जल संरक्षण के उपाय एवं प्रकार क्या है ? conservation of water resources in hindi 5 – 7 points
conservation of water resources in hindi 5 – 7 points जल संरक्षण के उपाय एवं प्रकार क्या है ?
जल संसाधनों का प्रबन्धन एवं संरक्षण
(Management and Conservation of Water Resources)
जल के प्रबन्धन एवं संरक्षण का मुख्य उद्देश्य जल की बढ़ती हुई मांग को पूरा करना तथा जल के स्रोतों को ह्रास से बचाना है। जल संसाधनों की सीमित आपूर्ति, तेजी से बढ़ती हुई मांग, तेजी से फैलते हुए प्रदूषण तथा इसकी स्थानिक एवं ऋतुवत असमानता के कारण इसका संरक्षण अनिवार्य हो गया है। जल संसाधनों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित कदम आवश्यक हैः
1. धरातलीय जल का सरंक्षण : वर्षा ऋतु में जल आवश्यकता से अधिक उपलब्ध होता है और अधिक वर्षा होने पर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। बहुत सा जल व्यर्थ ही बह कर समुद्र में चला जाता है। नदियों पर बांध बनाकर इस अतिरिक्त जल का भण्डारण किया जा सकता है और साथ ही बाढ़ के प्रकोप से भी बचा जा सकता है। बांधों के पीछे वर्षा ऋतु के जल से निर्मित जलाशयों का जल शुष्क ऋतु में तथा अन्य कार्यों के लिए प्रयोग किया जा सकता है।
2. भूजल का भंडारणः वर्षा का कुछ जल मृदा एवं चट्टानों से रिस कर भूमि के नीचे चला जाता है और भूजल कहलाता है। भूजल का भंडारण प्राकृतिक रूप में ही होता रहता है। परंतु पिछले कुछ दशकों में सिंचाई तथा अन्य कार्यों के लिए कुएं तथा नलकूप खोद कर भूजल का बड़े पैमाने पर प्रयोग होने लगा है, जिस कारण से भूजल के भंडारों में चिन्ताजनक कमी आ गई है और कई इलाकों में भूजल का तल काफी नीचे गिर गया है। अधिक गइराई से जल को निकालना आर्थिक दृष्टि से लाभकारी नहीं होता। इसके लिए वर्षा के जल का संग्रहण किया जा सकता है। यह भूजल के पुनर्भरण की सबसे अच्छी विधि है। पर्वतीय इलाकों में जल विभाजक (Water shed) पर वनस्पति का आवरण होना अति आवश्यक है। इससे पौधों की जड़ों के माध्यम से जल भूमि के नीचे चला जाता है और दूर-दूर तक भूजल के भंडारों का पुनर्भरण होता रहता है।
3. सिंचाई पद्धति में परिवर्तनः नहर सिंचाई वाले इलाकों में प्रायः
किसान अपने खेतों में आवश्यकता से अधिक जल भर लेते हैं। इससे जल का गलत प्रयोग ही नहीं होता बल्कि फसल और मिट्टी को भी हानि पहुंचती है। अतः किसानों की इस प्रवृत्ति में परिवर्तन लाने के लिए उन्हें प्रशिक्षण देना चाहिए। शुष्क इलाकों में ‘ड्रिप‘ (टपक) तथा ‘स्पिंकलर‘ (छिड़क) सिंचाई से बहुत से जल की बचत हो सकती है।
4. जल का पुनः चक्रण तथा पुनः प्रयोगः जल एक चक्रीय प्राकृतिक संसाधन है और इसके चक्रण एवं पुनः प्रयोग से पर्याप्त मात्रा में जल की बचत की जा सकती है। शोधित अपशिष्ट जल, जैसे-निम्न गुणवत्ता वाले जल को उद्योगों में शीतलन तथा अग्निशमन के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इसी प्रकार नगरीय क्षेत्रों में स्नान तथा बर्तनों एवं वाहनों को धोने में प्रयुक्त जल को बागवानी के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इससे उच्च गुणवत्ता वाले जल को पीने के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है। जल के पुनः चक्रण एवं पुनरू उपयोग की क्रिया अभी आरंभिक दौर में ही है, परंतु भविष्य में इसकी विशाल संभावनाएं हैं।
5. समुद्री जल का उपयोगः समुद्र में अपार जलराशि है परंतु समुद्र का जल खारा होता है और मानव द्वारा उपयोग के योग्य नहीं होता। परंतु यदि इस जल में से खारापन निकाल दिया जाए तो इसे प्रयोग किया जा सकता है। समुद्री जल के निर्लवण की प्रौद्योगिकी अभी आरम्भिक अवस्था में ही है और यह काफी महंगी एवं जटिल प्रक्रिया है। अतः यह अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाई है। परंतु भविष्य में इसकी सम्भावनाएं बहुत हैं। गुजरात के भावनगर में यह प्रक्रिया चालू की गई है।
6. जल-संभर प्रबंधन (Watershed Management)ः जल संभर एक ऐसा क्षेत्र है, जिसका जल एक बिंदु की ओर प्रवाहित होता है, जो इसे मृदा और जल संरक्षण की आदर्श नियोजन इकाई बना देता है। इसमें एक या अनेक गांव, कृषि योग्य और कृषि अयोग्य भूमि और विभिन्न वर्गों की जोतें और किसान शामिल हो सकते हैं। जल-संभर विधि से कषि और कषि से संबंधित क्रिया-कलापों. जैसे-उद्यान कृषि, वानिकी और वन-वर्द्धन का समग्र रूप में विकास किया जा सकता है।
