मौर्योत्तर काल का इतिहास क्या है ? मौर्योत्तर काल में विदेशी आक्रमण कालीन भारत के महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर
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मौर्य साम्राज्य
321 ईसा पूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य ने मगध से नंदों के अत्याचारपूर्ण शासन को उखाड़ फेंका तथा मगध में एक नए राजवंश, मौर्य राजवंश का शासन स्थापित किया। बौद्ध परंपराओं के अनुसार, चंद्रगुप्त मौर्य, मोरिय क्षत्रिय वंश से संबंधित था, जो उत्तर प्रदेश के गोरखपुर क्षेत्र में निवास करते थे। यह मत मौर्य वंश की उत्पत्ति का सबसे स्वीकार्य मत है। नंदों को पराजित करने के उपरांत चंद्रगुप्त मौर्य ने भारत के एक विशाल भू-क्षेत्र को अपने अधीन कर लिया। यूनान के सैल्यूसिड वंश के विरुद्ध अपने अभियान में भी उसने प्रशंसनीय सफलता अर्जित की। चंद्रगुप्त द्वारा स्थापित साम्राज्य में बिहार, बंगाल एवं उड़ीसा (वर्तमान में ओडिशा) का बड़ा भूभाग तथा पश्चिमी एवं उत्तर पश्चिमी भारत का एक बड़ा भू-क्षेत्र सम्मिलित था।
अशोक मौर्य साम्राज्य का एक महान शासक था, जो 273 ईसा पूर्व गद्दी पर बैठा तथा उसने लगभग 36-37 वर्षों तक शासन किया। प्रारंभ में उसने अपने वंश के पूर्ववर्ती शासकों की आक्रामक साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया। उसका साम्राज्य विशाल था। अशोक के अभिलेखों के आधार पर उसके साम्राज्य की सीमाओं का ज्ञान होता है। ऐसा माना जाता है कि उसका साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में कंबोज तथा गंधार से गोदावरी-कृष्णा नदी घाटी में आंध्र देश तक तथा मैसूर के उत्तर में इसिला जिला (अहार) तक था। इसमें बम्बई के समीप, सोपारा (महाराष्ट्र) तथा पश्चिम में गिरनार (सौराष्ट्र क्षेत्र, गुजरात) तथा पूर्व में जोगदा (पूर्वी तट के समीप) सम्मिलित थे। राजतरंगिणी के अनुसार, यहां तक कि कश्मीर भी मौर्य साम्राज्य का अंग था। मौर्य साम्राज्य का विस्तार दक्षिण में वर्तमान के कर्नाटक तक, तेलंगाना के कुछ अंग, आंध्र प्रदेश तथा महाराष्ट्र तक भी था। सिद्धपुर ब्रह्मगिरि, मैसूर में जटिंग रामेश्वर की पहाड़ियों से प्राप्त अशोक के शिलालेख, साथ-ही-साथ कुर्नूल जिले में गाविनाथ तथा पाल्कीगुन्ड के शिलालेख, मास्की के शिलालेख तथा यरागुण्डी के शिलालेख इस बात की पुष्टि करते हैं। यद्यपि बहुत से विद्वानों का मत है कि दक्षिण में मौर्य साम्राज्य का विस्तार चंद्रगुप्त के कार्यों से हुआ था न कि अशोक के।
अशोक के जीवन की एक प्रारंभिक घटना, जिसने उसका हृदय परिवर्तन कर दिया, कलिंग का युद्ध था। अनुमानतः यह युद्ध 260 ईसा पूर्व में हुआ था। यह एक अत्यंत भीषण एवं रक्तरंजित युद्ध था, जिसके हृदय विदारक दृश्यों ने अशोक का हृदय परिवर्तन कर दिया। वह बौद्ध बन गया तथा उसने भेरीघोष की जगह धम्मघोष को अपना लिया। इसके उपरांत समाज एवं जीवन के प्रति उसने अहिंसा के मार्ग का अनुसरण किया। उसने धम्म नीति अपना ली, जो सरल सामाजिक नियमों की एक उदार संहिता थी। अशोक ने प्रजा के नैतिक आचरण की देखभाल तथा बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु धम्म महामात्तों की नियुक्ति की। यद्यपि वे किस सीमा तक सफल हुए, यह ज्ञात नहीं है। किंतु अशोक के अभिलेख उसके धर्म एवं प्रशासन संबंधी अनेक तथ्यों की सूचना देते हैं। वह प्रजा को अपने नैतिक आचरण का उत्थान करने, अहिंसा का मार्ग अपनाने, धर्म विरुद्ध आचरण नहीं करने तथा दयालुता एवं परोपकार का मार्ग अपनाने का संदेश देता है।
अपने विशाल साम्राज्य एवं अतुलनीय शक्ति के बावजूद मौर्य साम्राज्य अशोक की मृत्यु के उपरांत 50 वर्षों में ही धराशायी हो गया। मौर्य साम्राज्य की संरचना इस प्रकार थी, कि उसमें एक शक्तिशाली शासक की महती आवश्यकता थी, जो सम्पूर्ण शासन एवं राजकीय पदाधिकारियों को अपने नियंत्रण में रख सके। लेकिन अशोक के दुर्बल उत्तराधिकारी यह कार्य नहीं कर सके। साथ ही अशोक की धम्म नीति भी किसी हद तक मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी रही। इसके लिए अशोक जैसा शासक ही उपयुक्त हो सकता था किंतु उसके दुर्बल उत्तराधिकारी यह कार्य नहीं कर सके। अशोक के उपरांत उत्तरवर्ती मौर्य शासकों के समय प्रांतीय पदाधिकारियों ने विद्रोह किए, समुचित संपर्क व्यवस्था का अभाव हो गया तथा साम्राज्य के संसाधनों में कमी आ गई। इन सभी कारकों ने मिलकर भारत के पहले विशाल साम्राज्य के पतन को सुनिश्चित बना दिया।
मौर्योत्तर काल
मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ ही भारत में कुछ समय के लिए राजनीतिक शून्यता की स्थिति उत्पन्न हो गयी। उत्तर भारत, पूर्वी भारत, मध्य भारत एवं दक्कन में शुंग, कण्व एवं सातवाहन जैसे क्षेत्रीय राजवंशों ने मौर्य शासकों के उत्तराधिकारियों का स्थान ले लिया। शुंग ब्राह्मण थे, जो मौर्यों के अधीन राजकीय अधिकारी थे तथा संभवतः पश्चिमी भारत के उज्जैन क्षेत्र से संबंधित थे। शुंग वंश की स्थापना पुष्यमित्र शुंग ने की थी, जिसने अंतिम मौर्य सम्राट ब्रहद्रथ की हत्या कर दी थी। मौर्यों में उत्तर-पश्चिम में यूनानियों के विरुद्ध, उत्तरी दक्कन में विद्रोहियों के विरुद्ध एवं दक्षिण पूर्व में कलिंग के शासक के विरुद्ध युद्ध किया था। पुष्यमित्र शुंग 36 वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन के उपरांत मृत्यु को प्राप्त हुआ तथा उसका पुत्र अग्निमित्र उसका उत्तराधिकारी बना। यही अग्निमित्र कालिदास के ग्रंथ श्मालविकाग्निमित्रश् का नायक है। यद्यपि शुंग शासक ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे, किंतु उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। उनके शासनकाल में ही भरहुत के स्तूप का निर्माण हुआ तथा अशोक के समय निर्मित सांची के स्तूप में चार द्वारों का निर्माण कर उसे वृहद बनाया गया। शुंग शासक भागभद्र के समय तक्षशिला के एक यवन हेलियोडोरस ने वासुदेव के सम्मान में विदिशा के समीप बेसनगर (भिलसा) में गरुड़-स्तंभ का निर्माण कराया। यह यवन नरेश एन्टियालकीड्स का राजदूत था। इस अभिलेख में ब्राह्मी लिपि में संदेश उत्कीर्ण हैं।
