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औद्योगिक रुग्णता की परिभाषा क्या है | रुग्ण उद्योग किसे कहते है अर्थ मतलब industrial sickness in hindi meaning

industrial sickness in hindi meaning  औद्योगिक रुग्णता की परिभाषा क्या है | रुग्ण उद्योग किसे कहते है भारत के औद्योगिक बीमारी का अर्थ मतलब ?

रुग्णता के लक्षण और इसकी परिभाषा
औद्योगिक इकाई यदि स्वस्थ नहीं है तो वह रुग्ण है। एक औद्योगिक इकाई के स्वास्थ्य का माप कई मापदंडों के आधार पर किया जा सकता है। इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण लक्षण निम्नलिखित हैं:
ऽ इकाई के खातों में कम कारोबार;
ऽ ओवरड्राफ्ट के लिए बार-बार अनुरोध, तथा कभी-कभी बैंक को पूर्व सूचना दिए बगैर स्वीकृत ऋण सीमा से अधिक आहरण;
ऽ परिपक्वता पर बिलों के भुगतान में विफलता;
ऽ स्टॉकों का कुल व्यापार धीमा;
ऽ स्टॉक विवरणी प्रस्तुत करने में अकारण विलम्ब;
ऽ नकद की तुलना में चेक से आहरण की प्रवृत्ति कम; और
ऽ स्टॉक का अधिमूल्यन, स्टॉकों का विपथन (क्पअमतेपवद) अथवा स्टॉक को बनाए रखने में

परिभाषा
रुग्ण उद्योग की समुचित परिभाषा वर्ष 1985 में रुग्ण औद्योगिक कंपनी अधिनियम के पारित होने के बाद ही की गई।

यह अधिनियम 15 मई, 1987 से लागू हो गया। वर्ष 1993 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया। रुग्ण औद्योगिक कंपनी संशोधन अधिनियम जो फरवरी 1994 से प्रभावी हुआ रुग्ण औद्योगिक कंपनी की परिभाषा एक औद्योगिक कंपनी (एक कंपनी के रूप में कम से कम पाँच वर्षों से पंजीकृत) जिसका किसी भी वित्तीय वर्ष के अंत में संचित घाटा इसके सम्पूर्ण निवल सम्पत्ति के बराबर अथवा उससे अधिक है के रूप में करता है।

निवल सम्पत्ति की निम्नवत् व्याख्या की गई है:
निवल सम्पत्ति = कुल देनदारियों – (वर्तमान देनदारियाँ ़ दीर्घकालीन ऋण)
कुल देनदारियाँ = वर्तमान देनदारियाँ ़ आस्थगित देनदारियाँ ़ इक्विटी
वर्तमान देनदारियाँ = मजदूरी ़ ऋण (अल्पकालीन) ़ देय कर इत्यादि।
दीर्घकालीन ऋण = आस्थगित देनदारियाँ जैस़े दीर्घकालीन ऋण इत्यादि, डिबेंचर, वित्तीय संस्थाओं से ऋण, इत्यादि।
इक्विटी = प्रदत्त पूँजी ़ प्रतिधारित आय (आरक्षित निधि)

 वास्तविक रुग्णता और प्रारम्भिक रुग्णता
हम वास्तविक रुग्णता और प्रारंभिक रुग्णता में भेद कर सकते हैं।

वास्तविक रुग्णता निम्नलिखित रूप में प्रकट होती है:
ऽ निवल सम्पत्ति में पचास प्रतिशत या उससे अधिक ह्रास;
ऽ विगत वर्ष के दौरान इकाइयाँ कुल छः महीनों या अधिक की अवधि के लिए बंद रहीं;
ऽ ऋण किस्तों के भुगतान में चूक।

प्रारंभिक रुग्णता की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:

ऽ पहले पाँच वर्षों के दौरान उच्चतम क्षमता उपयोग के आधे से भी कम क्षमता उपयोग

राज्य वित्त निगमों के अनुसार यदि कोई इकाई ब्याज और/अथवा मूलधन के 3 लगातार किस्तों (अर्द्धवार्षिक) की अदायगी में विफल रहती है तो यह इकाई रुग्ण है।

रुग्णता की विकरालता
भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों से संकलित सूचना के अनुसार 31 मार्च 1999 को 309, 013 रुग्ण इकाइयाँ थीं। इसमें से 306, 221 इकाइयाँ लघु क्षेत्र की और 2,792 इकाइयाँ गैर लघु क्षेत्र की थीं। इन 2, 792 इकाइयों में से 2,363 इकाइयाँ, 263 इकाइयाँ और 154/12 इकाइयाँ क्रमशः निजी क्षेत्र, सार्वजनिक क्षेत्र और संयुक्त/सहकारी क्षेत्र की थीं।

इन रुग्ण इकाइयों में 19,404 करोड़ रु. की कुल बैंक ऋण (31 मार्च, 1999 की स्थिति के अनुसार) अवरूद्ध थी। लघु क्षेत्र की इकाइयों में 4, 313 करोड़ रु. (22.2 प्रतिशत) और गैर लघु क्षेत्र इकाइयों में 15,150 करोड़ रु. (77.8 प्रतिशत) अवरुद्ध थी। गैर लघु क्षेत्र निजी, सार्वजनिक और संयुक्त/सहकारी इकाइयों में बैंक ऋण क्रमशः 11,493 करोड़ रु. 2,939 करोड़ रु. और 703 करोड़ रु. अवरूद्ध थी।

इकाइयों की रुग्णता की विकरालता के साथ-साथ जिस दर से और अधिक इकाइयाँ रुग्ण हो रही हैं वह अत्यधिक चिन्ता का विषय है।

उपलब्ध अनुमानों के अनुसार, औद्योगिक रुग्णता, इकाइयों की संख्या और बैंक ऋण की बकाया राशि के हिसाब से क्रमशः लगभग 28 प्रतिशत और 13 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा है (ये आंकड़े समग्र औद्योगिक वृद्धि की तुलना में काफी अधिक हैं)।

लगभग 29,000 इकाइयाँ प्रतिवर्ष रुग्ण इकाइयों की सूची में जुड़ जाती हैं अर्थात् एक कार्य दिवस में लगभग 90 इकाइयाँ रुग्ण हो जाती हैं। प्रायः लघु क्षेत्र में प्रत्येक तीसरी या चैथी और मध्यम तथा बृहत् क्षेत्र में प्रत्येक दसवीं इकाई रुग्ण है अथवा मरणासन्न है। सरकारी तौर पर पूर्ण रूप से रुग्ण घोषित की गई इकाइयों में से लगभग 90 प्रतिशत अलाभकारी हैं। 3 प्रतिशत संदिग्ध मामले हैं और मात्र 7 प्रतिशत को ही स्वंय समर्थता की संभावना वाली रुग्ण इकाई माना गया है। 99 प्रतिशत तक रुग्ण इकाइयाँ लघु क्षेत्र की हैं। वाणिज्यिक बैंकों की निधियों का बड़ा भाग अपेक्षाकृत कम संख्या-लगभग 2,792 बृहत् औद्योगिक इकाइयों में फंसा हुआ है।

 रुग्णता की वर्तमान प्रवृत्तियाँ
रुग्णता की वर्तमान प्रवृत्तियाँ अध्ययन की दृष्टि से यद्यपि कि रुचिकर हैं किंतु यह परेशान करने वाली भी है। वर्ष 1990 में जब से उदारीकण की प्रक्रिया शुरू हुई है औद्योगिक रुग्णता बहुत ही उल्लेखनीय विषय नहीं रह गया है। अर्थात् इकाइयाँ रुग्ण हो रही हैं किंतु इसे गंभीरता से नहीं लिया जाता है। इसे बाजारोन्मुखी अर्थव्यवस्था के एक हिस्से के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। चाहे जो भी हो, नव-क्लासिकल तर्क यहाँ भी सही है कि बाजार की शक्तियाँ ही सर्वोपरि हैं। और यदि प्रतिस्पर्धा में कंपनियाँ पिछड़ जाती हैं तो ऐसा होना स्वाभाविक ही है।

नीति के परिणामस्वरूप, औद्योगिक रुग्णता में निम्नलिखित प्रवृत्तियों को देखा जा सकता है:
ऽ रुग्णता निजी क्षेत्र में भी उतना ही व्याप्त है जितना कि सार्वजनिक क्षेत्र में।
ऽ लघु क्षेत्र की अपेक्षा बृहत् और मध्यम आकार की इकाइयों में रुग्णता अधिक तेजी से फैल रही है।
ऽ इंजीनियरिंग और कपड़ा उद्योग सबसे अधिक प्रभावित रहे हैं। भविष्य में इनमें रुग्णता और भी बढ़ेगी क्योंकि आज पूँजीगत मालों पर आयात टैरिफ न्यूनतम हैं।

उद्देश्य
यह इकाई भारत में औद्योगिक रुग्णता की समस्या और इस समस्या के समाधान के लिए सरकार द्वारा अपनाई गई विभिन्न नीतियों का विहंगम दृश्य प्रस्तुत करती है। इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप:
ऽ परिवर्तन की प्रक्रिया की गति और पुरानी पड़ चुकी औद्योगिक इकाइयों का बंद होना समझ सकेंगे;
ऽ औद्योगिक रुग्णता के लक्षणों और इसकी विशेषताओं की पहचान कर सकेंगे;
ऽ इस समस्या की विकरालता और विविध आयामों को जान सकेंगे;
ऽ अर्थव्यवस्था में बढ़ रही रुग्णता के कारणों को चिन्हित कर सकेंगे;
ऽ अर्थव्यवस्था पर रुग्णता के प्रभाव को समझ सकेंगे;
ऽ रुग्ण इकाइयों की पुनस्र्थापना के उपाय बता सकेंगे; और
ऽ इस पृष्ठभूमि में इस समस्या के प्रति सरकार के चिंतन को समझ सकेंगे।

प्रस्तावना
उद्योग की रुग्णता उतनी ही पुरानी है जितना कि स्वयं आधुनिक उद्योग। एक तरह से, हम कह सकते हैं कि रुग्णता औद्योगिक पूँजीवाद की अपरिहार्य विशेषता है।

उत्पादन की शक्तियों में सतत् आमूल परिवर्तनों, निरंतर प्रौद्योगिकीय आविष्कारों, पुराने उत्पादों के स्थानापन्न, नए उत्पादों की वृद्धि, या संक्षेप में यूँ कह सकते हैं कि मुक्त पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में विद्यमान मुक्त बाजारों में उसी का अस्तित्व बना रहता है जो सबसे उपयुक्त होता है, के परिणामस्वरूप औद्योगिक विकास की प्रक्रिया चलती रहती है। वे इकाइयाँ जो पुरानी पड़ चुकी प्रौद्योगिकियों का उपयोग करती हैं अथवा जिनके उत्पादों की बाजार में माँग नहीं रह जाती है का विनाश होना अनिवार्य है। ऐसा भी हो सकता है कि नए, सस्ते और अच्छे स्थानापन्न की उपलब्धता के कारण किसी उत्पाद की माँग समाप्त हो जाती है। विगत में, हमारे हस्तशिल्प उद्योग के साथ ठीक यही हुआ। हाल के दिनों में पुराने टाइप राइटरों, पुराने मुद्रण उपकरणों, 1990 से पूर्व के ऑटोमोबाइल इत्यादि के मामले में भी यही हश्र हुआ।

दूसरे शब्दों में, विकास की सामान्य प्रक्रिया में व्यावसायिक असफलता की कुछ घटनाएँ हो सकती हैं। किसी समय औद्योगिक इकाइयों में से कुछ बंद हो रहे होंगे, अथवा उनमें कटौती हो रही होगी अथवा वे जिस बाजार में कार्यशील हैं उसकी बदलती हुई परिस्थितियों से समायोजन का प्रयास कर रही होंगी।

विकसित बाजार अर्थव्यवस्थाओं और निरंतर परिवर्तनशील परिस्थितिजन्य विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में, यह प्रक्रिया कानूनी ढाँचे के अंतर्गत चलती है जिसमें यह समायोजन पूँजी बाजार, बैंकों और विशेषज्ञता प्राप्त दिवाला संस्थानों की मध्यस्थता द्वारा किया जाता है। तथापि, भारत की स्थिति बाजार अर्थव्यवस्थाओं में संभवतः अद्वितीय है क्योंकि यहाँ ऐसी नीतियाँ हैं जो समायोजन की सामान्य प्रक्रिया के ऊपर हैं और फर्मों को अपना प्रचालन बंद करने से प्रभावशाली तरीके से रोकती हैं। इसके परिणामस्वरूप विशिष्ट भारतीय परिदृश्य वाले ‘‘औद्योगिक रुग्णता‘‘ की घटना का चैतरफा प्रसार हुआ जिसमें घाटा में चल रही फर्मों को बैंकिंग प्रणाली, केन्द्र और राज्य सरकार दोनों से मिलने वाली विभिन्न प्रकार की सब्सिडियों (राज सहायता) और बृहत् अथवा समुच्चय फर्मों में परस्पर प्रति-सब्सिडी (राज सहायतों) के द्वारा न्यूनाधिक अनंतकाल तक चालू रखा गया।

सारांश
व्यापारिक विफलता मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की एक प्रमुख विशेषता है। वे औद्योगिक इकाइयाँ जो समय के साथ परिवर्तन नहीं करती रहती हैं और इकाइयों के आधुनिकीकरण में पिछड़ जाती हैं वो अंततः संचित घाटा के शिकंजे में जकड़ जाती हैं। उनके पास इकाई बंद करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता है। किंतु भारत जैसे विकासशील अर्थव्यवस्था में औद्योगिक इकाइयों को बंद करने की लागत रोजगार के छिनने के हिसाब से बहुत ज्यादा बैठती है। इसलिए, इस तरह की इकाइयों को बंद करना एक बेहद ही आसान तरीका माना जा सकता है। इस तरह की इकाइयों के पुनरुद्धार तथा बाजार शक्तियों की चुनौतियों का सामना करने के लिए उनमें नव स्फूर्ति के संचार में सहायता करने की आवश्यकता है। भारत में औद्योगिक विकास के आरम्भिक चरणों में, जो अस्सी के दशक के आरम्भ तक चलता रहा, सरकार, एक संरक्षक के रूप में, रोजगार और उत्पादक संपत्तियों को बचाने के प्रयत्न में इस आशा के साथ रुग्ण इकाइयों का अधिग्रहण किया करती थी कि ऐसी इकाइयाँ पुनरुज्जीवित हो जाएगी तथा एक बार फिर औद्योगिक विकास के पथ पर बढ़ेगी। किंतु कुल मिला कर ऐसी आशाएँ मिथ्या साबित हुई। रुग्ण औद्योगिक कंपनी अधिनियम, 1985 का अधिनियमित किया जाना इस तथ्य की स्वीकारोक्ति थी कि सरकारी अधिग्रहण इस समस्या का व्यवहार्य समाधान नहीं हो सकता है। तब इस समस्या पर ध्यान देने और रुग्ण इकाइयों को पुनः लाभप्रद बनाने के लिए बी आई एफ आर की स्थापना की गई। अब यह महसूस किया जा रहा है कि बी आई एफ आर की स्थापना के भी वांछित परिणाम नहीं निकले और इसलिए वैकल्पिक तंत्र की तलाश करनी चाहिए।

कुछ उपयोगी पुस्तकें एवं संदर्भ
ओंकार गोस्वामी, (1993). औद्योगिक रुग्णता और कारपोरेट पुनःसंरचना संबंधी समिति का प्रतिवेदन, भारत सरकार, जुलाई।
एस. मुरलीधरन, (1993). इण्डस्ट्रियल सिकनेस, विधि, नई दिल्ली।
एम.एस. नारायणन, (1994). इण्डस्ट्रियल सिकनेस इन इंडिया, कोणार्क, दिल्ली ।
गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया, (2001). इकनॉमिक सर्वे 2000-01, नई दिल्ली।
आई.सी.धींगरा, (2001). दि इंडियन इकानॉमी, एन्वायरन्मेंट एण्ड पॉलिसी, अध्याय 22, सुल्तान चंद, नई दिल्ली।
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (2000-01). रिपोर्ट ऑन करेंसी एण्ड फाइनान्स, आर. बी. आई. बाम्बे।