(male gametophyte in hindi angiosperms meaning) नर युग्मकोदभिद किसे कहते है पादप में क्या है ?
नर युग्मकोदभिद (male gametophyte) : परागकोष की लघुबीजाणुधानियों में लघु बीजाणु परिवर्धित और परिपक्व होते है। लघुबीजाणु अर्धसूत्रण द्वारा बने होने के कारण अगुणित होते है। इस प्रकार यह अगुणित लघुबीजाणु ही नर युग्मकोदभिद पीढ़ी की प्रथम कोशिका होते है। चतुष्को से पृथक होने पर लघुबीजाणु पराग कण कहलाते है।
परागकण की संरचना (structure of pollen grain)
लघुबीजाणु एककोशीय , एककेन्द्रीकीय और अगुणित संरचना होती है जो नर युग्मकोदभिद की प्रथम अवस्था को निरुपित करती है। परागकण की बाह्य आकृति चतुष्कों से पृथक होने के पश्चात् अंडाकार अथवा गोलाकार हो जाती है। जिन पौधों में वायु परागण होता है वहां इनकी संख्या अधिक और आमाप छोटा होता है। ऐसे परागकण सपाट चिकनी और शुष्क सतह वाले होते है। इसके विपरीत जिन पौधों में कीट परागण होता है वहां प्रत्येक लघुबीजाणुधानी में न केवल परागकण का निर्माण कम संख्या में होता है बल्कि ये आमाप में भी बड़े होते है। परागकणों की बाह्य सतह या बाह्यचोल पर विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ दिखाई देती है। विभिन्न पादप प्रजातियों में परागकणों की बाह्य सतह काँटेदार अथवा कंटिकामय , छडदार अथवा जालिकावत या सपाट होती है।
उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि परागकण एककोशकीय गोलाकार अथवा अंडाकार संरचना होती है जिसकी भित्ति द्विस्तरीय होती है और विभिन्न प्रजातियों में इसकी आमाप भी परिवर्तनशील होती है। सबसे छोटे आकार के परागकण मायोसोटिस एलपेसिटस (10 माइक्रो मीटर) और सबसे बड़े आकार के परागकण मिरेबिलिस जलापा (200 मीटर) में पाए जाते है। कुकुरबिटेसी और पैसिफ्लोरेसी कुलों के परागकणों में भी आमाप बड़ी पायी जाती है। परागकण की बाध्य चोल में निर्धारित स्थलों पर निश्चित संख्या में रन्ध्र पाए जाते है जिन्हें जनन छिद्र कहते है। इन छिद्रों से ही परागकणों का अंकुरण होता है और अंत: चोल पराग नलिका के रूप में बाहर निकलती है। कुछ उदाहरणों में परागकण के ऊपरी स्तर पर छिद्र कम संख्या में और लम्बी खाँच के रूप में पाए जाते है। इनको जनन खाँच कहते है।
परागण भित्ति (pollen wall)
लघुबीजाणु निम्नलिखित दो आवरणों द्वारा आवरित रहता है –
1. बाह्यचोल
2. अन्त: चोल
1. बाह्यचोल (exine) : यह आवरण अपेक्षाकृत कठोर खुरदरा अथवा चिकनी सपाट सतह वाला होता है। अधिकांश द्विबीजपत्री पादपों में बाह्यचोल पर अनेक उभार अथवा अतिवृद्धियाँ अनेक प्रतिरूपों में विन्यासित मिलती है। परागाणु विज्ञानियों ने इनकी प्रतिरूपों के आधार पर परागकणों को विभिन्न वर्गों में वर्गीकृत किया है। कुछ प्रमुख प्रकार निम्नलिखित है –
(i) मृदु अथवा सिलेट – बाह्यचोल की बाह्य सतह चिकनी अथवा सपाट।
(ii) गर्तिकायुक्त अथवा फोवियोलेट – बाह्य सतह पर अनेक गर्त।
(iii) खाँचो युक्त अथवा फोसुलेट – बाह्य सतह पर कटक और खाँच प्रतिरूप।
(iv) दंडाकार – बाह्य सतह पर अनेक दण्डाकार अतिवृद्धियाँ।
(v) पाइलेट – गोल अथवा गुम्बदाकार सिरे वाले अनेक छड सदृश उभार।
(vi) कंटकीय – बाह्य सतह पर कंटक सदृश नुकीले उभार।
(vii) बिन्दुकित – बाह्य सतह पर अनेक बिंदु सदृश प्रतिरूप अथवा संरचनाएँ।
(viii) जालिकारूप – बाह्य सतह पर जालिका रुपी आकृतियाँ।
बाह्यचोल भी दो परतों की बनी होती है। बाहरी परत परिबाह्यचोल कहलाती है। जबकि आंतरिक स्तर अंत: बाह्यचोल कहलाती है।
परिबाह्यचोल फिर से तीन परतों में बंटी हुई पायी जाती है। इनको क्रमशः (1) आधारीय पर्त (2) बेक्यूलम और (3) टेक्टम कहते है।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि परागकण की बाह्यचोल सामान्यतया संख्त प्रतिरोधी और मोटी होती है। यह बाह्यचोल एक विशेष रासायनिक पदार्थ जिसे स्पोरोपोलेनिन कहते है , की बनी होती है जो कैरिटिनोइड्स का ऑक्सीकारी बहुलक होता है। इस पदार्थ के कारण परागकण गहरे रंग के होते है और बाह्यचोल का भौतिक और जैविक अपघटन भी नहीं होता। स्पोरोपोलेनिन की प्रतिरोधी क्षमता के कारण परागकण लम्बे समय तक सुरक्षित रहते है। यहाँ तक कि इस पदार्थ के कारण ही जीवाश्मी प्रारूपों में भी परागकण सुरक्षित पाए गए है।
2. अंत: चोल (Intine) : बाह्यचोल द्वारा परिद्ध पतला मृदु और कोमल झिल्ली सदृश अंत: चोल होता है। यहाँ परागकण के कोशिकाद्रव्य को ढके रहता है। अन्त: चोल मुख्यतः पेक्टोसेलूलोज यौगिकों की बनी होती है। अंकुरण के समय अंत: चोल जनन छिद्र में से होकर एक अतिवृद्धि के रूप में जनन नली में परिवर्धित हो जाती है। आगे चलकर यह जनन नली परागनलिका के रूप में विकसित हो जाती है। परागकण में जिन स्थानों पर जनन छिद्र पाए जाते है वहाँ अन्त: चोल में इन बिन्दुओं के कुछ समीप विशेष प्रकार के एन्जाइमी प्रोटीन्स पाए जाते है।
सामान्यत: अधिकांश परागकणों में विशेषकर उन पौधों में जहाँ कीट परागण होता है , उनमें परागकण की बाहरी सतह पर एक विशेष प्रकार की तैलीय परत पायी जाती है। इसे पोलनकिट कहते है। परागकणों का रंग उनका चिपचिपापन और उनकी विशेष गंध इसी परत के कारण विद्यमान होती है। यह पोलन किटट परागकणों के लिए अत्यंत उपयोगी होती है , हालाँकि इसका विशिष्ट कार्य ज्ञात नहीं है फिर भी वैज्ञानिकों के अनुसार इनके निम्नलिखित कार्य है –
1. अपनी गंध के कारण कीटों को परागण के लिए आकर्षित करती है।
2. पराबैंगनी किरणों से परागकण की रक्षा करती है।
3. अपने चिपचिपेपन के कारण जब कीट पुष्प पर आते है तो परागकणों को उनके पंखों आदि से चिपकाने में विशेषत: सहायक होती है।
पोलनकिट का निर्माण करने वाले आवश्यक रासायनिक पदार्थो का संश्लेषण टेपीटम की कोशिकाओं के द्वारा होता है।
नर युग्मकोदभिद का निर्माण (development of male gametophyte)
परागपुट में नवनिर्मित लघुबीजाणु अथवा परागकण में सघन कोशिकाद्रव्य और केन्द्रीय भाग में स्थित एक अगुणित केन्द्रक होता है। परागण से ठीक पूर्व परागकण शीघ्रता से आकार और आयतन में वृद्धि करता है। इस वृद्धि के साथ साथ कोशिकाद्रव्य के केन्द्रीय भाग में रिक्तिकाभवन होता है। परिणामत: केन्द्रक मध्यक्षेत्र से विस्थापित हो , अन्त: चोल के सन्निकट स्थित हो जाता है। इस अवस्था के बाद अधिकांश उष्णकटिबंधीय पादपों में परागकण के केन्द्रक का सूत्री विभाजन होता है। परागकण में उपर्युक्त परिवर्तन परागण से पूर्व अर्थात परागण के लघुबीजाणुधानी में रहते हुए ही होते है। शीतोष्ण क्षेत्र के पादपों में यह विभाजन कुछ समय की विश्राम अवस्था के बाद प्रारंभ होता है। उदाहरणार्थ बेटूला ओडोरेटा और एम्पीट्रम नाइग्रम आदि।
A. कायिक और जनन कोशिकाओं का बनना (formation of vegetative and generative cell)
पूर्णतया परिपक्व परागकण में असमान अनुप्रस्थ और समसूत्री विभाजन होता है , परिणामस्वरूप दो सन्तति कोशिकाएँ बनती है। बड़ी कोशिका को कायिक कोशिका और छोटी कोशिका को जनन कोशिका कहते है। शुरू में जनन कोशिका परागकण की अंत: चोल से संलग्न रहती है लेकिन विभाजन के कुछ समय बाद यह कायिक द्रव्य में स्वतंत्र रूप से तैरती देखी जा सकती है। समसूत्री विभाजन में तर्कु के दो ध्रुव स्पष्टतया असममित होते है। एक स्पष्ट न्यूनकोणीय सामान्य ध्रुव परागकण के केन्द्रीय भाग की तरफ और दूसरा अपेक्षाकृत कुंठाग्र ध्रुव अंत: चोल से संलगित रहता है। सभी एन्जियोस्पर्म पौधों में इस विभाजन से बनी दो कोशिकाएँ आकार में सदैव असमान होती है। ऐसा क्यों होता है , यह अभी तक ज्ञात नहीं हो पाया है। अपवादस्वरूप यदा कदा किन्ही पादपों में जैसे कि कुस्कुटा और पोड़ोस्टिमोन की जातियों में जनन और कायिक कोशिका आकार में समान पायी गयी है।
उष्ण प्रदेशों में पाए जाने वाले अधिकांश पौधों में परागकण निर्माण के समय होने वाले अर्धसूत्री विभाजन II और परागकण के समसूत्री विभाजन के मध्य (जिसमें कायिक और जनन कोशिकाएँ बनती है ) बहुत कम अंतर हो पाता है लेकिन शीतोष्ण ठण्डे प्रदेशों में उगने वाले पौधों में उपरोक्त दोनों विभाजनों के मध्य बहुत लम्बा अंतराल कई महीनों तक का पाया जाता है। एक ही परागकोष में उपस्थित सभी परागकणों में होने वाले समसूत्री विभाजन एक साथ नहीं होते है (तुल्य कालिक ) इनके मध्य थोडा अंतर जरुर पाया जाता है ऐसा विभिन्न परागकणों के मध्य इनके कोशिकाद्रव्य में आपसी सम्पर्क न होने के कारण होता है लेकिन कुछ प्रजातियों में जहाँ परागकण में विभाजन चतुष्क अवस्था में रहते होता है तो वहां एक चतुष्क के सारे परागकणों में विभाजन एक ही साथ होते है। इसी प्रकार क्योंकि आर्किडेसी और एस्क्लेपियेडेसी में परागकण परागपिण्ड के रूप में पाए जाते है। अत: यहाँ भी सभी परागकण के विभाजनों में तुल्यकालिकता (synchronization) पायी जाती है।
परागकण के जीवद्रव्य में समसूत्री विभाजन से पूर्व दो निश्चित परिवर्तन होते है –
(i) इसका केन्द्रक मध्य भाग से परिधि की तरफ स्थानान्तरित हो जाता है। यह स्थानान्तरण एक निश्चित दिशा में होता है और जनन कोशिका की स्थिति को निरुपित करता है। परागकण में जनन कोशिका की स्थिति एक प्रमुख आनुवांशिक गुण है।
(ii) परागकण में जिस तरफ कोशिका का निर्माण होना होता है उस तरफ केन्द्रक और परागकण की भित्ति के मध्य कोशिका द्रव्य में अनेक रसधानियाँ बन जाती है।
प्रथम समसूत्री विभाजन के बाद परागकण की भित्ति की ओर जनन केन्द्रक बनता है। विभाजन के अंत में जनन केन्द्रक एक अर्धगोलाकार भित्ति के द्वारा कायिक कोशिका से पृथक हो जाता है और यह सम्पूर्ण संरचना अब जनन कोशिका कहलाती है। परागकण के अन्दर की तरफ स्थित केन्द्रक कायिक केन्द्रक कहलाता है और बाद में दोनों केन्द्रकों के मध्य असमान अर्धगोलाकार भित्ति के कारण दो अलग अलग कोशिकाएँ स्थापित हो जाती है। आगे चलकर जनन कोशिका परागकण की भित्ति से पृथक हो जाती है और कायिक कोशिका के मध्य भाग की तरफ बढ़ने लगती है। शुरू में परागकण की भित्ति से पृथक होते समय जनन कोशिका चपटी आकृति की होती है लेकिन बाद में विकास की विभिन्न अवस्थाओं में द्विउत्तल लैंस के आकार की , कृमिरूपी अथवा दीर्घवृताकार आकृति की हो जाती है। जनन कोशिका का आकार पराग नलिका में इसकी गतिशीलता को आसान बनाता है।
कायिक कोशिका – इसका केन्द्रक बड़ा , गोलाकार , अनियमित होता है। इसके केन्द्रक में एक अथवा दो केन्द्रिकाएँ पाए जाते है। इसके कोशिकाद्रव्य में अनेक राइबोसोम , अन्त: प्रद्रव्यी जालिका , डिक्टियोसोम तथा माइटोकोंड्रिया पाए जाते है। इसमें RNA और प्रोटीन और स्टार्च भी पर्याप्त मात्रा में होते है। केन्द्रक में यद्यपि डीएनए संश्लेषण की क्षमता होती है लेकिन यहाँ कोशिका का विभाजन नहीं होता।
जनन कोशिका : यहाँ केन्द्रक में उपस्थित क्रोमेटिन पदार्थ कायिक कोशिका की तुलना में अधिक सघन होता है , साथ ही साइटोप्लाज्मा में माइटोकोंड्रिया , राइबोसोम , अन्त: प्रद्रव्यी जालिका और सूक्ष्म नलिकाएँ , डिक्टियोसोम आदि कोशिका उपांग पाए जाते है। इसके अतिरिक्त कुछ उदाहरणों जैसे ओइनोथीरा में वर्णक भी पाए जाते है , केन्द्रिक नहीं पाए जाते है लेकिन हीमेन्थस आदि कुछ आर्किड्स में केन्द्रिक पाया जाता है।
B. नर युग्मकों का बनना (formation of male gametes)
