स्क्रू वर्म के नियंत्रण विधि क्या है ? screwworm control in hindi cochliomyia hominivorax treatment
screwworm control in hindi cochliomyia hominivorax treatment स्क्रू वर्म के नियंत्रण विधि क्या है ?
प्रस्तावना
आनुवंशिक नियंत्रण में वे सभी नानाविध उपाय आते हैं जिनके द्वारा किसी पीड़क समष्टि को, उसके आनुवंशिक घटक में फेर-बदल करके अथवा वंशागति की अन्य क्रियाविधियों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। इसमें मुख्यतरू बंध्यकरण एवं आनुवंशिक फेर-बदल का मार्ग अपनाया जाता है। पीड़क नियंत्रण की आनुवंशिक विधियां स्वघातकी (autocidal, अर्थात् स्वतरू मर जाने वाले) श्रेणी में आती हैं। स्वघाती नियंत्रण का अर्थ है उसी स्पीशीज के सदस्यों का विनाश अथवा ह््रासित जनन-क्षमता के द्वारा उसकी समष्टि-संख्या में कमी आना। इसमें मुख्य मार्ग बंध्यकरण का होता है (अर्थात् व्यष्टियों की जनन क्षमता को समाप्त कर देना) तथा आनुवंशिक फेर-बदल किया जाता है। अत: पीड़क-नियंत्रण की अधिकतर आनुवंशिक विधियाँ इसी श्रेणी में आती हैं। इस इकाई में आप पीड़क नियंत्रण की विभिन्न आनुवंशिक विधियों के विषय में पढ़ेंगे। साथ ही आप पीड़क प्रबंधन में आनुवंशिक इंजीनियरिंग की भूमिका के बारे में भी अध्ययन करेंगे। आज ऐसी आनुवंशिक इंजीनियरिंग तकनीकें उपलब्ध हैं जिनके द्वारा जीवों को इस प्रकार रूपांतरित करना संभव हो गया है कि वे मानव उद्देश्यों की पूर्ति कर सकें, कुछ दशक पूर्व तक ये विधियां उपलब्ध नहीं थीं।
उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ चुकने के बाद आप
ऽ पीड़कों के आनुवंशिक नियंत्रण अथवा स्वघाती नियंत्रण की विभिन्न विधियों का विवेचन कर सकेंगे,
ऽ बंध्य कीट तकनीक (SIT) के घटकों का तथा इसमें इस्तेमाल में लायी जाने वाली बंध्यता के आधार का स्पष्टीकरण कर सकेंगे,
ऽ SIT के अनुप्रयोग द्वारा स्क्रू-वर्म के नियंत्रण के सर्वाधिक सफल मामले का वर्णन कर सकेंगे,
ऽ ष्वंशागत बंध्यताष् के सिद्धांत तथा पीड़क प्रबंधन पर इसके प्रभावों का वर्णन कर सकेंगे,
ऽ दशात्मक घातक उत्परिवर्तनों, कोशिकाद्रव्यी असंगतता तथा ष्सरलतरू वंशागत उत्परिवर्तनोंष् का एवं पीड़क नियंत्रण की स्वघाती विधियों में इनकी भूमिका का स्पष्टीकरण कर सकेंगे,
ऽ पीड़क प्रबंधन में पारजीनियों की भूमिका का विवेचन कर सकेंगे, तथा
ऽ Bt कपास के विषय में कुछ तथ्यों को सराह सकेंगे।
सारांश
आनुवंशिक नियंत्रण विधियों को स्वघातक नियंत्रण विधियां भी कहा जाता है। इनमें एक जीव को उसी स्पीशीज के अन्य सदस्यों को नष्ट करने में अथवा ह््रासित जनन क्षमता के द्वारा उसकी समष्टि को घटा देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। स्वघातक नियंत्रण उपायों में मुख्य मार्ग अपनाया जाता है बंध्यकरण एवं आनुवंशिक फेर-बदल का। अतरू पीड़क नियंत्रण की आनुवंशिक विधियां इसी श्रेणी के अंतर्गत आती हैं।
