structure of ovule in hindi meaning definition in bilogy बीजाण्ड की संरचना का चित्र क्या है | बीजांड किसे कहते है परिभाषा बताइए ?
बीजाण्ड की संरचना (structure of ovule) : अंडाशय में अंडप की फलक कोरों के संयोजित होने के स्थलों पर अथवा अंडप की भीतर भित्ति पर पैपिला सदृश विभाज्योतकी उभार पर बीजाण्ड उत्पन्न होते है। इन उभारों अथवा स्थलों का बीजाण्डासन कहते है। एक प्रारूपिक बीजांड की संरचना में बीजाण्डवृंत बीजाण्ड के अभ्यावरण , बीजाण्डद्वार और बीजाण्डकाय संरचनाएँ होती है। इसके अतिरिक्त कुछ बीजाण्डो में अन्य विशिष्ट संरचनाएँ जैसे हाइपोस्टेस , एपिस्टेस और सेतुक आदि भी उपस्थित होते है।
बीजाण्डवृन्त (funiculus)
बीजांड एक वृंत जैसी संरचना , बीजांडवृन्त द्वारा बीजाण्डसन पर लगा रहता है। बीजाण्डवृंत जिस स्थल पर बीजांड से जुड़ा रहता है , उसे नाभिक कहते है। प्रतिलोमित अथवा प्रतीप प्रकार के बीजाण्ड में बीजांड वृंत बीजांड के शरीर के पाशर्व भाग के सहारे और इससे संयोजित हो बीजाण्ड के मुख तक विस्तारित हो एक उभरी हुई कटक बनाता है जिसे कि रेफे कहते है। बीजाण्डवृंत में संवहन आपूर्ति पायी जाती है जो बीजांड में सिरे से प्रवेश करती है।
अध्यावरण (integument)
बीजाण्ड के बाह्य आवरण को अध्यावरण कहते है। अध्यावरणों की संख्या या स्तरों के आधार पर आवृतबीजी पौधों में पाए जाने वाले समस्त बीजाण्डो को चार श्रेणियों में रखा जा सकता है। ये निम्नलिखित है –
(अ) एक अध्यावरणी बीजाण्ड (unitegmic ovule) : इस प्रकार के बीजाण्ड में केवल एक ही अध्यावरण पाया जाता है। इस प्रकार के बीजांड द्विबीजपत्री पौधों में वर्ग गेमोपेटेली और मोनोक्लेमाइडी में पाए जाते है।
(ब) द्वि अध्यावरणी बीजाण्ड (bitegmic ovule) : यहाँ बीजांड में दो अध्यावरण होते है , उदाहरण – अधिकांश एकबीजपत्री पौधे और द्विबीजपत्रियों में पोलीपेटेली वर्ग के सदस्य। द्विअध्यावरणी बीजांड में सामान्यतया अध्यावरण आंतरिक अध्यावरण के बाद में विकसित होता है लेकिन यह आंतरिक अध्यावरण की तुलना में कुछ छोटा और माँसल होता है। बीजांड का ऊपरी छिद्र अर्थात बीजाण्ड द्वार प्राय: आंतरिक अध्यावरण के द्वारा निर्मित होता है।
(स) त्रिअध्यावरणी / बहुअध्यावरणी बीजाण्ड (polytegmic ovule) : कुछ आवृतबीजियों में विरल रूप से या अपवाद स्वरूप बीजाण्ड के चारों तरफ दो से अधिक अध्यावरण उपस्थित होते है।
एस्फोडिलस और ट्राएन्थिमा में तीन अध्यावरण पाए जाते है। इसमें सबसे बाहरी अध्यावरण को एरिल अथवा बीजाण्डचोल कहते है। यूफोर्बिएसी के कुछ सदस्यों जैसे अरण्डी में बीजाण्डद्वार के ऊपर अथवा बाहरी अध्यावरण के शीर्ष पर एक कॉर्की अतिवृद्धि पायी जाती है , जिसे बीजचोल कहते है।
(द) अध्यावरण रहित बीजांड (ategmic ovule) : अधिकांश वनस्पति शास्त्रियों के अध्ययन द्वारा यह पाया गया कि सामान्यतया परजीवी आवृतबीजी पौधों में जैसे लोरेन्थेसी और बेलेनोफोरेसी कुलों के सदस्यों में बीजांड के आसपास अध्यावरण नहीं पाए जाते , अत: इनको अध्यावरण रहित बीजाण्ड कहते है।
