सूर्यमल्ल मिश्रण की प्रमुख रचनाएं | वंश भास्कर के रचयिता है वीर सतसई किसकी रचना है surya mall mishran in hindi
surya mall mishran in hindi सूर्यमल्ल मिश्रण की प्रमुख रचनाएं | वंश भास्कर के रचयिता है वीर सतसई किसकी रचना है ?
प्रश्न: सूर्यमल्ल मिश्रण की साहित्यिक उपलब्धियाँ
उत्तर: बंदी के राजकवि सूर्यमल्ल मिश्रण षट्भाषी, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष आदि शास्त्रों में निष्णात कवि थे। गहन, गंभीर, मार्मिक, भावानुभूति तथा प्रखर प्रांजल अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट निदर्शन है महाकवि का काव्य। वंशभास्कर इनका प्रसिद्ध इतिहास ग्रंथ है एवं वीर सतसई में वीररस की अतुलनीय व्यंजना है। इन्होंने बलवंत विलास, छंदोमयूख, सतीरासों आदि अनेक यशस्वी ग्रंथ लिखे। ये चारणों के सर्वोत्कृष्ट महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित है तथा आधुनिक राजस्थानी काव्य के नवजागरण के पुरोधा कवि थे।
लघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न: राजस्थान की मुख्य बोलियाँ
उत्तर: राजस्थान की 73 बोलियाँ मानी गई हैं जिनमें से आठ-दस ही मुख्य हैं। इनमें मारवाड़ी प्रचार-प्रसार एवं साहित्यिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। जो पश्चिमी राजस्थानी की प्रधान बोली है तथा मरु प्रदेश में बोली जाती है। बागड़ी, मेवाड़ी, शेखावाटी, गौड़वाड़ी इसकी प्रमुख उपबोलियाँ हैं। ढूंढाड़ी पूर्वी राजस्थानी की मुख्य बोली है जो जयपुर क्षेत्र में बोली जाती है। हाड़ौती, काठेड़ इसकी प्रधान उपबोलियाँ हैं। उत्तरी राजस्थानी की मुख्य बोली मेवाती ब्रज से प्रभावित है एवं अहिरवाटी हरियाणवी से प्रभावित है। दक्षिणी राजस्थान की मुख्य बोलियाँ मालवी व नीमाड़ी है।
प्रश्न: ढूंढाड़ी
उत्तर: उत्तरी जयपुर को छोड़कर शेष जयपुर, किशनगढ़, टोंक, लावा तथा अजमेर-मेरवाड़ा के पूर्वी अंचलों में प्रयुक्त की जाने वाली बोली ढूँढाड़ी कहलाती है। इस पर गुजराती, मारवाड़ी एवं ब्रजभाषा का प्रभाव समान रूप से मिलता है। ढूँढाडी में गद्य एवं पद्य दोनों में प्रचुर साहित्य रचा गया। संत दादू एवं उनके शिष्यों ने इसी भाषा में रचनाएँ की। इसे श्जयपुरी या झाड़शाहीश् भी कहते हैं। इस बोली का प्राचीनतम उल्लेख 18वीं शती. की ‘आठ देस गूजरी‘ पुस्तक में हुआ है।
ढूँढाड़ी की प्रमुख बोलियाँ एवं उपबोलियां: हाड़ौती, अहीरवाटी, मेवाती, रांगड़ी, मालवी आदि बोलियां एवं तोरावाटी, राजावाटी, चैरासी (शाहपुरा), नागरचोल, किशनगढ़ी, अजमेरी, काठेड़ी आदि उपबोलियां हैं।
प्रश्न: हाड़ौती
उत्तर: हाड़ा राजपूतों द्वारा शासित होने के कारण कोटा, बूंदी, बारां एवं झालावाड़ का क्षेत्र हाड़ौती कहलाया और यहाँ की बोली हाड़ौती कहलायी, जो ढूंढाड़ी की ही एक उपबोली है। हाड़ौती का भाषा के अर्थ में प्रयोग सर्वप्रथम केलॉग को हिन्दी ग्रामर में सन् 1875 ई. में किया गया। इसके बाद ग्रियर्सन ने भी अपने ग्रंथ में हाड़ौती को बोली के रूप में मान्यता दी। वर्तनी की दृष्टि से हाडौती राजस्थान की सभी बोलियों में सबसे कठिन समझी जाती है।
वर्तमान में हाडौती कोटा, बँदी (इन्द्रगढ़ एवं नैनवा तहसीलों के उत्तरी भाग को छोड़कर), बारां (किशनगंज एवं शाला तहसीलों के पूर्वी भाग के अलावा) तथा झालावाड़ के उत्तरी भाग की प्रमुख बोली है। हाड़ौती के उत्तर में नागरचोल, उत्तर-पूर्व में स्यौपरी, पूर्व तथा दक्षिण में मालवी बोली जाती है। कवि सूर्यमल्ल मिश्रण की रचनाएँ इसी बोली में हैं। इसका विस्तार ग्वालियर तक है। हूणों एवं गुर्जरों की भाषा का इस पर प्रभाव है।
