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मोहिनीअट्टम नृत्य कहां का है , मोहिनीअट्टम कलाकार नाम क्या हैं किस राज्य का लोक नृत्य है mohiniyattam is the dance form of which state in hindi

mohiniyattam is the dance form of which state in hindi मोहिनीअट्टम नृत्य कहां का है , मोहिनीअट्टम कलाकार नाम क्या हैं किस राज्य का लोक नृत्य है ?

मोहिनीअट्टम
मोहिनीअट्टम या मोहिनी का नृत्य (‘मोहिनी‘ अर्थात सुन्दर नारी तथा ‘अट्टम‘ अर्थात नृत्य) वस्तुतः एक एकल नृत्य है जिसे वर्तमान में केरल राज्य में त्रावणकोर के शासकों के संरक्षण में प्रसिद्धि मिली। इसके गुमनामी में खो जाने के पश्चात्, प्रसिद्ध मलयाली कवि वी.एन. मेनन ने कल्याणी अम्मा के साथ मिल कर इसका पुनरुद्धार किया।

मोहिनीअट्टम की विशेषताओं में से कुछ निम्नलिखित हैंः
ऽ मोहिनीअट्टम में भरतनाट्यम के लालित्य तथा चारुत्य और कथकली के ओज का मेल है।
ऽ मोहिनीअट्टम में, सामान्यतः, विष्णु के नारी सुलभ नृत्य की कहानी कही जाती है।
ऽ मोहिनीअट्टम की प्रस्तुति में नृत्य के लास्य पक्ष की प्रधानता रहती है। इसलिए, मुख्यतः इसे महिला नर्तका द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
ऽ मोहिनीअट्टम में पोशाक का विशिष्ट महत्व होता है। इसमें मुख्य रूप से श्वेत तथा श्वेताभ रंगों का प्रया किया जाता है।
ऽ मोहिनीअट्टम की प्रस्तुति से वायु तत्व को निरूपित किया जाता है।
प्रसिद्ध समर्थक : सुनंदा नायर, माधुरी अम्मा, जयप्रभा मेनन, इत्यादि।

कुचिपुड़ी
मूलतः, कुस्सेल्वा के नाम से विख्यात ग्राम-ग्राम जा कर प्रस्तुति देने वाले अभिनेताओं के समूह के द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली, कुचिपुड़ी नृत्य विधा का नाम आंध्र के एक गाँव कुस्सेल्वापुरी या कुचेलापुरम् से व्युत्पन्न है।
वैष्णववाद के अभ्युदय के पश्चात, नृत्य की यह विधा पुरुष ब्राह्मणों का एकाधिकार बन कर रह गयी थी तथा इसकी प्रस्तुतिया मंदिरों में दी जाने लगीं। भागवत पुराण की कहानियां इन प्रस्तुतियों की मुख्य विषय-वस्तु बन गयीं तथा नर्तकों को भागवथालू के नाम से जाना जाने लगा। विजयनगर तथा गोलकुंडा के शासकों के संरक्षण में इस नृत्य विधा को विशिष्ट महत्व प्राप्त हुआ।
तथापि बालासरस्वती तथा रागिनी देवी द्वारा पुनर्जीवित किये जाने तक, यह ग्रामों तक ही सीमित रही तथा बीसवीं शताब्दी के आगमन तक अप्रसिद्ध बनी रही। परम्परागत रूप से पुरुषों हेतु सुरक्षित यह विधा महिला नर्तकों के लिए भी लोकप्रिय हो गयी।

कुचिपुड़ी नृत्य की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं : 
ऽ कुचिपुड़ी की अधिकाँश प्रस्तुतियां भागवत पुराण की कहानियों पर आधारित हैं, किन्तु उनका केन्द्रीय भाव पंथ-निरपेक्ष रहा है। इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है।
ऽ प्रत्येक मुख्य चरित्र ‘दारु‘ के प्रस्तुतीकरण के साथ स्वयं को मंच पर प्रविष्ट करता है, जो प्रत्येक चरित्र के उद्घाटन के उद्देश्य से विशिष्ट रूप से निर्देशित नृत्य तथा गीत की लघु रचना होती है।
ऽ कुचिपुड़ी नृत्य शैली मानव शरीर में पार्थिव तत्वों का प्रकटन होती है।
ऽ कुचिपुड़ी प्रस्तुति में, नर्तक स्वयं में ही गायक की भूमिका को भी संयोजित कर सकता/सकती है। इसलिए, यह एक नृत्य-नाटक प्रस्तुति बन जाती है।
ऽ कुचिपुड़ी नृत्य विधा में लास्य तथा तांडव दोनों ही तत्व महत्वपूर्ण होते हैं।
ऽ समूह प्रदर्शनों के अतिरिक्त, कुचिपुड़ी में कुछ लोकप्रिय एकल तत्व भी होते हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
 मंडूक शब्दम: एक मेढ़क की कहानी कहता है।
 तरंगम: नर्तक अपने करतब को एक पीतल की तश्तरी के किनारे पर पाँव रख कर तथा अपने सर पर एक जल पात्र या दियों के एक सेट को संतुलित रखते हुए प्रस्तुत करता है।
 जल चित्र नृत्यम: इस प्रदर्शन में, नर्तक/नर्तकी नृत्य करते हुए अपने पैर के अंगूठों से सतह पर चित्र खींचता/खींचती है।
ऽ कुचिपुड़ी प्रस्तुति में कर्नाटक संगीत की जुगलबंदी की जाती है, वायलिन तथा मृदंगम् इसके प्रमुख वाघ यंत्र होते हैं।

प्रसिद्ध समर्थकः राधा रेड्डी तथा राजा रेड्डी, यामिनी कृष्णमूर्ति, इंद्राणी रहमान, इत्यादि।

कथकली
केरल के मंदिरों में सामंतों के संरक्षण में नृत्य-नाट्य के दो रूपों – रामानट्टम तथा कृष्णाट्टम का विकास हुआ, जिनमें रामायण तथा महाभारत की कहानियां कही जाती थीं। बाद में ये लोक नाट्य परम्पराएं कथकली के उद्भव का स्रोत बनी जिसका नाम ‘कथा‘ अर्थात् कहानी और ‘कली‘ यानी नाटक से लिया गया।
तथापि सामंती व्यवस्था के भग्न होने के साथ-साथ, कला की एक विधा के रूप में कथकली का अवसान होने लगा। इसका पुनरुत्थान प्रसिद्ध मलयाली कवि वी.एन. मेनन के द्वारा मुकुंद राजा के संरक्षण में किया गया।

कथकली नृत्य की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैंः
ऽ अधिकाँश कथकली प्रस्तुतियां अच्छाई तथा बुराई के बीच शाश्वत संघर्ष का शानदार निरूपण होती हैं। इनकी विषय-वस्तु महाकाव्यों तथा पुराणों से ली गयी कहानियों पर आधारित होती है। इसे “पूर्व का गाथा गीत‘‘ भी कहा जाता है।
ऽ कथकली की अनोखी विशेषता है आँखों तथा भृकुटियों की गति के माध्यम से रसों का निरूपण। इस नृत्य विधा के लिए कठिन प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है।
ऽ कथकली प्रस्तुति में रंगमंचीय सामग्री का न्यूनतम प्रयोग होता है। तथापि, विभिन्न चरित्रों के लिए मुकुट के साथ-साथ चेहरे के विस्तृत श्रृंगार का प्रयोग किया जाता है। अलग-अलग रंगों का अपना पृथक् महत्व हैः
 हरा रंग कुलीनता, दिव्यता तथा सद्गुण को दर्शाता है।
 नाक के बगल में लाल धब्बे प्रभुत्व दर्शाते हैं।
 काले रंग का प्रयोग बुराई तथा दुष्टता को निरूपित करने के लिए किया जाता है।
ऽ कथकली की प्रस्तुतियां, सामान्यतः, मुक्ताकाश रंगमंचों पर या मंदिर परिसरों में मोटी चटाइयां बिना दी जाती हैं। प्रकाश के लिए एक पीतल के लैम्प का प्रयोग किया जाता है।
ऽ ढोलकों, छेडा तथा मड्डाला की सतत् ध्वनि के साथ भोर का आगमन कथकली की प्रस्तुति के आरम्भ और तथा अंत के द्योतक होते हैं।
ऽ कथकली आकाश या ईथर तत्व का प्रतीक है।
प्रसिद्ध समर्थक :  गुरु कुंछु कुरूप (राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले प्रथम कलाकार), गोपी नाथ, रीता गांगुली, इत्यादि।