भ्रूणविज्ञानियों के अध्ययन के अनुसार ये माना जाता है कि विकास के क्रम में द्विअध्यावरणी बीजाण्ड पुरातन होते है , जिनसे एक अध्यावरणी बीजांड का विकास हुआ होगा। द्विअध्यावरणी बीजाण्डो बीजांडो से एकअध्यावरणी बीजाण्ड का बनना दो तरीकों से हो सकता है –
(1) दोनों अध्यावरणो के संयुक्त होने से जैसे , रेननकुलेसी और पैपिलियोनेसी में।
(2) किसी तरह से दो में से एक अध्यावरण का विकास अवरुद्ध हो जाता है अथवा नहीं हो पाता है। ऐसी अवस्था में बीजाण्ड में केवल एक अध्यावरण ही बचा रहता है , उदाहरण – सोलेनेसी कुल के सदस्यों में।
अनेक पादप जैसे मैग्नोलिया , क्लिओम और लिलियम में बीजांड के बाह्य अध्यावरण में पर्ण रन्ध्र के साथ अन्य कोशिकाओं में प्रचुर मात्रा में क्लोरोफिल भी पाया जाता है।
निषेचन के बाद बीजांड आगे चलकर बीज के रूप में विकसित होता है उस अवस्था में अर्थात जब बीज बन जाता है तो अध्यावरण भी बीज चोल में रूपान्तरित हो जाता है। बाह्य अध्यावरण बाह्य बीजचोल और आंतरिक अध्यावरण अंत: बीजचोल बनाता है।
इस प्रकार बीजाण्ड में अध्यावरण और बीज में बीजचोल दोनों सुरक्षात्मक संरचनाएँ है।
बीजाण्डद्वार (micropyle)
बीजांड के उपरी सिरे पर एक छिद्र जैसी संरचना पाई जाती है , इसे बीजांड द्वार कहते है। वास्तव में उसका संगठन अध्यावरण की उपस्थिति में होता है। द्विअध्यावरणी बीजाण्ड में बीजांड द्वार का निर्माण केवल आंतरिक अध्यावरण से अथवा कभी कभी दोनों अध्यावरणो से होता है। जब बीजाण्ड द्वार के निर्माण में दोनों अध्यावरण भाग लेते है तो बीजाण्ड द्वार का वह हिस्सा जो बाहरी अध्यावरण से घिरा रहता है , उसे बहिर्बिजांडद्वार कहते है और बीजांडद्वार का वह भाग जो आंतरिक अध्यावरण द्वारा घिरा रहता है उसे अंत: बीजाण्डद्वार कहते है। ये दोनों हिस्से सामान्यतया एक सीध में नहीं पाए जाते जिससे बीजांडद्वार टेढ़ा मेढ़ा हो जाता है। यह सामान्यतया बहुत कम अथवा विरल उदाहरणों में देखा गया है कि केवल बाहरी अध्यावरण से ही बीजाण्डद्वार का निर्माण हो। बीजाण्डद्वार में एक चिपचिपा द्रव्यी पदार्थ भरा हुआ पाया जाता है और संभवतः इस चिपचिपे पदार्थ का स्त्राव बीजाण्डकाय द्वारा होता है। यह पदार्थ परागनलिका के बीजाण्ड में प्रवेश करने में सहायक होता है।
बीजाण्डकाय (nucellus)
गुरुबीजाणुधानी की भित्ति को बीजांडकाय कहते है। यह अध्यावरणों से घिरी हुई मृदुतकी संरचना होती है। प्रत्येक बीजांड में सामान्यतया एक ही बीजांडकाय पाया जाता है लेकिन एगल मार्मिलोस आदि कुछ जातियों में दो बीजाण्डकाय पाए जाते है जो एक ही अध्यावरण से ढके रहते है। इसे द्विबीजाण्डकायी अवस्था कहते है।
सामान्यतया बीजाण्डकाय का उपयोग विकासशील भ्रूणकोष द्वारा पोषण के रूप में कर लिया जाता है अर्थात भ्रूणकोष के परिपक्व होने तक बीजाण्डकाय सामान्यत: समाप्त हो जाता है लेकिन कुछ एकबीजपत्री कुलों जैसे पाइपेरेसी और म्यूसेसी में बीजांडकाय परिपक्व बीज में भी उपस्थित रहता है , इसे परिभ्रूण कहते है। कभी कभी बीजाण्डकाय ऊत्तक का विघटन हो जाता है , जिससे बीजांड में एक गुहिका का निर्माण होता है , जिसे कूट भ्रूणकोष कहते है। यह अवस्था पोडोस्टीमेसी कुल के बीजांड में पाई जाती है।
बीजाण्डकाय सामान्यत: आंतरिक अध्यावरण के अन्दर ही सिमित रहता है लेकिन केरियोफिलेसी कुल के पौधों में इसका प्रसार बीजांडद्वार तक होता है। यही नहीं यूफोर्बियेसी कुल के पौधों में बीजाण्डकाय की वृद्धि बीजांडद्वार के बाहर तक हो जाती है। इस वृद्धि को बीजाण्डकाय चोंच कहते है।
बीजाण्डकाय में बीजाणुजन कोशिका की स्थिति के आधार पर यह दो प्रकार के होते है –
1. तनुबीजाण्डकायी (tenuinucellate) : प्राय: बीजाण्डकाय की अधिचर्म के ठीक नीचे स्थित कोशिकाओं से प्रपसूतक का विभेदन होता है। गेमोपेटली वर्ग के पौधों में प्रपसु कोशिका सीधे ही गुरुबीजाणुमातृ कोशिका का कार्य करती है अर्थात बीजाणुजन कोशिका अद्य: श्त्वचक होती है। इस प्रकार के बीजाण्ड जिनमें बीजाणुजन कोशिका अद्य: श्त्वचक होती है और उसके चारों तरफ स्थित बीजाण्डकायी उत्तक एक स्तरीय होता है तनुबीजाणकायी बीजांड कहलाते है। तनुबीजाण्डकायी बीजांड सामान्यतया एक अध्यावरणी होते है।
2. स्थूल बीजाण्डकायी (crassinucellate ovule) : ऐसे बीजांड जिनमें बीजाणुजन कोशिका उप अद्य श्त्वचक होती है , स्थूलबीजाण्डकायी कहलाते है। सामान्यतया भित्तिय कोशिकाओं के बनने के फलस्वरूप बीजाणुजन कोशिका इस स्थिति में (उप अद्य श्त्वचक) आ जाती है।
कुछ सदस्यों में बीजाण्डकाय की अधिचर्म कोशिकाओं के विभाजन से बीजाणुजन कोशिका उप अद्य श्त्वचक स्थिति में आ जाती है। जिसे कूट स्थूलबीजाण्डकायी कहते है। स्थूल बीजांडकायी बीजाण्ड सामान्यतया द्विअध्यावरणी होते है।
एण्डोलिथियम (endothelium)
आवृतबीजी पौधों में गेमोपेटेली समूह के सदस्यों में सामान्यतया यह देखा गया है कि इन पौधों में बीजांड विकास की प्रारंभिक अवस्थाओं में बीजाण्डकाय अपघटित होने लगता है। वैसे , सामान्यतया इन पौधों में एक अध्यावरणी और तनु बीजाण्डकायी बीजांड उपस्थित होता है। बीजाण्डकाय का अपघटन या क्षय हो जाने के परिणामस्वरूप भ्रूणकोष को पोषण प्रदान करने के लिए अध्यावरण की भीतरी परत की कोशिकाएँ विशिष्टकृत हो जाती है और भ्रूणकोष के चारों तरफ एक विशेष प्रकार के पोषक ऊतक का निर्माण करती है। इस रूपांतरित पोषक ऊतक को एंडोथिलियम कहते है। चूँकि यह परत एक विशिष्ट पोषक ऊत्तक के रूप में कार्य करती है इसलिए इसे अध्यावरणी टेपीटम भी कहते है। यह ऊतक न केवल एक अध्यावरणी बीजाण्ड युक्त पौधों में पाया जाता है बल्कि कुछ अन्य द्विअध्यावरण युक्त बीजांड वाले पौधों में भी उपस्थिति देखि गयी है। इन पौधों में भी एण्डोलिथियम का निर्माण आंतरिक अध्यावरण की भीतरी परत की कोशिकाओं से ही होता है।
अधिकांश उदाहरणों में एण्डोलिथियम परत केवल एक स्तरीय पायी जाती है लेकिन कुछ पौधों जैसे सूरजमुखी के बीजाण्ड में उपस्थित यह एण्डोलिथियम परत 10 से 13 स्तरीय तक हो सकती है। एण्डोलिथियम पर्त की कोशिकाएँ सामान्यतया अरीय रूप से सुदिर्घित आकृति की होती है। इनका जीवद्रव्य गाढ़ा होता है और इनमें वसा और मंड कणों की बहुलता पाई जाती है।
इसके अतिरिक्त इन कोशिकाओं में RNA , प्रोटीन , विभिन्न एन्जाइम , कार्बोहाइड्रेटस और एस्कोर्बिक अम्ल आदि भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। वैसे तो सभी पौधों में एण्डोलिथियम पर्त की कोशिकाएं तक केन्द्रकी होती है परन्तु कुछ विरल उदाहरणों जैसे बेलेनाइटिस में एण्डोलिथियम की कोशिकाएँ बहुकेन्द्रकी होती है। कुछ पौधों जैसे पिटुनिया हाइब्रिडा की एण्डोलिथियम कोशिकाओं में विशेष प्रकार का कार्बोहाइड्रेट कैलोस भी उपस्थित होता है।
हाइपोस्टेस और इपिस्टेस (hypostase and epistase)
बीजांड में भ्रूणकोष और बीजाण्डवृंत के संवहन बंडल के मध्य स्थित बीजाण्डकाय की कोशिकाएँ अन्य कोशिकाओं की तुलना में अलग प्रकार की होती है।
इनको हाइपोस्टेस कहा जाता है।
ये कोशिकाएँ लिग्निकृत होने के कारण इनकी कोशिका भित्तियाँ मोटी होती है और इनमें कोशिकाद्रव्य की मात्रा कम हो जाती है। इस प्रकार से हाइपोस्टेस वृद्धिशील भ्रूणकोष की सीमा को निर्धारित करता है और इसके बीजांडवृंत में धँसने से रोकने में सहायक होता है।
कुछ भ्रूण विज्ञानियों के अनुसार हाइपोस्टेस एक ग्रंथिल ऊतक है जिससे स्त्रावित एंजाइम और हार्मोन भ्रूणकोष की वृद्धि के लिए सहायक होते है। यह संरचना अम्बेलीफेरी , यूफोर्बियेसी और लिलीएसी आदि आवृतबीजी कुलों के सदस्यों में पाई जाती है।
कुछ पौधों जैसे कास्टेलिया और कोस्टस में बीजाण्डकाय की कोशिकाएँ भ्रूणकोष के ऊपरी हिस्से में अर्थात बीजाण्डद्वार पर एक प्यालेनुमा संरचना बनाती है , जिसे एपीस्टेस कहते है।
सेतुक (obturator)
निषेचन के समय परागनलिका को बीजांडद्वार में प्रवेश करने के लिए कुछ विशिष्ट संरचनाओं द्वारा निर्देशित किया जाता है। इन संरचनाओं को सेतुक कहते है।
कुछ पौधों जैसे लैमिएसी , एकेन्थेसी , मेग्नोलिएसी और एनाकोर्डिएसी कुलों के सदस्यों में बीजांडवृंत का आधारी भाग फूल कर सेतुक का कार्य करता है , जिसे बीजाण्डवृतीय सेतुक कहते है।
युफोर्बियेसी और कस्कुटेसी कुलों के कई पौधों में सेतुक का विकास बीजाण्डसन से होता है , जिसे बीजांडसनी सेतुक कहते है। निषेचन के पश्चात् यह संरचना विघटित हो जाती है।
बीजाण्ड के प्रकार (types of ovule)
विभिन्न प्रकार के आवृतबीजी पौधों के बीजाण्डो में बीजांडद्वार और निभाग की पारस्परिक स्थिति के अनुसार बीजाण्डवृन्त से इनके जुड़ाव में कुछ परिवर्तन देखे जा सकते है , जिसके कारण विभिन्न पौधों में इनकी बाह्य आकृति में विविधता दृष्टिगोचर होती है। अत: विभिन्न प्रकार की प्रमुख बीजाण्ड निम्नलिखित हो सकते है –
(1) ऋजु बीजाण्ड (orthotropous ovule) : इस प्रकार का बीजांड सामान्यतया पोलीगोनेसी , अर्टिकेसी और पाइपेरेसी के पौधों में पाया जाता है। यह एक सीधी संरचना होती है। अत: यहाँ बीजांड वृन्त और बीजांडद्वार एक ही सीध में पाए जाते है। उपर्युक्त तीन कुलों सहित आवृतबीजियों के लगभग 20 कुलों में इस प्रकार का बीजाण्ड देखा जा सकता है।
(2) प्रतीप बीजाण्ड (anatropous ovule) : बीजाण्डकाय और बीजाण्डवृंत के एक पाशर्व भाग में तेजी से वृद्धि होने के कारण या बीजांड वृंत की लम्बाई की वजह से यह 180 डिग्री कोण पर घूम जाता है और बीजाण्डद्वार और बीजांडवृंत एक दुसरे के समीप आ जाते है। यहाँ बीजांडद्वार और निभाग एक ही सीध में पाए जाते है। आवृतबीजी पौधों के लगभग 82% सदस्यों में या कुलों में इस प्रकार का बीजांड पाया जाता है।
