कौशाम्बी शैली क्या है | कौशाम्बी शैली का इतिहास अर्थ मतलब जानकारी kaushambi style name in hindi
kaushambi style name in hindi कौशाम्बी शैली क्या है | कौशाम्बी शैली का इतिहास अर्थ मतलब जानकारी ?
कुषाण कालीन मूर्तिकला की कौशाम्बी शैली :
उत्तर: कुछ विद्वानों का विचार है कि मौर्योत्तर काल में कौशाम्बी में एक स्वतंत्र शैली का विकास हुआ। यह कहीं-कहीं तो मथरा के समान थी किन्त
कहीं उससे भिन्न भी थी। चूंकि मथुरा कला शैली का विस्तार एवं वर्चस्व इतना अधिक था कि उसके आगे कौशाम्बी शैली का महत्व गौंण हो गया। इसे स्वतंत्र रूप से स्थापित करने का प्रयास ही नहीं किया गया। इधर आर.एन. मिश्र जैसे कुछ विद्वानों के प्रयास से कौशाम्बी शैली के पृथक् अस्तित्व एवं विकास पर समुचित प्रकाश पड़ा है। यहां की कलाकतियों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इस शैली ने गंगा-यमुना के दोआब तथा बाह्य क्षेत्रों की कलात्मक गतिविधियों को पूर्णतः प्रभावित किया है। यह मथुरा शैली जैसी ओजपूर्ण तो नहीं थी किन्तु मूर्तियों की मौलिकता एवं सारगर्भिता की दृष्टि से उल्लेखनीय माना जा सकता है।
कौशाम्बी काल को विकसित करने में वहां की राजनीतिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों का प्रमुख योगदान रहा है। ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ में यहां वत्स राज्य की राजधानी थी। बुद्ध ने यहां कई बार जाकर अपने उपदेश दिये। अनेक धनाढ्य श्रेष्ठि तथा व्यापारी यहां निवास करते थे जिनमें घोषित प्रमुख था। बाद में यहां मध राजाओं ने शासन किया। यहां की खदाई से एक विशाल दर्ग क्षेत्र घोषितारामा विहार, पत्थर एवं मिट्टी की मूर्तियाँ, स्तूप की पाषाणवेदिका के टुकड़ें, हारीति की समर्पित गजपष्ठाकार (Apsidal) मंदिर के अवशेष, श्येनचितिवेदी तथा पुरुषमेध के प्रमाण आदि प्राप्त होते हैं। पाषाण प्रतिमाओं के अध्ययन से पता चलता है कि भरहुत, सांची तथा बोधगया की भांति यहां भी कलाकृतियों का सजन किया जा रहा था और गप्तकाल में कौशाम्बी भी उक्त कला-केन्द्रों के ही समान एक अलग कला-केन्द्र के रूप में विकसित हो गया था। यहां वैदिक तथा श्रमण दोनों परम्पराओं का प्रचलन था। अतः कलाकृतियों की रचना में दोनों के तत्व ग्रहण किये गये है।
कौशाम्बी कला के तत्व मूर्तियाँ, स्तूप, वेदिकास्तम्भ, मृण्मूर्तियाँ आदि हैं। ये मथुरा से भी मिलती हैं। किन्तु कौशा कलाकृतियों का अपना अलग ही अस्तित्व देखने को मिलता है। कुछ कला प्रतीक जैसे भागवत धर्म से संतान ध्वजस्तम्भ मथुरा से पूर्व ही यहां निर्मित किये गये। मथरा में इनका निर्माण शक-कुषाण काल के बाद हुआ किन्त पौ काल के तत्काल बाद कौशाम्बी में इन्हें बनाया गया। कौशाम्बी से भागवत धर्म संबंधी जो पाषाण प्रतिमायें मिलती हैं. मौर्यकालीन मूर्तियों के समान चुनार के बलुआ पत्थर से बनाया गया है तथा उन पर वैसी ही चमकीली