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औद्योगिक रुग्णता के कारण | भारत में औद्योगिक रुग्णता के कारण क्या है उपाय industrial sickness causes and remedies in hindi

industrial sickness causes and remedies in hindi  औद्योगिक रुग्णता के कारण | भारत में औद्योगिक रुग्णता के कारण क्या है उपाय बताइए ?

रुग्णता के कारण

रुग्णता के मुख्य कारणों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है। (प) बाह्य कारण और (पप) आंतरिक कारण।

 बाह्य कारण
औद्योगिक रुग्णता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:

प) विनिर्माण की उच्च लागत और उसके ऊपर बिक्री राजस्व की कम वसूली। आदानों की बढ़ी हुई दर के कारण उच्च लागत हो सकती है। उत्पादन के मूल्य पर नियंत्रण नहीं होने के कारण बिक्री राजस्व में कमी हो सकती है।
पप) नियमित रूप से अथवा सुगमतापूर्वक कच्चे मालों का उपलब्ध नहीं होना, अथवा ऊँचे मूल्य पर कच्चा माल उपलब्ध होना।
पपप) आदानों जैसे विद्युत की नियमित आपूर्ति नहीं होना और परिवहन संबंधी समस्याएँ।
पअ) अर्थव्यवस्था में सामान्य मंदी की प्रवृत्ति जो औद्योगिक इकाइयों के समग्र कार्यनिष्पादन को प्रभावित करती है। यह अधोमुखी प्रवणता माँग वक्र अथवा कुल मिलाकर माँग की कमी, विशेषकर उन उद्योगों जिनमें व्युत्पन्न माँग होती है, में प्रदर्शित होगी।
अ) राजकोषीय मद (महसूल), जैसे उत्पाद शुल्क, आयात शुल्क इत्यादि। ये सामान्यतया लाभ-गुंजाइश
(सीमा) को अधिक प्रभावित करते हैं।

 आंतरिक कारण
निम्नलिखित प्रमुख आंतरिक कारणों का उल्लेख किया जा सकता है:
प) उत्पादों की बिक्री हेतु अपर्याप्त माँग अनुमान। सामान्यतया, इकाई विशेष के उत्पादन के लिए विशेष कारकों पर आधारित विनिर्दिष्ट माँग सुनिश्चित किए बिना सिर्फ उद्योग-वार माँग अनुमान लगाया जाता है।
पप) गलत प्रौद्योगिकी का चयन, उत्पाद-मिश्र की अनुपयुक्तता, अथवा एकल उत्पाद प्रौद्योगिकी, उद्योग की गलत अवस्थिति, अचल सम्पत्तियों मुख्य रूप से मशीनों की अनम्यता जिससे विविधिककृत विनिर्माण ढाँचा में उनका संभावित उपयोग नहीं हो पाता है।
पपप) विलम्बित निर्माण कार्य और प्रचालन के फलस्वरूप लागत में वृद्धि तथा अधिक उधारियों के कारण विशेष रूप से दोषपूर्ण पूँजी संरचना। इससे भी अधिक, आरम्भिक चरणों में, कमजोर इक्विटी आधार के कारण प्रचालन संबंधी हानियों तथा उनके प्रभाव को सह सकने के लिए पर्याप्त वित्तीय साधन जुटाने की अक्षमता एक गंभीर बाधा के रूप में आड़े आएँगे।
पअ) जब एक इकाई में प्रचालन शुरू होता है तब कच्चे मालों की कमी एवं उनका अधिक मूल्य, असंतोषप्रद ऋण वसूली, अपर्याप्त स्टॉक प्रबन्धन इत्यादि के कारण कार्यशील पूँजी की बढ़ती हुई कमी एक गंभीर बाधा है।
अ) निष्प्रभावी प्रबन्धन और प्रचालन के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे वित्त, स्टॉक और विपणन पर खराब नियंत्रण और नियंत्रण-हीनता।

उपर्युक्त सभी कारणों में से रुग्णता का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण कुप्रबन्धन है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा किए गए एक अध्ययन से इसकी पुष्टि हुई है। इस अध्ययन से इस तथ्य का पता चलता है कि बृहत् औद्योगिक इकाइयों में 52 प्रतिशत से अधिक की रुग्णता का कारण कुप्रबन्धन, निधियों का अन्यत्र प्रयोग, अन्तर्कलह, और विपणन संबंधी योजना का अभाव है जबकि 14 प्रतिशत की रुग्णता दोषपूर्ण आरम्भिक आयोजना एवं अन्य तकनीकी खामियों तथा 11 प्रतिशत की रुग्णता अन्य कारणों से है।

बोध प्रश्न 1
1) ‘‘व्यापारिक असफलता मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की सामान्य विशेषता है।‘‘ चर्चा कीजिए।
2) औद्योगिक रुग्णता से आप क्या समझते हैं?
3) रुग्ण औद्योगिक इकाई के तीन मुख्य लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
4) औद्योगिक रुग्णता के तीन प्रमुख बाह्य कारणों का उल्लेख कीजिए।

 अर्थव्यवस्था पर रुग्णता का प्रभाव
औद्योगिक रुग्णता की समस्या के समाधान के लिए विभिन्न संस्थाओं और प्रकोष्ठों के होने के बावजूद भी अर्थव्यवस्था पर औद्योगिक रुग्णता का प्रभाव बद से बदतर होता जा रहा है।

औद्योगिक रुग्णता का सबसे खराब प्रभाव यह होता है कि उद्योग उच्च लागत वाला बन जाता है, इससे न सिर्फ अर्थव्यवस्था के अंदर अपितु अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी प्रतिस्पर्धा क्षमता प्रभावित होती है।

औद्योगिक रुग्णता मुख्य रूप से उन 88 प्रतिशत अति रुग्ण इकाइयों की समस्या है जिनका पुनरूद्धार करना संभव नहीं है तथा उनमें निवेश करना पूरी तरह से व्यर्थ है। तब यह बैंकों और बजट दोनों पर बोझ बन जाता है तथा अंततः उपभोक्ताओं को उच्च लागत का मूल्य चुकाना पड़ता है।

विशेष रूप से जब ऐसी नीतियाँ होती हैं जो उद्योगों को अपना कारोबार बंद करने तथा अन्य प्रकार से समायोजन करने की स्वतंत्रता नहीं देती है, तब औद्योगिक रुग्णता की सतत् प्रकृति से न सिर्फ रोजगार के नए अवसरों में कमी आती है अपितु प्रौद्योगिकीय खोजों में भी बाधा आती हैं, इस प्रकार औपचारिक क्षेत्रगत रोजगार में गतिहीनता आती है। अलाभप्रद इकाइयाँ हर स्थिति में बंद पड़ी रहती हैं। इन अलाभप्रद इकाइयों में तथाकथित रोजगार वस्तुतः प्रच्छन्न बेरोजगारी ही है।

औद्योगिक रुग्णता अर्थव्यवस्था में वित्तीय संसाधनों की कमी की समस्या को और गंभीर बना देता है। रुग्ण इकाइयों में फंसे हुए धन का कोई प्रतिलाभ नहीं होता है तथा इसका अन्य लाभप्रद इकाइयों के संसाधन की उपलब्धता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। दीर्घकाल से घाटे में चल रही इकाइयों का प्रचालन जारी रहने से यह अधिक कार्यकुशल उत्पादकों का बाजार छीन लेती हैं और वित्तीय व्यवस्था पर बोझ बनी रहती हैं। साथ ही, रुग्ण इकाइयों में निवेश की गई पूँजी की विशाल राशि जो कई हजार करोड़ रु. है बेकार हो रही है तथा हमारे देश जैसा अल्प पूँजी वाला राष्ट्र इसका भार नहीं उठा सकता है।

अस्सी के दशक के आरम्भ से सरकार की औद्योगिक नीतियों में उदारीकरण की सतत् प्रक्रिया के रूप में अत्यधिक क्षमताओं के सृजन की अनुमति दी गई थी जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन क्षमताएँ माँग से काफी अधिक बढ़ गई हैं जिससे बाजार मूल्य आर्थिक मूल्यों से भी कम हो गया, क्षमता उपयोग में कमी करनी पड़ी और कुछ अत्याधुनिक इकाइयाँ रुग्णता की स्थिति तक पहुँच गई।

यद्यपि हमेशा यह बताने के लिए तर्क दिया जा सकता है कि अत्यधिक क्षमता की समस्या से ग्रस्त औद्योगिक इकाइयों की समस्या संक्रमण कालीन समस्या हैं जिसका अंततः हल निकलेगा और इसके परिणामस्वरूप सुदृढ़ और अधिक कार्यकुशल तथा गुणवत्ता के प्रति सचेत औद्योगिक क्षेत्र का उद्यभव होगा। किंतु जो औद्योगिक इकाइयाँ इन परेशानियों से जूझ रही हैं, इससे आश्वस्त नहीं हो सकती क्योंकि प्रभावित उद्योगों में से अधिकांश शायद ही इस संकट से उबर सकें।

कुल मिलाकर, औद्योगिक रुग्णता का औद्योगिक वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। रुग्ण इकाइयों के निरंतर बंद रहने के परिणामस्वरूप उत्पादन के क्षेत्र में भारी हानि होती है।

बोध प्रश्न 2
1) औद्योगिक रुग्णता के तीन मुख्य आंतरिक कारणों का उल्लेख कीजिए।
2) औद्योगिक रुग्णता अर्थव्यवस्था की अन्तरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धात्मकता को कैसे प्रभावित करती है, स्पष्ट कीजिए।
3) उपभोक्ताओं को कैसे औद्योगिक रुग्णता का मूल्य चुकाना पड़ता है, स्पष्ट कीजिए।

 समाधान और पुनरुद्धार
समष्टि स्तर पर, औद्योगिक रुग्णता आधुनिक औद्योगिक सभ्यता की आवश्यक विशेषता है। उत्पादन के तकनीकी कारकों में निरंतर परिवर्तन, प्रक्रिया और उत्पादों की नई खोजों द्वारा सामाजिक प्रगति होती है। पुरानी प्रौद्योगिकी और उत्पाद जिनकी बाजार में माँग नहीं रह जाती है का समाप्त होना अनिवार्य हेै। तथापि, व्यष्टि स्तर पर, एक औद्योगिक इकाई के स्तर पर, एक रूग्ण इकाई के पुनरुद्धार, यदि ऐसा करना संभव हो, का हर संभव प्रयत्न किया जाना आवश्यक है और जब कोई इकाई पूर्ण रूप से अलाभप्रद हो जाए तभी उसे बंद करने की कार्रवाई करनी चाहिए।

पुनरुद्धार के उद्देश्य से औद्योगिक रुग्णता को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है जो निम्नलिखित है:

परियोजना प्रवर्तकों के अत्यधिक और ईमानदार प्रयासों के बावजूद ऐसे कारकों के कारण जो उनके नियंत्रण से बाहर हैं; ‘‘वास्तविक रुग्णता‘‘।

परियोजना की बुनियादी अव्यवहार्यता, फिर भी उनकी स्थापना के कारण ‘‘आरम्भ से ही रुग्णता‘‘। प्रबन्धकीय अक्षमता और उनका वास्तविक दांव नहीं होने से जानबूझ कर गलत नीतियों के अनुसरण के कारण: उत्प्रेरित रुग्णता।

यद्यपि कि हमारा प्रयत्न रुग्ण इकाइयों के पुनरुद्धार पर केन्द्रित होना चाहिए, ऐसा प्रतीत होता है कि अंतिम दो श्रेणियों की इकाइयाँ कतई विचार किए जाने योग्य नहीं हैं। इन इकाइयों को जितना जल्दी बंद होने दिया जाए, पूरे समुदाय के लिए जिसमें श्रमिक, वित्तीय संस्थाएँ और कई अन्य भी सम्मिलित हैं के लिए श्रेयस्कर होगा। आज की फैलती हुई अर्थव्यवस्था में कृषि और उद्योग क्षेत्र दोनों में, श्रमिक उतनी असहाय अवस्था में नहीं है जितना कि पहले कभी था। नई पीढ़ी का श्रमिक अधिक शिक्षित है, वह अधिक आत्म निर्भर है तथा उपयुक्त पुनः प्रशिक्षण का अवसर मिलने पर वह रोजगार के लिए एक रुग्ण इकाई पर निर्भर रहने से बेहतर अन्यत्र अच्छा रोजगार प्राप्त कर सकता है। इसलिए उपर्युक्त पहली श्रेणी की इकाइयों के पुनर्वास का ही प्रयत्न करने की आवश्यकता है।

उपाय
रुग्ण इकाइयों के पुनरुद्धार के लिए जो विभिन्न उपाय किए जा सकते हैं उसमें कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं:
प) वित्तीय संस्थानों को परियोजना की भलीभांति और गहन समीक्षा करनी चाहिए। ऋण तभी दिया जाना चाहिए जब ऋणदाता एजेन्सी परियोजना की व्यवहार्यता के प्रति पूरी तरह से संतुष्ट हो जाए।

पप) मीयादी ऋणदात्री संस्थाओं और वाणिज्यिक बैंकों के बीच सहयोग होना चाहिए। वाणिज्यिक बैंक साधारणतया कार्यशील पूँजी उपलब्ध कराते हैं। मीयादी ऋणदात्री संस्थाओं की अपेक्षा उन्हें परियोजना की अच्छी जानकारी रहती हैं क्योंकि उनका उधारकर्ता के साथ प्रतिदिन का संबंध रहता है।

पपप) कई व्यावहारिक मामलों में वाणिज्यिक बैंक ऋणों पर ब्याजदर घटाकर, अतिरिक्त ब्याज प्रभारों को बट्टे खाते में डाल कर भारी बकाया राशियों को छोड़ देती हैं और पुनरुद्धार योजना तैयार किए जाने के पश्चात् आगे की आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए कम ब्याज दर पर निधियाँ स्वीकृत करती हैं।

पअ) विभिन्न सरकारी एजेन्सियों, जिसमें विनियामक और संवर्द्धधनात्मक एजेन्सियाँ सम्मिलित हैं और सभी वित्तीय संस्थाओं तथा बैंकों के बीच समन्वय होना चाहिए।

अ) विभिन्न आपूर्तिकर्ताओं, अप्रतिभूत (बेजमानती) ऋणदाता और परियोजना में रुचि रखने वालों जिनका हित इकाइयों के पुनरुद्धार में होता है और विशेषकर कर्मचारियों से पूरा सहयोग मिलना चाहिए।

अप) प्रबन्धन की कमियों को दूर करना चाहिए और ऐसा निदेशक मंडल में पेशेवरों को सम्मिलित करके किया जा सकता है। उत्पादन, वित्त और विपणन के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण पदों पर योग्य तकनीकी और प्रबन्धकीय कार्मिकों को नियुक्त करना चाहिए।

 सरकार की नीति
जैसा कि हमने पहले देखा, ‘‘मुक्त बाजार‘‘ अर्थव्यवस्थाओं में एक औद्योगिक इकाई या तो अपने अस्तित्व की रक्षा कर लेती हैं अथवा विनष्ट हो जाती हैं। पूर्व के ‘‘समाजवादी‘‘ देशों में उद्योगों को उनकी कार्यकुशलता समाप्त हो जाने के पश्चात् भी लम्बे समय तक चलाया जाता रहा ताकि रोजगार के अवसर विद्यमान रहें।

हमारे देश में, जैसा कि हमारी ‘‘मिश्रित अर्थव्यवस्था‘‘ और ‘‘कल्याणकारी राज्य‘‘ के प्रति प्रतिबद्धता रही है उद्योगों को न तो बंद ही होने दिया गया और न ही उनके पुनरुद्धार तथा दक्षतापूर्वक कार्य करते रहने में सहायता दी गई। सुरक्षित बाजार जो भारत में अभी हाल तक अभिप्राप्य था, में उद्योगपतियों ने भी उत्पादकता में सुधार करने की आवश्यकता नहीं महसूस की। केन्द्र और राज्य सरकारों, दोनों ने पुनरुद्धार के अनुपयुक्त उद्योगों को भी बंद नहीं करने दिया है।

फिर भी, औद्योगिक इकाइयों के प्रति दृष्टिकोण में धीरे-धीरे क्रमिक परिवर्तन हो रहा है। हम औद्योगिक रुग्णता के प्रति सरकार की नीति को निम्नलिखित दो अवधियों में विभक्त कर चर्चा करेंगे

 वर्ष 1985 तक नीति
सबसे पहले अप्रैल 1971 में भारतीय औद्योगिक पुनर्निर्माण निगम की स्थापना करके इस समस्या के समाधान का व्यवस्थित प्रयास किया गया था। भारतीय औद्योगिक पुनर्निर्माण निगम की स्थापना का उद्देश्य रुग्ण इकाइयों को पुनर्निर्माण और पुनरुद्धार के लिए सहायता उपलब्ध कराना था। किंतु पर्याप्त संगठनात्मक ढाँचे, निधियों और विधायी शक्तियों के अभाव के कारण यह बहुत कुछ नहीं कर सका।

वर्ष 1977 के औद्योगिक नीति वक्तव्य में औद्योगिक रुग्णता की वृद्धि को स्वीकार किया गया था। एक नियम की भांति, जब कभी एक इकाई अत्यधिक रुग्ण हो जाती थी, और कर्मकारों का जीवन अत्यन्त दयनीय हो जाता था तो सरकार यह समाधान निकालती थी कि उद्योग (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1951 के प्रावधानों के अंतर्गत इकाई के प्रबन्धन को अपने हाथ में ले लेती थी। वक्तव्य में यह घोषणा की गई थी कि यह उच्च स्तरीय अनुवीक्षण समिति द्वारा छानबीन के आधार पर अत्यन्त ही चयनात्मक आधार पर किया जाएगा।

मई 1978 में एक अन्य नीति वक्तव्य जारी किया गया जिसमें यह सुझाव दिया गया था कि वित्तीय संस्थाओं को उन कंपनियों, जिसमें उनका हिस्सा अधिक हो, के निदेशक मंडल में अपना एक पूर्ण कालिक कर्मचारी नामनिर्दिष्ट करना चाहिए। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी समय-समय पर बैंकों को कमजोर या रुग्ण इकाइयों की सूक्ष्म निगरानी करने का अनुदेश जारी किया। इस वक्तव्य में औद्योगिक रुग्णता के समाधान के रूप में लाभप्रद इकाइयों के साथ रुग्ण इकाइयों के विलय की बात भी कही गई थी।

समय बीतने के साथ सरकार ने पाया कि इसे निरंतर बढ़ रही बड़ी संख्या में रुग्ण हो चुकी निजी क्षेत्र की औद्योगिक इकाइयों को अपने हाथ में लेना पड़ा था। यह महसूस किया गया कि वास्तव में इस नीति में औद्योगिक रुग्णता का कोई समाधान नहीं था। उदाहरण के लिए, अनेक कपड़ा मिल जो निजी क्षेत्र में रुग्ण हो गए थे को राष्ट्रीय वस्त्र निगम ने अपने हाथ में ले लिया था। उनमें से अधिकांश रुग्णता से नहीं उबर सके। प्रसंगवश, यहाँ यह उल्लेख किया जा सकता है कि सार्वजनिक क्षेत्र में घाटा पर चल रही इकाइयों में से बड़ी संख्या उनकी है जो निजी क्षेत्र में रुग्ण हुई थीं और जिन्हें सरकार ने अपने हाथ में ले लिया था।

वर्ष 1980 के औद्योगिक वक्तव्य में रुग्ण इकाइयों के प्रति सरकार की नीति स्पष्ट रूप से निर्धारित की गई थी और जून 1981 में भारत सरकार द्वारा जारी नीति दिशानिर्देशों में इसे और स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया। इस वक्तव्य में औद्योगिक रुग्णता के लिए जिम्मेदार कुप्रबन्धन और वित्तीय गलतियों को काफी गंभीरता से लिया गया। निःसंदेह इसने रुग्ण इकाइयों के पुनरुद्धार के लिए पूरा-पूरा सहयोग देने की बात भी कही।

सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक के सहयोग से औद्योगिक इकाइयों की रुग्णता की निगरानी के लिए व्यवस्था की है ताकि सुधारात्मक कार्रवाई समय पर की जा सके। उद्योग (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1951 के अंतर्गत कार्रवाई करने से पूर्व रुग्ण इकाई का प्रबन्ध अपने हाथ में लेने पर विचार किया जाता है, रुग्ण इकाइयों के संबंध में सरकार की नीति के अनुरूप राज्य सरकारों और वित्तीय संस्थाओं के माध्यम से उनके पुनरुद्धार की संभावना पर विचार किया जाता है।

प) रुग्णता के कारणों की निगरानी के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने वाणिज्यिक बैंकों को विशेष प्रकोष्ठ की स्थापना कर अपने संगठनात्मक ढाँचा को सुदृढ़ करने और इन इकाइयों को परामर्शदात्री सेवा उपलब्ध कराने और उनके लिए उपयुक्त विकासोन्मुख कार्यक्रम चलाने की सलाह दी है। इसने उनकी ऋण स्थिति के अनुसार उधार खातों के वर्गीकरण के लिए ‘‘ऋण निगरानी पद्धति‘‘ की व्यवस्था भी शुरू की। खातों की निगरानी और ऋण संपत्ति किस्म में सुधार के लिए इस वर्गीकरण का प्रभाव हथियार के रूप में उपयोग किया जा रहा है।

पप) भारतीय औद्योगिक विकास बैंक की पुनरुद्धार वित्त डिविजन के अंतर्गत बड़ी रुग्ण इकाइयों के मामले में बैंकों से प्राप्त संदर्भो (मामलों) पर विचार करने के लिए एक विशेष प्रकोष्ठ का गठन किया गया है। इस प्रकोष्ठ ने रुग्णता का कारण पता लगाने और उपयुक्त पुनरुद्धार कार्यक्रम तैयार करने के लिए भी अध्ययन कार्य किया था। इन सबके पीछे आशय यही है कि व्यवहार्य इकाइयों को सहायता उपलब्ध कराई जाए तथा उन्हें पुनः विकासोन्मुख बनाया जाए।
पपप) अन्य महत्त्वपूर्ण नीतिगत पहलू लघु क्षेत्र में रुग्णता कम करने में राज्य सरकारों के प्रयत्नों को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए उदारीकृत मार्जिन राशि स्कीम शुरू करना रहा है। इस स्कीम के अंतर्गत राज्य सरकारें रुग्ण औद्योगिक इकाइयों को उनके पुनर्वास में सहायता देने के लिए पचास-पचास प्रतिशत के अनुपात पर समतुल्य अंशदान करती है।

 वर्ष 1985 के बाद नीति
मई 1981 में, भारतीय रिजर्व बैंक ने औद्योगिक रुग्णता की समस्याओं के अध्ययन के लिए तिवारी समिति का गठन किया था। समिति ने पाया कि औद्योगिक रुग्णता के लिए बहुधा उत्तरदायी कारकों में से अधिकांश वह हैं जो प्रबन्धन शीर्ष के अंतर्गत आते हैं। इसलिए, इसमें आगे कहा गया है कि इस पहलू को नियंत्रित करने का उपाय जिस स्कीम में किया जाएगा वही सबसे प्रभावी होगा तथा वांछित परिणाम निकलेगा। समिति ने सुझाव दिया कि औद्योगिक रुग्णता से निपटने के लिए पर्याप्त विशेषज्ञता तथा अधिकारों से युक्त मंडल (बोर्ड) का गठन किया जाना चाहिए।

यद्यपि कि वाणिज्य मंडल जिसने समिति के सम्मुख साक्ष्य दिया था, रुग्ण औद्योगिक इकाइयों से निपटने के लिए किसी भी अर्द्धन्यायिक निकाय के गठन का पक्षधर नहीं था किंतु बैंक ऐसे निकाय के गठन की पुरजोर हिमायत कर रहे थे। समिति ने सुझाव दिया कि ‘‘इस तरह गठित किया गया स्थायी न्यायिक अथवा अर्द्धन्यायिक प्राधिकरण रुग्ण औद्योगिक इकाइयों के पुनरुद्धार के लिए पैकेज/कार्यक्रम को अनुमोदित करने के लिए सर्वोच्च प्राधिकारी हो और इसे अनुमोदित पैकेजों/कार्यक्रमों के निर्विध्न कार्यान्वयन की देखरेख का क्षेत्राधिकार भी होगा।‘‘ वर्ष 1985 में, केन्द्र सरकार के तत्कालीन आर्थिक सलाहकार डा. बिमल जालान ने जर्मनी में औद्योगिक रुग्णता पर काबू पाने के लिए किए जा रहे उपायों से संबंधित जानकारी के आधार पर सुझाव दिया था कि इस समस्या पर काबू पाने के लिए उच्च स्तरीय अर्द्ध-न्यायिक निकाय गठित किया जाए।

इन विचार-विमर्शों के फलस्वरूप सरकार ने रुग्ण औद्योगिक कंपनी (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1985 को अधिनियमित किया।