राधा कमल मुखर्जी का जीवन परिचय | राधाकमल मुखर्जी का सिद्धांत सामाजिक पारिस्थितिकी पुस्तकें Radhakamal Mukerjee in hindi

Radhakamal Mukerjee in hindi radhakamal mukerjee theory of social value in hindi राधा कमल मुखर्जी का जीवन परिचय | राधाकमल मुखर्जी का सिद्धांत सामाजिक पारिस्थितिकी पुस्तकें नाम बताइए ?
राधाकमल मुकर्जी (1889-1968)
राधाकमल मुकर्जी सामाजिक परिस्थिति विज्ञान, अंतर्शाखीय शोध और जीवन मूल्यों के संदर्भ में सामाजिक संरचना के क्षेत्रों में पहल करने वालों में से एक थे। हमने पहले उनका जीवन परिचय प्रस्तुत किया है और उसके बाद उनके मुख्य विचारों की विवेचना की है।
जीवन परिचय
राधाकमल मुकर्जी का जन्म एक बड़े ब्राह्मण परिवार में सन् 1889 में पश्चिमी बंगाल के बरहामपुर नामक एक छोटे-से कस्बे में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन के आरंभिक सोलह साल यहीं गुजारे थे। उनके पिता एक वकील थे और विधि-समुदाय (bar) के नेता थे। वे अपने क्षेत्र के जाने-माने विद्वान थे और उनकी इतिहास में विशेष रुचि थी। राधाकमल मुकर्जी ने अपने जीवन के आरंभिक वर्षों का वर्णन करते हुए लिखा है कि उनके घर में इतिहास, साहित्य, कानून और संस्कृति की पुस्तकों की भरमार थी (सिंह 1956ः 3)। सामान्य रूप से घर के जिस वातावरण में वे बड़े हुए वह अध्ययन-अध्यापन से पूर्ण था। उनके बड़े भाई हमेशा पुस्तकों के अध्ययन में व्यस्त रहते थे। लेकिन छोटा होने के कारण इन्हें पुस्तकों से दूर रखा जाता था। उनके पिता दिनभर अपने मुवक्किलों के साथ लंबी चर्चाओं में और शाम को लंबे बौद्धिक और धार्मिक विचार-विमर्श में व्यस्त रहते थे।
घर के भीतरी भाग में महिलाओं का प्रभुत्व था, वहां धार्मिक अनुष्ठान और भजन कीर्तन चलता रहता था। मुकर्जी ने अपने बचपन के बारे में बताते हुए लिखा था कि उनके घर में बहुत से पालतू जानवर थे, इनमें विशेष रूप से एक सुनहरे रंग की गाय थी जो सारा साल दूध देती थी। उनके विचार में उनके जीवन का आरंभिक समय शांतिपूर्ण था। इस समय स्कूल जाना और खेलना, पूजा-पाठ करना, समय-समय पर उपवास और दाक्ते, धार्मिक अनुष्ठान और संस्कार, महाकाव्यों और पुराणों की कहानियां सुनाना और घर में साधु-संतों का अतिथ्य आदि महत्वपूर्ण बातें थीं (सिंह 1956ः 3)।
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में मद्रास और उड़ीसा में भयंकर अकाल पड़ने से जनजीवन का बहुत विनाश हुआ था। मुकर्जी के मन पर दुःख और विपत्ति की इन आरंभिक स्मृतियों की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। वे समाचार-पत्रों में प्रकाशित भूख से मरणासन्न कंकाल शेष लोगों के चित्रों को देखकर बहुत अधिक द्रवित हो गये थे। इस अकाल की स्मृति 1942-43 में बंगाल में पड़े अकाल से भी कहीं अधिक हृदय द्रावक थी जिसे उन्होंने कलकत्ता में स्वयं अपनी आंखों से देखा था। बचपन में देखे मुहर्रम के ताजियों के जुलूस और दुर्गापूजा के उत्सवों आदि की स्मृतियां भी उनकी आंखों के सामने सजीव हो उठी थी।
जीवन के इसी समय में बंगाल में सामाजिक-सांस्कृतिक और बौद्धिक पुनर्जागरण हुआ। सन् 1905 में बंगाल का प्रत्येक शहर बौद्धिक और राजनीतिक उत्साह से भरा हुआ था। इसी समय लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल के पूर्वी और पश्चिमी बंगाल में विभाजन के पश्चात् बंगभंग की प्रतिक्रिया स्वरूप व्यापक विद्रोह भड़क उठा। मुकर्जी ने लिखा कि उस समय राजनीतिक सभाओं, जुलूसों, प्रभात फेरियों, ब्रिटिश सामान के बहिष्कार, स्वदेशी और शराब बंदी के आंदोलन द्वारा उनका पहली बार जन आंदोलन से परिचय हुआ था (सिंह 1956ः 4)।
डॉ. मुकर्जी की प्रारंभिक शिक्षा बरहामपुर में हुई थी। बरहामपुर में वे कृष्णनाथ कॉलेज में पढ़े। उन्हें भारत की प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्था, प्रेसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता में छात्रवृत्ति मिली। इस कॉलेज में मुकर्जी ने अंग्रेजी और इतिहास के आनर्स कोर्स में प्रवेश लिया। यहां वे एच.एम. पर्सीवल, श्री अरविंद घोष के भाई एम. घोष और भाषा विज्ञानी हरिनाथ डे जैसे विद्वानों के संपर्क में आये। उन्होंने इन विद्वानों की बहुत प्रशंसा की। यहीं मुकर्जी ने कॉम्ट, हर्बर्ट स्पेंसर, लेस्टर वार्ड, हॉबहाउस ओर गिडिंग्स तथा कई अन्य विद्वानों के ग्रंथों को आदि से अंत तक पढ़ा । इस खंड की पिछली इकाइयों के अध्यापन से अब तक आपको यह तो अवगत हो गया होगा कि उपरोक्त में से कई विद्वान यूरोप और अमरीका के अग्रणी समाजशास्त्री थे।
