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स्तम्भ लेख किसे कहते हैं , स्तंभ लेखन की परिभाषा क्या होती है शिलालेख अर्थ pillar script in hindi meaning

what is pillar script in hindi meaning definition script स्तम्भ लेख किसे कहते हैं , स्तंभ लेखन की परिभाषा क्या होती है अर्थ ?

उत्तर : प्राचीन समय में कोई भी राजा अपनी उपलब्धियों जैसे युद्ध में विजय कब और किससे जीते , कोई भवन , किला आदि बनाने की उपलब्धि , राज्य युद्ध विजय आदि के बारे में इतिहास लिखने के रूप में एक स्तम्भ (पिलर) बनाया जाता था और उस पर इन सब विशेष उपलब्धियों के बारे में लिखा जाता है जिन्हें स्तम्भ लेख कहा जाता है | ताकि भविष्य में लोह इतिहास को याद रख सके या पढ़कर पता लगे सके कि किस राजा की अपने जीवनकाल में क्या उपलब्धि रही |

स्तम्भ
अशोक के राज्यकाल के दौरान स्तंभों के शिलालेख (राजकीय प्रतीक के रूप में या युद्ध में जीत के उपलक्ष्य में) अति महत्वपूर्ण हो गए। साथ ही उसने राजकीय उपदेशों का प्रचार करने के लिए भी स्तम्भों का उपयोग किया।
औसतन 40 फीट ऊंचे, ये स्तम्भ सामान्यतः चुनार के बलुआ पत्थर या प्रस्तर से बनाए गए थे और इसके चार भाग थे। लंबा मूठ आधार का निर्माण करता था जोकि प्रस्तर के एक ही खण्ड अथवा एकाश्म प्रस्तर से बना होता था। इसके सबसे ऊपर कमल या घंटे के आकार में शीर्ष या ललाट रखा जाता था। घंटे के आकार के शीर्ष या ललाट ईरानी स्तम्भों से प्रभावित थे क्योंकि ये स्तंभ अत्यधिक पॉलिशदार और चमकदार थे। ललाट के ऊपर शीर्ष-फलक के रूप में ज्ञात वृत्ताकार या आयताकार आधार होता था जिस पर पशु मूर्ति होती थी।
उदाहरणः चंपारण में लौरिया नंदनगढ़ स्तंभ, वाराणसी में सारनाथ स्तंभ आदि।
मौर्य कला और स्थापत्य कला
चैथी शताब्दी ईसा पूर्व में श्रमण परंपरा के अंग बौद्ध धर्म और जैन धर्म के आगमन के साथ गंगा घाटी का धार्मिक और सामाजिक परिदृश्य परिवर्तित होने लगा। चूंकि दोनों धर्म वैदिक युग की ‘वर्ण प्रथा‘ और ‘जाति प्रथा‘ का विरोध करते थे, इसलिए इन्हें उन क्षत्रिय शासकों का संरक्षण प्राप्त हुआ जो ब्राह्मणवादी वर्चस्व से सजग हो चुके थे। जैसे ही मौर्यों ने अपनी सत्ता की स्थापना की तो हम राज्य के संरक्षण में और व्यक्तिगत पहल के अंर्तगत विकसित स्थापत्य कला और मूर्तिकला के बीच स्पष्ट सीमांकन देखते हैं। इस प्रकार, मौर्य कला को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता हैः‘

दरबारी कला
मौर्य शासकों ने राजनीतिक के साथ-साथ धार्मिक कारणों से बड़ी संख्या में स्थापत्य कार्यों का ‘शुभारंभ किया। इन स्थापत्य कार्यों को दरबारी कला के रूप में संदर्भित किया जाता है।

