हरबर्ट स्पेंसर सिद्धांत क्या है | Herbert Spencer in hindi का जीवन परिचय शिक्षा दर्शन कथन सामाजिक डार्विनवाद

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हर्बर्ट स्पेंसर (1820-1903)
हर्बर्ट स्पेंसर को ऑगस्ट कॉम्ट का समकालीन कहा जा सकता है। स्पेंसर इंग्लैंड निवासी था। उसने समाजशास्त्र के क्षेत्र में बहुत से मूल विचारों का योगदान किया। कॉम्ट की तरह वह भी समाजशास्त्र को समाज के एक विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठापित करने में प्रयत्नशील था। स्पेंसर कॉम्ट के विचारों के संसर्ग में तो आया परंतु वह कॉम्ट के विचारों से सहमत नहीं था। उसने समाज का अध्ययन अलग दृष्टिकोण से किया। उसका समाजशास्त्र विकासवादी सिद्धांत तथा जैव सादृश्य पर आधारित था। इन विचारों के बारे में और अधिक जानकारी बाद में दी जाएगी। आइए, पहले स्पेंसर के जीवन परिचय तथा सामाजिक परिवेश के बारे में कुछ चर्चा करें।
चित्र 2.2ः हर्बर्ट स्पेंसर (1820-1903)ः सर्वोपयुक्त की उत्तरजीविता का अनुभवपरक उदाहरण
जीवन परिचय
हर्बर्ट स्पेंसर (1820-1903) का जन्म 27 अप्रैल को डर्बी के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ। उसके पिता, जॉर्ज स्पेंसर, एक स्कूल अध्यापक थे। वह और उसका पूरा परिवार कट्टर परंपरा विरोधी तथा व्यक्तिवादी दृष्टिकोण वाला था। स्पेंसर अपने माता-पिता की नौ संतानों में सबसे बड़ा था और अकेले वह ही वयस्क आयु प्राप्त कर पाया था। बाकी सभी का कम आयु में ही देहान्त हो गया था। संभवतरू यही कारण था कि अपने विकास संबंधी सिद्धांत में उसने सर्वोपयुक्त की उत्तरजीविता (ेनतअपअंस व िजीम पिजजमेज) के डार्विनवादी विचार का प्रतिपादन किया था।
स्पेंसर ने कोई औपचारिक स्कूली शिक्षा नहीं पाई और उसके पिता तथा चाचा ने उसे घर पर ही पढ़ाया। वह केवल कुछ समय के लिए एक छोटे निजी स्कूल में अवश्य गया। अपनी आत्मकथा में उसने लिखा है कि उसका सर्वोत्तम प्रशिक्षण गणित में हुआ था। प्राकृतिक विज्ञान, साहित्य, इतिहास आदि जैसे अन्य विषयों में कोई व्यवस्थित प्रशिक्षण न पाने के बावजूद उसने जैविकी तथा मनोविज्ञान पर उत्कृष्ट ग्रंथ लिखे।
युवक स्पेंसर ने रेल रोड इंजीनियरी के क्षेत्र में इंजीनियर के रूप में काम करना शुरू किया किंतु बाद में उसने यह काम छोड़ दिया और एक पत्रकार के रूप में काम करने लगा। वह सुप्रतिष्ठित अंग्रेजी प्रकाशन, इकनोमिस्ट (म्बवदवउपेज), का संपादक बना और कुछ वर्ष बाद यहां से त्याग पत्र देकर वह एक स्वतंत्र लेखक बन गया। वह उपन्यासकार जार्ज इलियट का घनिष्ट मित्र बन गया। उनकी मित्रता विवाह में परिणत नहीं हो पाई और स्पेंसर ने फिर विवाह ही नहीं किया। उसने गरीबी तो नहीं देखी पर वह कभी धनवान भी नहीं बन सका।
