archaeological in hindi meaning definition sources पुरातात्विक किसे कहते हैं | पुरातत्व का मतलब अर्थ क्या है साक्ष्य स्थल परिभाषा ?
उत्तर : वह माध्यम अथवा साधन जिसके द्वारा हमारे अतीत अथवा इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है उसे पुरातात्विक कहा जाता है जैसे कई बार किसी खुदाई में पुराने बस्ती , मकान , हथियार आदि मिलते है जिसके आधार पर बताया जाता है कि प्राचीन समय में लोग किस प्रकार रहते थे , उनका रहन सहन कैसा था | जिन चीजो के माध्यम से यह जानकारी मिलती है उन्हें पुरातत्व साक्ष्य कहते है |
प्रश्न : राजस्थान के प्रमुख पुरातात्विक स्थल बताइए ?
हल : राजस्थान में पाषाण कालीन मुख्य स्थलों में डीडवाना , पोकरण , बगौर (भीलवाडा) , तिलवाड़ा (बाड़मेर) , दर (भरतपुर) आदि है। हडप्पा कालीन मुख्य स्थलों में कालीबंगा , पीलीबंगा और रंगमहल (हनुमानगढ़) , आहड और गिलुण्ड (उदयपुर) है। ताम्रयुगीन सभ्यता के प्रमुख स्थलों में गणेश्वर (नीम का थाना) , बालाथल (उदयपुर) है। लौह युगीन सभ्यता के प्रमुख स्थल रेढ (टोंक) , नोह (भरतपुर) , सुनारी (झुंझुनू) , विराटनगर (जयपुर) है। इस प्रकार राजस्थानी सभ्यता और संस्कृति की अनवरत प्राचीनता इन स्थलों की क्रमबद्धता से सिद्ध हो जाती है।
प्रश्न : राजस्थान में पाषाणयुगीन शैलाश्रय ?
उत्तर : राजस्थान की अरावली पर्वत श्रृंखला में और चम्बल नदी की घाटी में ऐसे शैलाश्रय प्राप्त हुए है , जिनसे प्रागैतिहासिक काल के मानव द्वारा प्रयोग में लाये गए पाषाण उपकरण , अस्थि अवशेष और अन्य पुरा सामग्री प्राप्त हुई है। इन शैलाश्रयों की छत , भित्ति आदि पर प्राचीन मानव द्वारा उकेरे गए शैलचित्र तत्कालीन मानव जीवन की झलक देते है। इनमें सर्वाधिक आखेट दृश्य उपलब्ध होते है। बूंदी में छाजा नदी और कोटा में चम्बल नदी क्षेत्र अरनिया उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त विराटनगर (जयपुर) , सोहनपुरा (सीकर) और हरसौरा (अलवर) आदि स्थलों से चित्रित शैलाश्रय प्राप्त हुए है।
प्रश्न : राजस्थान के पुरातात्विक स्थलों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों की विवेचना कीजिये ?
उत्तर : पुरातात्विक स्थलों का महत्व : पुरातात्विक स्थलों से प्राप्त सामग्री , अवशेषों , नरकंकालों आदि के अध्ययन से यह प्रकट होता है कि राजस्थान में भी विश्व के अन्य क्षेत्रों की भाँती एक मानव संस्कृति का अनवरत विकास होता रहा। यहाँ से पूर्व पुरापाषाण काल (डीडवाना) से लेकर लौह युगीन सभ्यता (रैढ) तक के क्रमिक अवशेष मिले है जिससे राजस्थानी सभ्यता और संस्कृति की प्राचीनता प्रकट होती है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि उस युग का राजस्थानी मानव विश्व के अन्य स्थानों के मानव के साथ साथ कृषि पशुपालनकर्म , खिलौना मृदभाण्ड कला , आवास निर्माण , वाणिज्य व्यापार , परिष्कृत उपकरण , औजार , कला आदि के बारे में जानता था। वह सामाजिक संगठन बनाकर बस्तियों में रहने लगा। उसने अपने देवी देवता , खान पान , मान्यताएँ , मनोरंजन के साधन आदि विकसित कर लिए और अपने सभ्य और सुसंस्कृत होने का परिचय दिया।
इस प्रकार राजस्थानी सभ्यता और संस्कृति की अनवरत प्राचीनता सिद्ध करने में इन पुरातात्विक स्थलों की अति महत्वपूर्ण भूमिका है।
राजस्थान के प्रमुख पुरातात्विक स्थल निम्नलिखित है –