(3) अर्धप्रतीप बीजाण्ड (hemianatropous ovule) : इस बीजाण्ड संरचना में बीजाण्डद्वार और निभाग एक क्षैतिज रेखा में व्यवस्थित होते है। लम्बवत रूप से एक सीध में नहीं होते और बीजाण्ड वृंत इनके समकोण पर होता है।
उदाहरण – रेननकुलेसी और प्राइमूलेसी कुल के सदस्य।
(4) वक्र बीजांड (campylotropous ovule) : बीजाण्डद्वार और निभाग यहाँ एक सीधी रेखा में नहीं होते। बीजांडकाय थोडा घूमा हुआ पाया जाता है और बीजांडद्वार नीचे की तरफ उन्मुख रहता है और बीजाण्डवृंत के समान्तर पाया जाता है। उदाहरण – चिनोपोडीएसी , क्रुसीकेरी और केरियोफिलेसी कुलों के सदस्य।
(5) अनुप्रस्थ बीजांड (amphitropous ovule) : इस प्रकार के बीजाण्ड में वक्रता अधिक पाई जाती है। यहाँ बीजांड में वक्रता के कारण बीजांडकाय और भ्रूणकोष मुड़कर घोड़े की नाल के आकार के हो जाते है।
उदाहरण – एलिस्मेटेसी , ब्यूटोमेसी और लोगिनिएसी कुलों के सदस्य।
(6) सर्सिनोट्रोपस अथवा कुंडलित (circinotropous ovule) : इस प्रकार की विचित्र संरचना सामान्यतया कैक्टेसी कुल के पौधों में पायी जाती है। यहाँ बीजांडवृंत अत्यधिक लम्बा होता है और बीजाण्ड को चारों तरफ से घेरे रहता है। बीजाण्ड वृंत की लम्बाई के कारण पहले ही बीजांड 180 डिग्री के कोण पर और इसके बाद पूरा 360 डिग्री के कोण पर घूम जाता है। अत: बीजांडवृंत यहाँ घडी की कमानी के समान व्यवस्थित होता है।
उदाहरण – कैक्टेसी और प्लम्बेजिनेसी कुलों के सदस्य।
बीजाण्ड का परिवर्धन या विकास (development of ovule)
बीजांड का विकास अंडाशय में बीजांडासन से होता है। बीजाण्ड के परिवर्धन का प्रारम्भन बीजाण्डान पर एक छोटी अतिवृद्धि के रूप में होता है। बीजाण्ड आद्यक बीजाण्डासन की अद्यश्त्वयीय परत की कोशिकाओं के परिनतिक विभाजन द्वारा विकसित होता है। बीजांड आद्यक प्रारंभ में गोलाकार सिरे युक्त तिकोने उभार के रूप में नजर आता है।
आद्यक में प्राथमिक प्रपसूतक कोशिकाएँ सघन जीवद्रव्य , बड़े आकार और सुविकसित केन्द्रक युक्त होने के कारण आसानी से पहचानी जा सकती है। इन कोशिकाओं के विभाजन के फलस्वरूप बीजांडकाय का निर्माण होता है।
बीजाण्डकाय के आधारी भाग की परिधीय कोशिकाओं के परिनतिक विभाजन के परिणामस्वरूप भीतरी अध्यावरण और इसके पश्चात् बाह्य अध्यावरण के आद्यक बनते है। ये दोनों आद्यक प्रारंभ में बीजाण्डकाय के चारों तरफ वृताकार उभार के रूप में वृद्धि करते है और अन्तत: वृद्धि कर उसके शीर्ष भाग को छोड़कर पूर्ण रूप से ढक लेते है। बीजाण्डकाय का शीर्षस्थ अनावरित भाग बीजांड द्वार में परिवर्तित हो जाता है। बीजांड आद्यक का आधारी भाग अर्थात निभाग लम्बाई में वृद्धि कर बीजाण्डवृंत का निर्माण करता है जिसके द्वारा बीजाण्डासन से जुड़ा रहता है।
प्रतीप और अन्य प्रकार के वक्रित बीजाण्डो में दोनों अध्यावरणों का विकास असममित होता है। वक्रित बीजांड बीजांडवृंत की एक दिशिय वृद्धि का परिणाम होते है।