जल-संभरता विधि जल संरक्षण का एक महत्वपूर्ण उपाय है, जिससे कृषि का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है, पारितंत्रीय ह्रास को रोका जा सकता है और लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाया जा सकता है।
केंद्रीय एवं राज्य सरकारों तथा कुछ गैर-सरकारी संगठनों द्वारा बहुत से जल-संभर विकास कार्यक्रम चलाए गए हैं। हरियाली केन्द्र सरकार द्वारा चलाया गया कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य ग्रामीण जनसंख्या को पीने, सिंचाई, मत्स्य पालन और वन रोपण के लिए जल संरक्षण के लिए योग्य बनाना है। परियोजना लोगों के सहयोग से ग्राम पंचायतों द्वारा चलाई जा रही है। आंध्र प्रदेश में नीरू-मीरू (जल और आप) तथा राजस्थान के अलवर जिले में अरवारी पानी संसद जल संभर के दो मुख्य कार्यक्रम हैं। इनके अंतर्गत लोगों के उद्धार के लिए जल-संभर के कई कदम उठाए गए हैं। लोगों के सहयोग से विभिन्न जल संग्रहण संरचनाएं जैसे-अंतरूस्रवण तालाब ताल (जोहड़) की खुदाई की गई है और रोक बांध बनाए गए हैं।
तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है, जहां पर घरों में जल संग्रहण संरचना के निर्माण को अनिवार्य कर दिया गया है। कोई भी इमारत जल संग्रहण संरचना के बिना नहीं बनाई जा सकती।
जल संभर प्रबंधन अभी अपनी आरंभिक अवस्था में ही है। इसके प्रति जन-साधारण को जागरूक करने की आवश्यकता है।
7. वर्षा जल संग्रहण : भू-जल का बड़े पैमाने पर ह्रास होना एक
बहुत ही गंभीर समस्या है और इसे तुरंत हल करने के उपाय करने की आवश्यकता है। ग्रामीण इलाकों में सिंचाई के लिए या नगरीय इलाकों में घरेलू उपयोग एवं उद्योगों के लिए प्रायः जल की कमी रहती है। इस समस्या को हल करने का एक सुगम उपाय वर्षा जल संग्रहण है। यह भौम जल के पुनर्भरण को बढ़ाने की तकनीक है। इस तकनीक में स्थानीय रूप से वर्षा जल को एकत्र करके भूमि जल भंडारों में संगृहीत करना शामिल है, जिससे स्थानीय घरेलू मांग को पूरा किया जा सके। वर्षा जल संग्रहण के उद्देश्य निम्नलिखित हैः
1. जल की निरंतर मांग को पूरा करना,
2. नालियों को रोकने वाले सतही जल प्रवाह को कम करना,
3. सड़कों पर जल फैलाव को रोकना,
4. भौम जल में वृद्धि करना तथा जलस्तर को ऊंचा उठाना,
5. भौम जल प्रदूषण को रोकना,
6. भौम जल की गुणवत्ता को सुधारना,
7. मृदा अपरदन को कम करना,
8. ग्रीष्म ऋतु और सूखे के समय जल की घरेलू आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायता करना। ऐसी
अनेक कम लागत वाली तकनीकें उपलब्ध हैं, जो भौम जल के भंडारों के पुनर्भरण में सहायता कर सकती हैं। कुछ महत्वपूर्ण तकनीकें, जैसे-छत के वर्षा जल का संग्रहण, खुदे हुए कुओं का पुनर्भरण, हैंडपंपों का पुनर्भरण, रिसाव गड्ढों का निर्माण, खेतों के चारों ओर खाइयां और छोटी-छोटी सरिताओं पर बंधिकाएं और रोक बांध बनाना विशेष उल्लेखनीय हैं। वर्षा जल संग्रहण की तकनीक भारत में कोई नई तकनीक नहीं है। इन तकनीकों का प्रयोग भारत में प्राचीन काल से ही परंपरा रही है, जैसा कि निम्न प्रमाणों से सिद्ध होता है:
1. नहरों, तालाबों, तटबंधों, और कुओं के रूप में जल संग्रहण होता था।
तालिका 2.4 नदी जल विवादों की स्थिति
नदी राज्य पंचाट के गठन निर्णय की
की तिथि तिथि
1. कृष्णा महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, अपै्रल 1969 मई 1976
2. गोदावरी महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक मध्य प्रदेश उडीसा अप्रैल 1969 जुलाई 1980
3. नर्मदा राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात. महाराष्ट्र अक्टूबर 1969 दिसम्बर, 1979
4. कावेरी केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु पुडुचेरी जून 1990 धारा 5(2) के अंतर्गत रिपोर्ट प्राप्त
5. कृष्णा महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक अप्रैल 2004 धारा 5(2) के अंतर्गत रिपोर्ट लंबित
6. मदेई/ गोवा, कर्नाटक, महाराष्ट्र – –
साडोवी/महादायी
7. वन्सधारा आन्ध्र प्रदेश और उड़ीसा
स्रोतः भारत 2010, वार्षिक संदर्भ ग्रंथ, पृ. 1061-62
2. पर्वतीय एवं पहाड़ी क्षेत्रों में छतों के वर्षा जल और झरनों
के जल को बांस की नलियों द्वारा दूर-दूर तक ले जाया
जाता था।
3. शुष्क और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में भौम जल के भंडारों के
उपयोग के लिए कुएं और बावड़ियां बनाई जाती थीं। राजस्थान में छत के वर्षा जल को कृत्रिम रूप से विकसित कुओं में जमा कर दिया जाता था।
4. जल संरक्षण के लिए सारे देश में तालाबों का निर्माण एक लोकप्रिय उपाय था।
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics