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1991 के बाद आर्थिक सुधार | नवीन औद्योगिक नीति 1991 के प्रमुख उद्देश्य लिखिए 1991 economic reforms in hindi

1991 economic reforms in hindi 1991 के बाद आर्थिक सुधार | नवीन औद्योगिक नीति 1991 के प्रमुख उद्देश्य लिखिए ?

1990 के दशक में औद्योगिक सुधार और ‘‘क्षमता का उपयोग‘‘
 1990 के दशक के औद्योगिक सुधार

वर्ष 1991 से औद्योगिक सुधारों का एक सामान्य उद्देश्य औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादकता तथा कार्यकुशलता को बढ़ाना था। यह कुछ हद तक नए उद्योगों की स्थापना तथा उनके विकास में बाधाओं को समाप्त कर और इस तरह प्रतिस्पर्धा की गुंजाइश बढ़ाकर किया गया। इन सुधारों में मुख्य रूप से औद्योगिक लाइसेंस प्रणाली और फर्म का आकार संबंधी प्रतिबंध समाप्त करना, विदेशी निवेश के प्रत्यक्ष और विशेष (पोर्ट फोलियो) अन्तर्वाह में उदारीकरण तथा पूँजीगत वस्तुओं, कच्चे मालों और अर्धनिर्मित वस्तुओं का घटते हुए प्रशुल्क दरों पर मुक्त आयात सम्मिलित था। औद्योगिक सुधार नीति का दूसरा प्रमुख तत्त्व उद्योग में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका कम करना और उद्योग को अधिक से अधिक बाह्य अभिविन्यास वाला बनाना था। इस नीति दृष्टिकोण को अपनाने का कारण सार्वजनिक क्षेत्र के घाटा के आकार को कम करना और साथ ही निजी कारपोरेट क्षेत्र के लिए अधिक निवेश योग्य निधियाँ जारी करना था ताकि इसके निवेश व्यय में वृद्धि हो। इतना ही नहीं, औद्योगिक क्षेत्र के अधिक निजीकरण से संसाधनों के उपयोग में कार्यकुशलता बढ़ने तथा औद्योगिक क्षेत्र में तकनीकी क्षमताओं के शीघ्र निर्माण की आशा की गई थी।

 1990 के दशक में औद्योगिक क्षेत्र में ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘
वर्ष 1991-92 में शुरू की गई औद्योगिक सुधार प्रक्रिया के परिणामस्वरूप संरचनात्मक समायोजन के पहले दो वर्षों में विनिर्माण क्षेत्र में काफी मंदी आ गई।

विभिन्न कारकों जैसे आयात संपीड़न, भारतीय रुपये के मूल्य में भारी अवमूल्यन के कारण आयात लागत में वृद्धि, कठोर मौद्रिक नीति, और उद्यमियों पर लगाए गए नकद मार्जिन आवश्यकताओं के कारण औद्योगिक क्षेत्र में समग्र ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ दर में तीव्र गिरावट आई। माँग पक्ष की ओर से, बढ़ती हुई मुद्रा स्फीति और लागू किए गए नए राजकोषीय अनुशासन के परिणामस्वरूप सार्वजनिक व्यय में कमी के कारण प्रभावी माँग में महत्त्वपूर्ण गिरावट आई।

1991-92 और 1992-93 के वर्षों के दौरान औद्योगिक क्षेत्र में ‘‘क्षमता अल्प के उपयोग‘‘ दर, मुख्य रूप से सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था के समष्टि आर्थिक समायोजन के लिए शुरू किए गए स्थिरिकरण उपायों का परिणाम था (देखिए आई सी आई सी आई स्टडी ऑन कैपेसिटी यूटिलाइजेशन इन द प्राइवेट कारपोरेट सेक्टर, 1991-92 और 1992-93)।

धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था और विशेष रूप से औद्योगिक क्षेत्र में उदारीकरण उपायों के अनुकूल परिणाम देखने में आने लगे तथा वृद्धि दर तीव्र हुई, निर्यात कार्य निष्पादन में सुधार हुआ और अधिक आत्म निर्भरता बढ़ी (अर्थात् निर्यात आय से अधिक आयात का वित्त पोषण)।

आर. रेगे. निटश्यूर और एम. जोसेफ द्वारा निजी कारपोरेट क्षेत्र की मध्यम और बृहत् कंपनियों के 802 नमूनों के लिए 1999 में अध्ययन किया गया जिससे कई रोचक निष्कर्ष निकले थे। इस अध्ययन में पाँच वर्षों, 1993-94 से 1997-98 तक की अवधि के लिए वास्तविक आँकडों के आधार पर विभिन्न उत्पाद-स्तर ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ दरों की गणना की गई थी। इस अध्ययन से पता चलता है कि संरचनात्मक समायोजन के पहले दो वर्षों के बाद 1993-94 से निजी कारपोरेट क्षेत्र का पुनरुद्धार शुरू हुआ जो कि 1996-97 तक क्षमता निर्माण, वास्तविक उत्पादन और ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ दर के बढ़ते हुए स्तर तथा 1997-98 तक क्षमता निर्माण से पता चलता है। पूँजीगत वस्तुओं के लिए उदार आयात नीति के फलस्वरूप अधिष्ठापित क्षमता में भारी वृद्धि हुई। इस नीतिगत उपाय के बावजूद भी, अधिष्ठापित क्षमता में वृद्धि उदारीकरण प्रक्रिया के फलस्वरूप निवेश की प्रवृति बढ़ने से, घरेलू पूँजीगत वस्तु क्षेत्र में वृद्धि का अभिप्राय, आय का बढ़ता हुआ स्तर है और हाल ही में जोर पकड़ रहे बाह्य अभिविन्यास (निर्यात को बढ़ावा देना) के परिणामस्वरूप 1996-97 तक निजी कारपोरेट क्षेत्र में ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ दर में सतत् वृद्धि हुई जो गुणक-त्वरक प्रतिक्रिया (भाग 22.3 में जैसी व्याख्या की गई है) का सूचक है। निजी कारपोरेट क्षेत्र के अंदर भी यह प्रवृति आधारभूत और पूँजीगत वस्तु उद्योगों में अधिक स्पष्ट रूप से
दृष्टिगोचर हुई थी। वर्ष 1993-98 के दौरान ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ दर अर्धनिर्मित और टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन करने वाले उद्योगों के लिए कुछ-कुछ अस्थिर रहा। तथापि, 1997-98 में विभिन्न कारकों के कारण निजी कारपोरेट क्षेत्र का पुनरुद्धार का चरण पलट गया। संकुचन का यह चरण पुनः पहले पूँजीगत वस्तु क्षेत्र में दृष्टिगोचर हुआ तथा इसके बाद उपभेक्ता वस्तु उद्योगों में आया।

इस अध्ययन से यह पता चला कि पुनरुद्धार चरण (1993-97) के परिणामस्वरूप निजी कारपोरेट क्षेत्र में बड़े पैमाने पर क्षमता का निर्माण किया गया और 1997-98 में औसत रूप से अधिष्ठापित क्षमता का प्रायः 22 प्रतिशत अप्रयुक्त था। इस अध्ययन से यह भी पता चला कि पूँजीगत वस्तु उद्योग में अप्रयुक्त क्षमता का विस्तार सबसे अधिक था और इसके बाद अर्धनिर्मित वस्तु उद्योग का स्थान था। निजी कारपोरेट क्षेत्र में अप्रयुक्त क्षमता के बड़े भाग से यह स्पष्ट तौर पर पता चलता है कि इस क्षेत्र में 1997-98 में उत्पादकों द्वारा वास्तव में क्षमता बाध्यता (प्रतिबंध) पर पहुँचने से काफी पहले ही चक्रीय उतार (आर्थिक क्रियाकलाप में मंदी) देखा गया था। इसका अभिप्राय यह है कि निजी कारपोरेट क्षेत्र से अतिरिक्त निवेश अथवा स्फीतिकारक दबाव के बिना ही और अधिक विकास (उपयुक्त नीति पैकेज की सहायता से) करने की भरपूर गुंजाइश है।

इन शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अर्थमितिपरक कार्य से आगे यह भी पता चला कि नीति से प्रभावित होने वाले तत्व जैसे ऋण की उपलब्धता, आयात उदारीकरण और सरकार द्वारा राजकोषीय प्रबन्धन इसके (चालू परिव्यय के आकार से यथा प्रदर्शित) और प्रभावित करने वाले गैर नीतिगत तत्वों जैसे विभिन्न उत्पाद समूहों के तैयार उत्पादों के लिए घरेलू और बाह्य माँग दोनों ने निजी कारपोरेट क्षेत्र के लिए 1994-98 के दौरान ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ दरों में अंतर को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया था।

दुर्भाग्यवश, उदारीकरण पश्चात् अवधि के लिए संपूर्ण औद्योगिक क्षेत्र (सार्वजनिक और निजी कारपोरेट क्षेत्रों दोनों को सम्मिलित कर) के लिए भिन्न-भिन्न स्तर पर कोई अनुभवमूलक अध्ययन नहीं किया गया है। इस विषय से संबंधित कृतियों में इस ‘‘अंतराल‘‘ पर गौर करने के लिए 1970 से 2001 की अवधि के लिए संपूर्ण विनिर्माण क्षेत्र हेतु संभावित (अर्थात् क्षमता) और वास्तविक उत्पादन वृद्धि तथा उत्पादन अंतराल के उतार-चढ़ाव को दिखलाने के लिए थोड़ा अर्थमितिपरक अध्ययन किया गया है। ‘‘उत्पादन अंतराल‘‘ की परिभाषा संभाव्य उत्पादन में से वास्तविक उत्पादन घटा कर संभाव्य उत्पादन के अनुपात के रूप में की जाती है। अल्पकाल में, उत्पादन अंतराल के अनुमान ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ की सीमा को दर्शाते हैं। सकारात्मक उत्पादन अंतराल से वास्तविक उत्पादन के इसके संभाव्य स्तर से सकारात्मक विपथन का पता चलता है, जबकि नकारात्मक अंतराल का अभिप्राय क्षमता का अल्प उपयोग है। हॉडरिक-प्रेसकॉट फिल्टर के समय शृंखला (टाइम-सीरीज) तकनीक का उपयोग करके संभव्य उत्पादन (अर्थात् क्षमता के उत्पादन अथवा प्रवृत्ति उत्पादन) के लिए शृंखला (सीरीज) का अनुमान किया गया है।

उपर्युक्त चार्ट यह प्रदर्शित करता है कि उदारीकरण के पश्चात् विशेषकर 1993 तक अर्थात् संरचनात्मक समायोजन की अवधि तक नकारात्मक उत्पादन अंतराल (जो क्षमता के कम उपयोग का सूचक है) बहुत बढ़ गया था। नकारात्मक अंतराल 1994 से घटना शुरू हो गया और 1995 तक समाप्त हो गया जो इस बात का द्योतक था कि विनिर्माण क्षेत्र में ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ दर में धीरे-धीरे सुधार होने लगा। वर्ष 1996-98 के दौरान लगातार तीन वर्षों तक विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि की प्रवृति बनी रही जो कि भारत की उदारीकरण प्रक्रिया की बहुत बड़ी उपलब्धि थी। तथापि, वर्ष 1999 में उत्पादन अंतराल पुनः नकारात्मक बन गया, जो कि विनिर्माण क्षेत्र में औसत ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ दर में गिरावट का द्योतक है तथापि, वर्ष 2000 और 2001 के दौरान ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ दर में कुछ सुधार देखा गया था और इन वर्षों में उत्पादन अंतराल पुनः सकारात्मक (यद्यपि कि यह अत्यन्त कम था) हो गया। यहाँ उल्लेखनीय है कि यह ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ का मात्र सांकेतिक विश्लेषण है (यूनि-वैरिएट टाइम सीरीज विश्लेषण पर आधारित) और यह विस्तृत उत्पाद स्तर विश्लेषण जो फर्म विशेष की व्यष्टि स्तर विशेषताओं को भी हिसाब में लेती है का स्थानापन्न नहीं हो सकता।

सुझाए गए नीतिगत उपाय
यद्यपि कि आर्थिक सुधारों का आरम्भ अत्यन्त ही सफलतापूर्वक किया गया ये सतत् विकास की पूर्व शर्त यानि कि औद्योगिक क्षेत्र में अधिक निवेश को बढ़ावा देने तथा ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ दर बेहतर प्राप्त करने में असफल रहे।

प) राजनीतिक अनिश्चितता और राजनीतिक निर्णय लेने में बढ़ता हुआ ‘‘तदर्थवाद‘‘ जो किसी दृढ़ संकल्प को प्रदर्शित करने की बजाए संकीर्ण और अल्पकालीन राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करता है, इसका एक कारण है।
पप) ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ की खराब दर के लिए उत्तरदायी दूसरा कारण भारतीय रिजर्व बैंक की मुद्रा नीति और उद्योग मंत्रालय के औद्योगिक नीति के बीच समन्वय का अभाव है। मौद्रिक नियंत्रण के माध्यम से कुल माँग के स्तर को कम करके मुद्रा स्फीति को काबू में रखने के लिए तैयार की गई मुद्रा नीतियों की प्रवृत्ति ‘‘क्षमता की उपयोग‘‘ दरों को नीचे रखने तथा अतिरिक्त क्षमता के सृजन को रोकने का काम करती है।

पपप) वित्तीय विनियमों को और कठोर करने से बैंक वाणिज्यिक क्षेत्र को कम ऋण देने लगे तथा उन्होंने सुरक्षित प्रतिलाभ के लिए सरकारी प्रतिभूतियों में अधिक निवेश करना शुरू कर दिया। इसने बैंकों से वाणिज्यिक क्षेत्र को निधियों के प्रवाह पर प्रतिकूल प्रभाव डाला।

पअ) राजकोषीय समेकन के लिए सतत् प्रयास की आवश्यकता होती है क्योंकि सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर उधार लेने से ब्याज दरों में वृद्धि होती है (इस प्रकार ऋण लागत में वृद्धि हो जाती है) और निजी क्षेत्र के लिए ऋण निधियों की उपलब्धता घट जाती है।

अ) ‘‘आधारभूत संरचना विकास के लिए राष्ट्रीय नीति‘‘ की भी आवश्यकता है जो विनियामक और वित्त पोषण तंत्र को स्पष्ट रूप से ‘‘परिभाषित‘‘ करता है। यह सामाजिक सुरक्षा और बीमा क्षेत्र में भी व्यापक सुधारों पर बल देता है जो आधारभूत संरचना निवेश के लिए दीर्घकालीन वित्त उपलब्ध कराएगा। इसके अतिरिक्त, आधारभूत संरचना परियोजनाओं में निवेश को और प्रोत्साहित करने के लिए निजीकरण के जोरदार प्रयास की भी आवश्यकता है।

अप) सुधारों ने पूँजी संबंधी बाधाओं को कम करने में बहुत हद तक सफलता पाई है किंतु श्रमिकों की कार्यकुशलता में सुधार के लिए बहुत प्रयास नहीं किए गए। श्रमिक नीतियों को युक्तिसंगत बनाने और विशेषकर उद्योगों को बंद करने संबंधी नीति तैयार करने की आवश्यकता है।

बोध प्रश्न 3
1) 1990 के दशक के औद्योगिक सुधारों का संक्षेप में वर्णन करें।
2) उदारीकरण उपायों का औद्योगिक क्षेत्र पर निवेश में वृद्धि और ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ का कार्य निष्पादन पर कहाँ तक प्रभाव पड़ा?
3) इस समय भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में ‘‘क्षमता के उपयोग‘‘ में सुधार के लिए किन नीतिगत उपायों का सुझाव आप देते हैं?