परागकणों में नर युग्मकों का निर्माण जनन केन्द्रक के समसूत्री विभाजन से होता है। अधिकांश उदाहरणों में सामान्यतया जनन कोशिका का विभाजन उसी समय हो जाता है जब परागकण परागकोष में रहते है लेकिन कुछ पादप प्रजातियों जैसे होलोप्टेलिया और पोर्चुलेका में परागकण के स्वतंत्र होने के बाद जब ये वर्तिकाग्र पर पहुँच जाते है तो उस समय जनन कोशिका का विभाजन होता है।
वही दूसरी तरफ कुछ अन्य पादप प्रजातियों जैसे लिलियम , निमोफिला और इम्पेशेन्स में जनन कोशिका का विभाजन परागनलिका के भीतर होता है।
जनन कोशिका का विभाजन यदि परागकण के अन्दर होता है तो उस समय यहाँ सामान्य समसूत्री विभाजन के समान मध्यावस्था पट्टलिका (मेटाफेज प्लेट) अथवा तर्कु तन्तु बनते है लेकिन जब जनन कोशिका परागनलिका के भीतर विभाजित होती है तो उस समय सामान्य मेटाफेज प्लेट नहीं पाई जाती।
इस प्रकार आवृतबीजी पौधों में परागण के समय परागकणों में दो या तीन केन्द्रकों का निर्माण हो जाता है (तीन केन्द्रकों का निर्माण जब जनन कोशिका विभाजित हो जाती है) | यहाँ एक विशेष तथ्य यह है कि परागण क्रिया द्विकेन्द्रकी अवस्था में होती है तो ऐसे परागण दीर्घजीवी हो जाते है और ये कृत्रिम संवर्धन माध्यम में सरलतापूर्वक अंकुरित हो जाते है जबकि तीन केन्द्रकों युक्त परागण अपेक्षाकृत अल्पजीवी होते है और उनको संवर्धन माध्यम पर अंकुरित भी नहीं किया जा सकता है।
जनन कोशिका के समसूत्री विभाजन से दो अण्डाकार नर युग्मक कोशिकाएँ बनती है। प्रारंभिक अवस्थाओं में ये दोनों कोशिकाएँ आपस में संलग्न रहती है लेकिन कुछ समय बाद ये अलग हो जाती है। ये सामान्यतया स्पष्ट रूप से अलग नहीं होती है इनमें थोडा सम्पर्क बना रहता है। इनके आमाप में वृद्धि होती है और केन्द्रक और कोशिकाद्रव्य स्पष्ट दिखाई देते है। यहाँ कोशिकाद्रव्य में विभिन्न प्रकार के कोशिका उपांग जैसे माइटोकोंड्रिया और राइबोसोम पाए जाते है जो कायिक कोशिका के कोशिका उपांगों से छोटे होते है। इसके अतिरिक्त यद्यपि युग्मक में लवक भी पाए जाते है लेकिन ये अपहासित होते है। अधिकांश पादपों में दोनों नर युग्मक द्विरुपी होते है अर्थात एक बड़ा और प्रचुर माइटोकोंड्रिया वाला और दूसरा छोटा और लवकों की अधिकता वाला होता है। पिटुनिया में दोनों नर युग्मक अस्पष्ट रूप से समरूपी होते है।
दोनों युग्मक कोशिकाओं के मध्य भौतिक सम्पर्क पाया जाता है अर्थात ये एक दुसरे से सटी हुई होती है। इस भौतिक सम्पर्क के कारण इनका विकास समन्वित तरीके से होता है और द्विनिषेचन में भी सहुलियत रहती है।
अपसामान्य नर युग्मकोदभिद (abnormal male gametophyte)