पॉलिश है। दर स्पष्ट होता है कि मथुरा से प्राप्त भागवत मर्तियों के पूर्व कौशाम्बी में इनका निर्माण प्रारम्भ हुआ था। कौशाम्बी से ही सर्वप्रथम संकर्षण तथा प्रद्युम्न, जिनका उल्लेख चतळह में हुआ है, के लाञ्छन क्रमशः तालध्वज तथा मकरध्वज की प्राप्ति हुई है। एक स्तम्भ के ऊपर प्रद्युम्न का अंकन उनकी पत्नी के साथ मिलता है। उनके दाये हाथ में बाणों का गच्छा दिखाया गया है। इससे सूचित होता है कि मथुरा से पूर्व ही कौशाम्बी के कलाकारों के मस्तिष्क में कालान्तर के भाग धर्म में प्रचलित चतुर्व्यह की कल्पना उत्पन्न हो चकी थी जिसमें उक्त दोनों के अतिरिक्त अनिरुद्ध तथा वासदेव कल्पना हुई। मूर्ति बनाने के पहले कौशाम्बी के कलाकारों ने देवता के प्रतीक का अंकन किया। अगास्थोक्लीज के सिक्कों (लगभग ई.पू. 180-165) पर भागवत देवताओं, चक्रधर कृष्ण तथा हलधर बलराम, की प्रतिमाएँ मिलती हैं जो कौशा की भागवत मूर्तियों के समान हैं। इनसे भी सूचित होता है कि कौशाम्बी कला मौर्य तथा कुषाण दोनों कालों के बीच समय में विकसित हुई थी। अगास्थोक्लीज के सिक्कों के आधार पर कौशाम्बी कला भरहुत से भी पूर्ववर्ती सिद्ध होती है।
कौशाम्बी से बहुसंख्यक मृण्मूर्तियां मिलती हैं। ये स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, मिथनु, हारीति, गजलक्ष्मी, सूर्य आदि की हैं। ये मथुरा से प्राप्त मृण्मूर्तियों की तुलना में अधिक कुशलता से गढ़ी गयी हैं। इनका शरीर हष्ट-पुष्ट है तथा मुखाकृतियां फूली हुई हैं। स्पष्ट होता है कि कौशाम्बी की मृण्मूर्तियों के आधार पर ही यहां पाषाण मूर्तियां गढ़ी गयी। कौशाम्बी में शिव-पार्वती की एक प्रतिमा मिली है जो गुप्तकालीन प्रतिमाओं जैसी सुन्दर और सजीव हैं। इसका समय कुषाण काल से पहले निर्धारित किया जाता है। यहां मूर्ति निर्माण में मिट्टी से पाषाण में संक्रमण स्पष्टतः परिलक्षित होता है जो मथुरा की कला में अप्राप्य है। कौशाम्बी के कलाकारों ने पहले गंधार शैली के आधार पर बुद्ध एवं बोधिसत्व मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ किया. किन्त शीघ्र ही वेशभषा तथा संघाटि की एक नई पद्धति को अपनाकर भिन्न प्रकार की मर्तियों का निर्माण प्रारम्भ कर दिया। कौशाम्बी में 160 ई. के लगभग बुद्ध मूर्तियां बननी प्रारम्भ हो गयी जिस पर मथुरा कला का भी प्रभाव था। किन्तु शीघ्र ही कलाकारों ने इस प्रभाव से मुक्त होकर मिट्टी की मूर्ति अपनी शैली में बनाना प्रारम्भ कर दिया। उल्लेखनीय है कि गुप्तकालीन सारनाथ की बुद्ध मूर्ति में संघाटि दोनों कन्धों पर मिलती है। यह पद्धति कौशाम्बी में इसके पूर्व ही प्रचलन में आ गयी थी। अब यह कहा जा सकता है कि सारनाथ बुद्ध की वेशभूषा तथा संघाटि का आदि रूप कौशाम्बी में ही विद्यमान था। प्रतीकों के स्थान पर मूर्तियों के निर्माण की प्रथा भी सबसे पहले कौशाम्बी में ही प्रारम्भ हुई जहां इसके लिए अनुकूल आधार था।
