निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत क्या है , कर्म सिद्धान्त अथवा निष्काम कर्म The idea of Nishkama Karma in hindi
The idea of Nishkama Karma in hindi निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत क्या है , कर्म सिद्धान्त अथवा निष्काम कर्म के बारे में जानकारी दीजिये ?
पुरुषार्थ (Purusharthas)
भारतीय विचारक की मंशा परम सत्य के ज्ञान तक ही सीमित नहीं रही है बल्कि वे इसकी उपलब्धि में भी विश्वास व्यक्त करते हैं, अर्थात् आत्मसाक्षात्कार ही इन विचारकों का केन्द्रीय विषय रहा है। भारतीय दृष्टिकोण समन्वयवादी है। जीवन की सभी आवश्यकताओं से इसका संबंध रहता है। यही कारण है कि भारतीय विचारकों ने ऐसे चार आदर्श (पुरुषार्थ) बताए हैं जो मनुष्य के इहलोक और परलोक दोनों के प्रधान लक्ष्य बन जाते हैं। इन्हीं चारों आदर्शों से प्रेरित होकर ही मनुष्य के सभी कार्य-व्यापार होते हैं। चार पुरुषार्थ ये हैं- धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष।
मनुष्य एक सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक एवं बौद्धिक प्राणी है। उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। उत्तम जीवन की उपलब्धि हेतु इन्हीं चार आदर्श कर्मों के लिए प्रयत्न करना पड़ता है।
धर्म का अर्थ धारण करने योग्य कर्म है। धर्म से यहां मनुष्य के उन सभी कर्तव्यों का बोध होता है जिन्हें शास्त्रों ने सभी मानवीय क्षेत्रों को ध्यान में रखकर निर्धारित किया है। अर्थ, धन या संपत्ति जीवन के लिए आवश्यक हैं क्योंकि यह मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। काम मनुष्य के इंद्रियजन्य सुख और मानसिक सुख की तृप्ति के लिए आवश्यक है और मोक्ष मानव का अंतिम लक्ष्य है जिसमें व्यक्ति सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
धर्म (Religion)
धर्म शब्द की उत्पत्ति ‘धि‘ धातु से हुई है जिसका अर्थ है धारण करना। अतः धर्म की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि जो समाज को धारण करे वह धर्म है। धर्म की इस परिभाषा का वास्तविक निहितार्थ यह है कि धर्म मनुष्य का वह स्वभाव है जो संपूर्ण मानव-समाज को परस्पर संगठित रखता है। इस दृष्टि से धर्म को सामाजिक एकता अथवा संगठन की शक्ति के रूप में देखा जाता है। धर्म के बारे में यह भी कहा जाता है कि यह वह कर्म है जो मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति तथा उसके कल्याण में सहायक हो। अतः धर्म के अन्तर्गत व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों पक्षों को समुचित महत्व दिया गया है। भारतीय दर्शन में धर्म का अर्थ नैतिकता से भिन्न नहीं है। अतः धर्म को एक जीवन पद्धति के रूप में भी स्वीकार किया गया है। यह एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसके अनुसार मनुष्य अपना जीवन व्यतीत करता है और जिसमें नैतिक आचरण युक्त जीवन शैली सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। चारों पुरुषार्थ में धर्म का उल्लेख सबसे पहले आता है। इसे इस कारण प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि मनुष्य के सभी कर्मों का सामंजस्य नैतिक नियमों व मान्यताओं से होना आवश्यक है। पुनः धर्म मानव जाति की विलक्षण विशेषता है जो इसे अन्य प्राणियों से अलग करता है। मनुष्य एक बौद्धिक एवं आध्यात्मिक प्राणी है। वह भूख, प्यास, सुरक्षा तथा लैंगिक सुख से संतुष्ट नहीं रह पाता क्योंकि ये सब शारीरिक आवश्यकताएं हैं। परन्तु मनुष्य की आवश्यकताएं नैतिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक भी है और इनकी तुष्टि के लिए धर्म अपरिहार्य है।
