(microsporogenesis in hindi) पुष्पी पादपों में लघु बीजाणु जनन क्या है चित्र किसे कहते है ? परिभाषा बताइए ?
बीजाणुजन उत्तक (sporogenous tissue) : तरुण परागकोश में बहुस्तरीय भित्ति द्वारा परिबद्ध कोशिका समूह बीजाणुजन उत्तक कहलाता है। प्राथमिक बीजाणुजन कोशिकाओं के समसूत्री विभाजनों द्वारा बीजाणुजन उत्तक का निर्माण होता है जिसकी कोशिकाएँ बाद में परागमातृ कोशिकाओं के रूप में कार्य करती है। प्रत्येक पराग मातृ कोशिका या लघुबीजाणु मातृ कोशिका अर्धसूत्री विभाजन द्वारा चार लघुबीजाणु अथवा परागकण बनाती है।
इस प्रकार बीजाणुजन उत्तक से अगुणित लघुबीजाणुओं के निर्माण की प्रक्रिया लघुबीजाणुजनन कहलाती है।
लघु बीजाणुजनन (microsporogenesis)
बीजाणुजन ऊत्तक की सभी कोशिकाएँ अगुणित लघुबीजाणुओं का निर्माण कर सकती है लेकिन कुछ बीजाणुजन कोशिकाएँ सामान्यतया विघटित हो जाती है और उनका अवशोषण अन्य बीजाणु जन कोशिकाओं द्वारा पोषण के लिए कर लिया जाता है। कुल जेन्शियेनेसी के पौधों के पुष्पों में टेपीटम ऊतक नहीं पाया जाता। अत: इन पौधों के परागकोष में बीजाणुजन ऊतक का एक हिस्सा पोषण का कार्य करता है।
लघु बीजाणु मातृ कोशिका अर्धसूत्री विभाजन के द्वारा अगुणित परागकण बनाती है। यह अर्द्धसूत्री विभाजन दो चरणों में संपन्न होता है –
1. अर्धसूत्री विभाजन प्रथम (meiosis I)
2. अर्धसूत्री विभाजन द्वितीय (meiosis II)
अर्धसूत्री विभाजन प्रथम में जो कि प्रथम चरण होता है , इसमें दो अगुणित सन्तति कोशिकाओं का निर्माण होता है। जबकि दूसरा चरण जिसे अर्धसूत्री विभाजन द्वितीय कहते है। वास्तविक रूप से सामान्य समसूत्री विभाजन की प्रक्रिया है। इस विभाजन द्वारा अर्धसूत्री विभाजन I में निर्मित दो अगुणित संतति कोशिकाएँ चार अगुणित सन्तति कोशिकाओं अथवा लघुबीजाणु कोशिकाओं में विकसित होती है।
अर्धसूत्री विभाजन प्रथम में विशेष रूप से इनकी मेटाफेज अवस्था में क्रोमोसोम जोड़ों के रूप में मध्य रेखा में व्यवस्थित हो जाते है। इसके बाद प्रत्येक गुणसूत्र के द्विगुणित युग्म से एक गुणसूत्र दो विपरीत ध्रुवों पर स्थानान्तरित होते है और इसके बाद एनाफेज और टीलोफेज अवस्था में केन्द्रकीय विभाजन की अन्य औपचारिकताएँ पूर्ण होती है। परिणामस्वरूप दो अगुणित सन्तति केन्द्रक बन जाते है , जिनमें क्रोमोसोम की संख्या मातृ कोशिका केन्द्रक की तुलना में आधी होती है। तत्पश्चात अर्द्धसूत्री विभाजन द्वितीय के फलस्वरूप जो कि मुख्यतः समसूत्री विभाजन है , चार अगुणित सन्तति केन्द्रक बनते है। बाद में केन्द्रक के चारों तरफ जब कोशिका भित्तियों का निर्माण हो जाता है तो ये चारों लघुबीजाणुओं अथवा परागकणों के रूप में पहचानी जाती है।
साइप्रेसी कुल के परागकणों का विकास अन्य आवृतबीजी कुलों की तुलना में कुछ भिन्न होता है। इस कुल में लघुबीजाणु कोशिका के अर्धसूत्री विभाजन से बनने वाले चार अगुणित केन्द्रकों में से केवल एक केन्द्रक सक्रीय होता है और शेष तीन केन्द्रक निष्क्रिय होते है जो कि बाद में समाप्त हो जाते है।
कोशिका द्रव्यीय विभाजन (cytokinesis)
पराग मातृ कोशिका के केन्द्रक में अर्धसूत्री केन्द्रकीय विभाजन के बाद कोशिका द्रव्यी विभाजन पाया जाता है , यह प्रक्रिया अर्थात कोशिका द्रव्यीय विभाजन दो प्रकार की हो सकती है जो कि निम्नलिखित है –
1. उत्तरोतर विभाजन (successive type of cytokinesis) : इस प्रक्रिया में अर्द्धसूत्री विभाजन प्रथम के बाद बनने वाले दोनों अगुणित सन्तति केन्द्रक एक भित्ति के द्वारा पृथक हो जाते है। भित्ति का निर्माण अपकेन्द्रकी प्रकार का होता है अर्थात यह केंद्र से परिधि की तरफ बनती है , परिणामस्वरूप दो कोशिकाओं का एक समूह द्वयक (diad) बन जाता है। इस द्वयक की प्रत्येक कोशिका में अर्धसूत्री विभाजन द्वितीय के परिणामस्वरूप चार लघुबीजाणु अथवा परागकोशिकाएँ बन जाती है। इस प्रकार का कोशिका द्रव्यीय विभाजन सामान्यतया एकबीजपत्री पौधों में पाया जाता है।
2. युगपत विभाजन (simultaneous type) : यहाँ अर्धसूत्री विभाजन प्रथम और द्वितीय के परिणामस्वरूप चार अगुणित परागकण केन्द्रक बनते है। इसके बाद इन चारों के मध्य एक साथ भित्ति निर्माण और कोशिकाद्रव्यी विभाजन हो जाता है। भित्ति निर्माण की प्रक्रिया अभिकेन्द्रकी प्रकार की होती है अर्थात परिधि से केंद्र की तरफ होती है। इस प्रकार का कोशिका द्रव्यीय विभाजन पौधों में पाया जाता है।
इस प्रकार के कोशिका द्रव्य विभाजन की क्रिया को विदलन अथवा खाँच विधि कहा जाता है। कोशिका भित्ति निर्माण पूर्ण होने पर परागकण मातृ कोशिका से निर्मित चार केन्द्रकों से चार पुत्री कोशिकाएँ बन जाती है। यह चतुष्फलकीय अवस्था में होती है युगपत प्रकार के कोशिका भित्ति निर्माण में द्वयक अवस्था नहीं बनती है और केन्द्रक के प्रथम अर्धसूत्री विभाजन द्वारा निर्मित दोनों सन्तति केन्द्रकों में अर्धसूत्री विभाजन साथ साथ होता है।
लघुबीजाणु चतुष्क (microspore tetrad)
अधिकांश द्विबीजपत्री पादपों में पराग मातृ कोशिका से बनने वाले चारों परागकण चतुष्कों के रूप में व्यवस्थित रहते है , जो सामान्यतया चतुष्फलकीय प्रकार और एकबीजपत्री पादपों में समद्विपाशर्वीय प्रकार के होते है। चतुष्फलकीय परागकण चतुष्क में परागकण चतुष्फलक की तरफ व्यवस्थित होते है , जिसमें एक तरफ से देखने पर तीन परागकण दिखाई देते है और चौथा परागकण इन तीनों परागकणों के पीछे की तरफ स्थित रहता है। समद्विपाशर्व चतुष्क में चारों परागकण एक ही तल में दिखाई देते है। इन दो प्रकार के परागकण चतुष्कों के अतिरिक्त कुछ आवृतबीजी पादपों में क्रॉसित जैसे क्रोकस और मैग्नोलिया और T आकार जैसे एरिस्टोलोकिया और रेखिक जैसे हेलोफिला भी पाए जाते है।
एरिस्टोलोकिया एलिगेन्स में विचित्र संयोगवश उपर्युक्त पाँचों प्रकार के परागकण चतुष्क एक ही परागकोष में पाए जाते है। सामान्यतया परिपक्व अवस्था में परागकण , परागकोष के अन्दर चतुष्कों से अलग अलग होकर स्वतंत्र रूप में पाए जाते है लेकिन कुछ पादपों जैसे एनोना , ड्रीमिस , ड्रोसेरा और इलोडिया में अनेक परागकण चतुष्क आपस में संलग्न होकर संयुक्त परागकण के रूप में पाए जाते है।
अपवाद स्वरूप कुछ पादपों जैसे हाइफिनी और करस्क्यूटा के पराग चतुष्को में चार से अधिक परागकण पाए जाते है। इसे बहुबीजाणुता कहते है। आर्किडेसी और एसक्लीपिएडेसी कुलों के अनेक सदस्यों में एक बीजाणुधानी के सभी परागकण के सभी परागकण मिलकर एक पराग पिण्ड बनाते है।
परिपक्व परागकोष का स्फुटन (dehiscence of mature anther)
परागकोष में परिपक्व होने पर मध्य स्तर और टेपीटम स्तर हासित हो जाते है। केवल अधिचर्म और अंत:स्थिसियम शेष रह जाती है। दोनों तरफ के दो पराग पुटों के मध्य का पट नष्ट हो जाता है। इस प्रकार से एक तरफ के परागपुट एक दुसरे से सम्पर्क में आ जाते है। परिपक्व होने पर अंत:स्थीसियम से जल का हास हो जाता है , जिसके फलस्वरूप इन कोशिकाओं की भित्तियों के भीतर की तरफ सिकुड़ने से स्टोमियम अथवा ओष्ठ कोशिकाओं पर दाब पड़ता है। अत: ये एक दुसरे से पृथक हो जाते है और परागकण बाहर निकलते है।
परागकोष स्फुटन के प्रकार – यह चार विधियों से होता है –
(1) अनुदैर्ध्य दरार द्वारा : इस प्रकार के स्फुटन में परागकोष की पालियों का अग्रपाशर्वी भाग , जो संयोजी से दूर स्थित होता है , अनुदैर्ध्य तल में दरारों द्वारा स्फुटित हो जाता है। उदाहरण – गुडहल और कपास।
(2) अनुप्रस्थ स्फुटन : परागकोष की भित्ति अनुप्रस्थ तल में फट जाती है। उदाहरण – तुलसी।
(3) कपाटीय स्फुटन : परागकोष की भित्ति अनुदैर्ध्य तल में दो अथवा अधिक कपाटों के समान खुल जाती है। उदाहरण – दालचीनी।
(4) सरन्ध्री स्फुटन : परागकोष की पालियों के ऊपरी सिरों पर सूक्ष्म छिद्र बन जाते है , जिनसे परागकण बाहर मुक्त होते है। उदाहरण – बैंगन , आलू।