इसी दौरान मुकर्जी ने प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश किया जिसमें उनकी जीवन पर्यंत रुचि बनी रही। इसी समय देश के राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में उथल-पुथल चल रही थी जिसने जीवन मूल्यों को पूरी तरह प्रभावित किया था। यह परिवर्तन सरकारी संस्थाओं के बाहर अधिक स्पष्ट रूप में दिखाई दे रहा था तथा यह साहित्यिक और कलात्मक पुनर्जागरण का रूप ग्रहण कर रहा था। इस पुनर्जागरण ने धीरे-धीरे जन आंदोलन का रूप धारण कर लिया। इस प्रक्रिया को तेज करने के लिए मुकर्जी ने सन् 1906 में कलकत्ता में मेचू बाजार की मलिन बस्तियों में प्रौढ़ों के लिए प्रौढ़ सांध्य स्कूल शुरू किया। उन्होंने प्रौढ़ शिक्षा के लिए सरल पाठ्य सामग्री लिखी, जिसकी हजारों प्रतियां बिकीं। इनका यह स्कूल एक सामुदायिक केंद्र बन गया। यहां तक कि स्थानीय डाक्टरों ने भी सामाजिक शिक्षा के इस कार्यक्रम में रुचि लेना शुरू कर दिया। ये डाक्टर मलिन बस्तियों के प्रौढ़ों और बच्चों का निःशुल्क इलाज भी करने लगे थे (सिंह 1956ः5)।
मुकर्जी अपनी इतिहास की आंरभिक शिक्षा को बहुत महत्व देते थे लेकिन कलकत्ता की मलिन बस्तियों में लोगों की दुर्दशा, गंदगी, प्रदूषण के प्रत्यक्ष संपर्क में आने के बाद उनकी रुचि समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र की ओर मुड़ गई। उन्का कथन था कि उस समय जनसाधारण को शिक्षा देने के कार्य और उसकी जिम्मेदारी को उठाने की अत्यधिक आवश्यकता थी। भारतीय विद्यार्थी इस आवश्यकता की पूर्ति सामाजिक विज्ञानों का ज्ञान पा कर ही कर सकते थे (सिंह 1956ः 5)। कलकत्ता विश्वविद्यालय में, मुकर्जी के समय में सामाजिक विज्ञानों के अन्तर्गत एम. ए. स्तर पर अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र आदि विषय पढ़े जा सकते थे।
डॉ. मुकर्जी इस अवधि में बिनय कुमार सरकार के निकट संपर्क में आए। (इकाई 4 में हमने बिनय कुमार सरकार द्वारा समाजशास्त्र के क्षेत्र में योगदान का उल्लेख किया है।) ये दोनों एक ही फ्लैट (घर) में रहते थे। उस समय बी.के. सरकार बंगाल नेशनल कॉलेज में प्रोफेसर थे। यह एक ऐसी संस्था थी जिसने टैगोर और श्री अरविंद घोष जैसे बंगाल के अग्रगामी विचारकों को समर्थन दिया था।
अपने काल के कई भारतीयों की तरह मुकर्जी भी कांग्रेस के गरम दल के सदस्य विपिन चन्द्र पाल के जोशीले भाषणों से प्रभावित हुए थे। परंतु उस समय मुकर्जी की रुचि का क्षेत्र राजनीति के बजाय शिक्षा था। मुकर्जी और उनके मित्र अपने आप को श्गरीबों के मंत्री कहा करते थे । वे स्वयं भी वेशभूषा का परित्याग कर सादे कपड़े पहनते थे (सिंह 1956ः6)।
सन् 1910 में मुकर्जी बरहामपुर में अपने पुराने कॉलेज में अर्थशास्त्र के अध्यापक बन कर गए। उनका कहना है कि यह उनके जीवन का सबसे व्यस्त काल था। इसी समय में मुकर्जी ने द फाउंडेशन ऑफ इंडियन इकानॉमिक्स जैसे अर्थशास्त्र के आंरभिक ग्रंथ की रचना की। इसी अवधि में उनकी सामाजिक परिस्थिति विज्ञान (ेवबपंस मबवसवहल) और क्षेत्रों (तमहपवदे) के अध्ययन में रुचि जागृत हुई। उनके कॉलेज के प्रिंसिपल रेवरेंड ई.एम. व्हीलर की विज्ञानों में, विशेष रूप से वनस्पति विज्ञान में, गहरी रुचि थी। इसलिए मुकर्जी तथा अन्य अध्यापक विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों और कीट पतंगों के नमूनों को इकट्ठा करने और उनका अध्ययन करने में अपना काफी समय लगाते थे। इस अनुभव से डॉ. मुकर्जी की परिस्थिति विज्ञान में रुचि पैदा हो गई और वे मानव समुदाय के साथ परिस्थिति विज्ञान के संबंध से परिचित हुए।
इसी समय मुकर्जी बांग्ला भाषा की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका, उपासना, के संपादक भी बने। वे इस मासिक पत्रिका के लिए नियमित लेख लिखते और साथ ही बंगला साहित्य की साहित्यिक गतिविधियों के भी संपर्क में रहते। वे साहित्य के अथक पाठक थे और उनकी साहित्य में गहरी रुचि थी।
सन् 1915 में जब ब्रिटिश सरकार के दमन का चक्र चला तो मुकर्जी को एक दिन के लिए गिरफ्तार कर लिया गया और उनके सभी प्रौढ शिक्षा विद्यालय बंद कर दिए गए। उनके विरुद्ध से आरोप थे कि वे ‘‘उग्रवादी‘‘ हैं या प्रौढ़ शिक्षा की आड़ में उनकी उग्रवाद के प्रति सहानुभूति है। उनके वकील भाई की कोशिश से वे जल्दी ही छूट गए। इसी समय पंजाब के लाहौर कालेज में एक पद का प्रस्ताव उनके पास भेजा गया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया और वे लाहौर चले गए। इस प्रकार उनकी राजनीति में जो थोड़ी-बहुत दिलचस्र्प पैदा हुई थी वह आरंभ में समाप्त हो गई।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में जब आशुतोष मुकर्जी ने सन् 1917 में कला और विज्ञान में स्नातकोत्तर परिषद (च्वेज.ळतंकनंजम ब्वनदबपस व ि।तजे ंदक ैबपमदबमे) की स्थापना की तो राधाकमल मुकर्जी वापस वहां चले गए। वे वहां पाँच साल रहे और उन्होंने अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनैतिक दर्शन का अध्यापन किया। सन् 1921 में जब लखनऊ विश्वविद्यालय की स्थापना हुई तो वे वहाँ अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष बनकर गए (सिंह 1956ः 10)। उन्होंने इस विश्वविद्यालय में आकर अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और नृशास्त्र के शोध कार्य और अध्यापन में एकीकृत दृष्टिकोण अपनाया।
डॉ. मुकर्जी के विचार में भारत में सामाजिक विज्ञानों के अध्ययन में हमें तुलनात्मक पद्धतियों द्वारा प्रजाति और संस्कृति के उद्भव का वैज्ञानिक अध्ययन करना चाहिए। इनमें पहले ब्रजेन्द्रनाथ सील, दूसरे प्रोफेसर पैट्रिक गेडिस और तीसरे नरेंद्रनाथ सेन गुप्ता थे। नरेन्द्र नाथ उनके पुराने घनिष्ठ साथी थे जिनकी मृत्यु जल्दी ही हो गई थी। इनमें से प्रथम दो प्रोफेसर सील और प्रोफेसर गेडिस से आप पहले ही परिचित हैं। उन्होंने भारतीय विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र को अध्ययन के विषय के रूप में स्थापित करने और उसका विकास करने में योगदान दिया। मुकर्जी अपने कार्य और रचनाओं के लिए हमेशा प्रोफेसर सील से विचार-विमर्श करते थे। मुकर्जी उनसे बहुत प्रभावित थे इसीलिए सांस्कृतिक विज्ञानों में तुलनात्मक पद्धति के प्रयोग पर उन्होंने विशेष बल दिया। पैट्रिक गेडिस ने भी परिस्थिति विज्ञान, जनसंख्या और क्षेत्रों के अध्ययन के संबंध में मुकर्जी की रचनाओं को प्रभावित किया जबकि नरेन्द्रनाथ सेन गुप्ता के विचार मुकर्जी की सामाजिक मनोविज्ञान में रुचि पैदा करने में सहायक सिद्ध हुए।
इन भारतीय विचारकों के अलावा पश्चिम के सामाजिक विचारक भी थे जिनके साथ मुकर्जी ने काम किया और जिन्होंने उनकी रचनाओं को प्रभावित किया। इनमें एडवर्ड आल्सवर्थ रॉस, शिकागो के रॉबर्ट एजरा पार्क, मैकेंजी. पी. सोरोकिन आदि कछ समाजशास्त्री थे। इनमें से अधिकांश अमेरीकी समाजशास्त्रियों की रुचि क्षेत्रीय अध्ययन, शहरी विघटन, मानव परिस्थिति विज्ञान, सामाजिक परिवर्तन आदि में थी। इन समाजशास्त्रियों से मित्रता ओर बौद्धिक मेल-जोल ने सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में मुकर्जी के प्रयासों को प्रेरणा दी (सिंह 1956ः 3-20)।
डॉ. मुकर्जी ने लखनऊ विश्वविद्यालय में लगभग तीस वर्ष तक अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र का अध्यापन किया। वे विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र और मानव संबंधों के जे.के. संस्थान के उपकुलपति और निदेशक भी बन गए थे। उन्होंने कई विषयों पर विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ लिखे। उनकी रचनाओं की मूल प्रकृति सामाजिक विज्ञानों के एकीकरण की रही है और वे बहुत से क्षेत्रों में पथ अन्वेषक रहे हैं। उनके बहुत-से विद्यार्थियों और सहायकों की रचनाओं में यही दृष्टि दिखाई देती है। उनकी मृत्यु सन् 1968 में हुई। उन्होंने समाजशास्त्र के क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण योगदान दिया उसकी गहरी छाप समाजशास्त्र के विद्यार्थियों पर स्पष्ट दिखाई देती है।
मुख्य विचार
भारतीय विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों का कोष्ठीकरण आम बात है। उदाहरण के तौर पर कॉलेज या विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और सांख्यिकी विषयों का अध्यापन तो साथ-साथ होता है लेकिन उनमें परस्पर अंतरूक्रिया का लगभग अभाव पाया जाता है। मुकर्जी ने अपने अध्यापन कार्य और रचनाओं में सामाजिक विज्ञानों के विभिन्न क्षेत्रों में परस्पर और सामाजिक विज्ञानों और भौतिक विज्ञानों के बीच आपसी अंतरूक्रिया की आवश्यकता पर बल दिया। उदाहरण के रूप में भारतीय अर्थशास्त्र को ब्रिटिश अर्थशास्त्र के नमूने पर ढाला गया है जिसमें देशी व्यापार व्यवस्था, हस्तशिल्प और बैंक प्रणाली आदि में परंपरागत जाति व्यवस्था पर अक्सर ध्यान नहीं दिया गया है। आर्थिक विकास को मुख्यतरू मुद्रा अर्थशास्त्र या बाजार व्यवस्था के विस्तार के रूप में देखा जाता है। अर्थशास्त्र के पाश्चात्य प्रारूप में शहरी औद्योगिक केंद्रों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। आइए, देखें कि डॉ मुकर्जी ने समाजशास्त्र के तहत् किन विषयों पर मुख्य ध्यान दिया।
आर्थिक और सामाजिक व्यवहार के बीच संबंध
भारत जैसे देश में औपचारिक ‘‘बाजार-प्रारूप‘‘ की बहुत ही सीमित प्रासंगिकता है क्योंकि यहां बहुत-सा आर्थिक लेन-देन जातियों या जनजातियों के ढाँचे में होता रहा है। मुकर्जी ने परंपरागत व्यवस्था और आर्थिक विनिमय के बीच संबंध दिखाने का प्रयास किया है। उनके अनुसार, भारत की विभिन्न श्रेणियां (guilds) और जातियां प्रतिस्पर्धा हीन व्यवस्था में कार्यशील हैं। यहां आर्थिक विनिमय के नियम हिंदू धर्म के प्रतिमानों के अनुसार थे। दूसरे शब्दों में, हिंदू धर्म के प्रतिमानों में विभिन्न वर्गों के बीच पारस्परिक निर्भरता पर बल दिया गया है। इसलिए ग्रामीण भारत को समझने के लिए आर्थिक मूल्यों का विश्लेषण सामाजिक प्रतिमानों के संदर्भ में करना होगा। केवल जैविक और भौतिक प्रेरणा से आर्थिक आदान-प्रदान संभव नहीं होता। धार्मिक अथवा नैतिक प्रतिबंध भी आर्थिक विनिमय को प्रभावित करते हैं। लोगों के रोजमर्रा के जीवन में जीवन मूल्यों का भी योगदान होता है और उन्हें बाध्य होकर एक खास ढंग से ऐसा व्यवहार करना पड़ता है जो सामूहिक रूप से स्वीकृत हो। उदाहरणार्थ, आमतौर पर कोई उच्च जाति का हिंदू भूखा होने पर भी गाय का मांस नहीं खाएगा, उसी तरह रूढ़िवादी मुसलमान या यहूदी सूअर का मांस नहीं खाएगा चाहे उसे खाने की कितनी भी ज्यादा जरूरत क्यों न हो। इसलिए, आर्थिक व्यवहार को सामाजिक जीवन तथा सामूहिकता से अलग करके देखना गलत होगा। यद्यपि भारत में तेजी से बाजारीकरण हो रहा है फिर भी डॉ मुकर्जी के विचारों के पीछे दिये गये तर्क का अभी भी महत्व है, जिसके अनुसार हमें आर्थिकी एवं संस्कृति के बीच संबंध को अनदेखा नहीं करना है।
सामाजिक पारिस्थितिकी
डॉ. मुकर्जी ने सामाजिक पारिस्थितिकी अथवा सामाजिक परिस्थिति विज्ञान पर भी विशेष ध्यान दिया था। उनकी दृष्टि में सामाजिक परिस्थिति विज्ञान एक मिश्रित व्यवस्था है जिसमें कई सामाजिक विज्ञानों का परस्पर आदान-प्रदान होता है। परिस्थिति विज्ञान के क्षेत्र में भूवैज्ञानिक, भौगोलिक और जैविक कारक सम्मिलित होते हैं। इसके साथ ही परिस्थिति विज्ञान सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक कारकों से भी प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए, इतिहास साक्षी है कि राजनैतिक क्षेत्र विस्तार के लिए नए-नए क्षेत्रों में लोगों को बसाया गया। चूँकि परिस्थिति विज्ञान और समाज के बीच स्पष्ट संबंध है इसलिए पारिस्थितिक क्षेत्र के विकास को गतिशील प्रक्रिया के रूप में देखने की आवश्यकता है। इसका अभिप्राय है कि जब नए क्षेत्रों में लोगों को बसाया जाता है तब किसी सीमा तक वे अपनी जरूरतों के अनुसार पर्यावरण को ढाल लेते हैं और पर्यावरण के अनुसार अपनी कुछ जरूरतों में बदलाव लाते हैं।
परिस्थितिक संतुलन का अभिप्राय यह नहीं है कि बिना सोचे समझे किसी क्षेत्र में लोगों को बसा दिया जाए। इस प्रकार के प्रयास से सामाजिक ढांचा कमजोर अथवा नष्ट हो जाता है। उदाहरण के तौर पर भारत में सिंचाई के लिए बांधों के निर्माण के कारण प्रायः उस इलाके के लोग विस्थापित हो जाते हैं। सही परिप्रेक्ष्य न होने से लोगों के सामाजिक जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ, उत्तर भारत के कई भागों में परंपरागत पारस्परिक निर्भरता की व्यवस्था है जिसे ‘‘जजमानी व्यवस्था‘‘ कहते हैं, ऐसी ही व्यवस्था अन्य क्षेत्रों में भी है। अगर लोगों को विस्थापित होकर दूसरे क्षेत्रों में जाना पड़े तो यह व्यवस्था तत्काल समाप्त हो जाती है। यदि हम पहले से ही किसी विकल्प की योजना बना लें तभी इस प्रकार के विघटन से बचा जा सकता है। पारस्परिक निर्भरता की सामाजिक व्यवस्था का स्थान सहकारी व्यवस्था ले सकती है। इसलिए भारत को शहरी औद्योगिक अर्थव्यवस्था के व्यवस्थित रूप में रूपांतरित करने के लिए सामाजिक परिप्रेक्ष्य का होना आवश्यक है। भारत में विकास योजना को लागू करने के संदर्भ में मुकर्जी के में विचार आज इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में भी अत्र न्त महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक है।
मुकर्जी ने सामाजिक पारिस्थितिकी पर अपनी पुस्तक में पाश्चात्य सामाजिक विज्ञानियों की मान्यताओं से भिन्न विचार व्यक्त किए हैं। अमरीका में शिकागो स्कूल ऑफ सोशियोलॉजी ने सामाजिक विघटन, शहरी ह्रास जैसी सामाजिक समस्याओं के आनुभाविक अध्ययन को महत्व दिया। इस विचारधारा के समर्थक पार्क और बर्जेस, लुई वर्श गिडिंग्स आदि समाजशास्त्री थे।
इन विचारकों ने ‘मानव परिस्थिति विज्ञान‘ के अध्ययन पर बल दिया। इनके अध्ययन का केंद्र बिन्दु सामाजिक व्यवस्था का प्रबंध करना था, जिसके अंतर्गत मलिन बस्तियों में रहने वालों का नई बस्तियों में स्थानांतरण, रहन-सहन की स्थितियों में सुधार, बेहतर रोजगार की व्यवस्था आदि कार्य शामिल थे। परन्तु मुकर्जी का विचार था कि औद्योगीकरण के कारण तेजी से होने वाले विनाश का एक विकल्प ‘सामाजिक परिस्थिति विज्ञान‘ है। भारत का लंबा इतिहास मानव मूल्यों का खजाना है। अतः भारत के नवनिर्माण की योजना बनाते समय केवल तात्कालिक और प्रत्यक्ष समस्याओं को ध्यान में नहीं रखना चाहिए अपितु उसका विकास मूल्यों पर आधारित होना चाहिए।
मुकर्जी की सामाजिक परिस्थिति विज्ञान में रुचि होने के कारण उन्होंने क्षेत्रीय समाजशास्त्र का विकास किया। उन्होंने राष्ट्रीय विकास के क्षेत्रीय आयामों को और अच्छी तरह से समझने का सुझाव दिया। आधुनिक भारत में विभिन्न क्षेत्रों का विकास उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए किया जाए तो इससे पूरे देश को लाभ होगा। अन्यथा कुछ क्षेत्र दूसरे क्षेत्रों पर हावी रहेंगे और इससे देश के विभिन्न क्षेत्रों का असमान विकास होगा। भारत में अलग-अलग क्षेत्र हैं जिनमें प्रत्येक का अपना अलग नृजातीय इतिहास है। इसलिए पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए विकासात्मक योजनाओं में समन्वय स्थापित करना आवश्यक है। संक्षेप में, मुकर्जी के मत में आर्थिक वृद्धि और पारिस्थितिक क्षमता में संतुलन बना रहना चाहिए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भारत के आधुनिक स्वरूप में उसकी परंपरा को सुरक्षित रखना होगा। उदाहरणार्थ, बुनाई, नक्काशी आदि कई कौशल कुछ जातियों में परंपरागत हैं। इन शिल्पों को आधुनिक सहकारी समितियां बनाकर प्रोत्साहित किया जा सकता है। कहने का मतलब यह है कि भारतीय समाज की आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में परंपरागत अर्थव्यवस्था की उपेक्षा करना उचित नहीं होगा। संयोग से, आजादी के बाद तमिलनाडु और दूसरे राज्यों में हथकरघा जैसे परंपरागत शिल्पों की हथकरघा सहकारी समितियां बनाई गईं। इसी तरह खादी ग्रामोद्योग ने भी आधुनिक उत्पादन के लिए परंपरागत कौशलों का उपयोग किया।
वनों के संरक्षण का आग्रह
डॉ. मुकर्जी ने वनों की कटाई से होने वाले खतरों के बारे में बहुत लिखा। पेड़ों की कटाई के कारण बाढ़ से मृदा बह जाती है और जमीन का उपजाऊपन घट जाता है। बाढ़ और बारिश के कारण जमीन की ऊपरी सतह की मिट्टी बह जाती है तथा फिर से उसकी पूर्ति करना संभव नहीं है। इसलिए भारत के ये वन पारिस्थितिक दृष्टि से बहुत अधिक उपयोगी हैं। मुकर्जी के वन संरक्षण के अनुरोध को चिपको और एपको जैसे आंदोलनों का समर्थन मिला। इन आंदोलनों ने वनों और पेड़ों के विनाश को रोकने के लिए भरसक प्रयास किये। मुकर्जी ने वर्ष भर में गन्ने या कपास जैसी नकदी फसल उगाने के खतरे की ओर भी ध्यान दिलाया। एकलकृषि (उवदवबनसजपअंजपवद) के कारण धरती का उपजाऊपन नष्ट हो जाता है और वह धीरे-धीरे बंजर भूमि बन जाती है। इसलिए किसान को अलग-अलग फसलें उगानी चाहिएँ। वनों की कटाई और एकलकृषि जैसे तरीकों से परिस्थिति-तंत्र (ecosystem) गड़बड़ा सकता है और इससे कई प्रकार की पर्यावरण संबंधी समस्याएं पैदा हो सकती हैं। हर वर्ष भारत के, विशेषतरू उत्तरी भारत के, कुछ हिस्सों में या तो बाढ़ आ जाती है या अकाल पड़ता है। इस बात में संदेह नहीं है कि तटीय क्षेत्रों में समुद्री तूफानों पर तो इन्सान का कोई बस नहीं है, लेकिन वनों की भ्रष्टाचारी वन अधिकारियों की मदद से तस्करों तथा अन्य लोगों द्वारा कटाई के कारण प्राकृतिक संसाधन समाप्त हो रहे हैं। मनुष्यों द्वारा किए जाने वाले इस विनाश को कम किया या रोका जा सकता है।
मुकर्जी ने गांव, शहर और देश को एक व्यापक आधार वाली विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में एकीकृत करने का समर्थन किया। उन्होंने यह भी कहा कि गांवों की कीमत पर शहरों का विकास करने पर रोक लगाई जानी चाहिए। कृषि में विविधता लाई जानी चाहिए और उद्योगों का विकेंद्रीकरण किया जाना चाहिए। देश के समन्वित विकास के लिए न केवल लोगों के विभिन्न वर्गों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों के बीच भी संपत्ति और संसाधनों का अधिक न्यायसंगत वितरण किया जाना चाहिए।
शहरी सामाजिक समस्याओं के लिए सुधारवादी दृष्टिकोण
मुकर्जी की दिलचस्पी इस बात में थी कि श्रमिक वर्ग की समस्याओं के प्रति सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाए। गत कुछ दशकों से भारत में औद्योगीकरण से विभिन्न क्षेत्रों और भाषाओं के लोगों को पास लाने में सफलता मिली है लेकिन मुंबई, कानपुर, कोलकाता और चेन्नई जैसे शहरी केंद्रों में कार्यरत श्रमिकों को मलिन बस्तियों में रहना पड़ता है। इस कारण उनके रहन-सहन की दशा पर बुरा प्रभाव पड़ा है। औद्योगीकरण के आरंभिक दिनों में शहरों की मलिन बस्तियों में वैश्यावृत्ति, जुआखोरी और सामाजिक अपराध आदि बुराइयां पनपीं। इसलिए यह आवश्यक था कि श्रमिकों की आर्थिक और नैतिक दशा को सुधारने के लिए उनके जीवन में आमूल परिवर्तन किए जाएँ।
आज बहुत से निजी उद्योगों और सरकारी क्षेत्र की इकाइयों ने श्रमिकों के सामाजिक कल्याण के लिए सुविधाएं प्रदान की हैं। इसके अलावा केंद्रीय और राज्य सरकारों ने इस प्रयोजन के लिए ऐसे वैधानिक अधिनियम लागू किए हैं जिन्हें मालिक या नियोक्ता के लिए मानना अनिवार्य है। लेकिन आज भी असंगठित श्रमिक वर्ग के लोग, यानि ऐसे श्रमिक जो अल्प नियोजित हैं या अस्थायी रूप से नियोजित हैं, मलिन बस्तियों में रहते हैं। इस समय भारत की मलिन बस्तियों की मुख्य समस्याएं हैं अवैध मद्यपान, नशीली दवाओं का सेवन, सामाजिक अपराध, आवास के बदतर हालात और सामान्य जनसुविधाओं का अभाव। अतः मुकर्जी ने श्रमिक वर्ग का जो विश्लेषण किया वह भारत के औद्योगिक संगठन के संदर्भ में आज भी पूर्वतया प्रासंगिक है।