1850 में उसकी प्रथम पुस्तक, सोशल स्टैटिक्स (ैवबपंस ैजंजपबे) प्रकाशित हुई और इस पुस्तक को बुद्धिजीवी वर्ग में मान्यता मिली। इस पुस्तक में उसने अपने समाजशास्त्रीय सिद्धांत के मुख्य विचारों को प्रस्तुत किया। सामाजिक स्थैतिकी के शीर्षक की वजह से कुछ चिंतकों ने उस पर कॉम्ट के विचारों को फैलाने का दोषारोपण किया। लेकिन स्पेंसर ने कहा कि ये निबंधन उसके स्वयं के हैं और उसने कॉम्ट का नाम तो सुना है किंतु वह उसके विचारों से अवगत नहीं है। उसने यह भी कहा कि प्रारंभ में उसकी पुस्तक का शीर्षक डेमोस्टैटिक्स (क्मउवेजंजपबे) था।
स्पेंसर पर चार्ल्स डार्विन की पुस्तक द ओरिजन ऑफ स्पीसीज (ज्ीम व्तपहपवद व िैचमबपमे, 1859) का काफी प्रभाव हुआ था। उसने डार्विन के विकास संबंधी विचारों से बहुत कुछ ग्रहण किया । वास्तव में, उसने कहा कि वह पहला व्यक्ति था जिसने डार्विन द्वारा दिए गए ‘‘प्राकृतिक वरण‘‘ (दंजनतंस ेमसमबजपवद) तथा सर्वोपयुक्त की उत्तरजीविता के बुनियादी विचारों की महत्ता को समझा। स्पेंसर ने इन विचारों को समाज के अध्ययन में लागू किया।
स्पेंसर ने अहस्तक्षेप या मुक्त बाजार (संपेेम्र ंिपतम) के सिद्धांत का समर्थन किया, जिसका उस समय के अंग्रेज अर्थशास्त्री भी समर्थन कर रहे थे। 1882 में वह अमरीका के दौरे पर गया था। लेकिन जिंदगी के अंतिम दिनों में उसे लगा कि उसकी कृतियों को उतनी प्रतिष्ठा नहीं मिली, जितनी कि उसे आशा थी।
स्पेंसर का सामाजिक परिवेश
स्पेंसर के जीवनकाल के समय समाज में वैसी ही उथल-पुथल मची हुई थी जैसी कि कॉम्ट के समय में थी। उन दोनों के सामने समस्यायें भी एक सी थीं। महत्वपूर्ण अंतरों के बावजूद, इन दोनों विचारकों की चिंताओं और केंद्र बिंदुओं में व्यापक रूप से समानता थी।
दोनों का प्रगति में विश्वास था और ऐतिहासिक विकास की एकता तथा अनुत्क्रमणीयता में भी उन दोनों की अटूट आस्था थी। उस काल के अन्य प्रमुख चिंतक जैसे मार्क्स आदि भी इन विचारों में आस्था रखते थे। इन चिंतकों के इस काल को महान आशा की शताब्दी कहा जाता है। इसलिए समाज के प्रगतिशील विकास के नियम में उनका विश्वास उनके तर्क का केंद्रीय बिंदु था। आइए, अब हर्बर्ट स्पेंसर के कुछ मुख्य विचारों पर चर्चा करें।
मुख्य विचार
हर्बर्ट स्पेंसर की समाजशास्त्रीय रचनाओं, उदाहरणतः सोशल स्टैटिक्स (1850), द स्टडी ऑफ सोशियोलोजी (1873), प्रिंसिपल्स ऑफ सोशियोलॉजी (1875-96) आदि में विकास संबंधी विचार ही प्रधान है। स्पेंसर का विश्वास था कि सभी कालों के दौरान सामाजिक विकास का एक सरल समान या समरूप संरचना से एक जटिल, बहुरूपी या विषम संरचना की ओर होता रहा है। स्पेंसर के विचारों पर चार्ल्स डार्विन की रचना, द ओरिजिन ऑफ स्पीशीज (1859), का काफी प्रभाव पड़ा था। इस पुस्तक ने उसके विचारों पर क्रांतिकारी प्रभाव डाला कि किस तरह पृथ्वी पर कोशिकीय जीव से मानव प्राणी जैसे बहुकोशिकीय जटिल जीव की ओर जीवन का विकास हुआ है।