ऽ आधुनिक कृषि के सामने एक प्रमुख चुनौती पीड़क स्पीशीज के नियंत्रण करने की है जिसके दौरान पर्यावरण को कम से कम हानि पहुंचायी जा सके। एक आकर्षक विकल्प बंध्य कीट तकनीक (SIT) का है जिसे संयुक्त राज्य अमेरिका में व्यापक स्तर पर इस्तेमाल किया जा रहा है मगर यूरोप, एशिया, अफ्रीका में बहुत ही कम इस्तेमाल किया गया है। कीट नियंत्रण का SIT कार्यक्रम स्पीशीज विशिष्ट एवं पर्यावरण का अप्रदूषणकारी होता है, और इसमें बड़ी संख्या में कीटों का पालन, बंध्यकरण और मोचन करना होता है। विमोचित बंध्य नरों का क्षेत्रवासी मादाओं के साथ संगमन होने पर उनकी जनन क्षमता कम हो जाती है और उससे समस्त विमोचन क्षेत्र में पीड़क कीट समष्टि का नियंत्रण होता जाता है।
ऽ SIT तकनीक स्क्रू-वर्म मक्खी के नियंत्रण की एक अति सफल विधि पायी गयी जिसमें बंध्यकारी साधन के रूप में आयनकारी विकिरणों का उपयोग किया गया। अत्यंत सफल क्षेत्रव्यापी SIT कार्यक्रम नयी दुनिया के स्क्रूवर्म (Cochliomyia hominivorax) के प्रति संयुक्त राजय अमेरिका मेक्सिको तथा मध्य अमेरिका में और साथ ही लीबिया में भी चलाए गए जहां 1998 में एक गंभीर कीट महामारी के सफल नियंत्रण में SIT का उपयोग किया गया था। स्क्रूवर्म SIT कार्यक्रम की सफलता से अन्य अनेक आर्थिक रूप में महत्वपूर्ण कीटों के जनन प्रदर्शन पर शोध किए जाने लगे। क्षेत्रव्यापी SIT कार्यक्रमों के अन्य लक्ष्य कीटों में आते हैं- लैटिन अमरीका के विविध भागों में मेडिटेरेनियन फल मक्खी (मेडफ्लाई) सेरेटाइटिस कैपिटैटा, ओकिनावा द्वीपसमूह (जापान) की मेलन-फ्लाई, संयुक्त राज्य अमेरिका का गुलाबी डोंडा कृमि Pectinophora gosypiella, तथा कनाडा का कालिग मॉथ Cydia pomonella.
ऽ रासायनिक बंध्यकारी रसायनों का उपयोग बहुत सीमित है क्योंकि इसमें पर्यावरण संदूषण का भारी खतरा है लेकिन SIT में उपयोग किए जाने वाले कीटों के उपचार में विकिरण बंध्यकरण (गामा विकिरण स्रोत के रूप में कोबाल्ट-60 तथा सीसियम-137 का उपयोग करके) का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि विकिरण के उपयोग में कोई पर्यावरण खतरे नहीं होते।
ऽ लेपिडॉप्टेरा में जिन पीड़क कीटों पर पहले-पहले SIT कार्यक्रम चलाए गए उनमें थे गुलाबी डोंडा कृमि, कॉलिंग मॉथ तथा जिप्सी मॉथ। भारत में SIT का संभव उपयोग कई पीड़कों के प्रबंधन में सफलतापूर्वक जांच लिया गया है जैसे Culexf atigans लाल ताड़ सुरसुरी, ष्रस्टष् आटा बीटल, आलू का कंद मॉथ तथा तम्बाकू की इल्ली। इस प्रकार अनेक महत्वपूर्ण पीड़क कीट समस्याओं के समाधान में SIT की भूमिका उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है।
ऽ कीट नियंत्रण की एक अन्य विधि में ष्वंशागत बंध्यताष् आती है जो आमतौर से विकिरण रोधी लेपिडॉप्टेरन कीटों के लिए रूपांतरित तकनीक थी। सम्पूर्ण बंध्यकरण हेतु अधिक विकिरण मात्रा से इन कीटों में व्यवहारात्मक क्षमताहीनता आ जाती है। परंतु आश्चर्य की बात है कि जब इन्हें आंशिक विकिरण मात्रा द्वारा उद्भासित किया जाता है (ताकि उनकी प्रतिस्पर्धिता कायम रहे), उनकी संततियों (F1 पीढ़ी) में जनकों की बंध्यता की अपेक्षा उच्चतर बंध्यता स्तर देखे गए। इस परिघटना को वंशागत बंध्यता अथवा F1 बंध्यता कहते हैं। इस समय विकिरण प्रेरित F1 बंध्यता के उपयोग पर पूरे विश्व में शोध हो रहे हैं।
ऽ पीड़क नियंत्रण के अन्य आनुवंशिक पहुंच-मार्गों में आते हैं, दशागत घातक . उत्परिवर्तन, कोशिकाद्रव्यी असंगतता, संकर बंध्यता, तथा सरलतरू वंशागत उत्परिवर्तन स्पष्ट है कि उपरियुक्त प्रत्येक परिघटना के लिए कीट आनुवंशिकी, कार्यिकी, व्यवहार एवं जनन पर बहुत सारे महत्वपूर्ण शोध आंकड़े चाहिए तभी जाकर कोई तकनीक व्यावहारिक रूप में कार्य कर सकेगी।
ऽ बंध्य कीट विमोचन विधि तथा अन्य स्वघाती नियंत्रण तकनीकें प्च्ड कार्यक्रमों में इस्तेमाल किए जा सकने वाले कीट-नियंत्रण के अन्य प्ररूपों के साथ पूर्णतरू सुसंगत हैं। कोई भी कीट-नियंत्रण उपाय जिससे स्वघाती नियंत्रण कार्यक्रम के अनुप्रयोग से पूर्व अथवा उसके दौरान समष्टि घनत्व कम होंगे उससे दोनों प्रक्रमों की प्रभावशीलता बढ़ जाएगी। किसी भी ऐसे समाकलित पीड़क प्रबंधन कार्यक्रम की कल्पना करना कठिन है जिसे स्वघाती नियंत्रण तकनीक के शामिल करने से बढ़ाया नहीं जा सकता।
ऽ पारजीनी पौधे वे होते हैं जिनके भीतर आण्विक तकनीकों के द्वारा किसी जीन अथवा जीन निर्मिति को प्रविष्ट करा दिया गया हो। आनुवंशिक इंजीनियरी वह तकनीक है जिसके द्वारा पारजीनी पौधे अथवा GMOS प्राप्त किए जाते हैं। यदि सही उपयोग किया गया तो पीड़क प्रबंधन में आनुवंशिक इंजीनियरी एक वरदान सिद्ध हो सकती।
ऽ Bt कपास एक पारजीनी कपास है जिसमें एक जीवाणु जीन को प्रवेश कराकर क्राई-प्रोटीन नामक एक विशेष प्रकार का प्रोटीन पैदा कराया जाता है।
ऽ Bt टॉक्सिन केवल डोंडाकृमियों पर ही प्रभावकारी होता है। अतरू चूषण प्रकार के कीटों अर्थात् जैसिडों एवं श्वेत मक्खी के प्रति Bt प्रभावकारी नहीं है। चूंकि Bt कपास में अंतः निर्मित प्रतिरोध होता है, इसलिए इसे IPM के अपनाने के लिए एक आरम्भकारी बिंदु के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है जिससे पीड़कनाशी रसायनों का बोझ कम होगा।
अंत में कुछ प्रश्न
1. SIT किसे कहते हैं? पीड़क प्रबंधन में यह किस प्रकार उपयोगी है?
2. कोशिकाद्रव्यी असंगतता किसे कहते हैं? कोशिकाद्रव्यी असंगतता में किस बात की एक गंभीर कमी होती है?
3. श्सरलत वंशागत उत्परिवर्तनश् क्या होते हैं? पीड़क नियंत्रण की स्वघाती विधियों में ये उत्परिवर्तन किस प्रकार उपयोगी हो सकते हैं?
4. IPM में अन्य पीड़क नियंत्रण विधियों के साथ-साथ आनुवंशिक विधियों को किस प्रकार समाकलित किया जा सकता है?
5. कीटनाशकों की तुलना में पारजीनी पौधे किस प्रकार अधिक लाभप्रद होते हैं?
6. Bt कपास पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
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