स्ट्रालर का औसत ढाल वक्र (Mean Slope Curve of Strahler) फिन्स्टैरवाडर का प्रवणतादर्शी वक्र (Clinographic Curv of Finsterwalder)
प्रवणतादर्शी वक्र (Clinographic Curve) – ढाल के परिवर्तन के अध्ययन के लिये प्रवणता-दर्शी का वक्र का प्रयोग किया जाता है। इसके निर्माण के लिये दो समोच्च रेखाओं के बीच का क्षेत्रफल, कोण, ऊँचाई तथा समोच्च रेखाओं की लम्बाई की आवश्यकता पड़ती है। इन आधारों पर निम्न विद्वानों ने अपने-अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है –
(i) स्ट्रालर का औसत ढाल वक्र (Mean Slope Curve of Strahler) – इन्होंने औसत ढाल वक्र के निर्माण के लिये सर्वप्रथम दो क्रमिक समोच्च रेखाओं के बीच का क्षेत्रफल प्लेनीमीटर तथा उन समोच्च रेखाओं की लम्बाई आपिसोमीटर की सहायता से ज्ञात किया।
तत्पश्चात् क्षेत्रफल में दोनों समोच्च रेखाओं की लम्बाई के औसत से भाग देकर दो समोच्च रेखाओं के बीच की औसत चैड़ाई (Mean Inter Contour Width) ज्ञात की जाती है। पुनः समोच्च रेखा मध्यान्तर में औसत चैड़ाई से भाग देकर ढाल का टैन्जेण्ट तथा टैजेन्ट को गणितीय सारणी से देखकर ढाल का वास्तविक कोण ज्ञात किया है –
AW = A/L1़L2…./2
AW = औसत चैड़ाई, तथा
A = क्षेत्रफल
L1,L2 = दो क्रमिक समोच्च रेखाओं की लम्बाई ।
tan ∅ = CI (in feet)/AW (in feet)
CI = समोच्च रेखा मध्यान्तर
(ii) फिन्स्टैरवाडर का प्रवणतादर्शी वक्र (Clinographic Curv of Finsterwalder) – इस वक्र के निर्माण के लिये केवल समोच्च रेखाओं की लम्बाई ज्ञात करनी पड़ती है। लम्बाई ज्ञात हो जाने के बाद इनको क्षैतिज अक्ष के सहारे तथा इनकी ऊँचाई को लम्बवत अक्ष के सहारे प्रदर्शित करते है। जब रेखाओं की लम्बाई का प्रदर्शन कर चुकते हैं, तो इनके अन्तिम शिरों को एक दूसरे से मिला देते है, जिससे एक वक्र का निर्माण होता है। यह बनाने में तो बहुत ही आसान है, परन्तु इसके द्वारा घर्षित भाग की वास्तविकता का बोध नहीं हो पाता है। ऐसा इसलिए होता है कि बीच की समोच्चे रेखा इधर-उधर घूमकर चलती हैं, तो उसकी लम्बाई अधिक हो जाती है, जिससे वास्तविकता में भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है।
इसके बाद इन्होंने ‘उच्चता-प्रवणता दर्शीवक्र‘ (Hypso/Clinographic Curve) का निर्माण किया । इसके अध्ययन के लिये दो समोच्च रेखाओं के बीच का क्षेत्रफल तथा उसका संचयी क्षेत्रफल ज्ञात किया तथा दोनों समोच्च रेखाओं की लम्बाई ज्ञात कर लिया। क्षैतिज रेखा के सहारे संचयी क्षेत्रफल (क्षेत्रफल जितना होता है, उस पर लम्ब खींच देते हैं) तथा लम्बवत् अक्ष के सहारे संचयी लम्बाई (सभी रेखा की लम्बाई मध्यान्तर से प्राप्त लम्बाई को पूर्ण लम्बाई के रूप में रखा जाता है) के हिसाब से लम्बवत् अक्ष को खण्डित कर लिया जाता है। प्रत्येक समोच्च रेखा तथा क्षेत्रफल के कटान बिन्दुओं को मिलाकर वक्र का निर्माण किया जाता है। लम्बवत् तथा क्षैतिज अक्षों को यदि सीधी रेखा से मिलाया जाय, तो औसत ढाल का निर्माण होता है।
tan ∅ = [ h × L1 / A1]
h = ऊँचाई,
L1 = निचली समोच्च रेखा की लम्बाई, तथा
A1 = दो क्रमिक समोच्च रेखाओं के बीच का क्षेत्रफल
स्मेट महोदय ने इनके उच्चता-प्रवणता दर्शी वक्र का संशोधन इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
= h [L1 ़ L2 /2]
h [;L1 ़ L2 /2) ़ ;L2 ़ L3 /2)]
h [;L1 ़ L2 /2) ़ ;L2 ़ L3 /2)़ ;L3 ़ L4 /2)़……]
औसत ढाल के परिकलन के लिये निम्न फार्मूला बताया –
जंद ∅ = [ h × ;L1 ़ L2)]
अर्थात-
जंद ∅ = [(height) × (Mean length of two contours) / 2/ Inter contour area]
(iii) हानसन-लोव का प्रवणतावर्शी वक्र (Clinographic Curve of Hanson-Love)- इन्होंने समोच्च रेखाओं को सकेन्द्रीय वृत्त मानकर निम्न ढंग से प्रवणतादर्शी वक्र का निर्माण क्रिया है –
r = √a / π
जबकि r = तृज्या, तथा
a = समोच्च रेखा के ऊपर का क्षेत्रफल ।
दो समोच्च रेखाओं के बीच की औसत दूरी = rl -ru = Ad
Ad = Average distance (औसत दूरी),