महल या किला
मौर्य साम्राज्य भारत में सत्ता में आने वाला पहला ‘शक्तिशाली साम्राज्य था। पाटलिपुत्र में राजधानी और कुमाहार में महलों का निर्माण मौर्य साम्राज्य का वैभव प्रतिबिंबित करने हेतु कराया गया था। चंद्रगुप्त मौर्य का महल ईरान में ‘पर्सेपोलिस‘ के ‘अकमेनियन‘ महलों से प्रेरित था। मुख्य निर्माण सामग्री लकड़ी थी। मेगस्थनीज ने इस महल का वर्णन मानव जाति की सबसे बड़ी रचनाओं में से एक के रूप में किया था।

इसी प्रकार, कुम्राहार स्थित अशोक का महल भी एक विशाल संरचना थी। इसमें एक ऊँचा केन्द्रीय स्तंभ था और यह एक तीन मंजिला लकड़ी का ढांचा था। महल की दीवारों को नक्काशियों और मूर्तियों से सजाया गया था।

 

राष्ट्रीय प्रतीक
भारत का राजचिन्ह अशोक के सारनाथ में स्थित सिंह स्तम्भ की प्रतिकति है। इस मल स्तंभ के शीर्ष पर चार सिंह एक-दूसरे की तरफ पीठ किए हुए हैं। जिसमें केवल तीन सिंह ही दिखाई देते हैं। सारनाथ स्तंभ का ‘शीर्ष फलक और पशु वाला भाग भारत का राष्ट्रीय प्रतीक है। सारनाथ स्तंभ के शीर्ष फलक में चार पशु दिखाए गए हैं- एक दौड़ता हुआ घोड़ा, एक बैल, एक हाथी और एक सिंह। इसे पहले उपदेश या धम्मचक्र प्रवर्तन की स्मृति में बनवाया गया था।

स्तूपः
स्तूप वैदिक काल से भारत में प्रचलित शवाधान टीले थे। यह अंत्येष्टि मेघ पुंज का पारंपरिक निदर्शन है। इसमें मृतकों के अवशेष और राख को रखा जाता था। अशोक के राज्यकाल के दौरान, स्तूप कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गयी। उसके राज्यकाल के दौरान लगभग 84, 000 स्तूप बनवाए गए थे।
वैदिक परंपरा से होते हुए भी स्तूपों को बौद्धों द्वारा लोकप्रिय बनाया गया। बुद्ध की मृत्यु के बाद 9 स्तूप बनवाए गए थे। इनमें से 8 में उनकी मेधी में बुद्ध के अवशेष थे जबकि नौवें में वह बर्तन था, जिसमें मूल रूप से इन अवशेषों को रखा गया था। स्तूप के विभिन्न भागों को निदर्शित करने वाला मूलभूत आरेख नीचे दिया गया है।
स्तूप का कोर, कच्ची ईंटों का बना होता था जबकि बाहरी सतह का निर्माण पकी ईंटों से किया जाता था और इसे प्लास्टर की मोटी परत से ढंका जाता था। मेधी और तोरणों को लकडी की मूर्तियों द्वारा सजाया गया था। श्रद्धालुओं द्वारा पूजा के प्रतीक के रूप में प्रदक्षिणा पथ के चारों और चक्कर लगाया जाता है।
उदाहरणः मध्य प्रदेश का सांची का स्तूप अशोक के स्तूपों में सबसे प्रसिद्ध है। उत्तर प्रदेश में पिपरहवा का स्तूप सबसे प्राचीनतम स्तूप है।

बुद्ध की मृत्यु के बाद बनाए गए 9 स्तूपों के स्थल राजगृह, वैशाली, कपिलवस्तु, अलकप्प, रामग्राम, बेठपीड, पावा, कुशीनगर और पीपली वन हैं।

अशोक के स्तंभों और अकेमीनियन स्तंभों के बीच अंतर
आधार अशोक के स्तंभ अकेमीनियन स्तम्भ
अकेमीनियन स्तम्भ अशोक स्तंभ एकाश्म थे अर्थात् इन्हें प्रस्तर के एक ही खण्ड से बनाया गया था। मुख्यतः चुनार के बलुआ पत्थर से। अके मीनियन स्तम्भ बलुआ प्रस्तर के विभिन्न टुकड़ों को एक साथ मिलाकर बनाए गए थे।
स्थान अशोक के स्तंभों को राजकीय ढग से स्वतंत्र रूप से स्थापित कराया गया था। अकेमीनियन स्तम्भ सामान्यतः राजभवनों से संलग्न थे।
लोकप्रिय कला
राजकीय संरक्षण के अतिरिक्त, गुहा स्थापत्य कला, मूर्तिकला और मृद्भाण्डों ने व्यक्तिगत प्रयास से भी कला को अभिव्यक्ति मिलीं। इन्हें एक साथ कला और स्थापत्य कला के लोकप्रिय रूपों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
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गुफा स्थापत्य कला
इस अवधि ने चट्टानों को काटकर बनाई गई गुहा स्थापत्य कला का उद्भव देखा। मौर्य काल के दौरान, जैन और बौद्ध भिक्षु सामान्यतः इन गुहाओं का विहार यानी वास स्थल के रूप में उपयोग करते थे। जहां आरंभिक गुफाओं का जैन आजीवक उपयोग करते थे, वहीं बाद में ये बौद्ध मठों के रूप में लोकप्रिय हो गए। मौर्य काल के दौरान की गुहाओं की विशेषता अत्यधिक पॉलिशदार भीतरी दीवारें व अलंकृत द्वार थे।

उदाहरणः बिहार में बराबर और नागार्जुनी की गुफाओं का निर्माण अशोक के बेटे दशरथ के राज्यकाल के दौरान किया गया था।

मूर्तिकलाः
मूर्तियों का मुख्य रूप से उपयोग स्तूप की सजावट, तोरण और मेधी में और धार्मिक अभिव्यक्ति के रूप में किया जाता था। मौर्य काल की दो प्रसिद्ध मूर्तियां यक्ष और यक्षिणी की हैं। ये सभी तीन धर्मों (जैन धर्म, हिंदू और बौद्ध धर्म) में पूज्नीय थीं। यक्षिणी का सबसे पुराना उल्लेख तमिल रचना शिल्पादिकारम में मिलता है। इसी प्रकार, सभी जैन तीर्थंकर यक्षिणी से संबंधित थे।

मृद्भाण्डः
मौर्य काल के मृद्भाण्डों को सामान्यतः उत्तरी काले पॉलिशदार मृद्भाण्ड (एन.बी.पी.डब्लू.) या चित्रित धूसर मृद्भाण्ड के रूप में जाना जाता है। इनकी विशेषता काला रंग और अत्यधिक चमक है और सामान्यतः इनका उपयोग विलासिता की वस्तुओं के रूप में किया जाता था। इन्हें प्रायः उच्चतम स्तर के मद्भाण्ड के रूप में संदर्भित किया जाता है।

मौर्योत्तर कला
दूसरी ‘शताब्दी ईसा पूर्व में मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद, भारत के विभिन्न भागों में छोटे-छोटे राजवंशों का उदय हुआ। इनमें उत्तर में शुंग, कण्व, कुषाण और शक प्रमुख थे जबकि दक्षिणी और पश्चिमी भारत में सातवाहन, इक्ष्वाकु, अभीर और वाकाटक ने प्रसिद्धि प्राप्त की। इसी प्रकार, धार्मिक परिदृश्य ने शैव, वैष्णव और शाक्त जैसे ब्राह्मण संप्रदायों का उद्भव देखा। साथ ही इस अवधि की कला ने बदलते सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को भी परिलक्षित करना आरंभ किया। चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफाओं और स्तूपों के रूप में स्थापत्य कला जारी रही, लेकिन साथ ही कुछ राजवंशों ने अपनी स्वयं की कुछ अनूठी विशेषताएं प्रचलित की। इसी प्रकार, मूर्ति कला की विभिन्न-‘शैलियों का उद्भव हुआ और मौर्योत्तर काल में मूर्ति कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गयी।