प्रश्न: मेवाती
उत्तर: अलवर एवं भरतपुर जिलों का क्षेत्र मेव जाति की बहुलता के कारण मेवात के नाम से जाना जाता है। अतः यहाँ की बोली मेवाती कहलाती है। यह सीमावर्तिनी बोली है। उद्भव एवं विकास की दृष्टि से मेवाती पश्चिमी हिन्दी एवं राजस्थानी के मध्य सेतु का कार्य करती है। मेवाती बोली पर ब्रजभाषा का प्रभाव बहुत अधिक दृष्टिगोचर होता है। लालदासी एवं चरणदासी संत सम्प्रदायों का साहित्य मेवाती भाषा में ही रचा गया है। चरणदास की. शिष्याएँ दयाबाई । सहजोबाई की रचनाएँ इसी बोली में है। स्थान भेद के आधार पर मेवाती बोली के कई रूप देखने को मिलते हैं जैसे खड़ी मेवाती, राठी मेवाती, कठेर मेवाती, भयाना मेवाती, बीघोता, मेव व ब्राह्मण मेवाती आदि।
प्रश्न: डिंगल-पिंगल
उत्तर: राजस्थानी भाषा की साहित्यिक शैलियों को डॉ. नामवर सिंह ने डिंगल और पिंगल में वर्गीकत किया है। सिर राजस्थानी का साहित्यिक रूप है जो गुजराती से साम्यता रखती है तथा चारणों द्वारा साहित्य लेखन में प्रयुक्त हुई। डिंगल का पहला ग्रंथ कशललाभ द्वारा रचित पिंगल शिरोमणि है। श्रृंगार, वीररस, ऐतिहासिक काव्य आदि इसकी विशेषता पिंगल (छन्द शास्त्र) पर्वी राजस्थानी का साहित्यिक रूप है जो ब्रज भाषा से प्रभावित है तथा भाटों द्वारा प्रयुक्त की गई। इसका विकास मेवाती, हाड़ौती आदि पूर्वी बोलियों एवं पश्चिमी हिंदी के रूप में हुआ।
प्रश्न: बागड़ी का प्रचलन क्षेत्र व भाषागत विशेषताएँ
उत्तर: डूंगरपुर एवं बाँसवाड़ा का सम्मिलित क्षेत्र ‘बागड़‘ कहलाता है। यहाँ की बोली को ही बागड़ी कहा जाता है। मेवाड़ के दक्षिण एव सूध राज्य के उत्तर में तथा अरावली प्रदेश एवं मालवे की पहाड़ियों तक इसका विस्तार है। बागड़ी के इस रूप को मालवी-विद्वान पश्चिमी मालवी भी कहते हैं। ग्रियर्सन इसके ‘भीली‘ नाम की कल्पना भी करते हैं, जो उचित प्रतीत नहीं होती। प्रकाशित साहित्य का अभाव होने के बावजूद बागड़ी वक्ताओं की संख्या 309903 बताई जाती है। बागड़ी की भाषागत विशेषताओं में च, छ का ‘स‘, ‘स‘ का ‘है‘ (जोधपुरी प्रभाव से) प्रमुख है। भूतकालिक सहायक क्रिया ‘था‘ के स्थान पर ‘हतो‘ रूप प्रचलित है।
प्रश्न: रास और रासो साहित्य
उत्तर: 11वीं सदी के लगभग जैन कवियों द्वारा रास साहित्य एवं राजाश्रय में रासो साहित्य लिखा गया। इस साहित्य द्वारा तत्कालीन ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों के मूल्यांकन की पृष्ठभूमि निर्मित हुई। इनमें प्रेम व श्रृंगार परक रचनाओं को रास व वीरतापरक काव्यों को रासो की संज्ञा दी गयी है। इनमें से रासो साहित्य राजस्थान की ही देन है जिसके अभाव से आदिकालीन साहित्य महत्व शून्य हो जाता है। निःसन्देह रास व रासो आदिकालीन हिन्दी साहित्य का सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य रूप रहा है। प्रारम्भिक कृतियों में ‘खुम्माण रासो, ‘बीसलदेव रासो, ‘पृथ्वीराज रासो आदि प्रमुख रासो ग्रंथ हैं।
ऐसे प्रश्नों में ग्रंथों का अधिक नाम देने से बचें। उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ एवं उनका योगदान बताएं। कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथों को उदाहरण के रूप में अवश्य देना चाहिए।
प्रश्न: सन्त साहित्यध्भक्ति-साहित्य परम्परा
उत्तर: 14वीं सदी से 18वीं सदी पर्यन्त साहित्य में भक्ति साहित्य परम्परा (संत साहित्य) का प्रभाव रहा। जिसमें एक ओर राम व कृष्ण के सगुण साकार रूप की अभिव्यंजना कर साहित्य रचा गया। मीरा की पदावलियाँ, परशुराम, निम्बार्की, बल्लभ सम्प्रदाय के संतों, कृष्णदास पयहारी, नागरीदास, महाराजा प्रतापसिंह आदि अनेक संतों व शासकों ने सगुण भक्ति परम्परा साहित्य को समृद्ध किया। दूसरी ओर राम कृष्ण के निर्गुण निराकार रूप की अभिव्यंजना कर संत जाम्भोजी, संत दादयाल, संत लालदास, संत चरणदास, संत सुन्दरदास आदि अनेक संतों ने अपने-अपने तथा धर्मोपदेश अपनी वाणियां (ग्रंथों) में दिये। इन्होंने संत साहित्य की निर्गुण भक्ति परम्परा को समृद्ध किया।
प्रश्न: चारण साहित्य
उत्तर: चारण साहित्य से अभिप्राय चारण, भाट आदि गाथा गायक जातियों की कृतियों एवं लेखन शैलियों (डिंगल-पिंगल) से है। यह साहित्य अधिकांशतः पद्यमय, वीररसात्मक एवंश्रृंगारपरक है। यह प्रबन्ध काव्य के रूप में यथा सूरजप्रकाश, वंशभास्कर आदि, प्रभावोत्पादक गीत रूप में यथा दुरसाआढा, केशव दास आदि के तथा दोहों, सोरठो इत्यादी के छन्द रूपों में मिलता है। दूसरी ओर गद्य साहित्य में ख्यात, वात, पीढ़ी, वंशावली आदि नाना रूप मिलते हैं। बांकीदास, दयालदास, सूर्यमल्ल मिश्रण चारण गद्य साहित्य के अमर लेखक हैं।
प्रश्न: राजस्थानी वेलि साहित्य
उत्तर: 15वीं सदी से 19वीं सदी तक प्राकृत एवं अपभ्रंश से मिश्रित राजस्थानी वेलि साहित्य का विकास हुआ। यह लौकिक, जैन एवं ऐतिहासिक प्रकारों में मिलता है जिसकी भाषा डिंगल है। ऐतिहासिक वेलि में राजा-महाराजाओं, सामन्तों का वीर रसपूर्ण वर्णन, जैन वेलि साहित्य में ऐतिहासिक, कथात्मक एवं उपदेशात्मक वर्णन मिलता है। पौराणिक-धार्मिक वेलि ग्रंथों में काव्यकथा का आधार कृष्ण, विष्णु एवं शिव पुराण रहा है जो श्रृंगार एवं वीररस पूर्ण है। कृष्ण ‘रूक्मणी री वेलि‘, कलापक्ष और प्रकृति चित्रण की दृष्टि से अनुपम ग्रंथ है। वेलि ग्रंथों की संख्या 75 से अधिक है।
प्रश्न: विजयदान देथा
उत्तर: साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित विजयदान देथा का जन्म 1926 ई. में बोरून्दा (जोधपुर) में हुआ। ये राजस्थानी व हिन्दी साहित्य के आधुनिक साहित्यकार थे। ये राजस्थानी कहानी को संवेदना व शिल्प के स्तर पर आयाम देने वाल प्रसिद्ध कथाकार एवं उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए। इनका ‘रूपायन संस्थान (बोरून्दा)‘ को विशेष योगदान रहा। इन्होंने ‘लोक संस्कृति‘ का संपादन तथा राजस्थानी लोक कथाओं का संग्रह ‘बाता री फलवारी‘ का संपादन किया। दुविधा, माँ रो बादलों, तीडो राव, हिटलर, जमीन रो धणी कुणी आदि इनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं।
प्रश्न: जान कवि
उत्तर: फतेहपुर (सीकर) में कायमखानी परिवार में जन्में 17वीं सदी की रीति काव्य परम्परा के प्रसिद्ध व लोकप्रिय कवि जानकवि को श्री अगरचन्द नाहटा द्वारा प्रकाश में लाया गया। इन्होंने 75 ग्रंथों की राजस्थानी में रचना की। इनका ‘कायमरासो‘ (1654) राजस्थान में चरित काव्य परम्परा का ग्रंथ है जिस पर पृथ्वीराज रासों के शिल्प का न्यूनाधिक प्रभाव है। यह रीति काव्य परम्परा का ग्रंथ है । पंचतंत्र के आधार पर रचित काव्य ‘बद्धि सागर‘ में जीवन के लोकानुभावों तथा संवेदनाओं को इन्होंने सरल सुबोध अभिव्यक्ति प्रदान की है।
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