कर्म सिद्धान्त अथवा निष्काम कर्म (The idea of Nishkama Karma)
गीता हिन्दुओं का सबसे लोकप्रिय धर्म ग्रंथ है और इसका प्रभाव भी जनमानस पर सबसे अधिक दिखाई पड़ता है। यह हिन्दू दर्शन के सभी महत्वपूर्ण पक्षों का सुन्दर विवरण प्रस्तुत करता है। भारत के सभी महान चिन्तकों यथा-शंकराचार्य, रामानुज, माधव, ज्ञानेश्वर आदि ने गीता पर भाष्य लिखे हैं। लोकमान्य तिलक एवं स्वयं महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं ने भी गीता से प्रेरणा ग्रहण की। गीता के अधिकांश उपदेश उपनिषदों से लिए गए हैं। यही नहीं गीता में सांख्य, योग आदि दार्शनिक सम्प्रदायों के मौलिक विचारों का भी संश्लेषण किया गया है।
गीता में निष्काम कर्म की शिक्षा दी गई है। निष्काम कर्म से अभिप्राय यह है कि फल सदैव हमारी कामना के अनुकूल नहीं होता, क्योंकि कर्मफल पर हमारा कोई अधिकार नहीं रहता। इसलिए हमें कर्म को कर्तव्य की भावना से करना चाहिए, न कि कर्मफल की भावना से। इसी को निष्काम कर्म कहते हैं। कामनाओं से प्रेरित होकर कर्म करने से या फल की आशा रखकर कर्म करने से व्यक्ति बंधन में फंसता है। किन्तु निष्काम कर्म करने से मोक्ष मिलता है, इसलिए व्यक्ति को कर्म बिना फल की आशा रखे करना चाहिए। चूंकि कर्मफल पर कर्ता का अधिकार नहीं है, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह मानसिक संतुलन रखकर स्वस्थ रूप से कर्म करे।
गीता के अनुसार आत्मा स्वभावतः कत्र्ता नहीं है। अज्ञानवश वह अपने को कर्म करने वाला समझ लेती है। वस्तुतः पुरुष प्रकृति से भिन्न है। अतः सांसारिक बंधन से मुक्त होने का उपाय यह है कि व्यक्ति ईश्वर को विश्व का संचालक मानते हुए अपने स्वरूप को अच्छी तरह समझते हुए तथा प्रकृति से अपने को भिन्न मानते हुए कर्म करता रहे। इस प्रकार, निष्काम कर्म करने वाला व्यक्ति संसार में रहते हुए भी सांसारिकता से परे रहता है। अपने समस्त कर्मों तथा उनके परिणामों को ईश्वर में अर्पित कर आशारहित और ममतारहित होकर अनासक्त भाव से कर्म करना ही निष्काम कर्म है।
गीता न तो संन्यास की शिक्षा देता है और न ही भोगवाद की। यह दोनों के बीच उचित समन्वय स्थापित करता है। साथ ही निष्काम कर्म के द्वारा गीता प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच भी समन्वय स्थापित करता है। यह मध्यम मार्ग का अनुसरण करता है। मानवीय इच्छाओं को संतुष्टि के लिए गीता आत्मसंयम और नियंत्रित व्यवहार की अनुशंसा करता है। वस्तुतः गीता का उद्देश्य व्यक्ति और समाज का महत्तम कल्याण है जो निष्काम कर्म द्वारा ही संभव है।
बौद्ध नीतिशास्त्र (Buddhist Ethics)
बौद्ध दर्शन में नैतिकता का अभिप्राय है करुणा और मानवतावाद। बुद्धि की शिक्षा वस्तुतः प्रेम की शिक्षा से संबंधित है। बौद्ध नीतिशास्त्र में सभी प्राणियों के प्रति सच्चे प्रेम की बात की गई है।
बौद्ध दर्शन में कहा गया है कि सर्वप्रथम मनुष्य को जानना चाहिए कि इस जगत में सभी प्राणी दुःख का अनुभव करते हैं एवं इस दुःख का कारण क्या है। साथ ही बुद्ध का यह भी कहना है कि संसार में व्याप्त इस दुख का निरोध या विनाश संभव है। इसी आशा के साथ बौद्ध दर्शन में दुःख निरोध के उपायों का वर्णन किया है और पांच आर्य सत्यों की व्याख्या की है जो व्यक्ति के नैतिक आचरण का आधार होना चाहिए। पांच आर्य सत्य बौद्ध दर्शन में आचरण पद्धति हैं। इन आर्य सत्यों को संवेदनशीलता एवं ईमानदारी के साथ ग्रहण कर व्यक्ति अपने जीवन को नैतिक बना सकता है जिससे मानव के सभी दुखों का निवारण संभव हो पांच ‘सत्य‘ किसी व्यक्ति के लिए सभी परिस्थितियों में ग्रहण है। इनके व्यावहारिक लाभ हैं। पांच आर्य सत्य हैं
प्राणियों पर हिंसा न करनाः यह बौद्ध दर्शन का मौलिक सिद्धान्त है जिसमें बाकी चारों आर्य सत्य सन्निहित हैं। इस आर्य सत्य का अर्थ यह है कि किसी भी सजीव प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए तथा सभी के प्रति प्रेमभाव रखना चाहिए।
कुछ भी ग्रहण न करना: तात्पर्य यह है कि चोरी करना वर्जित है, क्योंकि उसका अर्थ है दूसरों को नुकसान पहुंचाना। यही नहीं, बल्कि दूसरों से किसी प्रकार लाभ उठाना भी अनुचित है। इस सत्य के मूल में यह है कि व्यक्ति को उदार होना चाहिए।
ब्रह्मचर्य: तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को शारीरिक संबंधों में पवित्रता बरतनी चाहिए।
झूठ न बोलना: व्यक्ति को सत्य वचन बोलना चाहिए व झूठ से परहेज करना चाहिए। नैतिक जीवन के लिए यह अति आवश्यक है।
मादक द्रव्यों का त्याग: तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को सजग रहकर पवित्र जीवन जीना चाहिए। मादक द्रव्यों के सेवन से व्यक्ति नैतिक जीवन से भटक जाता है। अतः व्यक्ति को अपने प्रयास से मन की पवित्रता के लिए सजग प्रयास करना चाहिए।
जैन नीतिशास्त्र
जैन नीतिशास्त्र में मोक्ष को विशेष रूप से प्राथमिकता दी गई है। इसलिए इसकी प्रकृति धार्मिक है। जैन नीतिशास्त्र जीवन के हर पक्ष में आध्यात्मिकता पर जोर देता है ताकि व्यक्ति को मोक्ष मिल सके। अतः जैन दार्शनिकों ने भी आचार नीति को बहुत महत्वपूर्ण स्थान दिया है।
जैन दर्शन के अनुसार, जीव के बंधन का मूल कारण उसके कर्म हैं जो उसमें प्रवेश करके उसके समस्त स्वाभाविक गुणों को आवृत कर लेता है। शरीर की इच्छा के फलस्वरूप जीव का भौतिक कर्मों के साथ संयोग होता है, जो उसे बंधन में डाल देता है और बंधन का अर्थ है इस संसार में बार-बार जन्म लेना तथा दुख भोगना। जीव को सांसारिक बंधन और इससे उत्पन्न दुखों से तभी मुक्ति प्राप्त हो सकती है जब वह इन कर्मों के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त हो जाए।
मुक्त होने के लिए व्यक्ति को निरन्तर नैतिक प्रयास करना पड़ता है। जैन दार्शनिक पंचमहाव्रत को ही सम्यक चरित्र के लिए पर्याप्त मानते हैं। पंचमहाव्रत ये हैं-
ऽ अहिंसा (Non-Violence)
ऽ सत्य (Truth)
ऽ अस्तेय (Non-Stealing)
ऽ ब्रह्मचर्य (Celibecy)
ऽ अपरिग्रह (Non-Possession)
यहां अहिंसा का अर्थ है जीव की हिंसा का वर्जन क्योंकि सभी जीव समान हैं और उनके प्रति अहिंसा का पालन मन, वचन और कर्म तीनों से होना चाहिए। सत्य से तात्पर्य है मिथ्या वचन का त्याग जिसके लिए मनुष्य को लोभ, डर और क्रोध से दूर रहना आवश्यक है। अस्तेय का अर्थ है चोर वृत्ति का वर्जन और मन में भी इस प्रकार का भाव लाना वर्जित है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है वासनाओं का परित्याग। यह परित्याग मात्र शारीरिक नहीं है, अपितु मन और वचन से भी करना आवश्यक है। अपरिग्रह का अर्थ है विषयासक्ति का परित्याग अर्थात् उन सभी विषयों का परित्याग जिससे इन्द्रिय सुख की उत्पत्ति होती है।
जैन दर्शन में नैतिक आचरण के पालन के लिए कहीं भी ईश्वर की चर्चा नहीं है। साथ ही जैन दर्शन के अनुसार नैतिक आचरण इसलिए भी नहीं है क्योंकि ईश्वर की ऐसी इच्छा है और न ही नैतिकता का पालन इसलिए करना चाहिए क्योंकि मानवता, परोपकार तथा जनकल्याण के लिए ऐसा करना आवश्यक है। जैन दर्शन में नैतिक आचरण का मूल उद्देश्य है ‘स्व‘ के लिए मोक्ष की प्राप्ति जो नैतिक स्वार्थवाद पर आधारित है।
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