नैतिक मूल्यों का सिद्धांत
राधाकमल मुकर्जी की दिलचस्पी मानव समाज पर नैतिक मूल्यों के प्रभाव के संबंध में लंबे समय से रही जबकि उन्नीस सौ साठ से अस्सी के दशकों में मूल्यों से रहित सामाजिक विज्ञान के विचार ने पश्चिमी देशों और भारत के शैक्षिक क्षेत्रों ने भी जोर पकड़ा। मुकर्जी के विचार में तथ्य (fact) और मूल्य (value) को अलग-अलग समझना सही नहीं होगा। मानव अंतरूक्रियाओं में तथ्यों और मूल्यों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। यहां तक कि आहार, वेशभूषा या दूसरों का अभिवादन जैसे सामान्य व्यवहार भी मूल्यों पर आधारित या प्रतिमानों की दृष्टि से सही होते हैं। हर समाज की अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है तथा इसके मूल्य और प्रतिमान लोगों के व्यवहार का निर्देशन करते हैं। इसलिए पश्चिम की प्रत्यक्षवादी (positivistic) परंपरा जो तथ्यों और मूल्यों को अलग करना चाहती है, भारतीय समाज के अध्ययन के संदर्भ में मुकर्जी को सही नहीं लगी। पश्चिमी जगत में वैज्ञानिक जाँच को चर्च यानी धार्मिक क्षेत्र से स्वतंत्र रखना अनिवार्य था। इसीलिए, संभवतः वहां तथ्यों और मूल्यों को अलग रखने की आवश्यकता महसूस हुई।
मुकर्जी ने मूल्यों के संबंध में दो मूलभूत मुद्दों की ओर ध्यान दिलाया है। पहले तो यह कि मूल्य केवल धर्म या नीति शास्त्र तक सीमित नहीं है। मूल्यों का महत्व अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और विधिशास्त्र में भी है। दूसरे शब्दों में मानवीय आवश्यकताओं को ही सामाजिक मूल्यों में परिवर्तित कर दिया जाता है और ये मूल्य समाज के सदस्यो के मन में निविष्ट हो जाते हैं। भारत और चीन जैसी प्राचीन सभ्यताएं अपेक्षाकृत स्थायी हैं एवं इन समाजो में मूल्यों का निर्धारण किया जाता रहा है तथा उन्हें उच्च और निम्न स्तरों में श्रेणीक्रम से संगठित किया गया है। दूसरे ये मूल्य आत्मनिष्ठ अथवा व्यक्तिपरक आकांक्षाओं का परिणाम नहीं होते हैं। ये मूल्य आकांक्षाओं और इच्छाओं में प्रतिष्ठापित होते हैं। दूसरे शब्दों में ये मूल्य सामान्य और वस्तुनिष्ठ दोनों होते हैं यानी उन्हें आनुभाविक पद्धतियों से मापा जा सकता है। प्रायः विश्व की महान सभ्यताओं में भौतिक उद्देश्यों पर आध्यात्मिक उद्देश्यों का प्रभुत्व रहा है।
संक्षेप में मुकर्जी के मूल्यों के सिद्धांत में तीन मुख्य मुद्दे हैं। एक तो यह कि मूल्य जनसमूह की आधारभूत अंतःप्रेरणाओं को व्यवस्थाबद्ध रूप में संतुष्ट करते हैं। इसका मतलब यह है कि सामूहिक रूप से मिलकर रहने से स्वार्थपरक इच्छाएं और रुचियां परिष्कृत हो जाती हैं, क्योंकि समाज में लोगों के बीच आदान-प्रदान की प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है। दूसरे, मूल्यों का स्वरूप सामान्य होता है। इसमें व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों तरह की अभिवृत्तियां (attitudes) और अनुक्रियाएं (reactions) सम्मिलित होती हैं। इसका अभिप्राय यह है कि प्रतीकात्मकता के माध्यम से सभी लोग इन मूल्यों में साझीदार होते हैं। उदाहरण के तौर पर किसी राष्ट्र के सभी व्यक्तियों और वर्गों के लिए राष्ट्रीय झंडा एक समान प्रतीक है। तीसरे, मानव समाज में विभिन्नताओं के बावजूद कुछ सार्वभौम मूल्य भी होते हैं। मानव समुदाय के सभी प्रमुख धर्म इन्हीं सार्वभौम मूल्यों तथा प्रतिमानों के भंडार है। फिर भी मुकर्जी के अनुसार, समाज के प्रति गतिशील दृष्टिकोण का उद्देश्य होगा कि समकालीन समय की जरूरतों के अनुसार समाज में परंपरागत मूल्यों का रूपांतरण।
सोचिए और करिए 1
अपने दैनिक जीवन में होने वाले कम से कम पांच प्रकार के सामाजिक व्यवहार का उल्लेख कीजिए। यदि संभव हो तो, उनके साथ जुड़े हुए मूल्यों के बारे में बताइए। सामाजिक व्यवहार के कुछ उदाहरण हैं, यज्ञोपवीत (जनेऊ धारण करना), मस्जिद, मंदिर या गिरजे में जाना, बड़ों के चरणस्पर्श करना आदि।
राधाकमल मुकर्जी का विचार है कि सामाजिक व्यवहार के तथ्यों को उनसे संबंधित मूल्यों से अलग नहीं किया जा सकता। आप इस विचार से सहमत हैं या नहीं, इसके बारे में एक पृष्ठ की टिप्पणी कारण सहित लिखिए। यदि संभव हो तो उसकी तुलना अपने अध्ययन केंद्र के अन्य विद्यार्थियों की टिप्पणी से कीजिए।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता
मुकर्जी ने भारतीय कला और वास्तुकला, इतिहास और संस्कृति के बारे में बहुत कुछ लिखा है। मुकर्जी का विश्वास था कि एशियाई कला का उद्देश्य समाज का सामूहिक विकास करना है। उन्होंने लिखा था कि एशिया में कला ने लाखों लोगों के लिए सामाजिक और आध्यात्मिक क्रांति के पथ प्रदर्शक की भूमिका अदा की है। प्राच्यकला (oriental art) सामुदायिकता की भावना से अत्यधिक ओतप्रोत थी और इस प्रकार यह प्राच्य संस्कृति (oriental cultures) की ऐतिहासिक निरंतरता के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है। इसके विपरीत पश्चिम में इस प्रकार के कलात्मक प्रयास के पीछे या तो वैयक्तिक भावना प्रधान होती थी या स्वयं कला ही उसका लक्ष्य होती थी। यह न तो सामाजिक एकात्मकता में और न ही आध्यात्मिक विकास में सहायक थी।