पाषाण कालीन स्थल : राजस्थान में 10 लाख वर्ष से लेकर 3000 ईस्वी पूर्व तक के पाषाणकालीन प्रकृतिजीवी मानव के अवशेषों की जानकारी डीडवाना (नागौर) , पोकरण , दर (भरतपुर) , बागौर (भीलवाड़ा) आदि स्थलों में मिल जाती है। यह मानव आखेटक और खाद्य संग्राहक था। यदि समय मिलता तो वह गुफाओं में चित्रकारी भी करता था इसके साक्ष्य “दर” से प्राप्त हुए है।
ताम्रपाषाण कालीन स्थल : मानव ने प्रथम धातु ताम्बे का प्रयोग किया परन्तु पाषाण को छोड़ नहीं पाया। इस समय वह ताम्र के साथ साथ पाषाण उपकरणों का भी प्रयोग करता था। इस काल के प्रमुख उदाहरण बागौर , आहड , गिलुंड , बालाथल आदि से मिल जाते है। अब वह पशुपालन और मृदभाण्ड कला की तरफ बढ़ा।
ताम्र कांस्य युगीन स्थल : पाषाण के बाद मानव ने ताम्र और काँस्य उपकरण औजार काम में लिए। इस संस्कृति के राजस्थान में प्रमुख अवशेष गणेश्वर (नीम का थाना) , कालीबंगा , पीलीबंगा , रंगमहल (हनुमानगढ़) आदि में मिलते है। अब वह बस्ती में समाजीकरण के साथ रहने लगा और पशुपालन उसका प्रमुख व्यवसाय हो गया।
प्रश्न : अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय का मूल्यांकन कीजिये।
उत्तर : पृथ्वीराज चौहान शाकम्भरी के चौहानों में ही नहीं बल्कि राजपुताना के राजाओं में भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उसने मात्र 11 वर्ष की आयु में अपनी प्रशासनिक और सैनिक कुशलता के आधार पर चौहान राज्य को सुदृढ़ किया। अपनी महत्वकांक्षा को पूर्ण करने के लिए दिग्विजय की निति से तुष्ट किया , न केवल अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार किया बल्कि आंतरिक विद्रोहों और उपद्रवों का दमन कर समूचे राज्य में शांति और व्यवस्था स्थापित कर उसे सुदृढ़ता भी प्रदान की। इस प्रकार अपने प्रारंभिक काल में शानदार सैनिक सफलताएँ प्राप्त कर अपने आपको महान सेनानायक और विजयी सम्राट सिद्ध कर दिखाया।
लेकिन उसके शासन का दूसरा पक्ष भी था जिसमें उसकी प्रशासनिक क्षमता और रणकौशलता में त्रुटियाँ दृष्टिगत होती है। उसमें कूटनीतिक सूझबूझ की कमी थी तथा वह राजनितिक अहंकार से पीड़ित था। उसकी दिग्विजय निति से पडौसी शासक शत्रु बन गए। उसने मुस्लिम आक्रमणों को गंभीरता से नहीं लिया तथा न ही वह अपने शत्रु के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा खड़ा कर सका। संभवतः तराइन के मैदान में हारने का प्रमुख कारण यही रहा।
वह न केवल वीर , साहसी और सैनिक प्रतिभाओं से युक्त था अपितु विद्वानों और कलाकारों का आश्रयदाता भी था।
पृथ्वीराज रासो का लेखक चंदरबरदाई , पृथ्वीराज विजय का लेखक जयानक , वागीश्वर , जनार्दन आशाधर , पृथ्वीभट्ट आदि अनेक विद्वान , कवि तथा साहित्यकार उसके दरबार की शोभा बढ़ाते थे। उसके शासनकाल में सरस्वती कंठाभरण नामक संस्कृत विद्यालय में 85 विषयों का अध्ययन अध्यापन होता था। ऐसे अनेक विद्यालय मौजूद थे जिन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त था। इस प्रकार वह एक महान विद्यानुरागी शासक था।
उसने तारागढ़ नाम के दुर्ग को सुदृढ़ता प्रदान की ताकि अपनी राजधानी की शत्रुओं से रक्षा की जा सके। उसने अजमेर नगर का परिवर्धन कर अनेक मंदिरों और महलों का निर्माण करवाया। राजस्थान के इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा उसके गुणों के आधार पर ही उसे योग्य और रहस्यमयी शासक बताते है। वह सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था। इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान राजपूतों के इतिहास में अपनी सीमाओं के बावजूद एक योग्य और महत्वपूर्ण शासक रहा।