1 = निचली समोच्च रेखा, तथा
u = ऊपरी समोच्च रेखा।
अब,
दो क्रमिक समोच्च रेखाओं के बीच का ढाल = tan ∅ = CI (in feet)/Ad (in feet)
Cl = समोच्च रेखा का मध्यान्तर, तथा
Ad = औसत दूरी
लम्बवत अक्ष के सहारे समोच्च रेखाओं के बीच का ढाल ऊपर से अंकित करते है। जब ढाल का कोण बहुत कम रहता है तो स्थिरांक से गुणा करके इसका प्रदर्शन करते हैं।
(iv) स्मेट का ‘औसत अन्तर समोच रेखा चैड़ाई‘ वक्र (The Curve of Average Inter widths of De Smet) – इन्होंने सर्वप्रथम दो क्रमिक समोच्च रेखाओं के मध्य की औसत चैड़ाई ज्ञात किया, जिसको क्षैतिज अक्ष के सहारे प्रदर्शित किया। ऊँचाई को लम्बवत् अक्ष के सहारे अंकित किया। दो क्रमिक समोच्च रेखाओं की चैड़ाई को दो ऊँचाइयों के मध्य अंकित करके समानान्तर रेखा खींच ली जाती है। अन्त में इन समानान्तर रेखाओं के अन्तिम शिरों को मिलाकर वक्र तैयार कर लिया है।
(v) मोसेली का हाल ऊँचाई वक्र (The Slope – Height Curve of Moseley) – इन्होने बताया कि समोच्च रेखाओं के मध्य का कोण हानसन-लोव अथया स्टालर विधि से ज्ञात कर लेना चाहिए। तत्पश्चात् दो समोच्च रेखाओं के बीच के कोण को क्षैतिज रेखा के सहारे तथा ऊँचाई को लम्बन अंकित करके ‘ढाल ऊँचाई वक्र‘ तैयार कर लिया जाता है। इस वक्र के द्वारा अपरदन किया जा सकता है।
परिच्छेदिका (Profiles)
भू-आकारिकी में किसी क्षेत्र के उच्चावच की प्रकृति, ढाल तथा अपरदन-सतहों के अध्ययन के लिये परिच्छेदिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। यदि हम किसी क्षेत्र की कई स्थानों की परिच्छेदिका एक ही आधार पर बनाते हैं, तो उस स्थान के उच्चावच तथा स्थलरूपों का विशद् विवरण प्राप्त कर सकते हैं। निम्न परिच्छेदिकाएँ हैं, जिनके द्वारा स्थलरूपों का विश्लेषण लिया जाता है-
(i) अध्यारोपित परिच्छेदिका (Superimposed profile) – किसी क्षेत्र विशेष या बेसिन के समोच्च रेखा मानचित्र में समान दूरी (1, 2, 3, तथा 4 किलोमीटर क्षेत्र के विस्तार के अनुसार) पर समानान्तर रेखायें खींच ली जाती है। इन रेखाओं की नम्बरिंग (1, 2, 3,…) कर देते हैं तथा प्रथम रेखा के सहारे कागज रखकर प्रत्येक समोच्च रेखाओं के कटाव बिन्दुओं को अंकित कर लेते हैं। पुनः उस कागज को, ग्राफ पेपर पर एक रेखा खीच कर उस पर रख देते हैं, इस कागज पर अंकित प्रत्येक बिन्दु को समोच्च रेखा के मानचित्र के मापक के अनुसार अंकित कर देते हैं (मापक को आवश्यकतानसार 5 गुना 10 गुना बढ़ा भी सकते हैं)।
इस तरह 1, 2, 3, 4….. समान्तर रेखाओं से प्राप्त मान को ग्राफ पेपर की उसी आधार रेखा पर से दूसरी, तीसरी, चैथी …. परिच्छेदिकाओं का निर्माण कर लेते हैं। इस परिच्छेदिका का प्रयोग तभी किया जाता है, जब धरातल पर उच्चावच विद्यमान हो, अन्यथा सभी समोच्च रेखायें एक दूसरे से मिल जाती हैं, परिणामस्वरूप अध्ययन दुरूह हो जाता है।
(ii) संयुक्त परिच्छेदिका (Composite Profile) – सर्वप्रथम अध्यारोपित परिच्छेदिका पेन्सिल की सहायता से तैयार कर ली जाती है, तत्पश्चात् इसके उच्चस्थ भाग को छोड़कर सभी को मिटा दिया जाता है। इस प्रकार जो परिच्छेदिका बनती है उसे संयुक्त परिच्छेदिका की संज्ञा दी जाती है।
(iii) प्रक्षेपित परिच्छेदिका (Projected Profile)- सर्वप्रथम अध्यारोपित परिच्छेदिका तैयार कर लिया जाता है इसके बाद दिखाई पड़ने वाले भाग को छोड़कर सभी को मिटा दिया जाता है। इसे पर परिच्छेदिका की संज्ञा दी जाती है। इसके द्वारा धरातल का उच्चावचन स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।
इसके अलावा निरपेक्ष ऊँचाई, सापेक्ष ऊँचाई, औसत ढाल, प्रवाह-घनत्व, प्रवाह-गठन आदि अध्ययन के लिये सम्पूर्ण क्षेत्र को वर्ग इकाइयों में बाँटकर प्रत्येक ग्रिड के मान को प्राप्त कर लेते हैं। तत्पश्चात सारणीकरण करते हैं। Isopleth map बनाकर क्षेत्रीय विभिन्नता का अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है।
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