हालांकि स्पेंसर ने समाजशास्त्र पर बहुत सी रचनाएं लिखीं लेकिन उसने इस शास्त्र की कोई औपचारिक परिभाषा नहीं दी। उसके अनुसार सामाजिक प्रक्रिया अनूठी होती है। इसलिए समाजशास्त्र को विज्ञान के रूप में विकास की प्रारंभिक अवस्थाओं पर विकास के नियमों को लागू करके समाज की वर्तमान अवस्था की व्याख्या करनी चाहिए। इस प्रकार उसके शोध में विकासवादी सिद्धांत का मुख्य स्थान है। इस सिद्धांत की व्याख्या करते हुए जैविक अनुरूपता (वतहंदपब ंदंसवहल) के अर्थ और महत्व की चर्चा की जाएगी। सामाजिक विकास में विभिन्न समाजों की स्थिति के आधार पर स्पेंसर द्वारा किए गए समाजों के वर्गीकरण के बारे में भी आपको जानकारी दी जाएगी।
विकासवादी सिद्धांत
स्पेंसर के ज्ञान की पद्धति उसके इस विश्वास पर टिकी थी कि संपूर्ण विश्व और उसमें मानव के स्थान को समझने की मूल अवधारणा विकास ही है। विकास की अवधारणा भी इस मान्यता पर टिकी है कि प्रकृति के विभिन्न रूप चाहे वह पहाड़ हों या समुद्र, पेड़ हों या घास, मछली हों या रेंगने वाले जीब, पक्षी हों या मानव, सभी समान बुनियादी भौतिक पदार्थ के रूप तथा रूपांतर होते हैं।
अतः सभी प्रकार का ज्ञान हमारी अनुभूत दुनिया के इन विभिन्न रूपांतरणों के विन्यासों का व्यवस्थित तथा परीक्षण योग्य कथन होता है। प्रकृति के प्रत्येक तत्वों के विद्यमान रूपांतरण की यह बुनियादी प्रक्रिया ही विकासवादी सिद्धांत है। व्यवस्थित परीक्षण योग्य कथनों से हमारा तात्पर्य उन विचारों से है जो विश्व में होने वाले परिवर्तनों के अर्थ में हमेशा सही या गलत सिद्ध किए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में हमारा अभिप्राय पश्थ्वी पर होने वाले परिवर्तनों की विकास की प्रक्रिया से है।
इस बात को आसानी से समझने हेतु आप अपने शरीर तथा अपने स्वयं के बारे में सोचिए। हमारा शरीर मुख्य रूप से जल, रक्त, अस्थियों तथा मांस से मिलकर बना है और इनमें से प्रत्येक तत्व प्रकृति से ही आया है। मृत्यु के बाद व्यक्ति के ये तत्व फिर से प्राकृतिक पदार्थों में जा मिलते हैं।
इस प्रकार परिवर्तन की सभी प्रक्रियाएं एक समान होती हैं अर्थात् वे भौतिक पदार्थों से उत्पन्न होती हैं, रूपातंरण तथा परिवर्तन का अपना विन्यास रखती हैं और अपने विन्यास के अनुसार यथासमय उनका विनाश हो जाता है और प्रकृति में फिर से मिल जाती हैं। इस प्रक्रिया में वे निम्न ढंग से परिवर्तित होती हैं।
प) सरलता की दशा से एक व्यवस्थित जटिलता की दशा की ओर
पप) अनिश्चितता की दशा से निश्चितता की दशा की ओर
पपप) एक ऐसी दशा से जहां उसके हिस्से अपेक्षाकृत अविशिष्ट होते हैं, विशिष्टता की दशा की ओर, जिसमें उसके हिस्से तथा प्रकार्य जटिल विशिष्टीकरण से युक्त होते हैं
पअ) एक अस्थायी दशा से स्थायी दशा की ओर, पहली दशा में काफी समान इकाइयों की बहुलता होती है और वे अपेक्षाकृत अपने व्यवहार में असंगत तथा असंबद्ध होती हैं जबकि दूसरी दशा में अपेक्षाकृत कम हिस्से होते हैं। आज मानव प्राणी इतने जटिल रूप से संगठित तथा जुड़े हुए हैं कि उनका व्यवहार नियमित, संगत तथा पुर्वानुमानित है।
जैविक अनुरूपता (वतहंदपब ंदंसवहल) स्पेंसर ने सामाजिक विकास के अपने विचार के द्वारा ज्ञान के सभी क्षेत्रों की जांच की है। मानव समाज की एक जीव के साथ तुलना करते हुए, स्पेंसर का अभिप्राय जैविक अनुरूपता से है। स्पेंसर ने यह महसूस किया कि जैविक जीव तथा समाज में कुछ अंतर है।
उसका कहना था कि एक समाज अस्तित्व के रूप में जीव से कुछ अधिक तथा उससे अलग होता है, हालांकि मानव प्राणी (व्यक्ति) समाज के अंग होते हैं। यह सामाजिक संगठन के तत्वों और उनके परस्पर निर्भर प्रकार्यों की मिली-जुली व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति सामाजिक क्रियाओं की अपनी विधि को अपनाते हैं। समाज एक अधि-जैविक अस्तित्व (ेनचमत वतहंदपब मदजपजल) है और जीव के स्तर से ऊपर उठा हुआ अपने आप में ही एक अस्तित्व है।
इस स्थापना का अनुसरण करते हुए स्पेंसर ने इस विचार को मानने से इन्कार कर दिया कि समाज बहुत से व्यक्तियों की सामूहिकता के अतिरिक्त कुछ नहीं होता। उसके अनुसार समाज बहुत से व्यक्तियों का समूह मात्र नहीं अपितु उससे अलग एक अस्तित्व वाला होता है। संपूर्ण अपने हिस्सों से कुछ अधिक होता है। जिस प्रकार, एक मकान ईटों, लकड़ी तथा पत्थर के मात्र एकीकरण से कुछ ज्यादा होता है उसी प्रकार समाज भी केवल सभी मनुष्यों की सामूहिकता ही नहीं है बल्कि अपने आप में एक अस्तित्व है। इसमें विभिन्न हिस्सों की एक निश्चित क्रमबद्धता समाहित होती है। परंतु स्पेंसर एक व्यक्तिवादी विचारक था, इसलिए उसका विश्वास था कि जैविक जीवों के विपरीत, जहां विभिन्न हिस्से संपूर्ण के लाभ के लिए अस्तित्व में रहते हैं, समाज में ‘‘संपूर्ण‘‘ विभिन्न हिस्सों के लिए अस्तित्व में रहता है अर्थात् समाज का अस्तित्व व्यक्तियों के लिए है (टिमाशेफ 1967ः 38)।
समाजों का विकास
स्पेंसर सामाजिक विकास के संबंध में दो वर्गीकरण प्रणालियां बनाना चाहता था। पहली व्यवस्था के अनुसार सामाजिक विकास की प्रक्रिया में समाज अपने संघटन की श्रेणी के आधार पर सरल से सम्मिश्र समाज के विभिन्न स्तरों की ओर क्रियाशील है। इसी सामाजिक विकास को आरेख के रूप मे। चित्र 2.3 में दिये आरेख द्वारा व्यक्त किया गया है।
चित्र 2.3ः समाजों का विकास
इस आरेख से आपको स्पेंसर द्वारा प्रतिपादित समाजों के विकास की प्रक्रिया समझ आ गई होगी। स्पेंसर के अनुसार कुछ साधारण समाजों के समुच्चय से सम्मिश्र समाज उत्पन्न होते हैं (इन्हें इस आरेख से नहीं दिया गया है)। स्पेंसर के अनुसार साधारण समाजों में परिवार होते हैं, सम्मिश्र समाज में परिवारों से मिलकर बने कुल होते हैं, दुहरे सम्मिश्र समाजों में कुलों से मिलकर बने जनजातीय समूह होते हैं और तिहरे सम्मिश्र समाजों में, जैसा कि हमारा समाज है, जनजातीय समूहों से मिलकर बने राष्ट्र और राज्य होते हैं (टिमाशेफ 1967ः 40)।
दूसरी वर्गीकरण व्यवस्था प्ररूपों की संरचना पर आधारित है, जो वास्तव में तो विद्यमान नहीं होती किंतु विभिन्न समाजों के विश्लेषण तथा उनके बीच तुलना करने में यह सहायक हो सकती है। यहां पर विकास के एक भिन्न प्रकार अर्थात् सैन्य से औद्योगिक समाज तक के बारे में सोचा गया है।
प) युद्धप्रिय समाज
युद्धप्रिय समाज एक ऐसा समाज होता है जिसमें मुख्यतरू आक्रामक तथा सुरक्षात्मक फौजी कार्रवाई के लिए संगठन किया जाता है। इस प्रकार के समाज के निम्नलिखित लक्षण होते हैं।
ऽ इस प्रकार के समाजों के सदस्यों के बीच संबंध अनिवार्य सहयोग (बवउचनसेवतल बववचमतंजपवद) के आधार पर होते हैं।
ऽ सत्ता तथा सामाजिक नियंत्रण का अत्यधिक केंद्रीकृत विन्यास
ऽ मिथकों तथा विश्वासों का बाहुल्य जो समाज के श्रेणीक्रम स्वरूप को दृढ़ करता है।
ऽ कठोर अनुशासन वाले कठिन जीवन तथा सार्वजनिक और निजी जीवन के बीच घनिष्ठ एकरूपता होती है।
पप) औद्योगिक समाज
औद्योगिक समाज में सैन्य कार्यकलाप तथा संगठन समाज के लिए बाह्य होते हैं। समाज मानव उत्पादन तथा कल्याण पर ध्यान सकेंद्रित होता है।
इस प्रकार के समाज के निम्नलिखित लक्षण होते हैं
ऽ इन समाजों में स्वैच्छिक सहयोग (अवसनदजंतल बववचमतंजपवद) की प्रधानता होती है।
ऽ लोगों के वैयक्तिक अधिकारों को दृढ़ता से माना जाता है।
ऽ सरकार के राजनीतिक नियंत्रण से आर्थिक क्षेत्र को पश्थक रखा जाता है।
ऽ मुक्त समितियों और संस्थाओं का विकास होता है।
स्पेंसर यह जानता था कि किसी भी समाज को इन दोनों में से किसी व्यवस्था में पूरी तरह से सही उतरने की जरूरत नहीं है। विभिन्न वर्गीकृत समाज केवल वर्गीकरण में प्रतिरूपों का प्रयोजन सिद्ध करते हैं। ये हर्बर्ट स्पेंसर के कुछ मुख्य विचार हैं। आइए अब अगले भाग में हम यह अध्ययन करें कि स्पेंसर के समाजशास्त्र संबंधी विचार समकालीन समय के लिए कितने प्रासंगिक हैं और समकालीन समाजशास्त्रियों पर उनका क्या प्रभाव पड़ा। परंतु पहले सोचिए और करिए 2 को पूरा कर लें।
सोचिए और करिए 2
हर्बर्ट स्पेंसर द्वारा दिए गए सामाजिक विकास संबंधी विचारों को आपने पढ़ा है। उसके विचारों के संदर्भ में तीन व्यक्तियों से चर्चा करें। इनमें से एक आपके दादा की पीढ़ी के हों, एक आपके पिता की पीढ़ी के और एक आपकी पीढ़ी के। चर्चा करते समय उनसे यह पता लगाइए कि उन्होंने विवाह, परिवार, अर्थव्यवस्था या राज्य व्यवस्था जैसी प्रमुख सामाजिक संस्थाओं में क्या-क्या परिवर्तन देखे हैं। प्रत्येक पीढ़ी द्वारा सामाजिक संस्थाओं में जो सामाजिक परिवर्तन देखे गए है उनके ब्यौरों की तुलना करते हुए लगभग दो पृष्ठों की एक टिप्पणी लिखिए। यदि संभव हो तो उस टिप्पणी को अपने अध्ययन केंद्र के अन्य विद्यार्थियों की टिप्पणियों के साथ मिलाइए।
समकालीन समाजशास्त्र पर स्पेंसर के विचारों का प्रभाव
समाजशास्त्र के प्रथम प्रवर्तक कॉम्ट के विपरीत समाजशास्त्र के दूसरे प्रवर्तक स्पेंसर को समाजशास्त्र से बिलकुल भिन्न प्रत्याशाएं थीं। कॉम्ट लोगों को बेहतर समाज बनाने की ओर अग्रसर करना चाहता था जबकि स्पेंसर समाजशास्त्र के माध्यम से लोगों को यह दिखाना चाहता था कि मानव को समाज में चल रही सहज प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। स्पेंसर स्वतंत्रता की सहज मूल प्रवृत्ति में अटूट विश्वास रखता था और उसका विश्वास था कि यदि इस सहज वत्ति में कोई हस्तक्षेप किया जाएगा तो वह हानिकारक होगा।
डार्विन से प्रभावित होकर स्पेंसर का सर्वोपयुक्त की उत्तरजीविता की धारणा में विश्वास था। डार्विन की तरह उसका भी कहना था कि प्रकृति में कमजोर और अयोग्य को समाप्त करने की ताकत होती है। योग्यतम व्यक्ति वही है जो स्वस्थ है और बुद्धिमान है। उसके लिए राज्य एक संयुक्त पँजी कंपनी की तरह होता है जो व्यक्तियों के परस्पर हितों का संरक्षण करता है (टिमाशेफ 1967ः 41)। उसके अनुसार प्रकृति मनुष्य की अपेक्षा अधिक प्रबल होती है अतः सरकार को इस विकास की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना बंद कर देना चाहिए। उसने सरकार को शिक्षा, सफाई प्रबंध, बंदरगाहों के सुधार आदि जैसी गतिविधियाँ करने से मना किया। इस प्रकार, उसके लिए विक्टोरिया काल की अहस्तक्षेप की नीति अर्थात् मुक्त बाजार का समाज (जिसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता और व्यक्ति परस्पर प्रतिस्पर्धा के लिए स्वतंत्र होते हैं) सभी समाजों में सर्वोत्तम था।
समाज को अतिजैविक व्यवस्था के रूप में समझने के बारे में स्पेंसर की अवधारणा में कई समस्याएं आईं। उसने संस्कृति को एकीकृत समाज का एक हिस्सा नहीं माना। समाजों का सरल से सम्मिश्र समाज की ओर सामाजिक विकास से संबंधित उसका विवेचन भी दोषपूर्ण था। हालांकि उसने वास्तविकता के लिए एक एकीकृत सिद्धांत बनाया। उसका विकास का सिद्धांत एक रू सार्वभौमिक (बवेउपब) सिद्धांत है और इसलिए टिमाशेफ (1967ः43) के अनुसार उसका सिद्धांत सही अर्थ में समाजशास्त्र की बजाए दर्शनशास्त्र का सिद्धांत है।
अपने समय में स्पेंसर बहुत लोकप्रिय था और यदि किसी बुद्धिजीवी ने उसकी पुस्तकें नहीं पढ़ी होती थीं तो यह उसके लिए लज्जास्पद माना जाता था। उसकी लोकप्रियता इंग्लैंड, संयुक्त राज्य अमरीका तथा रूस तक में फैल गई लेकिन फ्रांस तथा जर्मनी में उसे उतनी ख्याति नहीं मिली थी। उसके विचार इसलिए लोकप्रिय हो गए कि वे तत्कालीन स्थितियों के अनुसार थे। उदाहरणतः उसके विचार ज्ञान को एक कर देने की इच्छा तथा अहस्तक्षेप के सिद्धांत की वैज्ञानिक ढंग से व्याख्या करने में समर्थ थे। अहस्तक्षेप के सिद्धांत को एडम स्मिथ तथा रिकार्डो . जैसे अर्थशास्त्रियों ने लोकप्रिय बनाया था। इस सिद्धांत से मुक्त बाजार की धारणा को समर्थन मिला जिसमें कीमतों का निर्धारण मांग और पूर्ति की शक्तियों के आधार पर होता था। इस तरह के बाजार में पूर्ण प्रतिस्पर्धा संभव हो सकती थी। यह सिद्धांत अट्ठारहवी-उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान लोकप्रिय हुआ क्योंकि अर्थशास्त्री तथा सामाजिक चिंतक यह मानते थे कि राष्ट्र की संपदा बढ़ाने का यही सर्वोत्तम ढंग था।
कॉम्ट और स्पेंसर दोनों समाजशास्त्र को समाज के विज्ञान की प्रस्थिति तक पहुंचाने में सफल हुए। अगली इकाई में आपको समाजशास्त्र के कुछ अन्य संस्थापक विद्वानों के बारे में जानकारी हासिल होगी।
बोध प्रश्न 2
प) निम्नलिखित में से किस-किस को हर्बर्ट स्पेंसर के चिंतन की विशेषता के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है?
क) विकास मूल अवधारणा है।
ख) सभी प्रकार का ज्ञान एक व्यवस्थित तथा परीक्षण योग्य कथनों से मिलकर बनेगा।
ग) परिवर्तन की सभी प्रक्रियाओं में स्पष्ट भिन्नता होती है।
घ) समाज का एक अधि जैविक (ेनचमत वतहंदपब) अस्तित्व होता है।
ड.) समाज व्यक्तियों के समूह से कुछ अधिक होता है।
च) समाज की दो वर्गीकरण प्रणालियां बनाई गई।
छ) संघटन के आधार पर जो व्यवस्था बनी उसमें सरल समाज, सम्मिश्र समाज, दुहरे सम्मिश्र समाज तथा तिहरे सम्मिश्र समाज सम्मिलित थे।
ज) एक भिन्न व्यवस्था में औद्योगिक तथा सैन्य समाज आते हैं।
झ) वैज्ञानिक ज्ञान असीमित होता है।
पप) सामाजिक विकास के संबंध में स्पेंसर के तर्कों को चार पंक्तियों में लिखिए।
पप) कॉम्ट और स्पेंसर के विचारों में क्या समानता है? तीन पंक्तियों में लिखिए ।
बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 2
प) क, ख, घ, ड., च, छ, ज
पप) स्पेंसर का सिद्धांत विकासवादी सिद्धांत पर आधारित था। विकास की अवधारणा इस बात पर आधारित थी कि प्रकृति के हर रूप में परिवर्तन होता है और तत्व एक ही पदार्थ से व्युत्पन्न होता है। इसलिए विज्ञान का नियत कार्य ऐसे ज्ञान की रचना करना है जो हमारे चारों ओर दुनिया में होने वाले रूपांतरण के विभिन्न विन्यासों के ढंग का अध्ययन करे।
पपप) कॉम्ट और स्पेंसर दोनों निम्नलिखित विचारों में समान विश्वास करते थे
क) वैज्ञानिक ज्ञान का नियत कार्य परीक्षण योग्य नियमों की स्थापना करना है।
ख) वैज्ञानिक नियंत अंतरूसंबंधों के कथन होते हैं अर्थात् वे ‘‘सहअस्तित्व तथा अनुक्रम की समानता‘‘ वाले होते हैं।
ग) केवल वैज्ञानिक ज्ञान ही पूर्वनुमानों के लिए विश्वसनीय आधार प्रदान कर सकता है।
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