भूपटल पर सबसे मूल्यवान संसाधन क्या होता है ? most valuable resource on earth in hindi
most valuable resource on earth in hindi भूपटल पर सबसे मूल्यवान संसाधन क्या होता है ?
महत्वपूर्ण प्रश्न
दीर्धउत्तरीय प्रश्न
1. भू-आकृति विज्ञान का मानवीय क्रियाओं से संबंध को स्पष्ट कीजिए।
लघुउत्तरी प्रश्न
1. भू-आकृति विज्ञान से आप क्या समझते हो?
2. भू-आकृति विज्ञान का परिवहन से संबंध को स्पष्ट कीजिए।
3. भू-आकृति विज्ञान का भूमि उपयोग से संबंध स्पष्ट कीजिए।
4. भू-आकृति विज्ञान का खनन से संबंध स्पष्ट कीजिए।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. पृथ्वी के विभिन्न भागों में समस्याओं के निवारण, पर्यावरण संरक्षण, भू-संसाधनों का अनुकूलता उपयोग करने के लिए भू-आकृतिक सिद्धान्तों एवं तकनीकों का उपयोग होता है उसे-
(अ) विज्ञान (ब) व्यवहारिकी भू-आकृति
(स) वैज्ञानिक युग (द) भौतिक विज्ञान
2. भारत में भू-आकृति विज्ञान पर कार्य करने वाले-
(अ) आर.एल. सिंह (ब) बी.के. अस्थाना (स) सुरेन्द्र सिंह (द) उपरोक्त सभी
3. इनमें से किस क्षेत्र में भू-आकृति विज्ञान का महत्व होता है-
(अ) खनन क्षेत्र (ब) उद्योग (स) जल परिवहन (द) लघु उद्योग
4. भू-पटल पर सबसे मूल्यवान संसाधन
(अ) वायु (ब) मिट्टी (स) कृषि (द) इनमें से कोई नहीं
उत्तरः 1. (ब), 2. (द), 3. (अ), 4. (ब)
भू-आकृति विज्ञान एवं परिवहन
आधुनिक सभ्यता में परिवहन मार्ग मानव विकास के लिये रक्त धमनियों की तरह कार्य करते हैं। इन मागों के निर्माण में भ-आकति विज्ञान का व्यावहारिक उपयोग अत्यन्त आवश्यक होता है। सड़क, रेल एवं जलमार्गों की स्थिति व विकास भू-आकृति के आधार पर ही होता है।
धरातल की संरचना, उसकी ऊँचाई आदि विशेषताओं का परिवहन मार्गों के विकास पर सीधा नियन्त्र होता है। पहाड़ी व मरुस्थलीय क्षेत्रों में रेल परिवहन का विकास संभव नहीं है। यहाँ सड़क मार्ग ही प्रमुख होता है। सड़कों का निर्माण पहाड़ी क्षेत्रों में ढाल की तीव्रता के आधार पर घुमावदार करना पड़ता है। मरुस्थलों में सड़क को धरातल से ऊपर उठाकर बनाया जाता है जबकि मैदानी व पठारी क्षेत्रों में सड़कें न्यूनतम दरी के आधार पर बनायी जाती हैं। रेलों का विकास मैदानों व पठारों में अधिक होता है। परिवहन मार्गों के मध्य में आने वाले अवरोधों को दूर करने के लिये कहीं सुरंग बनानी पड़ती है तो कहीं पुल। इनका निर्माण क्षेत्र की भू-आकृति का सम्पूर्ण अध्ययन के उपरान्त ही किया जा सकता है। सड़क निर्माण क्षेत्र में परिहिमानी क्षेत्रों में परमा फ्रास्ट की स्थिति अत्यधिक खतरनाक होती है। धरातल के नीचे का भाग वर्षों तक जमा रहता है व ठोस नजर आता है, परन्तु सतह से वनस्पति के कटने व ऊपरी भाग में खुदाई से सूर्यताप अन्दर की तहों तक पहुंचता है, जिससे आन्तरिक धरातल खुल जाता है व सतह परमाफ्रास्ट के ऊपर ध्वस्त हो जाती है। यह पहले पता नहीं चलता कुछ समय पश्चात् यह स्थिति उत्पन्न होती है। ट्रांस साइबेरियन रेल मार्ग में यह समस्या कई बार उत्पन्न हुई । तब धरातल का गहन अध्ययन पुनः किया गया, (परिहिमानी भू आकारकीय) (Preglacial geomorphology) नामक शाखा का विकास किया गया। इस प्रकार सड़क रेलमार्गों के निर्माण में भू-आकृति का विशेष सहयोग आवश्यक है।
कनाडा के उत्तरी भागों में सड़कों के विकास के लिये धरातल का अध्ययन किया जा रहा है। इसमें भू-आकृति विज्ञान ही सहायता पहुँचाता है। चूना प्रदेशों की स्थिति पूर्णतः भिन्न होती है। ऐसे प्रदेशों में भी धरातल के ध्वस्त हो जाने की संभावना बनी रहती है। अतः रेलों व सड़कों के निर्माण से पूर्व चट्टानों के प्रकार, उनकी मोटाई स्थिति एवं जलवायु के प्रभाव का मूल्यांकन अत्यंत आवश्यक है। भूगर्भिका जल की स्थिति का पूर्ण ज्ञान आवश्यक होता है। उस क्षेत्र के आकारजनक मानचित्र (Morphological Maps) इस कार्य के लिये आवश्यक होते हैं।
पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण ढाल विश्लेषण के बाद ही किया जा सकता है। जलवायु ,वर्षा व भूमि की बनावट के आधार पर भूस्खलन व मृदा प्रवाह की संभावना एवं इनसे उत्पन्न समस्याओं के निदान में भू-आकृति विज्ञान के ज्ञान से मदद ली जाती है। न सिर्फ सड़क निर्माण, रेल निर्माण, हवाई अड्डों का निर्माण, वरन् बाँधों के निर्माण, नहरों के निर्माण में भी भू-आकारकीय महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
भू-आकृति विज्ञान एवं भूमि उपयोग
भूमि के आदर्श एवं सफल उपयोग व भूमि का सही मूल्यांकन में भू-आकृति विज्ञान का उपयाग किया जाता है। भू-आकृति विज्ञान से स्थल के वर्तमान स्वरूपा एवं भविष्य में इसके विकास के स्वरूपा का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाता है। अतः विभिन्न भू-रूपाों के गुण-दोषों का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है। इस आधार पर भूमि उपयोग की योजनाएँ बनायी जाती हैं। 1950 में आस्ट्रेलिया में सर्वप्रथम भू-आकृति विज्ञान का उपयोग आदर्शतम भूमि उपयोग के लिये किया गया। इसी प्रकार 1950 में पोलैंड ने पूरे देश के भू-आकृतिक मानचित्र (Geomorphological Mapping) बनवाये।
इसे भू-व्यवस्था (Land System) कहा जाता है। इसके अन्तर्गत धरातल के अनेक पक्षों का अध्ययन कर भूमि का वर्गीकरण किया जाता है व विवरणों की तालिका बनायी जाती है। विवरणों के आधार पर भूमि का मूल्यांकन (Land Evaluation) होता है। विवरणों में मिट्टी का विश्लेषण, ढाल विश्लेषण, चट्टानों की संरचना, भू-जल का स्तर, भू-आकृति समस्यायें – (जैसे-मृदा अपरदन, बाढ़, क्षारीय मिट्टी आदि) को उनकी संभावना व निदान को शामिल किया जाता है। यह सब भू-आकृति विज्ञान के योगदान से होता है। इसके पश्चात् यह निश्चित होता है कि भूमि का उपयोग किस प्रकार किया जाये। वर्तमान युग में योजना निर्माण (Planning) हेतु उपरोक्त ज्ञान का होना अति आवश्यक होता है।
भूमि उपयोग एवं कृषि नियोजन पर भू-आकृति विशेषताओं के प्रभाव व नियंत्रण पाया जाता है। तथा भू-आकृतिक तकनीकों व सिद्धांतों से आदर्श उपयोग संभव है। इस पर अनेक शोध हुए हैं, भारत में सुरेन्द्र सिंह, सविन्द्र सिंह, आर.के.पाण्डेय, जे.एस. भाटिया ने भूमि उपयोग पर भू-आकृति के प्रभाव, कृषि प्रादेशीकरण, ढाल अस्थिरता एवं भूमि उपयोग अपरदन एवं कृषि का संबंध आदि क्षेत्रों में शोध कार्य किये हैं। भू-आकृति के व्यावहारिक उपयोग से भूमि उपयोग व उसकी उत्पादकता के आधार पर फसलों, कृषि पद्धति, अधिवासों का निर्माण, चारागाहों की स्थिति, बाँध व नहरों का विकास किया जाता है।
बंजर, पहाड़ी भूमि का उपयोग अधिवास के लिये किया जाता है। उच्च भूमि चारागाहों के लिये प्रयोग की जाती है। केन्द्रीय स्थान बाजार-हाट के लिये प्रयोग होता है। नलकूप व कुँओं का निर्माण भूमिगत जल स्तर को ध्यान में रखकर किया जाता है।
नगरों में भूमि उपयोग में भी भू-आकृति विज्ञान से मदद मिलती है। इमारतों की ऊँचाई व घनत्व क्षेत्र की चट्टानों व जल स्तर के आधार पर तय किये जाते हैं। आवासीय व औद्योगिक क्षेत्र पर भी भूआकृति अपना नियन्त्रण व प्रभाव दिखाती है। जहाँ इसको अनदेखा किया जाता है, वहाँ अनेक समस्यायें उपस्थित होने लगती हैं। जैसे उत्तरी भारत में नदी के कछार में आवासीय क्षेत्रों के विकास से जल निकास, कमजोर नींव, मकानों का गिरना जैसी समस्यायें हमेशा बनी रहती हैं। गलत भूमि उपयोग से नगरों में पर्यावरणीय समस्यायें पैदा हो गयी हैं। मोरवी शहर के बाँध के टूटने पर हुआ विनाश गलत भूमि उपयोग का उदाहरण है।
वनों की कटाई, कृषि के गलत तरीकों, अंधाधुन्ध नगरीय विकास से भूमि कटाव, नदियों का प्रदूषण एवं अवसादीकरण, मरुस्थलों का विस्तार, उत्पादकता का ह्रास जैसी समस्याएँ, क्षेत्र की भू-आकारकी को समझे बगैर भूमि के अलाभप्रदकर उपयोग व कुप्रबन्ध से उत्पन्न होती है।
भू-आकृति विज्ञान एवं खनन
खनन क्षेत्र में भू-आकृति विज्ञान का महत्व किसी से छिपा नहीं है। भू-आकार व खनिजों के प्रकार व उपलब्धता का गहरा संबंध है। कई बार खनिजों की उपस्थिति क्षेत्र की भू-आकृति पर निर्धारित होती है, तो कभी भू-आकृति खनिज की उपलब्धता तय करती है। जैसे- स्फटिक खनिज जहाँ मिलते हैं व कटकों का निर्माण होता है, जहाँ पेट्रोलियम प्राप्त होता है, वहाँ चट्टानों की परतों का आकार अपनति जैसा होता। है। खनिजों की खोज में भू-आकृति का ज्ञान मदद करता है। क्षेत्र की आकारकीय खनन क्रिया के विकास को प्रभावित करती है। हिमालय पर्वतीय क्षेत्र की भू-आकारिकी अत्यंत विषम है। अतः वहाँ उपलब्ध खनिजों का विदोहन कठिन है, परन्तु अप्लेशियन पर्वतीय क्षेत्र की भू-आकारिकीय कोयला व पेट्रोलियम के उत्पादन में सहायक है। अतः खनिज क्षेत्रों की भू-आकारिकीय की जानकारी लाभदायक होती है।
विशेष खनिजों की विशेष चट्टानों से सम्बद्धता पायी जाती है। जैसे कायान्तरित चट्टानों में ही हीरा, संगमरमर प्राप्त होता है। आग्नेय चट्टानों से अभ्रक, लोहा, ताँबा, सोना मिलता है। अवसादी चट्टानों में कोयला व पेट्रोलियम पाया जाता है। स्थल की बाह्य आकृति अनेक बार उस क्षेत्र में मिलने वाले खनिजों से निर्धारित होती है तथा खनिजों की खोज इसी आधार पर की जाती है। यद्यपि इसका कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सका है। भारत में लौह अयस्क की खोज में भू-आकृति से मदद मिलती है। लौह क्षेत्रों की पहाड़ियों का स्वरूपा चट्टानों का प्रकार व स्थिति इस ओर इंगित करती है। इसी प्रकार अमेरिका का सुपीरियर क्षेत्र का लोहा अपनी कटक आकृति एवं क्षेत्र की मिट्टी के गुणों के आधार पर खोजा गया था। वेनेजुएला के लौह क्षेत्रों को वायु फोटोग्राफी में उनके आकार से पहचाना गया।
खनिजों का निक्षेप प्रारम्भिक अपरदन सतह के ऊपर होता है तथा अपक्षय व खनिज में गहरा संबंध पाया जाता है। कुछ लौह धातु खनिज, मृतिका खनिज, बॉक्साइट, मैगनीज तथा निकल धातुएँ अपक्षय के अवशेष के रूपा में मिलती है। अपरदन चक्र में खनिजों का अपरदन एवं स्थानान्तर होता रहता है। अन्तिम अवस्था में खनिज अवशेष जमा हो जाते हैं तथा वर्तमान व प्राचीन अपरदन सतह के ऊपर स्थित मिलते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण भारत में मिलने वाला बॉक्साइट है- बॉक्साइट चूना चट्टानों में अघुलनशील पदार्थ एलुमिना के रूपा में पाया जाता है। दूसरा एलुमिना युक्त खनिजों के अपक्षय का प्रत्यक्ष उत्पाद बॉक्साइट होता है। दोनों स्थितियों में बॉक्साइट अपक्षय के फलस्वरूपा प्राप्त होता है।
प्लेसर की पहचान में भू-आकृतिक सिद्धान्त अधिक सहायक होता है। रासायनिक अपक्षय तथा अपरदन के कारण बने अवसादों का सामूहिक रूपा से एकत्रीकरण प्लेसर का निर्माण करता है। इसमें भारी धातुओं का जमाव पाया जाता है। अतः बहुमूल्य खनिज जैसे- सोना, चाँदी आदि पाये जाते हैं। मरुस्थलों में बजाड़ा, पर्वतपदीय क्षेत्रों में जलोढ़ शंकु, पर्वतों के निक्षेप से बने बालूका स्तूप व टार्न तथा हिमोढ़ निक्षेप एक प्रकार से अवशिष्ट प्लेसर का रूपा होते हैं व अनेक जगह इनमें खनिजों के निक्षेप मिलते हैं, जैसे केलिफोर्निया, न्यूजीलैण्ड व आस्ट्रेलिया में सोना पाया जाता है। पुलिन प्लेसर में कोलोरेडो में सोना, अफ्रीका में हीरा व ब्राजील में जिरकन मिलता है।
खनिज तेल का उत्पादन भू-आकृतिक संरचना के गहन अध्ययन के पश्चात् किया जाता है। खनिज तेल का संचय विशिष्ट परिस्थितियों में होता है। वलन के कारण परतदार चट्टानों में अपनति व अभिनति का निर्माण होता है। जब चट्टानों की परतों में पारगम्य एवं अपारगम्य चट्टानें मिलती हैं, उन्हीं स्थानों पर तेल के कुएँ खोदे जाते हैं। ऐसे स्थानों पर स्थैतिक दाब के कारण तेल स्वतः प्रकट हो जाता है। अपनति में भी तेल मिलता है पर वहाँ निकालने के लिये कृत्रिम दाब बनाना पड़ता है। इस प्रकार विभिन्न खनिजों के खनन में भू-आकृति ज्ञान की विशेष आवश्यकता होती है। इसके बगैर खनिजों का निष्कासन लाभप्रद नहीं होता है।
भू-आकृति विज्ञान एवं संसाधन मूल्यांकन
मानव का विकास संसाधनों को उपलब्धता एवं उनके आदर्श उपयोग पर निर्भर करता है। जिमरमैन के अनुसार संसाधन सुरक्षा एवं समृद्धि के आधार हैं। वे शक्ति एवं सम्पत्ति की बुनियाद हैं। भू-पृष्ठ पर पाये जाने वाला कोई भी पदार्थ जो मानव की किसी आवश्यकता की पूर्ति करता है संसाधन कहलाता है। मानव खुद एक संसाधन भी है व संसाधन का निर्माता एवं उपभोक्ता भी है। भू-पृष्ठ पर जो पदार्थ प्राकृतिक रूपा से उपलब्ध है व मानव जिनका उपयोग करता है प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं तथा इनके उपयोग से मानव अपनी शक्ति, बुद्धि एवं कुशलता से अन्य उपयोगी पदार्थ बनाता है वे मानवीय संसाधन कहलात है। दोनों प्रकार के साधनों के निर्माण, उपलब्धता एवं उपयोगिता पर उस क्षेत्र की भू-आकृति का प्रभाव पड़ता है।
प्राकृतिक संसाधनों के प्रकार व उपलब्धता क्षेत्र की भू-आकृति निर्धारित करती है। जिस क्षेत्र में जैसी मिट्टी मिलेगी वहाँ उसी आधार पर कृषि होगी। यही कारण है कि असम में चाय प्रमुख फसल है, बंगाल, बिहार में चावल व पंजाब, हरियाणा में गेहूँ । छोटा नागपुर के पठार में कृषि की तुलना में खनन क्रिया व औद्योगिक क्रिया अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ देश की सबसे बड़ी खनिज सम्पदा पायी जाती है। क्षेत्र के विकास व योजना निर्माण में सबसे पहले सर्वेक्षण द्वारा संसाधनों की पहचान व वितरण का स्वरूपा ज्ञात किया जाता है। इस आधार पर उनकी उपयोगिता एवं आर्थिक मूल्य को निर्धारित किया जाता है। संसाधनों के उपयोग में लगने वाली लागत एवं उसके उपभोग से होने वाले लाभ के पारस्परिक संबंध पर संसाधनों का मूल्यांकन किया जाता है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में भू-आकृति विज्ञान सहायता करता है। क्षेत्र का मानचित्रण, विभिन्न खनिजों की मात्रा, मिट्टी के गुण व प्रकार, चट्टानों की संरचना, ढाल विश्लेषण, अपरदन अपक्षय का प्रभाव जैसे अनेक पक्षों का विचार संसाधनों के उपयोग से पूर्व करना पड़ता है। इसके साथ मानवीय क्षमता जैसे टेक्नोलॉजी, पूँजी, श्रम, परिवहन आदि की उपलब्धता का अध्ययन किया जाता है। इन दोनों पक्षों को ध्यान में रखकर संसाधनों का मूल्यांकन किया जाता है। कनाडा के कोणधारी वन साइबेरिया के कोणधारी वनों से अधिक महत्व रखते हैं।
संसाधनों के मूल्यांकन के लिये उनके गुणों पर भी ध्यान दिया जाता है। क्या वो सर्वत्र उपलब्ध हैं? क्या वो अक्षय हैं? कौन से संसाधनों का नव्यीकरण नहीं हो सकता व किसमें पुनः नव्यकरण की क्षमता है। वायु, जल, सूर्यताप सर्वव्यापी है परन्तु कई क्षेत्रों में जल क्षयशील संसाधन है एवं उसका संरक्षण आवश्यक है। इसी प्रकार वायु हर जगह मिलती है, परन्तु इसका प्रदूषण शुद्ध वायु को क्षयशील साधन बना देता है। वायुमण्डल की संरचना को मानव ने अपनी क्रियाओं से क्षतिग्रस्त कर पृथ्वी पर जीवन के लिये खतरा पैदा कर दिया है। इसी कारण वायु व जल आज अत्यधिक मूल्यवान संसाधन हैं, क्योंकि ये जीवनदायी संसाधनों में है व इन्हें प्रदूषित होने से बचाना आवश्यक है। इस विश्लेषण में भू-आकृति विज्ञान सहायता करता है। जो संसाधन सीमित मात्रा में मिलते हैं, परन्तु जिनकी माँग अधिक है उनका मूल्य बढ़ जाता है। जैसे बहुमूल्य पत्थर, सोना, चाँदी, ताँबा आदि। जिन संसाधनों की उपयोगिता बहुत ज्यादा है उनका मूल्य इनसे भी ज्यादा हो जाता है। जैसे खनिज तेल, कृषि पदार्थ, लोहा ,कोयला, उपजाऊ समतल भू-क्षेत्र आदि। कुछ संसाधन अपनी ऊर्जा शक्ति के कारण विशेष मूल्य रखते हैं। जैसे आण्विक खनिज, कोयला, पेट्रोल, जलविद्युत इत्यादि। संसाधनों के मूल्यांकन में इन तत्वों का भी ध्यान रखा जाता है। उपरोक्त गुणों को क्षेत्र की भू-आकृति प्रभावित करती है। दामोदर नदी को बंगाल का शोक कहा जाता था तथा उसकी बातें जन-धन की विशाल हानि करती थीं। परन्तु क्षेत्र की भू-आकृति को समझने के बाद दामोदर घाटी परियोजना का विकास किया गया। आज वह उस क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण संसाधन है। इस प्रकार भू-आकृति विज्ञान संसाधनों के मूल्यांकन व उपयोग में मदद करता है।
भू-पटल पर मिट्टी का आवरण सबसे मूल्यवान संसाधन है, जो सम्पूर्ण जीवन का आधार है। इसके गुण क्षेत्र की भू-आकृति पर निर्भर करते हैं। वर्तमान समय में मृदा संरक्षण सबसे बड़ी समस्या है। प्रारंभ में इसकी उपयोगिता का सही मूल्यांकन न कर अवैज्ञानिक उपयोग से अनेक समस्याओं का जन्म हुआ। वनों के नाश से मिट्टी का कटाव तथा बाढ़ों में वृद्धि व भूमि का नाश हुआ। मिट्टी बनने में लाखों वर्ष लगते हैं, परन्तु बह जाने या अनुपजाऊ होने में कुछ वर्ष ही लगते हैं। अतः इसे बचाना व उपजाऊ बनाये रखता अत्यन्त आवश्यक है। इस कार्य में भू-आकृति विज्ञान मदद करता है। भारत में चंबल व झाँसी क्षेत्र के मिट्टी संरक्षण की सभी योजनायें उस क्षेत्र की भू-आकृति के अनुसार बनायी गयी हैं।
विश्व की बढ़ती जनसंख्या के कारण संसाधनों की कमी महसूस की जाने लगी है। अतः नवीन संसाधनों की खोज एवं संरक्षण अत्यंत आवश्यक है। संसाधनों के उचित प्रबंधन की आवश्यकता है। इस कार्य में भी भू-आकृति विज्ञान सबसे बड़ा सहायक है। इसके सिद्धांतों व तकनीक के द्वारा संसाधनों के भविष्य व वर्तमान का सही मूल्यांकन किया जा सकता है तथा भविष्य की योजनायें बनायी जाती हैं।
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