1. साइप्रेसी में परागकण परिवर्धन : उपर्युक्त वर्णित नरयुग्मकोद्भिद का परिवर्धन लगभग सभी आवृतबीजी पौधों में समान रूप से घटित होता है लेकिन अपवाद के रूप में कुल साइप्रेसी के सदस्यों में परागकण मातृ कोशिका में अर्धसूत्री विभाजन I और II तो सामान्य रूप से होते है परन्तु कोशिका द्रव्य विभाजन नहीं होता , अत: लघुबीजाणु चतुष्क नहीं बनते है। अर्धसूत्रण द्वारा बने चार लघुबीजाणु केन्द्रक मातृ कोशिकाओं में ही रहते है। इनमें से केवल एक केन्द्रक क्रियाशील रहता है जबकि शेष तीन विघटित होकर नष्ट हो जाते है।
क्रियाशील केन्द्रक के समसूत्री विभाजन से एक जनन कोशिका और एककायिक कोशिका बनती है। जनन कोशिका के समसूत्री विभाजन द्वारा दो नर युग्मक बनते है। अत: साइप्रेसी कुल में चार की बजाय केवल एक परागकण ही बनता है , जिससे एक त्रिकोशिकी नर युग्मकोदभिद बनता है।
2. भ्रूणकोष सदृश परागकण : भ्रूणकोष जैसी संरचना वाले परागकण अपवाद स्वरूप नीमेक , डी माँल और स्टो ने हायेसिन्थस ओरिएंटेलिस में ज्ञात किये थे। इस पौधों में कभी कभी कोई परागण आकार में बड़ा होकर उत्तरोतर तीन समसूत्री विभाजनों द्वारा 8 पुत्री केन्द्रक बना लेता है। ये केन्द्रक कोशिकाओं में परिवर्धित हो पोलिगोनम प्रकार के भ्रूणकोष जैसी संरचना बनाते है। इसी प्रकार के भ्रूणकोष गीटलर ने आर्निथोगेलम न्यूटेन्स में भी देखे।
स्टो (1934) ने बताया कि इन आठ केन्द्रकों में से दो ध्रुवीय केन्द्रकों की तरह व्यवहार करते हुए परस्पर संलयित भी होते है। परागकण में जब एक बार कायिक और जनन कोशिकाओं का विभेदन हो जाता है तो इसके बाद परिवर्धन सामान्य रूप से होता है।
3. परागकणों से बीजाणुदभिद : परागकणों से भ्रूणाभों के बनने की अपसामान्य क्रिया का अध्ययन सर्वप्रथम दो भारतीय भ्रूणविज्ञानियों गुहा और माहेश्वरी ने धतूरा में किया। उन्होंने काइनेटिन , नारियल का दूध और अन्य पदार्थो में संवर्धन माध्यम बनाकर इसमें धतूरा इनोक्सिया के परागकणों का संवर्धन किया और पाया कि अधिकांश परागकणों के संवर्धन से सामान्य नर युग्मकोद्भिद और पराग नलिका के बजाय छोटे छोटे भ्रुणाभ विकसित हो गए जिनसे बाद में पादपक बन जाते है। अगुणित परागकणों से विकसित पादप भी अगुणित ही थे।
प्रश्न और उत्तर
प्रश्न 1 : जीवन चक्र में सर्वाधिक विकसित बीजाणुद्भिद होता है –
(अ) कैप्सेला
(ब) फर्न
(स) मोस
(द) रिक्सिया
उत्तर : (अ) कैप्सेला
प्रश्न 2 : परागकोष भित्ति की सबसे भीतरी परत है –
(अ) अंत: स्थीसियम
(ब) टेपीटम
(स) मध्यपर्त
(द) टेग्मेन
उत्तर : (ब) टेपीटम
प्रश्न 3 : नरयुग्मकोद्भिद की प्रथम कोशिका है –
(अ) परागकोष
(ब) परागपुट
(स) परागकण
(द) जनन कोशिका
उत्तर : (स) परागकण
प्रश्न 4 : टेपीटम का कार्य है –
(अ) सुरक्षात्मक
(ब) स्त्रावी
(स) संचयी
(द) पोषण
उत्तर : (द) पोषण
प्रश्न 5 : पुष्पधारी पादप में नर युग्मक होते है –
(अ) परागनली में
(ब) बीजाण्ड में
(स) परागकोष में
(द) टेपीटम में
उत्तर : (अ) परागनली में