f g bailey in hindi or Frederick George Bailey एफ. जी. बैली कौन है ? फ्रेडरिक जॉर्ज बैली sociology
एफ. जी. बैली कौन है ? फ्रेडरिक जॉर्ज बैली sociology f g bailey in hindi or Frederick George Bailey books name full name ?
एफ. जी. बैली
बैली के अनुसार जाति की गतिकी और पहचान को पार्थक्य और क्रम-परंपरा के दो सिद्धांत जोड़ कर रखते हैं। उनका मानना है कि “जातियां आनुष्ठानिक और सांसारिक क्रम-परंपरा में अपनी-अपनी जगह लिए होती हैं, जिसकी अभिव्यक्ति परस्पर-व्यवहार के नियमों में होती है।” आनुष्ठानिक व्यवस्था राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था पर हावी रहती है।
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जातियों के बीच संबंध में सिर्फ अनुष्ठान ही नहीं होते। बल्कि उससे सत्ताधिकार का आयाम भी जुड़ा रहता है क्योंकि समाज में एक प्रबल जाति भी मौजूद होती है जिसके चलते अन्य जातियां उसकी अधीनस्थ होती हैं। जाति श्रेणी और जाति पहचान की अभिव्यक्ति तब होती है जब एक निम्न जाति अपने से ऊंची जाति की नकल करने का प्रयत्न करती है। इस प्रकार आपसी व्यवहार का स्वरूप श्रेणी क्रम-परंपरा में आनुष्ठानिक प्रस्थिति का द्योतक बन जाता है। आपसी-व्यवहार के स्परूप में वे सभी मनोवृत्तियां और प्रथाएं शामिल रहती हैं जिन्हें व्यक्ति भोजन, सेवा, जल, साथ-साथ धूम्रपान, भोजों पर बैठने की व्यवस्था और उपहारों का द्य आदान-प्रदान इन सबको स्वीकार और अस्वीकार करने से जुड़े प्रश्न के मामले में अपनाते हैं।
बैली ने अपने विचार उड़ीसा के बीसीपाड़ा नामक गांव के संदर्भ में रखे हैं। उन्होंने यह जातिगत पहचानः विशेषताबोधक और बताया कि स्वतंत्रता के बाद क्षत्रियों के हाथों से अधिकांश जमीन निकल जाने से बीसीपाड़ा अन्योन्य-क्रियात्मक सिद्धांत में जाति स्थिति किस तरह बदल गई। भूमि पर स्वामित्व खत्म हो जाने से आनुष्ठानिक श्रेणीकरण में भी उनका स्थान गिर गया। इससे आपसी-व्यवहार के उपरोक्त पहलुओं यानी अन्य जातियों से भोजन स्वीकार करना और न करना इस में भी स्पष्ट रूप से परिवर्तन आ गया।
अतिरिक्त जानकारी
मैक्स वेबर की दृष्टि में जाति एक ‘प्रस्थिति-समूह‘ है जिसके सदस्यों की पहचान उनके सामाजिक और आर्थिक स्थान से होती थी। इसमें उनके लिए एक खास जीवन-शैली अपरिहार्य थी। इस पर एक तरह का बंधन था क्योंकि परस्पर व्यवहार पर कुछ खास अंकुश लगे हुए थे, जिसकी परिधि में उनके काम-धंधे भी आते थे, जिन्हें करने की अनुमति उन्हें थी। जातियों के बीच संबंध पवित्रताश् और ‘अपवित्रता‘ की स्थितियों के बीच विद्यमान आनुष्ठानिक वैमनष्य से भी तय होता था। इसे व्यक्तियों या वस्तुओं से जोड़ कर देखा जाता था। यानी कौन व्यक्ति जाति के अनुसार छूत है या अछूत है। इस प्रकार, वर्ण क्रम-परंपरा में जातियों को उनकी पवित्रता यानी स्पृश्यता के पैमाने के अनुसार स्थान मिलता था। इसलिए ब्राह्मणों की स्पृश्यता या पवित्रता. का स्तर सर्वोच्च समझा था क्योंकि वे पुरोहिताई जैसे ‘साफ-सुथरे‘ कार्य करते थे। यह भी उतना ही महत्वपूर्ण था कि इस ‘पवित्रता‘ को उन लोगों के स्पर्श से दूर रहकर कायम रखा जाए, जो अछूत थे। इसी कारण से वेबर ने तर्क दिया है कि जाति सामाजिक स्तरीकरण का एक चरम रूप है।
बौगल के अनुसार जाति की पहचान क्रम-परंपरा में उसके स्थान और उसके सदस्यों के पेशे से होती थी। अन्य किस्म की सामाजिक वर्जनाओं के थोपे जाने के कारण जतियां मर्यादा में बंधी रहती थीं। इस प्रकार समूहों के बीच क्रम-परंपरा और पार्थक्य भारतीय समाज की वे विशेषताएं थीं, जिन्होंने वर्ण क्रम-परंपरा में जाति की नियत प्रस्थिति को कायम रखा और उनके बीच पारस्परिक-व्यवहार का स्वरूप तय किया।
जाति का विशेषताबोधक सिद्धांत
आइए अब उन विद्धानों के नजरिए पर आते हैं जिन्होंने मार्क्स, वेबर और बौगल के आरंभिक विश्लेषण का प्रयोग कर एक ऐसे नजरिए को विकसित किया, जिसे हम विशेषताबोधक सिद्धांत कहते हैं। यह सिद्धांत मुख्यतःवर्ण-व्यवस्था के महत्वपूर्ण गुणों का विवेचन करता है और इसे सामाजिक स्तरीकरण के अन्य स्वरूपों से अलग दर्शाता है।
ये विशेषताएं वर्ण-व्यवस्था से जुड़े नैसर्गिक अहस्तांतरणीय गुण हैं। इसके अनुसार प्रत्येक जाति में इनमें से कुछ विशेषताएं अनिवार्य रूप से होनी चाहिए।
कुछ उपयोगी पुस्तकें
द्युमोंत, एल. 1970, होमो हायर्किकस, शिकागो, यूनि. ऑव शिकागो प्रेस
मदान, टी.एन. (संपा.) 1971 “ऑन द नेचर ऑव कास्ट इन इंडिया” कांस्टीट्यूशनल्स टू इंडियन सोशियोलाजी
मैंडलबौम, डी.जी. 1987, सोशियोलजी इन इंडिया, बंबई पॉपुलर प्रकाशन
मैरियॉट, एम. “इंटरेक्शनल एंड एट्रीब्यूशनल थ्योरीज ऑव कास्ट रैंकिंग‘‘, मैन इन इंडिया (खंड 34, अंक 2)
श्रीनिवास, एम.एन. 1966, सोशल चेंज इन इंडिया, बर्कले, यूनि. ऑव कैलिफोर्निया प्रेस
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