समय के चक्र के साथ ही शुंगों का शासन केवल मगध एवं मध्य भारत के कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया। इन्हें कण्वों ने सत्ता से उखाड़ फेंका, जो स्वयं शुंगों के अधीन थे। संभवतः कण्वों ने केवल मगध पर ही नियंत्रण स्थापित करने में सफलता पाई। इस वंश ने लगभग 45 वर्षों तक शासन किया तथा इनके पश्चात् मगध पर आंध्रों का अधिकार हो गया।
आंध्र, सातवाहन शासकों के रूप में प्रसिद्ध हुए। इन्होंने लगभग 400 वर्षों तक शासन किया। पहली सहशताब्दी ई.पू. के उत्तरार्द्ध में, सातवाहन दक्कन में निवास करने वाले उन समुदायों में से एक थे, जो लोहे के प्रयोग से परिचित थे। सातवाहनों के प्रारंभिक अभिलेख प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के हैं, जब उन्होंने स्वयं को मध्य भारत (पैठन या प्रतिष्ठान के समीप का क्षेत्र) के क्षेत्रों में स्थापित किया। इन्होंने सर्वप्रथम उत्तरी एवं दक्षिणी महाराष्ट्र, पूर्वी एवं पश्चिमी मालवा तथा आधुनिक मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के क्षेत्रों को जीता। सबसे प्रसिद्ध सातवाहन शासक यज्ञश्री शातकर्णी था, जिसने 165 से 194 ईस्वी तक शासन किया। इससे पूर्व गौतमीपुत्र शातकर्णी सातवाहनों का महान सम्राट था, जिसने संभवतः 106 से 130 ई. तक शासन किया था। गौतमीपुत्र शातकर्णी ने अपने उपनिवेशों के साम्राज्य के बड़े हिस्से पर आधिपत्य जमा लिया जिसमें नर्मदा घाटी, सौराष्ट्र, उत्तरी महाराष्ट्र, कोंकण, मालवा तथा पश्चिमी राजपुताना सम्मिलित थे। सातवाहनों ने मौर्य शासकों के आदर्श पर ही अपने प्रशासन का संगठन किया। शासन का स्वरूप राजतंत्रात्मक था, स्थानीय शासन का भार शासकीय अधिकारियों के कंधों पर डाल दिया गया था। श्रेणी या गिल्ड सातवाहन युग की सामान्य विशेषता थी। साम्राज्य चावल एवं कपास के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था। सातवाहन शासकों ने बौद्ध एवं ब्राह्मण दोनों धर्मों को तथा प्राकृत को संरक्षण दिया। किंतु लंबे युद्धों एवं अनुचित नीतियों के कारण सातवाहन साम्राज्य का विघटन हो गया तथा इसकी नींव पर पांच क्षेत्रीय शासक वंशों का उदय हुआ। अभीरों ने नासिक के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया, इक्ष्वाकुओं ने कृष्णा-गुंटूर क्षेत्र को जीत लिया, दक्षिण-पश्चिम भाग पर शातकर्णी वंश का शासन स्थापित हो गया तथा दक्षिण-पूर्व पर पल्लवों ने अधिकार कर लिया।
दक्षिण भारत के प्रारंभिक इतिहास के विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। दक्षिण भारत के संबंध में प्रारंभिक जानकारी यात्रियों के विवरणों एवं अशोक के अभिलेखों से ही प्राप्त होती है। यद्यपि ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में रचित संगम साहित्य, जिसमें गीति-काव्य, रमणीय काव्य तथा गीत सम्मिलित हैं, चोल, चेर तथा पांड्या राजवंशों का उल्लेख करता है। प्रथम शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ से तृतीय शताब्दी ईस्वी तक चोल प्रमुख राजनीतिक शक्ति थी। बाद में पांण्ड्य एवं चेरों ने शासन किया।
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