मथुरा तथा कौशाम्बी, दोनों ही स्थानों पर, यक्ष मूर्तियाँ मिलती हैं, लेकिन कौशाम्बी की यक्ष मूर्ति कुछ भिन्न प्रकार की है। भीटा तथा कौशाम्बी से प्राप्त यक्ष मूर्तियों पर मथुरा शैली का कोई प्रभाव नहीं है। भीटा की यक्ष मूर्ति में तीन यक्ष दिखाये गये हैं। इनके बगल में एक सिंह तथा वाराह की मूर्ति है। कौशाम्बी की मूर्ति, जो बैठी हुई मुद्रा में है, में पैरों के मध्य वाराह का अंकन है। कौशाम्बी की शिव-पार्वती प्रतिमा में शिव के जटाजूट, त्रिनेत्र, कान, होंठ, ठुड्डी के बीच हल्का गड्ढा मिलता है जो गुप्तकाल की विशेषता है। इससे सूचित होता है कि शिव प्रतिमा के ये लक्षण गुप्त युग से पूर्व ही कौशाम्बी में अपना लिये गये थे। कौशाम्बी से एक ऐसी देवी की मूर्ति मिली है जिसकी केश-सज्जा में पाँच प्रतीक खुसे हुए हैं। यह अपने आप में विशिष्ट है। कौशाम्बी की मूर्तियों में एक ऐसी अनौपचारिकता का वातावरण है जो प्राचीन लोककला के निकट है।
कौशाम्बी के दक्षिण में भरहुत का प्रसिद्ध कला केन्द्र था। के.डी. वाजपेयी का विचार है कि कौशाम्बी की कला भरहुत की पूर्ववर्ती है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, कौशाम्बी कला का प्रभाव अगास्थोक्लीज के सिक्कों पर पड़ा तथा यहां की मूर्तियों पर तिथियां अंकित मिलती हैं। मनकुंवर से प्राप्त बुद्ध प्रतिमा तिथियुक्त है जो गुप्त शैली से भिन्न है। इससे कौशाम्बी कला का काल भरहुत से पहले सिद्ध होता है। इसी तथ्य के प्रमाण में प्रतापगढ़ जनपद के अजगरा लेख का साक्ष्य भी प्रस्तुत किया जा सकता है जिससे सूचित होता है कि सुदर्शना यक्षिणी का मूल स्थान कौशाम्बी क्षेत्र क अन्तर्गत ही आता था, भरहुत के नहीं। यह सुदर्शना के सम्मान में एक यक्षमह बनाने तथा तालाब खुदवाने का उल्लेख करता है। इससे भी संकेत मिलता है कि कौशाम्बी की कला भरहुत की पूर्ववर्ती है। मालवा के समान कौशाम्बी में भा मणिभद्र की पूजा होती थी। उसे कुबेर का कोषाध्यक्ष माना गया है।
इस विवरण से स्पष्ट है कि कौशाम्बी को एक पृथक कला केन्द्र मानने में कोई आपत्ति नहीं है। बुद्ध काल में यह अत्यन्त समृद्धशाली नगर हो गया था जिसकी गणना बौद्ध साहित्य बुद्ध के समकालीन छरू नगरों में करता है। इसमें कौशाम्बा क अतिरिक्त चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत तथा वाराणसी शामिल थे। सर्वत्र नगरीकरण प्रस्फुटित हुआ जिसका प्रमुख आधार व्यापार-वाणिज्य बना। व्यापारियों द्वारा कला को प्रोत्साहन दिया जाना स्वाभाविक था। कौशाम्बी में बौद्ध धमक साथ-साथ हिन्दू वैष्णव या भागवत् एवं शैव धर्मों का भी प्रचलन था तथा दोनों के अनुयायी निवास करते थे। अब कलाकारों ने दोनों धर्मों के उपासकों की धार्मिक तृष्णा की तुष्टि के लिये कृतियों का निर्माण किया तथा यहां एक ऐसी कला शैली उद्भूत हो गयी जिसका समीपवर्ती क्षेत्रों की कला पर भी प्रभाव पडा। यह निश्चयतः मथुर की पूर्ववर्ती थी तथा इसके प्रतिमा लक्षण गुप्तकालीन प्रतिमाओं में भी ग्रहण किये गये।
इस प्रकार कुषाण काल पाषाण शिल्प की उन्नति की दष्टि से काफी गौरवशाली रहा। किन्तु इस समय मृण्मूतिर्यों का निर्माण उतना अच्छा नही हुआ। मथुरा, अहिच्छत्र आदि स्थानों से काफी कम संख्या में मृण्मूर्तियां मिलती है तथा कौशाम्बी में तो इनका अभाव सा है।
प्रश्न: कुषाण कालीन जैन मूर्तिकला तथा आयागपट्ट के बारे में बताइए।
उत्तर: मथुरा तथा उसके समीपवर्ती भाग से जैन तीर्थकरों की पाषाण प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जो अत्यन्त सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं। जैन मूर्तियाँ दो प्रकार की हैं – खड़ी मूर्तियाँ जो कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं तथा बैठी हुई मूर्तियाँ जो पद्मासन में हैं। खड़ी मुद्रा (कायोत्सर्ग) की मूर्तियां पूर्णतया नग्न हैं, उनकी भुजायें घुटनों के नीचे तक फैली हुई हैं तथा भौहों के बीच केशपुंज बनाया गया है। बैठी हुई (पद्मासन) मूर्तियां ध्यान मुद्रा में हैं तथा उनकी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित है। इनके आसन के सामने बीच में धर्मचक्र तथा पार्श्वभाग में सिंह बनाये गये हैं। कुछ प्रतिमाओं के सिर के पीछे गोल अलंकृत प्रभामण्डल मिलता है। तीर्थकर प्रतिमाओं के वक्षस्थल पर श्श्रीवत्सश् का पवित्र मांगलिक चिहन अंकित है। इनकी चैकी पर लेख भी उत्कीर्ण हैं जिनसे उनकी पहचान की जा सकती है। इनकी चैकी पर लेख भी उत्कीर्ण हैं जिनसे उनकी पहचान की जा सकती है। तीर्थकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त कंकाली टीला से आयागपट्ट (Tablets of Homage) अथवा पूजाभट्ट मिलते हैं जिनका काल की दृष्टि से काफी महत्व है। पहले इन पवित्र मांगलिक चिन्ह जैसे स्वस्तिक, श्रीवत्स, चक्र, नन्दयावर्त, पूर्णघट, मंगल कलश, शंख, माला आदि बनाये जाते थे परन्तु बाद में इन पर तीर्थकरों की आकृतियां भी बनाई जाने लगी। आयागपट्टों से प्रतीक पूजा से मूर्तिपूजा का विकास क्रम सूचित होता है। ये आयागपट्ट स्वतंत्र पूजा के लिये थे। इनसे पता चलता है कि प्रारंभ में जैन धर्म में प्रतीक पूजा का प्रचलन था जिससे कालान्तर में प्रतिमा पूजा का विकास हुआ।
इस प्रकार मथुरा के कलाकारों का दृष्टिकोण असाम्प्रदायिक था और उन्होंने बौद्ध, जैन तथा हिन्दू सभी के लिये उपयोगी प्रतिमाओं को प्रस्तुत किया। अग्रवाल के शब्दों में श्अपनी मौलिकता, सुन्दरता और रचनात्मक विविधता एवं बहुसंख्यक सृजन के कारण मथुरा कला का पद भारतीय कला में बहुत ऊँचा है।श् यहां की बनी मूर्तियां सारनाथ, श्रावस्ती तथा अन्य केन्द्र में गयी हैं। मथुरा की कलाकृतियां वैदेशिक प्रभाव से मुक्त हैं तथा इस कला में भरहुत और सांची की प्राचीन भारतीय कला को ही आगे बढ़ाया गया है।
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics