न तो प्रारम्भ का कोई लक्षण है, न तो अन्त होने की कोई आशा है No vestige of a beginning , no prospect of an end in hindi
No vestige of a beginning , no prospect of an end in hindi meaning न तो प्रारम्भ का कोई लक्षण है, न तो अन्त होने की कोई आशा है ?
भू-आकृति विज्ञान की संकल्पनायें
(Concepts of Geomorphology)
प्रत्येक विषय की कुछ मौलिक संकल्पनायें होती हैं, जो उस विषय के स्वरूप को व्यक्त करती हैं। संकल्पनायें उन केन्द्रीय समस्याओं अथवा लक्ष्यों को व्यक्त करती हैं, जिन्हें सुलझाने के लिए कोई अभीष्ट विषय प्रत्यनशील रहता है। परिणामतः ये विषय की प्रगति-दिशा सूचक होती हैं। परिभाषा, सिद्धान्त एवं संकल्पनाओं में अन्तर होता है। परिभाषा अल्पायिक तत्वों को व्यक्त करने वाले समन्वीकृत व्यक्तित्व को कहते हैं। सिद्धान्त उसे कहते हैं, जो परिस्थिति विशेष के लिए प्रकाशित होते हैं। संकल्पना के द्वारा अभीष्ट विषय का अध्ययन अग्रसर होता है। एक संकल्पना के विश्लेषण में कई नई संकल्पनायें उद्भूत होती हैं। फलतः उस विषय का अध्ययन गहन होता है। भू-आकृति विज्ञान, जो स्थलरूपों के विश्लेषण का विज्ञान है, उसमें स्थलरूप के विकास की जटिलताओं सम्बन्धी अनेक संकल्पनाओं का प्रतिपादन किया गया है। भू-आकृति विज्ञान की एक संकल्पना के विश्लेषण से कई उप संकल्पनाये उद्भूत हई, फलतः इस विषय की स्थलरूपों सम्बन्धी समस्यायें अधिक स्पष्ट हुई। साथ-ही-साथ विषय का कलेवर अधिक सुव्यवस्थित गया। न तो प्रारम्भ का कोई लक्षण है, न तो अन्त होने की कोई आशा है, वर्तमान भूत की कुन्जी हैं, स्थलरूपों के विकास में सरलीकरण की अपेक्षा जटिलताएँ अधिक विकास में भू-गर्भिक संरचना एक महत्वपूर्ण नियन्त्रक कारक होती है तथा उसमें प्रतिविम्बित होती है, जैसे भूतल पर विभिन्न अपरदनात्मक कारक कार्यरत होते हैं, क्रमिक स्थलरूपों, जिनके विकास की क्रमिक अवस्थाओं में विशिष्ट विशेषतायें होती हैं, का निर्माण होता है, वर्तमान में जो भूगर्भिक प्रक्रम तथा नियम कार्यरत हैं, उनकी सक्रियता में अन्तर था, चट्टान भूगर्भिक इतिहास की पुस्तकें है तथा जीवाशेष उनके पृष्ठ हैं, भ्वाकृतिक प्रक्रम स्थलरूपों पर अपनी विशेष छाप छोड़ते हैं तथा प्रत्येक भ्वाकृतिक प्रक्रम स्वयं स्थलरूपों का समुदाय विकसित करता है, आदि अनेक संकल्पनायें भू-आकृति विज्ञान के विश्लेषण में गहनता प्रस्तुत की हैं।
भू-आकृति विज्ञान की संकल्पनायें
स्थलरूप-विकास-सम्बन्धी अनेक संकल्पनाओं का प्रतिपादन किया गया है, जिनसे विषय का स्वरूप स्पष्ट एवं वैज्ञानिक हुआ है। भूगर्भिक संरचना, जलवायुविक विषमता, स्थलरूपों के विकास एवं उनकी जटिलताओं में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इनके विश्लेषण में प्राचीन एवं अर्वाचीन स्थलरूपों का ऐतिहासिक विश्लेषण, भावी भूदृश्यों का स्वरूप आदि का गम्भीर अध्ययन किया जाता है। ये संकल्पनायें भू-आकृति विज्ञान के स्वरूप को निर्धारित करती हैं।
1. न तो प्रारम्भ का कोई लक्षण है, न तो अन्त होने की कोई आशा है
(No vestige of a beginnig , no prospect of an end)
भू-आकृति विज्ञान के प्रांगण में 18वीं शताब्दी तक आकस्मिकवाद की प्रधानता थी, परन्तु 18वीं शताब्दी के अन्त तक इस पर तीखा प्रहार किया गया। इसके बाद एकरूपतावाद का अभ्युदय हुआ। इसके प्रवर्तक जेम्स हटन थे। इन्होंने आकस्मिकवाद की आलोचना करते हुए बताया कि-प्रकृति का स्वभाव क्रमिक होता है, अर्थात् प्रकृति का ब्राह्मरूप जो दृष्टिगत है, इसके पीछे क्रमिक विकास का इतिहास छिपा हुआ है। यह नहीं है कि जो वाह्मरूप है, वह एकाएक प्राप्त हो गया है। इसको एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है – मान लीजिए कोई मैदान हैं, इसके विषय में यह नहीं सोचना चाहिए कि यह एकाएक मैदान बन गया, बल्कि इसके इस रूप के प्राप्त होने के पीछे इसके क्रमिक विकास का इतिहास छिपा पड़ा है। पहले यह एक उच्च भाग रहा होगा। जिस पर अपरदन के विभिन्न कारक इस पर अपना कार्य किये होंगे, कालान्तर में विभिन्न स्थलाकृतियों को बनाते-बिगाड़ते इस रूप को प्रदान किये हैं। यहाँ पर जेम्स हटन ने एक बात और स्पष्ट किया कि- वास्तव में यह क्रिया कब प्रारम्भ हुई तथा यदि पुनः उत्थान हो जाय तो अपरदन क्रिया पुनः प्रारम्भ हो जायेगी। अर्थात् अन्त कब होगा, विश्वास के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता है।
जेम्स हटन के अनुसार प्रत्येक भूगर्भिक प्रक्रम अपने पिछले इतिहास में कई चक्र पूर्ण कर चुके हैं, यह बताना एक जटिल समस्या है कि यह प्रक्रम, अपना कार्य कब प्रारम्भ किया तथा कब कार्य बन्द करेगा? इसी तथ्य के आधार पर हटन महोदय ने एक प्रमुख संकल्पना का प्रतिपादन किया – ‘न तो प्रारम्भ का कोई लक्षण है, न तो अन्त होने की कोई आशा है।‘
भूपटल में कार्य करने वाले प्रत्येक प्रक्रम अतीतकाल में कार्यरत थे, वर्तमान समय में कार्यरत हैं तथा भविष्य काल में कार्यरत रहेंगे। वर्तमान के प्रक्रमों का कार्य अथवा वर्तमान के स्थलरूपों को देखकर भूतकाल के स्थलरूपों के विषय में जानकारी प्राप्त की जा सकती है, अर्थात् ‘वर्तमान भूत की कुन्जी है‘, (ज्ीम चतमेमदज पे ामल जव जीम चंेज)। ये क्रियायें सदैव कार्यरत रहती हैं, परन्तु इनके कार्य करने तथा कार्य क्षेत्र में भिन्नता अवश्य हो सकती है। हो सकता है कि आज जो प्रक्रम तेजी से कार्य कर रहा है, वह भूतकाल में कम प्रभावशाली रहा होगा? उदाहरणार्थ – यह कोई नहीं कह सकता है कि नदियों वर्तमान की तरह भूतकाल में कार्य नहीं किया है। यदि नील नदी ने ईसापूर्व डेल्टा का निर्माण किया था, तो आज भी कर रही है अथवा अन्य नदियाँ डेल्टे का निर्माण कर रही हैं। यदि प्लेस्टोसीन युग में हिमनद के द्वारा अपरदन-जमाव द्वारा स्थलाकृतियों का निर्माण किया गया था, तो वर्तमान में भी हिमनद कार्य करता है। यदि अतीत में चूने की चट्टानों में घुलन-कार्य हुआ था, तो वर्तमान में भी घुलन-कार्य हो रहा है।
भूपटल को प्रभावित करने वाले प्रक्रम चक्रीय रूप में कार्य करते हैं। हटन ने बताया कि – ‘प्रकृति का कार्य क्रमिक होता है।‘ इसका उदाहरण एक ऐसे भूखण्ड से ले सकते हैं, जिसका उत्थान सागर-तल से हुआ था। धीरे-धीरे अतीतकाल से आन्तरिक शक्तियों द्वारा इसका उत्थान हुआ, जिससे यह सागरतल से ऊपर आ गया। जिस समय इसका उत्थान हो रहा था, उस समय अपरदन की क्रिया उत्थान की अपेक्षा मन्द थी, परिणामस्वरूप स्थलखण्ड का उत्थान हो गया। कुछ समय बाद, इस पर सागरीय लहरों का कटाव तीब्र हो गया तथा अपरदन क्रिया निरन्तर चलती रही। अन्त में, पुनः सागर में विलीन हो जाता है। कुछ समय बाद इसका पुनः उत्थान हो जाता है, तो अपरदन क्रिया उसी तरह सक्रिय रहती है, परन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रारम्भिक क्रिया कब प्रारम्भ हुई तथा इस क्रिया का अन्त कब होगा? यदि किसी वर्तमान घर्षित पर्वत को लिया जाय जो घर्षित अवस्था में पहुँच चुका है, तो इसके अध्ययन से पता चलेगा कि प्रारम्भ में एक समतल मैदान रहा होगा। बाद में पृथ्वी की आन्तरिक शक्तियों के कारण इसमें उत्थान हुआ, जिसके कारण सतह से ऊँचाई अधिक हो गई। बाद में, अपरदन की क्रियाओं के सक्रिय होने पर पुनः धर्षित मैदान के रूप में हो गया। यदि बाद में पुनः उत्थान हो जाय, तो अपरदन फिर सक्रिय हो जाता है। यह क्रम चलता रहता है, न तो प्रारम्भ का पता लगता है, न तो अन्त का। इसको इस तरह स्पष्ट किया जा सकता है –
ऊपर स्पष्ट किया गया है कि इनका उत्थान और कटाव एक चक्र के रूप में होता है। यदि हम चट्टानों का अध्ययन करें, तो इनमें चक्रीय क्रम स्पष्ट होता है। जब पृथ्वी की उत्पत्ति हुई, तब तप्त तथा तरलावस्था में थी। धीरे-धीरे ठंडे होने से प्रथम आग्नेय शैल का निर्माण हुआ। बाद में, विघटन तथा वियोजन होने से अपरदन के प्रक्रमों द्वारा उपयुक्त स्थानों पर जमाव किया गया, जिससे परतदार शैल का निर्माण हुआ। पर्वत निर्माणकारी क्रिया के समय अत्याधिक दबाव के परिणामस्वरूप रूपान्तिरत शैल का निर्माण हुआ। बाद में जब यह शीतल हो जाती है, तो पुनः आग्नेय शैल का निर्माण हो जाता है। पुनः अपरदन के प्रक्रमों द्वारा अपरदन, जमाव, द्रवीकरण, ठोसीकरण आदि एक चक्र के रूप में होता रहता है। अर्थात् चट्टानों के सृजन की व्यवस्था एक चक्रीय-क्रम में होती है। इसका विश्लेषण निम्न ढंग से स्पष्ट किया जा सकता है-
परतदार चट्टान का अध्ययन करें, तो स्पष्ट होता है कि – प्रथम आग्नेय चट्टानों का अपरदन होता है, अपरदित पदार्थों के जमाव द्वारा इनका निर्माण होता है। दबाव के कारण रूपान्तिरत शैल का निर्माण होता है। रूपान्तरित शैल का यदि अपरदन होता है, तो जमाव के कारण पुनः परतदार शैल का निर्माण होता है। यह क्रम चलता रहता है। इसका निर्माण कई चक्रों में पूरा होता है। चट्टानों का भूगर्भिक विश्लेषण किया जाय, तो ज्ञात होता है कि ये ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में दबाव एवं अपरदन के अनेक चक्रो से गुजर चुकी है।
यदि रूपान्तरित शैल का अध्ययन किया जाय तो स्पष्ट होता है कि निर्माण आग्नेय तथा अवसादी दोनों प्रकार की चट्टानों से होता है।
शीतलन, दबाव, अपरदन आदि क्रियाओं द्वारा चट्टानों का स्वरूप ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में परिवर्तित होता रहा है। इनके विश्लेषण से ज्ञात होता है कि इनका प्रारम्भिक स्वरूप या तो आग्रेय शैल था या कायान्तरित शैल या अवसादी शैल। इनके सृजन की प्रक्रिया-क्रम में घटित हुई है, फलतः क्रिया कब प्रारम्भ हुई तथा इसका अन्त कब होगा, साधारणतः ज्ञातव्य नहीं है। चट्टानों में ही नहीं, अपितु स्थलरूपी के सृजन में चक्रीय-पद्धति का योगदान रहता है। उच्चस्थ भाग अपरदन के विभिन्न प्रक्रमों द्वारा, निम्न होते रहते हैं तथा भूगर्भिक शक्तियों द्वारा इनका पुनः उत्थान होता है। उत्थान ज्यों ही प्रारम्भ होगा, अपरदनात्मक प्रक्रमों का कार्य प्रारम्भ हो जायेगा। उदारणार्थ – अल्पेशियन पर्वत उत्थान एवं अपरदन की अनेक घटनाओं से गुजर चुका है। धरातल पर विद्यमान घर्षित पर्वत जो अतीत में उच्च पर्वत के रूप में थे, वर्तमान में घर्षित हैं तथा भविष्य में उच्च पर्वत पुनः हो सकते हैं।
भू-आकृति विज्ञान में ही नहीं, अपितु भूगोल के विभिन्न पक्षों में चक्रीय क्रम विद्यमान होता है। वर्तमान में इनके अन्तर्सम्बन्धों का विश्लेषण भूगोल का प्रमुख उद्देश्य है, क्योंकि इन परिवर्तनों से जलवायु दशायें, मानव संस्कृति, मानव क्रिया-कलाप, आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियाँ, सभी प्रभावित होती हैं। उदाहणार्थ – यदि किसी स्थान विशेष पर उच्च पर्वतों का उदभव हो जाय तो यह निकटवर्ती जलवाय, संस्कृति, आर्थिक व्यवस्था आदि को प्रभावित करता है। कालान्तर में, अपरदनात्मक प्रक्रमों द्वारा इसका निम्नीकरण हो जाय, तो जलवायु परिवर्तित हो जाएगी।
पर्वत-निर्माण, मैदान-निर्माण, चट्टान निर्माण आदि चक्रीय अवस्थाओं में घटित होते हैं। इनका प्रारम्भ कब और किन अवस्थाओं में हुआ तथा अन्त कब और किन परिस्थितियों में होगा – ज्ञात नहीं है।
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