भारतीय कला सामाजिक या नैतिक क्षेत्र में अंतर्निहित है। उन्होंने लिखा कि भारत के लाखों मंदिर, स्तूप व विहार आदि कला और नीतिशास्त्र के बीच तथा धार्मिक और सामाजिक मूल्यों के बीच संबंधों के स्पष्ट साक्षी हैं। भारत के लोगों के बीच कला पारस्परिक अंतरूक्रिया का स्थायी घटक है जो लोगों की आकांक्षाओं और उनकी कलात्मक सृजनशीलता के बीच सक्रिय संबंध के मूर्तरूपों को प्रदर्शित करती है।
भारतीय कला सदैव धर्म के साथ जुड़ी रही है। मुकर्जी हिंदू धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म जैसे भारतीय धर्मों की अनाक्रामक प्रकृति से अत्यधिक प्रभावित हुए। यह भाव उनके भारत के ऐतिहासिक अध्ययन में दिखाई देता है। भारतीय धर्मों की एक उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि उनमें किन्हीं विशिष्ट प्रकार के विश्वासों या संस्कारों का आग्रह नहीं था, बल्कि उनका लक्ष्य तो चरम सत्य था। बहुत से देशों में भारत का प्रभाव किसी युद्ध या विजय के द्वारा नहीं अपितु मित्रता और भाई चारे के द्वारा संभव हुआ। सम्राट अशोक के समय से ही भारत के बाहर श्रीलंका, कंबोडिया, तिब्बत तथा अन्य अनेक देशों का शांतिपूर्ण ‘‘उपनिवेशीकरण‘‘ हुआ। भारतीय कला और धर्म ने यहां की स्थानीय संस्कृतियों को समृद्ध किया और इस प्रक्रिया में वहां एक नई संस्कृति का जन्म हुआ। उदाहरण के रूप में आज भी भारत के धार्मिक महाकाव्य रामायण की विभिन्न शैलियों का प्रदर्शन उपर्युक्त देशों में तथा इनके अतिरिक्त इंडोनेशिया, सुमात्रा, त्रिनिदाद आदि कई देशों में भारतीय मूल के लोगों द्वारा किया जाता है। इस प्रकार विदेशी और देशी तत्वों के बीच सामंजस्य की भावना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। यहां तक की भारत में धर्मशास्त्र जैसी हिन्दू धर्म की विधि विधान की पुस्तकों में भी पर्याप्त लचीलापन था जिससे हिंदू धर्म में भारत की नृजातीय विभिन्नताओं को समायोजित किया जा सकता था। यदि इन धार्मिक विधि-विधानों की ठीक ढंग से व्याख्या की जाए तो पता चलता है कि इनमें मूल्यों और प्रतिमानों का ऐसा ढांचा प्रस्तुत किया गया है कि जिसमें विभिन्न समूह एक साथ व्यवस्थित रूप से रह सकते हैं। इससे ज्ञात होता है कि भारत की कला और यहां का धर्म अत्यधिक सहिष्णु थे।
मुकर्जी की सार्वभौम सभ्यता की संकल्पना
मुकर्जी ने समाज के सामान्य सिद्धांत द्वारा सार्वभौम सभ्यता के मूल्यों की व्याख्या करनी चाही। उन्होंने ‘‘सभ्यता‘‘ शब्द में ‘‘संस्कृति‘‘ को भी शामिल किया था। उनके अनुसार मानव सभ्यता का अध्ययन तीन स्तरों पर किया जाना चाहिए। ये स्तर एक दूसरे से संबंद्ध हैं। ये हैं
प) मानव के जैविक विकास ने सभ्यता के उदय व विकास में सहायता की। समाज के एक सक्रिय सदस्य के रूप में मानव में अपने पर्यावरण को बदलने की क्षमता है। जानवर केवल अपने आप को पर्यावरण के अनुसार ढाल सकते हैं जबकि मनुष्य इसे विभिन्न प्रकार से अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल ढाल सकता है। मानव जाति के लोग ऐसे जैविक स्वरूप् के हैं जो प्रतिस्पर्धा और संघर्ष के बावजूद भी परस्पर सहयोग से रह सकते हैं।
पप) दूसरे, सभ्यता का एक सामाजिक मनोवैज्ञानिक आयाम है। सामाजिक मनोविज्ञान में मानवजाति का वर्णन प्रायः जाति, नृजातीयता अथवा राष्ट्रीयता के ढाँचे में किया जाता रहा है। ऐसा समझा जाता है कि मानव जाति स्वार्थ या अहं के शिकंजे में फंसी है और उसकी मनोवृत्ति संकुचित या नृजाति केंद्रित होती है लेकिन इसके विपरीत, मानव जाति में इस बात की सक्षमता होती है कि मनुष्य अपनी संकीर्ण भावनाओं को दबा कर सार्वभौमिकरण का अनुभव कर सके। इसका अभिप्राय है कि लोग अपने आप को राष्ट्र या विश्व समुदाय की समष्टि के सदस्य के रूप में देख सकते हैं। इस प्रक्रिया में मानव के सामान्य मूल्यों की मदद से सार्वभौम मूल्यों का व्यक्ति विशिष्ट मूल्यों पर प्राधान्य हो जाता है। आज के युग में नैतिक सापेक्षवाद (ethical relativism) या एक समाज से दूसरे समाज में मूल्यों के बीच अंतर से कोई सहायता नहीं मिलती है। आज के युग में नैतिक सार्वभौमता (ethical universalism) की आवश्यकता है जिससे मानव जाति में एकता की भावना दृढ़ हो। इस नए परिप्रेक्ष्य में जनसमूह के सदस्य स्वेच्छा से नैतिक अभिकर्ता बन कर मानवता को जोड़ने वाले सामान्य तत्वों को पहचान सकें। ये लोग सापेक्षिकता या विभाजित करने वाले तत्वों से प्रभावित न हों। डॉ. मुकर्जी के जीवन-काल में कही गई ये विचार-उक्तियाँ इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में भी शत-प्रतिशत लागू होती दृष्टिगत होती हैं।
