों के कई क्षेत्रों एवं दुर्गों को तो छीनने में सफलता अवश्य मिल गई। किंतु वह मराठा शक्ति को पूर्णतया समाप्त नहीं कर सका। औरंगजेब की दक्षिण नीति उसके लिए अत्यंत विनाशकारी सिद्ध हुई। लंबे समय तक उत्तर भारत से अनुपस्थित रहने के कारण प्रशासन में अव्यवस्था फैल गयी तथा उसके विरुद्ध बहुत से विद्रोही उठ खड़े हुए। लंबे दक्षिणी अभियान के कारण राजकोष खाली हो गया एवं दक्कन में भी उसे उद्देश्यों में पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। औरंगजेब ने अपने पूर्ववर्ती शासकों की राजपूतों के प्रति मित्रता की नीति का भी परित्याग कर दिया तथा उनके दमन की नीति पर उतर आया। उसने मारवाड़ पर अधिकार कर लिया तथा उनका भी दमन किया। उसने मारवाड़ पर अधिकार कर लिया तथा मेवाड़ के विरुद्ध एक लंबे संघर्ष का सूत्रपात किया। औरंगजेब की इस नीति से मुगल-राजपूत संबंधों में कटुता आ गयी तथा इसके परिणाम साम्राज्य की एकता के लिए अत्यंत घातक सिद्ध हुए।
औरंगजेब की मृत्यु 1707 में हुई। उसके शासनकाल के दौरान, मुगल साम्राज्य विस्तार की पराकाष्ठा पर पहुंच गया। उसका विशाल साम्राज्य उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में जिंजी तक तथा पूर्व में चटगांव से पश्चिम में हिन्दूकुश तक फैला था। ठीक इसी समय, एक ही केंद्र तथा एक ही व्यक्ति द्वारा शासित होने की दृष्टि से मुगल साम्राज्य अत्यंत विशाल हो चुका था। विभिन्न स्थानों पर विद्रोह हो रहे थे तथा उत्तरी एवं केंद्रीय भारत में कानूनी अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो चुकी थी। प्रशासन भ्रष्ट हो चुका था तथा अंतहीन दक्कन अभियान के कारण राजकोष पूर्णतया रिक्त हो चुका था। औरंगजेब की धार्मिक असहिष्णुता की नीति भी मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। उसने हिन्दुओं के प्रति विद्वेष की नीति अपनायी तथा हिन्दुओं की स्थिति अपने साम्राज्य में दोयम दर्जे की कर दी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *