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ताजीम क्या है | ताजीम किसे कहते है अर्थ और मतलब क्या है मीनिंग इन हिंदी tazim meaning in hindi

tazim meaning in hindi tajim meaning in english ताजीम क्या है | ताजीम किसे कहते है अर्थ और मतलब क्या है मीनिंग इन हिंदी ?

प्रश्न : ताजीम का अर्थ क्या होता है ?

उत्तर : ताजिम का मतलब है सम्मान देना | जब कोई सामंत दरबार में उपस्थित होता था तो महाराणा द्वारा खड़े होकर उसका आदर सत्कार करने की प्रथा “ताजीम” कहलाती थी |

प्रश्न : अकबर की राजपूत निति का उल्लेख कीजिये और यह बताइए कि इस निति ने मुग़ल – राजपूत सम्बन्धों को कहाँ तक प्रभावित किया ?

उत्तर : अकबर ने मुग़ल – राजपूत सम्बन्धों की जो बुनियाद रखी थी वह कमोबेश आखिर तक चलती रही। आर.पी. त्रिपाठी के अनुसार अकबर शाही संघ के प्रति राजपूतों की केवल निष्ठा चाहता था। इसके लिए चार बातें आवश्यक थी –
1. राजपूत शासकों को खिराज की एक निश्चित रकम अदा करनी होगी।
2. उन्हें अपनी विदेश निति का निर्धारण , आपसी युद्ध तथा संधि करने का अधिकार नहीं होगा परन्तु उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा।
3. आवश्यकता पड़ने पर वे निश्चित संख्या में केंद्र को सशक्त सैन्य दल उपलब्ध करवाएंगे।
4. उन्हें स्वयं को साम्राज्य का अभिन्न अंग समझना होगा न कि व्यक्तिगत इकाई।
एक मोटे तौर पर अकबर ने राजपूतों के साथ जो सम्बन्ध निर्धारित किये उसमें निम्नलिखित बिंदु थे –
  • यह नीति सुलह-ए-कुल (सभी के साथ शांति और सुलह) पर आधारित थी सुलह न किये जाने वाले शासकों को शक्ति के बल पर जीता। जैसे मेवाड़ , रणथम्भौर आदि को जीता।
  • अधीनस्थ शासक को उनकी “वतन जागीर” दी गयी। उसको आंतरिक मामलों में पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गयी और बाहरी आक्रमणों से पूर्ण सुरक्षा की गारंटी दी गयी।
  • प्रशासन सञ्चालन और युद्ध अभियानों में सम्मिलित किया और योग्यता अनुरूप उन्हें ‘मनसब’ प्रदान किया।
  • ‘टीका प्रथा’ शुरू की। राज्य के नए उत्तराधिकारी की वैधता ‘टीका प्रथा’ द्वारा की जाती थी। जब कोई राजपूत शासक अपना उत्तराधिकारी चुनता था तो मुग़ल सम्राट उसे (नवनियुक्ति को) ‘टीका’ लगता था , तब उसे मान्यता मिलती थी।
  • सभी राजपूत शासकों की टकसालों की जगह मुगली प्रभाव की मुद्रा शुरू की गयी।
  • सभी राजपूत राज्य अजमेर सूबे के अंतर्गत रखे गए।

प्रश्न : मुगल-राजपूत वैवाहिक सम्बन्धों का विवरण दीजिये। क्या इन वैवाहिक सम्बन्धों से मुग़ल – राजपूत सम्बन्धों में एक नया मोड़ आ गया ?

उत्तर : आम्बेर के कच्छवाहों में आंतरिक कलह के कारण आम्बेर के भारमल ने अपनी लड़की हरका बाई का विवाह अकबर के साथ 1562 ईस्वीं में किया। इस वैवाहिक सम्बन्ध ने मुग़ल राजपूत सम्बंधों में एक नया मोड़ ला दिया। अकबर के 1567 ईस्वीं में चित्तोडगढ के राणा उदयसिंह को , 1569 ईस्वीं में रणथम्भौर के सुर्जन हाडा को परास्त कर समस्त राजपूताना को भयभीय कर दिया। इसी क्रम में 1570 ई. में अकबर ने ‘नागौर दरबार’ आयोजित किया जिसमें मेवाड़ और उसकी अधीनस्थ रियासतों को छोड़कर लगभग सम्पूर्ण राजपूताना ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और अधिकांश राजपूत शासक मुगलों से वैवाहिक सम्बन्ध में बंध गए।
जिस वैवाहिक सम्बन्ध की निति का बड़े पैमाने पर आरम्भ अकबर ने किया था उसके परिणाम महत्वपूर्ण निकले। अकबर ने सर्वप्रथम भारमल की पुत्री हरका बाई से 1562 ईस्वीं में विवाह किया जिससे सलीम (जहाँगीर) पैदा हुआ। अकबर ने इसे ‘मरियम मकानी’ का खिताब बख्शा। इस निकट सम्बन्ध ने आमेर के राजपरिवार का महत्व मुगल दरबार में और राजस्थान में बढ़ा दिया। आमेर मुगलों के लिए एक प्रमुख स्थान पा गया और सम्पन्नता की दृष्टि से भी अत्यधिक लाभ में रहा।
मोटा राजा उदयसिंह (मारवाड़) ने भी सम्मान तथा प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए अपनी पुत्री मानी बाई (जोधाबाई , जगत गुसाई) का विवाह सलीम से किया जिससे शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) पैदा हुआ। आमेर के भगवन्तदास ने अपनी पुत्री मानबाई का विवाह सलीम से किया जिसे शहजादा खुसरों हुआ।
बीकानेर नरेश रायसिंह की पुत्री का सम्बन्ध भी जहाँगीर से हुआ। भाटियों के विवाह सम्बन्ध भी जैसलमेर की उन्नति के कारण बने। बाद में जोधपुर के शासक अजीतसिंह ने भयवश अपनी पुत्री इन्द्रकुंवरी का विवाह 1714 ईस्वीं में मुग़ल सम्राट फर्रुखशियर से किया। यह अंतिम राजपूत राजकुमारी थी जो मुगल हरम में गयी।
परन्तु इसका अर्थ यह भी नही था कि जिन राजपूतों ने मुगलों से वौवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किया उनका अपमान अथवा अवनति हुई हो। उनके साथ भी यथायोग्य सम्बन्ध कायम हुए। इन वैवाहिक सम्बन्धों से सांस्कृतिक और प्रशासनिक समन्वय स्थापित हुआ।
प्रश्न : मध्यकालीन राजस्थान की केन्द्रीय प्रशासनिक व्यवस्था में “राजा” का पद हमेशा सर्वोपरी रहा। यह उसके कार्यों और कर्त्तव्यों से स्पष्ट हो जाता है। विवेचना कीजिये। 
उत्तर : मध्ययुगीन राजपूताना के नरेश , छोटी से छोटी इकाई के राजा होते हुए भी अपने आपकों प्रभुतासंपन्न शासक मानते थे। इसी भावना से प्रेरित होकर वे महाराजाधिराज , राजराजेश्वर , नृपेन्द्र आदि विरुद्धों (उपाधियों) को धारण करते थे। अपने वंशीय महत्व से शासक अपने राज्य के सर्वेसर्वा थे। राज्य का शासन , न्याय वितरण , उच्च पदों पर नियुक्ति , दण्ड , सैन्य संचालन , संधि , आदेश आदि के सूत्र का सम्पूर्ण आधार इनके व्यक्तिगत में निहित था।
धर्म की रक्षा करने तथा प्रजा के पालन का उत्तरदायित्व इनके कंधों पर था। इन कार्यों से उन्हें सतत उद्बोधित करने के लिए उनकी प्रजा प्राय: उन्हें धर्मावतार और माई बाप कहती थी। देश की रक्षा का भार उनके ऊपर होने से विशेष रूप से उन्हें “खुम्माण” पद से विभूषित किया जाता था। सभी प्रकार की शक्ति उनमें निहित होने से वे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करते थे। अलबत्ता सामन्तों ने कभी कभी राज्य के हित को दृष्टिगत रखते हुए उत्तराधिकार के मामले में हस्तक्षेप भी किया , जैसा कि प्रताप के सम्बन्ध में सर्वविदित है।
नरेशों का सर्वाधिकार होने से उनके द्वारा सम्मानित रानियाँ भी बड़ी प्रभावशील होती थी। वे भी राज्य कार्य में भाग लेती थी तथा विशेष रूप से युद्ध के अवसर पर अपने पति तथा परिवार के लिए प्रेरणा की स्रोत बनती थी। अवसर आने पर , विशेष रूप से , अपने पुत्र के अल्पवयस्क होने पर , राजमाताएँ राज्य का कार्य संभालती थी। हंसाबाई , कर्मवती तथा भट्टियानी रानी के उदाहरण सर्वविदित है।
मध्ययुगीन शासक अपने पूर्वजों की भांति धर्म-सहिष्णु भी होते थे। विशेषत: शैव , शाक्त या वैष्णव होते हुए भी इतर धर्मावलम्बियों के प्रति इनकी निति धर्म सहिष्णु होती थी। जोधपुर की हवाला बहियों और जयपुर के स्याह हजूर के उल्लेखों से स्पष्ट है कि राजस्थान के नरेश जिस प्रकार हिन्दू धर्मावलम्बी साधु तथा सन्तों का सम्मान करते थे , उसी प्रकार वे काजियों , मौलवियों , दादूपंथियों , खाखियों , नानक शाहियों आदि के प्रति उदार थे। राजस्थान में मुग़ल विरोध काल में भी मुसलमानों पर अत्याचार होने के उल्लेख नहीं मिलते।
इस काल के शासक केवल शांति स्थापना तथा देश रक्षा और प्रजापालन को ही अपने जीवन का लक्ष्य नहीं समझते थे। वे अपने राज्य की सर्वोन्मुखी / समग्र उन्नति में भी रूचि लेते थे। वे साहित्य , कला , उद्योग , व्यापार , वाणिज्य आदि की उन्नति में लगे रहते थे। बाद में जब राजपूताना के शासक मुगलों के अधीन हो गए तो उनके अधिकारों , कार्यों आदि में काफी परिवर्तन हो गया।