पपप) तीसरे, सभ्यता का एक आध्यात्मिक आयाम भी है। धीरे-धीरे मनुष्य उच्चतम बुलंदियों को लांघता जा रहा है। अर्थात् वह जीवजन्य (biogenic) और अस्तित्व (existential) संबंधी स्तरों के प्रतिबंधों को यानी मनुष्य की भौतिक और सांसारिक सीमाओं को पार करता हुआ आध्यात्मिकता की सीढ़ियों पर ऊपर चढ़ता जा रहा है। इस प्रयास में कला, मिथक और धर्म ने आध्यात्मिक क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। अभी तक सामाजिक विज्ञानों ने इन सांस्कृतिक तत्वों को नजरंदाज ही किया है और ये किसी भी प्रकार का आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य प्रदान करने में पूर्णतया असफल रहे हैं। संयोग से इसी प्रकार का कथन जर्मन समाजशास्त्री कार्ल मैनहाइम ने भी दिया जिसने संस्कृति के समाजशास्त्र के बारे में लिखा। मैनहाइम ने इस बात की ओर ध्यान दिया कि पाश्चात्य समाज विज्ञानियों ने प्रत्यक्षवाद और संरचनात्मक प्रकार्यवाद के कठोर नियमों के प्रभाव में सांस्कृतिक आयामों (कलाओं, मिथकों, प्रतीकों आदि) को उपेक्षित कर दिया। इसके परिणामस्वरूप सामाजिक यथार्थ का असंतुलित चित्र सामने आया। मुकर्जी के अनुसारं मानव जाति की एकता, पूर्णता और श्रेष्ठता की खोज ने सभ्यता की आध्यात्मिकता के महत्व को प्रदर्शित किया। इस संदर्भ में मुकर्जी ने भारतीय और चीनी सभ्यताओं की सराहना की, जो ईसा पूर्व छठी शताब्दी से स्थिर रूप में चली आ रही हैं। इन सभ्यताओं की शक्ति का आधार उनके सार्वभौमिक मिथक और नैतिक मूल्य हैं, जिन्होंने आध्यात्मिक खोज को प्रोत्साहित किया है।
मुकर्जी ने इस बात को बड़े संतोष से अनुभव किया कि बीसवीं शताब्दी की संयुक्त राष्ट्र संघ की मानव अधिकारों की घोषणा में सार्वभौमिकता की खोज को स्थान दिया गया था। इन मानव अधिकारों से विभिन्न देशों में सभी लोगों के स्वाधीनता और सम्मान के अधिकारों को मान्यता मिली । मुकर्जी का आध्यात्मिकता के विषय पर अधिक ध्यान देने का अभिप्राय यथार्थ से दूर रहने का नहीं था। उन्होंने कहा कि मानव समाज की प्रगति तभी संभव है जब विभिन्न देशों के बीच संपत्ति और ताकत की स्पष्ट दिखाई देने वाली असमानताओं को कम किया जा सकेगा। जब तक गरीबी है और राजनैतिक अत्याचार जारी हैं तब तक मानव जाति के और अधिक विकास की व्यावहारिक संभावना नहीं दिखाई देती। विश्व में उत्पीड़न के प्रति मानव की वर्तमान सजगता ने सार्वभौम मूल्यों और प्रतिमानों की खोज को प्रोत्साहित किया है।
महत्वपूर्ण रचनाएं
राधाकमल मुकर्जी की समाजशास्त्र पर कुछ महत्वपूर्ण रचनाएं नीचे दी गई हैं।
प) द रीजनल बैलेंस ऑफ मैन (1938)
पप) इंडियन वर्किंग क्लास (1940)
पपप) द सोशल स्ट्रक्चर ऑफ वैल्यूज (1955)
पअ) फिलोसॉफी ऑफ सोशल साइंसेज (1960)
अ) फ्लावरिंग ऑफ इंडियन आर्ट (1964)
बोध प्रश्न 1
प) निम्नलिखित वाक्यों में खाली स्थानों को भरिए।
क) राधाकमल मुकर्जी सामाजिक ………………., अंतर्शाखीय शोध और मूल्यों का सामाजिक ढांचा जैसे अध्ययन क्षेत्रों में अग्रणी थे।
ख) वे सामाजिक विज्ञानों के ………………. के विरुद्ध थे।
ग) अपनी रचनाओं में उन्होंने ………………….. समाजशास्त्र और इतिहास को समाविष्ट किया।
पप) पारिस्थितिक क्षेत्र किसे कहते हैं? तीन पंक्तियों में व्याख्या कीजिए।
पपप) राधाकमल मुकर्जी ने क्षेत्रीय समाजशास्त्र किसे कहा है? दस पंक्तियों में उत्तर लिखिए।
पअ) ‘‘तथ्यों‘‘ और ‘‘मूल्यों‘‘ के बारे में राधाकमल मुकर्जी के मत की समीक्षा सात पंक्तियों में कीजिए।
बोध प्रश्न 1 उत्तर
प) क) पारिस्थितिकी
ख) कोष्ठीकरण
ग) अर्थशास्त्र
पप) परिस्थिति विज्ञान के क्षेत्र में कुछ विशिष्ट प्रकार के भूवैज्ञानिक, भौगोलिक और जैविक कारक सम्मिलित होते हैं।
पपप) राधाकमल मुकर्जी की सामाजिक परिस्थिति विज्ञान में विशेष रुचि थी इसलिए उन्होंने भारत के विभिन्न क्षेत्रों का अध्ययन किया। इस अध्ययन को ही उन्होंने क्षेत्रीय समाजशास्त्र कहा। राधाकमल मुकर्जी का विश्वास था कि अगर आधुनिक भारत में क्षेत्रों का इतना विकास कर लिया जाए कि वे आत्मनिर्भर हो जाएं तो इससे पूरे भारत को लाभ होगा। परन्तु यदि कुछ क्षेत्र पिछड़ जाएं तो उनपर अधिक विकसित क्षेत्रों का दबदबा हो जाएगा इससे भारत का असंतुलित विकास होगा।
पअ) राधाकमल मुकर्जी पाश्चात्य-विद्वानों की ष्तथ्योंष् को मूल्यों से पृथक करने की प्रवृत्ति के विरुद्ध थे। जैसाकि प्रत्यक्षवादियों ने समाजशास्त्र के क्षेत्र में किया था। उनके अनुसार तथ्यों को मूल्यों से पृथक नहीं किया जा सकता क्योंकि मानव अंतरूक्रिया जैसे कि भोजन खाना या खिलाना, वस्त्र पहनना, आदि सामाजिक मूल्यों और प्रतिमानों पर आधारित होती है।
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