सिक्खों में जन्म संस्कार क्या है birth rites in sikhism in hindi सिक्ख समुदाय में जन्म संस्कार कैसे होता है
birth rites in sikhism in hindi सिक्खों में जन्म संस्कार क्या है सिक्ख समुदाय में जन्म संस्कार कैसे होता है ?
सिक्खों में जन्म संस्कार (Sikhs Rites of Birth)
पहले हमारे लिए आवश्यक होगा कि हम सिक्खों के सामाजिक संगठन का विवरण दें। हम ई. एस. ओ-12 के खंड 4 की इकाई 18 में सिक्खों के उद्भव, उनकी विचारधारा, उनके पाँच चिह्नों आदि के बारे में बता चुके हैं। इसलिए यहाँ हम सीधे जन्म संबंधी संस्कारों की चर्चा कर सकते हैं। हिन्दुओं और सीरियाई ईसाइयों की तरह सिक्खों में भी ये संस्कार पारगमन के संस्कार ही होते हैं। अर्थात जन्म से पहले, विच्छेद के संस्कार या पूर्व सांक्रांतिक संस्कार, जन्म के समय या उसके बिल्कुल आसपास के सांक्रांतिक संस्कार और अंत में, नामकरण के संस्कार जो समावेशन या उत्तर सांक्रांतिक संस्कार होते हैं।
सिक्खों में शिशु का जन्म आनन्द का विषय होता है, चाहे वह कन्या हो या बालक-जब माँ प्रसव प्रसूति के बाद स्वस्थ हो जाती है, तो धन्यवाद देने के लिए गुरूद्वारे जाते हैं। वहाँ कड़हा प्रसाद प्राप्ति के लिए कुछ धन दिया जाता है। गाँवों में स्त्रियाँ खुद कड़हा प्रसाद तैयार करती हैं और गुरुद्वारे ले जाती हैं। एक ‘‘रूमाला‘‘ या एक वर्ग मीटर का रेशमी कपड़ा गुरु ग्रंथ साहिब को अर्पित किया जाता है। गुरुद्वारे में धन्यवाद के ‘‘शबद‘‘ पढ़े जाते हैं। जिसके बाद परिवार नवजात के लिए ‘‘अमृत‘‘ माँगते हैं। अमृत ‘‘बताशा‘‘ या बताशा घोल कर बनाया जाता है।
‘‘ग्रंथी‘‘ जी (पुरोहित) एक ‘‘खंडा‘‘ (छोटी दुधारी तलवार) से पानी को हिलाते हैं और ‘‘जपुजी साहिब‘‘ के पहले पाँच छंदों की विवेचना करते हैं। अमृत रूपी जल को छोटी कृपाण से स्पर्श कराकर बच्चे की जीभ से लगाया जाता है। शेष अमृत माँ चख लेती है। फिर गुरु ग्रंथ साहिब का स्वाभाविक रूप से पाठ आरंभ किया जाता है और बाएँ पृष्ठ का पहला अक्षर बच्चे के माता-पिता को पढ़कर बताया जाता है। इस अक्षर से बच्चे का नाम तय किया जाता है। ग्रंथीजी ‘‘जो बोले सो निहाल‘‘ कहते हैं और संगत उनके जवाब में ‘‘सत श्री अकाल‘‘ बोलती है।
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सिक्ख के लिए भोर के ताजे पानी में नहाना अनिवार्य होता है। उसके बाद उसे जपुजी साहिब का पाठ करना होता है। उसके साथ उसे गुरू गोबिन्द सिंह के जाप साहिब, उनके सवैयों का भी पाठ करना होता है। उसे यह पाठ नाश्ते के पहले या बाद में करना होता है। अपना दैनिक कार्य प्रारंभ करने से पहले उसे गुरुद्वारे में गुरुबानी का पाठ करना भी अनिवार्य है। काम के दौरान भी परमेशवर का विचार उसके मन से नहीं निकलना चाहिए। फिर उसे संध्या के समय ‘‘रहिरास‘‘ और सोने से पहले “सोहिल्ला‘‘ का पाठ करना होता है।
इसके अलावा सामाजिक रिवाज भी होते हैं। संयुक्त परिवार में बच्चे का जन्म पति के घर में होता है। पत्नी के माता-पिता उसे वहीं देखने आते हैं। वे उसके लिए और उसकी सास के लिए उपहार लेकर आते हैं और पति और ससुर के लिए पगड़ी लाते हैं कहीं-कहीं गरीब लोगों के लिए ‘‘लंगर‘‘ या मुफ्त भोजन की व्यवस्था भी की जाती है और विधवाओं को दान दिया जाता है। सिक्खों के जन्म संबंधी संस्कार भी समावेशन के संस्कार होते हैं। गुरुद्वारे जाने और पत्नी के माता-पिता के अलावा ये सामाजिक अन्योन्यक्रिया के संस्कार भी हैं- ‘‘ग्रंथी‘‘ के रूप में ये संस्कार व्यावसायिक पक्ष भी प्रस्तुत करते हैं। इसमें आध्यात्मिक गुण और आध्यात्मिक उन्नति के भी दर्शन होते हैं। यहाँ समाजीकरण के व्यवहार भी स्पष्ट रूप से मौजूद होते हैंः
वैसे सिक्ख धर्म मूलतः एक खुले विचारों वाला और आधुनिक धर्म है। यहाँ हम इस बात पर ध्यान दे सकते हैं कि यहाँ गुरू ग्रंथ साहिब का आशीर्वाद लेने की प्रवृत्ति होती है। इसमें बताशों को एक छोटी दुधारी तलवार से पानी में घोला जाता है। फिर बच्चे को उस खांड या छोटी कृपाण से यह ‘‘अमृत‘‘ चखाया जाता है। नामकरण की रीति भी बिना किसी औपचारिकता से की जाती है लेकिन उसका आधार भी मूल रूप से गुरु ग्रंथ साहिब होते हैं।
कोरकुओं में जन्म संस्कार (Korku Birth Rites)
कोरकू एक जनजाति है जिसके सदस्य बिंध्य की पहाड़ियों में रहते हैंः वे इन पहाड़ियों के कई हिस्सों में फैले हुए हैं और वे एक ही जनजाति के अलग-अलग समूहों में रहते हैं । यहाँ हम उनमें प्रचलित जन्म के संस्कारों की चर्चा करेंगे।
स्टीफन फुक्स (फुक्स, 1988ः 219-236) के अनुसार कोरकू कन्याओं को 11 से 13 वर्ष की आयु में मासिक धर्म होता है। कोरकुओं में व्याप्त विश्वास के अनुसार मासिक धर्म के दौरान स्त्री सांस्कारिक दृष्टि से अशुद्ध होती है।
कोरकू लोग इन नियमों के मामले में कोई ढील नहीं देते। उनकी मान्यता है कि स्त्री तभी गर्भवती होती है, जब कोई आत्मा उसकी कोख में प्रवेश करती है। यह आत्मा किसी कोरकू की ही होती है जो एक पीढ़ी श्पहले मरा होता है। ऐसा हर बार होता है। गर्भावस्था एक खुशी का अबसर होता है। सभी गर्भवती स्त्रियाँ कुछ नियमों और निषेधों का पालन करती हैंः उदाहरण के लिए वे गर्भावस्था के दौरान सूअर का मांस नहीं खा सकतीं। गर्भवती स्त्री को आम के पेड़ के नीचे से नहीं निकलना होता, क्योंकि कोरकुओं के विश्वास के अनुसार इससे वे बाँझ हो सकती है। गर्भवती स्त्री को मासिक धर्म और जच्चा औरतों से बचकर रहना होता है। गर्भपात से बचने के लिए उन्हें भारी बोझ न उठाने की सलाह दी जाती है।
कोरकू स्त्रियाँ प्रसव की पीड़ा शुरू होने तक खेत और घर के काम करती रहती हैं। प्रसव पीड़ा शुरू होने पर किसी दाई को बुलाया जाता है। दाई अक्सर कोई नाहल महिला होती है। नाहल नीची जाति के लोग होते है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि कोई कोरकू महिला कभी किसी नाहल स्त्री की प्रसूति के समय मदद नहीं करती।
कोरकूओं में शिशु का जन्म बरामदे के एक कोने में होता है, जो प्रवेश द्वार या रसोई से काफी दूर होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जन्म की क्रिया सांस्कारिक दृष्टि से अशुद्ध होती है और भोजन को प्रदूषित करती है। जन्म प्रवेश द्वार से दूर ही होना चाहिए, जिससे लोगों की बुरी नजर न लगे। प्रसव के लिए कोरकू स्त्री जमीन पर बैठ या लेट जाती है और दाई नितम्बों से नीचे की ओर मालिश करती है। प्रसव यदि असामान्य होता है, तो स्त्री की आँखों के आगे एक धागा सुलझाया जाता है या किसी जादूगर (ओझा) को बुलाया जाता है। ओझा पानी से एक औषध तैयार करता है, जिसे गर्भवती स्त्री को पिलाया जाता है। अगर यह उपाय भी कारगर नहीं होता, तो ओझा समाधि लगाता है। उसकी पूज्य देवी/देवता उसे बताता है कि कैसे क्या होना है। फिर भेंट चढ़ाई जाती है। कभी-कभी बकरे की बलि दी जाती है। स्त्री को एक जादुई धागा बाँधा जाता है। बलि चढ़ाने का काम शिशु के जन्म के बाद किया जाता है।
विद्यार्थी यहाँ यह ध्यान दें कि हमने बार-बार यह बताया है कि वैन जेनेप के पारगमन के संस्कार की व्यवस्था और सरस्वती के कार्यों की व्यवस्था दोनों ही अब हमारे सामने हैं। विद्यार्थी अब वैन जेनेप की बताई तीन प्रकार की स्थितियों को पहचान सकते हैं। वे कोरकुओं के संदर्भ में संस्कार के कुछ कार्यों की भी पहचान कर सकते हैं।
शिशु का जन्म होने के बाद दाई उसकी नाल को एक कपड़े से बाँध देती है और उसे चाकू या बाँस की खपची से काट देती है। घाव पर हल्दी लगा दी जाती है। खेड़ी या पुरइन को बरामदे के एक कोने में गाड़ दिया जाता है। माँ और बच्चे को घर के एक कोने में चादरों के पीछे रखा जाता है जिससे उन्हें बुरी नजर न लगे।
माँ चार-पाँच दिनों तक ठोस खाना नहीं खाती। उसे पतली माँड दी जाती है। नवजात शिशु को तीसरे दिन जाकर ही दूध पिलाया जाता है। पहले दो दिनों में उसे छाछ चखाई जाती है। माँ और शिशु कोईः बारह दिनों तक सांस्कृतिक दृष्टि से अशुद्ध रहते हैं। फिर माँ को शुद्धि के लिए स्नान करना होता है। यहाँ यह बात फिर स्पष्ट होती है कि ये
संस्कार समावेशन के संस्कार होते हैं। ये शिशु का समाजीकरण करते है। कोरकुओं में शिशु जन्म के इस संक्षिप्त विवरण में हम उनके संस्कारों में हिन्दुत्व के प्रभाव को स्पष्ट देख सकते हैं।
शिशु जन्म के समय प्रदूषण की अवधारणा और फिर शुद्धीकरण दोनों ही स्पष्ट रूप से हिन्दू अवधारणाएँ हैं। वैसे जनजातीय दृष्टिकोण की मौलिकता यहाँ बरकरार है। यह असामान्य प्रसूति के समय गर्भवती स्त्री की आँखों के आगे धागे सुलझाने में परिलक्षित होती है। इसके अलावा, मासिक धर्म के दौरान स्त्री को अलग रखा जाता है। ये सब समावेशन के संस्कार हैं। इन सब में अमौखिक संवाद और उपचार के रूप में संस्कार के तत्व होते हैं।
बोध प्रश्न 2
1) हिन्दुओं के जन्म संबंधी कुछ संस्कारों को सूचीबद्ध कीजिए
2) सीरियाई ईसाइयों में शिशु जन्म के समय होने वाले कुछ, संस्कारों/रस्मों को सूचीबद्ध कीजिए।
क) ……………………………………………………………………………………………………………………………………………………………..
ख) ……………………………………………………………………………………………………………………………………………………………..
ग) ……………………………………………………………………………………………………………………………………………………………..
बोध प्रश्न 2 उत्तर
प) क) गर्भाधान
ख) पुसंवन
ग) सुनंतोन्नपन
घ) नामकरण
पप) क) यीशु खीष्ट प्रभु है
ख) शिशु को सोना मिले शहद की कुछ बूंदे देना
ग) गिरजाघर में प्रार्थना सभा के बपतिस्मा या नामकरण की रस्म
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