पाली और प्राकृत भाषा का महत्व क्या है ? बुद्ध ने प्राकृत भाषा में शिक्षा क्यों दी थी विशेषता समय सीमा बताइए
बुद्ध ने प्राकृत भाषा में शिक्षा क्यों दी थी विशेषता समय सीमा बताइए पाली और प्राकृत भाषा का महत्व क्या है ?
पालि और प्राकृत में साहित्य
वैदिक युग के पश्चाभंत, पालि और प्राकृत भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं थीं। व्यापकतम दृष्टि से देखें तो प्राकृत ऐसी किसी भी भाषा को इंगित करती थी जो मानक भाषा संस्कृत से किसी रूप में निकली हो। पालि एक अप्रचलित प्राकृत है। वास्तव में, पालि विभिन्न उपभाषाओं का एक मिश्रण है। इन्हें बौद्ध और जैन मतों ने प्राचीन भारत में अपनी पवित्र भाषा के में अपनाया था। भगवान बुद्ध (500 ईसा पूर्व) ने प्रवचन देने के लिए पालि का प्रयोग किया। समस्त बौद्ध धर्म वैधानिक साहित्य पालि में हैं जिसमें त्रिपिटक शामिल है। प्रथम टोकरी विनय पिटक में बौद्ध मठवासियों के सबंधं में मठवासीय नियम शामिल हैं। दूसरी टोकरी सुत्तस पिटक में बुद्ध के भाषणों और संवादों का एक संग्रह है। तीसरी टोकरी अभिधम्म पिटक नीतिशास्त्र, मनोविज्ञान या ज्ञान के सिद्धान्त से जुड़े विभिन्न विषयों का वर्णन करती है।
जातक कथाएं गैर- धर्मवैधानिक बौद्ध साहित्य हैं जिनमें बुद्ध के पूर्व जन्मों (बोधिसत्त्व या होने वाले बुद्ध) से जुड़ी कहानियां हैं। ये कहानियां बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करती हैं तथा संस्कृत एवं पालि दोनों में उपलब्ध है। चूंकि जातक कथाओं का भारी मात्रा में विकास हुआ, इन्होंने लोकप्रिय कहानियों प्राचीन पौराणिक कथाओं, धर्म संबधी पुराना परम्पराओं की कहानियों आदि का समावेश कर लिया। वास्तव में जातक भारतीय जनमानस की सांझी विरासत पर आधारित है। संस्कृत में बौद्ध साहित्य भी प्रचर मात्रा में उपलब्ध है जिसमें अश्वघोष (78 ईसवी सन) द्वारा रचित महान महाकाव्य ‘बुद्धचरित‘ शामिल है।
बौद्ध कहानियों की ही भांति, जैन कथाएं भी सामान्य रूप से शिक्षात्मक स्वरूप की हैं। इन्हें प्राकृत के कुछ रूपों में लिखा गया है। जैन शब्द रुत जी (विजय प्राप्त करना) से लिया गया है और उन व्यक्तियों के धर्म को व्यक्त करता है जिन्हान जीवन की लालसा पर विजय पा ली है। जैन सन्तों द्वारा रचित जैन धर्मवैधानिक साहित्यों, तथा साथ ही साथ हेमचन्द्र (1088 ईसवी सन) द्वारा कोशकला तथा व्याकरण के बारे में बड़ी संख्या में रचनाएं भली-भांति ज्ञात हैं। नैतिक कहानियों और काव्य की दिशा में अभी बहुत कुछ तलाशना है। प्राकत को हाल (300 ईसवी सन) द्वारा रचित गाथासप्ताशती (700 श्लोक) के लिए भली-भांति जाना जाता है जो रचनात्मक साहित्य का सर्वोत्तम उदाहरण है। यह इनकी अपनी 44 कविताओं के साथ (700 श्लोकों) का एक संकलन है। यहां यह ध्यान देना रुचिकर होगा कि पहाई, महावी, रीवा, रोहा और शशिप्पलहा जैसी कुछ कवयित्रियों को संग्रह में शामिल किया गया है। यहां तक कि जैन संतों द्वारा सुस्पष्ट धार्मिक व्यंजना से रचित प्राकृत की व्यापक कथा रत्यात्मक तत्त्वों से परिपूर्ण है। वासुदेवहिन्दी का लेखक जैन लेखकों के इस परिवर्तित दृष्टिकोण का श्रेय इस तथ्य को देता है कि धर्म की चीनी का लेप लगी दवा की भांति रचनात्मक कथांश द्वारा शिक्षा देना सरल होगा। प्राकृत काव्य की विशेषता इसका सूक्ष्म रूप है, आन्तरिक अर्थ (हियाली) इसकी आत्मा है। सिद्धराशि (906 ईसवी सन) की उपमितिभव प्रपंच कथा की भांति जैन साहित्य भी संस्कमत में उपलब्ध है।
प्रारम्भिक द्रविड़ साहित्य
भारतीय लोग वाक् के चार सुस्प ष्ट परिवारों से जुड़ी भाषाओं में बोलते हैः आस्ट्रिक, द्रविड़, चीनी-तिब्बती और भारोपीय। भाषा के इन चार अलग-अलग समूहों के बावजूद, इन भाषा समूहों से होकर एक भारतीय विशेषता गुजरती है जो जीवन के मूल में निहित कुछ एकरूपता के आधारों में से एक का सृजन करती है जिसका जवाहर लाल नेहरू ने विविधता के बीच एकता के रूप में वर्णन किया है। द्रविड़ साहित्य में मुख्यतः चार भाषाएं शामिल हैं: तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम। इनमें से तमिल सबसे पुरानी भाषा है जिसने द्रविड़ चरित्र को सबसे अधिक बचाकर रखा है। कन्नड़ एक संस्कृत भाषा के रूप में उतनी ही पुरानी है जितनी कि तमिल। इन सभी भाषाओं ने संस्कृत से कई शब्दों का आदान-प्रदान किया है, तमिल ही मात्र एक ऐसी आधुनिक भारतीय भाषा है, जो अपने एक शास्त्रीय विगत के साथ अभिज्ञेय दृष्टि से सतत है। प्रारम्भिक शास्त्रीय तमिल साहित्य संगम साहित्य के रूप में जाना जाता है जिसका अर्थ है आतत्व जो कवियों की प्रमुख रूप से दो शैलियों, यथा अहम् (प्रेम की व्यक्तिपरक कविताएं), और पूर्ण (वस्तुनिष्ठ लोककाव्य और वीर-रस प्रधान) को इंगित करती है। अहम् मात्र प्रेम के व्यक्तिपरक मनोभावों के बारे में है, प्रमख रूप से राजाओं के पराक्रम तथा गौरव एवं अच्छाई और बुराई के बारे में है। संगम शास्त्रीय में 18 कृतियां (प्रेम के आठ संग्रह और दस लम्बी कविताएं) अभिव्यक्ति की अपनी प्रत्यक्षता के लिए भली-भांति जानी जाती हैं। इन्हें 473 कवियों ने लिखा था जिनमें से 30 महिलाएं थीं, जिनमें एक प्रसिद्ध कवयित्री अवय्यर थीं। 102 कविताओं के रचनाकारों की जानकारी नहीं है। इनमें से अधिकांश संग्रह तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के थे। इस अवधि के दौरान, तमिल की प्रारम्भिक कविताओं को समझने के लिए एक व्याकरण तोलकाप्पियम लिखा गया था। तोलकाप्पियम पांच भूदृश्यांकनों या प्यार की किस्मों को इंगित करता है और उनकी प्रतीकात्मक परम्पराओं की रूपरेखा प्रस्तुत करता है। आलोचक कहते है कि संगम शामिल तमिल प्रतिभा का प्रारम्भिक साक्ष्य मात्र नहीं है। तमिल भाषियों ने अपने साहित्यिक प्रयास के सभी 100 खास नहीं लिखा है। तिरुवल्लुवर द्वारा प्रसिद्ध तिरुककुलर, जिसकी रचना छठी शताब्दी ईसवी में हुई थी, जो किसी को उत्तम जीवन व्यतीत करने की दिशा में नियमों की एक नियम-पुस्तिका है। यह जीवन के प्रति एक भी कर और व्यावहारिक दष्टिकोण को स्पष्ट करती है, द्वि महाकाव्य शिलाप्पतिकारम् (पायल की कहानी) जिसके लेखक इलांगों-अडिगल हैं. और चत्तानार द्वारा रचित मणिमेखलइ (मणिमेखलइ की कहानी) 200-300 ईसवी में किसी समय लिखे गए थे और ये इस युग में तमिल समाज का सजीव चित्रण प्रस्तुत करते हैं। ये मूल्यवान भण्डारगृह हैं और मान-सम्मान तथा महत्ता से परिपूर्ण महाकाव्य है जो जीवन के मूलभूत सद्गुणों पर बल देते हैं। मणिमेखला में बौद्ध सिद्धांत की व्यापक रूप से व्याख्या की गई है। यदि तमिल ब्राह्मणीय और बौद्ध ज्ञान पर विजय को उदघाटित करता है तो कन्नड़ अपने प्राचीन चरण में जैन आधिपत्य को दर्शाता है। मलयालम ने संस्कृत भाषा के एक संबद्ध खजाने का अपने-आप में विलय कर लिया। नन्नतय्य (1100 ईसवी सन) तेलुगु के पहले कवि थे। प्राचीन समय में तमिल और तेला भाषाएं दूर-दूर तक फैली थीं।
यदि किसी को प्राचीन तमिल साहित्य की एक अन्य प्रभावशाली विशेषता का अभिनिर्धारण करना है तो स्पष्टत: वेष्णव (विष्णु के बारे में) भक्ति (समर्पण) साहित्य की पसन्द होगी। भारतीय साहित्य में यह पता लगाने की दिशा में प्रयास किया गया है कि मनुष्य ईश्वरत्व को किस प्रकार से प्राप्त कर सकता है। वीरपूजा की एक प्रवृत्ति का राज मानवता के प्रति प्यार और सम्मान है। वैष्णव भक्ति के काव्य में भगवान हमारी पीड़ाओं तथा अशान्ति, हमारी प्रसन्नता एवं समृद्धि को सांक्षा करने के लिए मुनष्य के रूप में इस धरती पर अवतरित होत है। वैष्णव भक्ति का साहित्य एक अखिल भारतीय घटना- चक्र था जो छठी और सातवीं शताब्दी ईसवी में दक्षिण भारत के तमिलभाषी क्षेत्र में भक्तिमय गीत लिखने वाले बारह (एक भगवान में तल्लीन) अलवार सन्तं- कवियों के साथ प्रारम्भ हुआ था। इन्होंने हिन्दू मत का पुनरुद्धार किया और बौद्ध तथा जैन विस्तार पर इनकी कुछ विशेषताओं को आत्मसात करते हुए रोक लगाई। अंडाल नाम की एक कवयित्री सहित अलवार कवियों का धर्म प्यार (भक्ति) के माध्यम से उपासना करना था और इस उपासना के उल्लास में वे सैकडों गीत गाया करते है जिनमें मनोभाव की गहराई तथा अभिव्यक्ति का परमानन्द दोनों शामिल थे। भगवान शिव की स्तुति में भक्तिमय गीत. छठी से आठवीं शताब्दी ईसवी में तमिल के सन्त कवि नयनार ने भी लिखे थे। इसके भावात्मक भक्ति के काव्य के रूप में महत्त्व के अतिरिक्त, यह तमिल की शास्त्रीय सभ्यता की दुनिया मार्गदर्शन करता है और तमिलों की जातीय-राष्ट्रीय जानकारी के बारे में हमें समग्र रूप से समझाता है। मध्यकालीन युग में भक्ति साहित्य लगभग सभी भारतीय भाषाओं में अखिल- भारतीय चेतना के रूप में फला-फूला।
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics