औद्योगिक अवस्थिति का सिद्धान्त क्या है | alfred weber theory of location in hindi उद्योग स्थानीकरण सिद्धांत
alfred weber theory of location in hindi of industrial उद्योग स्थानीकरण सिद्धांत औद्योगिक अवस्थिति का सिद्धान्त क्या है ?
अवस्थिति का सिद्धान्त
अर्थशास्त्रियों ने अवस्थिति का विशुद्ध सिद्धान्त विकसित करने का प्रयत्न किया है जिसमें औद्योगिक विकास के अवस्थिति स्वरूप को निर्धारित करने वाले आर्थिक कारकों (शक्तियों) को अन्तर्विष्ट किया जाए। इस प्रकार का सिद्धान्त कतिपय उद्योगों के स्थान विशेष पर अवस्थित होने के ढंग और दो प्रकार की गत्यात्मक शक्तियों नामतः (प) उद्योग का विकास और (पप) परिवेश में परिवर्तन के अंतर्गत उनके व्यवहार का विश्लेषण करने में सहायक होगा।
इस विषय ने अपनी ओर क्लासिकल अर्थशास्त्रियों का ध्यान भी आकृष्ट किया था, हालाँकि उन्होंने इस विषय का संक्षिप्त उल्लेख ही किया है।
ऐडम स्मिथ ‘श्रम विभाजन‘ की अवधारणा में अधिक रुचि रखते थे। श्रम विभाजनं की अवधारणा पर चर्चा करते समय उन्होंने ‘भौगोलिक श्रम विभाजन‘ का उल्लेख किया।
जे.एस. मिल और अल्फ्रेड मार्शल ने भी उद्योग की अवस्थिति को प्रभावित करने वाले कुछ कारकों का संक्षेप में उल्लेख किया है। तथापि, उन्होंने औद्योगिक अवस्थिति का एकीकृत और समन्वित सिद्धान्त प्रतिपादित करने का कोई प्रयास नहीं किया। अल्फ्रेड मार्शल ने इस तरह के सिद्धान्त के विकास का मार्ग तो बता दिया किंतु स्वयं वह इस दिशा में इससे आगे नहीं बढ़े। उन्होंने इस समस्या को वैज्ञानिक दृष्टि से देखने की अपेक्षा इसका अनुभव सिद्ध विश्लेषण अधिक किया था।
उसके बाद से, अर्थशास्त्रियों ने औद्योगिक अवस्थिति के विभिन्न व्यापक और एकीकृत सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं। इन सिद्धान्तों को सुविधा की दृष्टि से तीन भागों में बाँटा जा सकता है:
क) वेबर का निगमनात्मक सिद्धान्त
ख) सार्जेण्ट फ्लोरेन्स का आगमनात्मक विश्लेषण
ग) अवस्थिति के अन्य सिद्धान्त
वेबर का निगमनात्मक सिद्धान्त
अवस्थिति का पहला वैज्ञानिक और व्यापक सिद्धान्त विकसित करने का श्रेय जर्मन अर्थशास्त्री अल्फ्रेड वेबर को जाता है। उनकी मूल कृति वर्ष 1909 में जर्मन भाषा में प्रकाशित हुई थी। इसका अनुवाद अंग्रेजी में 1929 में हुआ। तब से यह सिद्धान्त अवस्थिति संबंधी चर्चाओं के केन्द्र में रहा है।
वेबर ने विश्लेषण की निगमनात्मक पद्धति अपनाई। उन्होंने उन सामान्य कारकों का विश्लेषण किया जो एक उद्योग को विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों की ओर खींचते हैं और जो अंततः औद्योगिक अभिविन्यास के मौलिक ढाँचा को निर्धारित करते हैं।
वेबर सिद्धान्त की मान्यताएँ
वेबर ने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करते समय निम्नलिखित मान्यताएँ निर्धारित की थींः
प) कच्चे माल की अवस्थिति यथा प्रदत्त मानी जाती है।
पप) उपभोग के विशेष वितरण की व्यवस्था जैसी दी गई है की जाती है।
पपप) श्रम को यथा प्रदत्त वितरण माना जाता है।
पअ) एक समान परिवहन व्यवस्था की मान्यता है।
अ) एक समान सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था की मान्यता है।
इन मान्यताओं के साथ वेबर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जहाँ भौतिक सूची अधिक है, उत्पादन कार्य खनिज भण्डारों के समीप ही किए जाने की प्रवृत्ति रहती है।
आलोचनात्मक मूल्यांकन
अवस्थिति सिद्धान्त का सर्वप्रथम प्रतिपादन करने का श्रेय अल्फ्रेड वेबर को है। उन्होंने एक नए क्षेत्र में चिंतन और शोध को प्रेरित किया। उन्होंने औद्योगिक अवस्थिति के संगत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। किंतु सार्जेण्ट फ्लोरेन्स, एस.आर. डेनिसन, एण्डूिआज प्रिडॉल और ए. रॉबिन्सन जैसे अर्थशास्त्रियों ने इस सिद्धान्त की काफी आलोचना की है।
वेबर के सिद्धान्त की आलोचना मुख्य रूप से परिवहन लागत को अधिक महत्त्व देने के कारण की गई है। इसके अतिरिक्त, वेबर ने श्रम, विशेष उपभोग केन्द्रों, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था इत्यादि के संबंध में जो मान्यताएँ बताई हैं वह बहुत ही यथार्थवादी नहीं हैं। उन्होंने कहीं भी पूँजी लागत और प्रबन्धन लागत को हिसाब में नहीं लिया है। यहाँ तक कि परिवहन लागत पर विचार करते समय भी उन्होंने यातायात के साधन, प्रदेश की भौगोलिक बनावट इत्यादि पर ध्यान नहीं दिया है। इसे और स्पष्ट करने के लिए हम आलोचना के निम्नलिखित कारणों को सूचीबद्ध कर सकते हैं:
क) दोषपूर्ण मान्यताएँ
इस सिद्धान्त की आलोचना अनिश्चित, अतिसरलीकृत और अयथार्थवादी मान्यताओं जैसे परिवहन लागत, श्रम अथवा उपभोग केन्द्र से संबंधित मान्यता के आधार पर की गई है।
प) परिवहन लागत के संबंध में वेबर ने परिवहन लागत निर्धारित करने वाले सिर्फ दो तत्वों पर विचार किया है: (क) परिवहन की जाने वाली सामग्री का भार, और (ख) तय की जाने वाली दूरी। इस आलोचना के दो महत्त्वपूर्ण मुद्दे निम्नलिखित हैं:
एक, परिवहन लागत में अंतर न सिर्फ भार और दूरी से प्रभावित होता है, अपितु परिवहन के प्रकार, परिवहन की जाने वाली सामग्री की प्रकृति, प्रदेश की भौगोलिक बनावट और विशेषता जैसे कारक द्वारा भी प्रभावित होता है।
दो, परिवहन लागतों का विवेचन मुद्रा के रूप में किया जाना चाहिए न कि वास्तविक जटिल इकाइयों में।
पप) इस सिद्धान्त में श्रम संबंधी दो मान्यताएँ हैं: (क) स्थिर श्रम केन्द्र, और (ख) उनमें से प्रत्येक में श्रम की असीमित पूर्ति । यहाँ पुनः पहली मान्यता अवास्तविक है। एक उद्योग की प्रगति के साथ, श्रम के नए केन्द्रों का विकास होता है। इसी प्रकार, यह विश्वास करना बिल्कुल गलत होगा कि प्रत्येक श्रम केन्द्र में श्रम की असीमित आपूर्ति होगी। इसके अलावा, एक उद्योग या क्षेत्र के विकास के साथ मजदूरी दर बदलती रहती है और समानान्तर रूप से श्रम की माँग एवं पूर्ति में भी परिवर्तन होता
पपप) उपभोग के निश्चित केन्द्र की मान्यता भी प्रतिस्पर्धी बाजार संरचना अनुरूप नहीं है। बाजार अधिक विस्तृत हो सकता है तथा यह खरीदारों पर उतना ही निर्भर कर सकता है जितना कि प्रतिस्पर्धी विक्रेताओं पर। ऑस्टिन राबिन्सन का कहना है कि वास्तव में विस्तृत बाजार जिसमें प्रतिस्पर्धी उत्पादक होते हैं विद्यमान हैं। सामान्यतः उपभोक्ता पूरे देश में फैले होते हैं और उपभोग केन्द्र औद्योगिक जनसंख्या में परिवर्तन के साथ बदल सकता है। इस प्रकारय उपभोक्ता केन्द्र, अवस्थिति संबंधी परिवर्तन का कारण और परिणाम दोनों होता है।
ख) अनिश्चित धारणाएँ
इस सिद्धान्त की आलोचना अनिश्चित धारणाओं के आधार पर भी की गई है। यह तर्क दिया गया है कि अनिश्चित धारणाओं द्वारा औद्योगिक अवस्थिति की व्याख्या नहीं की जा सकती है क्योंकि यह इतर आर्थिक चिन्तनों का भी परिणाम होता है जो ठोस वास्तविकता की व्याख्या करने के लिए ‘शुद्ध सिद्धान्त‘ के दायरे से बाहर होते हैं। इसलिए, इस उपागम को आगमनात्मक और विश्लेषणात्मक होना चाहिए। वेबर का सिद्धान्त ऐतिहासिक और सामाजिक कारकों के परिणामस्वरूप अवस्थिति की व्याख्या नहीं कर पाता है।
ग) निगमनात्मक सिद्धान्त की अपेक्षा चयनात्मक सिद्धान्त
जैसा कि हमने ऊपर देखा, वेबर ने औद्योगिक अवस्थिति को प्रभावित करने वाले प्राथमिक और गौण कारणों की पहचान की है। प्राथमिक और गौण कारकों के चयन का उल्लेख करते हुए एन्ड्रियाज प्रिडॉल यह तर्क देते हैं कि वेबर का सिद्धान्त निगमनात्मक सिद्धान्त की अपेक्षा चयनात्मक अधिक है। यह भी बताया गया है कि वेबर द्वारा सामान्य और विशिष्ट घटकों के बीच किया गया भेद मनमाना और कृत्रिम है। इसका कोई तार्किक महत्त्व नहीं है। यह भी प्रश्न किया गया है कि सिर्फ ‘परिवहन लागतों‘ और ‘श्रम लागतों‘ को ही सामान्य कारक क्यों माना जाए। सामान्य कारकों के रूप में अन्य लागतों के साथ ‘पूँजीगत लागतों‘ और ‘प्रबन्धन लागतों‘ को सम्मिलित करना अधिक तर्कसंगत है। यह भी सुझाव दिया गया है कि यदि इन सभी कारकों को समान महत्त्व दिया जाए तो औद्योगिक अवस्थिति का एकीकृत सिद्धान्त प्रतिपादित करने में सहायता मिलेगी। इससे अवस्थिति के विशेष सिद्धान्त का सामान्य आर्थिक सिद्धान्त के साथ सामंजस्य कर पाना सुगम होगा।
घ) विश्लेषण की त्रुटिपूर्ण पद्धति
वेबर की विश्लेषण पद्धति का भी खूब विश्लेषण किया गया है। ऑस्टिन रॉबिन्सन का मानना है कि कच्चे माल का सर्वव्यापी कच्चे माल और स्थिर सामग्रियों (पिगमक उंजमतपंसे) में वर्गीकरण कृत्रिम है। यहाँ यह बताया जा सकता है कि वास्तविक व्यावसायिक सामग्री बड़ी संख्या में वैकल्पिक स्रोतों से प्राप्त किए जा सकते हैं और वेबर द्वारा सुझाई गई रीति के अनुरूप वर्गीकरण को स्वीकार करना यथार्थवादी नहीं होगा।
ड.) यह उपागम तकनीकी विचारों से अत्यधिक बोझिल हो गया है
डेनिसन का विचार है कि वेबर का सिद्धान्त तकनीकी विचारों के कारण अत्यधिक बोझिल हो गया है। उनका तर्क है कि वेबर के विश्लेषण में लागतों और मूल्यों की पूरी तरह से अवहेलना की गई है।
इसे तकनीकी गुणांक के रूप में तैयार किया गया है। वस्तुतः, एक अर्थशास्त्री की जाँच-पड़ताल मुख्य रूप से लागत और मूल्य पर आधारित होनी चाहिए।
संक्षेप में, वेबर के सिद्धान्त की खूब आलोचना की गई है। तथापि, औद्योगिक अवस्थिति के सिद्धान्त में यह एक अग्रणी प्रयास था। कुछ अर्थशास्त्री वेबर के प्रति अधिक उदार हैं। वे वेबर के सिद्धान्त के बुनियादी आधारों पर प्रश्न नहीं करते हैं। वे इसे सिर्फ व्यावहारिक दृष्टि से अधिक उपयोगी बनाने के लिए शुद्ध सिद्धान्त में कुछ उपान्तरण करने का सुझाव देते हैं।
इन कुछ उपान्तरों में से कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण निम्नलिखित हैं:
एक, परिवहन लागतों से संबंधित मान्यताओं में संशोधन किया जाए और परिवहन लागतों को मात्र भार और दूरी के संदर्भ में विवेचित करने की बजाए परिवहन के विभिन्न साधनों की वास्तविक दर अनुसूची को सम्मिलित किया जाए।
दो, निश्चित श्रम केन्द्रों से संबंधित मान्यताओं में उपांतरण आवश्यक है। अवस्थिति सिद्धान्त में श्रमिकों की उत्प्रवास की प्रवृत्तियों, श्रमिकों की परिवर्तनशील पूर्ति और बदलती हुई मजदूरी दरों को अन्तर्विष्ट किए जाने की आवश्यकता है।
तीन, उपभोक्ता केन्द्रों पर सीमित क्षेत्रों की अपेक्षा विस्तृत क्षेत्रों के रूप में विचार करना महत्त्वपूर्ण है। संभावित बाजार के विस्तार को समाप्त करने से पूर्व प्रतिस्पर्धी विक्रेताओं को भी हिसाब में लेना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त, यदि राज्य द्वारा पूरे देश में एक समान दर पर उत्पाद की पूर्ति करने के उद्देश्य से परिवहन व्ययों को राजसहायता (सब्सिडी) प्रदान की जाती है तो यह भी संभव है कि एक उद्योग की अवस्थिति पर उपभोग केन्द्रों का कोई प्रभाव नहीं पड़े।
चार, यह आलोचना कि यह सिद्धान्त सिर्फ तकनीकी गुणांकों पर विचार करता है, की त्रुटि को जहाँ कहीं भी संभव हो, सिर्फ लागत और मूल्य के रूप में गणना को शामिल करके दूर किया जा सकता है।
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