शिक्षा का अंतर्राष्ट्रीयकरण क्या है | what is internationalization of education in hindi शिक्षा का वैश्वीकरण प्रभाव
(what is internationalization of education in hindi) शिक्षा का अंतर्राष्ट्रीयकरण क्या है , शिक्षा का वैश्वीकरण का प्रभाव बताओ |
शिक्षा का अंतरराष्ट्रीयकरण क्या है?
उच्च शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण का अर्थ क्या है? जहाँ साहित्य में इसे परिभाषित करने के विविध प्रयत्न किए गए हैं, निम्नलिखित बिन्दुओं पर सामान्यतः व्यापक मतैक्य है। नाइट तथा विट के अनुसार, ‘उच्च शिक्षा का अंतर्राष्ट्रीयकरण अंतर्राष्ट्रीय/अंतसांस्कृतिक आयामों के किसी संस्था के शिक्षा, शोध तथा सेवा कार्यों के एकीकरण की पद्धति है।‘‘
इस परिभाषा से निकाले गए निष्कर्षों में से कुछ निम्नलिखित हैं –
ऽ अंतर्राष्ट्रीयकरण, विश्व स्तर पर होने वाले परिवर्तनों से निपटने के लिये, शिक्षा-पद्धति के कार्य क्षेत्र को विस्तृत बनाने की पद्धति है।
ऽ अंतर्राष्ट्रीयकरण, भूमंडलीकरण की अनुक्रिया है। उसे भूमंडलीकरण की पद्धति मानने का भ्रम नहीं होना चाहिए।
ऽ अंतर्राष्ट्रीयकरण में अंतर्राष्ट्रीय कारकों के साथ अंतस्कृतिक कारकों का भी ध्यान रखा जाता है।
ऽ अंतर्राष्ट्रीयकरण, अपने आप में कोई (अंतिम) उद्देश्य नहीं है।
इसमें अंतर्राष्ट्रीयकरण की पद्धति पर दृष्टिपात करने का एक विस्तृत ढाँचा प्राप्त होता है और शैक्षणिक गतिशीलता, विश्वस्तरीय या अंतर्सास्कृतिक शिक्षा, क्षेत्रीय अध्ययन, अंतर्राष्ट्रीय छात्रों की भर्ती जैसी गतिविधियों में से किसी एक या एकाधिक पर सामान्य रूप से केन्द्रित संकुचित व्याख्या का परिहार होता है।
इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि अंतर्राष्ट्रीयकरण पर न तो राजनीतिक तर्क का प्रभुत्व होता है और न आर्थिक तर्क काद्य इस तथ्य का ध्यान रखना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि अंतर्राष्ट्रीय एवं अंतस्कृतिक कारकों के बंध अत्यंत सुदृढ़ होते हैं – अंतर्राष्ट्रीय कारकों में अंतर्सास्कृतिक सदैव निहित होते हैं।
अंतर्राष्ट्रीयकरण क्यों?
उच्च शिक्षा की संस्थाएँ, राष्ट्रों की सरकारें अंतर्राष्ट्रीय निकाय तथा निजी क्षेत्र के अधिक से अधिक संस्थान – बैंक, उद्योग, प्रतिष्ठान – अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक गतिविधियों से इतनी सक्रियता से संबद्ध क्यों हो रहे हैं। इस प्रश्न का उत्तर अत्यंत जटिल है और उसे जानने के लिये विभिन्न राष्ट्रों के संदर्भ में विचार करना होगा।
नाइट और विट ने एक अध्ययन में युक्तियों को चार समूहों में वर्गीकृत किया हैय शैक्षणिक, सामाजिक/सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक (1995, 9-14)। उच्च शिक्षा के साथ अंतर्राष्ट्रीय आयाम को एकीकृत करने वाले अभिप्रेरणों को ‘युक्तियाँ‘ कहा जाता है। उनके द्वारा अंतर्राष्ट्रीयकरण से संबंधित ‘क्यों‘ का स्पष्टीकरण होता है तथा विभिन्न युक्तियों में अंतर्राष्ट्रीयकरण के प्रति भिन्न भिन्न साधन एवं लक्ष्य अंतर्निहित रहते हैं।
युक्तियों का विश्लेषण करते समय उच्च शिक्षा में साझेदार समूहों, सरकारी क्षेत्र, निजी क्षेत्र एवं शैक्षणिक क्षेत्र की विविधता को भी ध्यान में रखना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में तीन उपवर्गों, संस्थास्तर, अध्ययन-अध्यापन और उनसे संबंधित विभाग तथा छात्रों के बीच पहचान बनाने की आवश्यकता होती है। अलग-अलग देशों में, विभिन्न प्राथमिकताओं के आधार पर, इनमें से भिन्न-भिन्न युक्तियों पर जोर दिया जाता है। ये युक्तियाँ स्थिर नहीं होतीं। युक्तियों और प्राथमिकताओं से विश्व के विकास की नई झाँकियाँ मिलती हैं।
पूर्वव्यापी अंतर्राष्ट्रीयकरण
प्रारंभ में, अंतर्राष्ट्रीयकरण की नीतियों के विकास में शैक्षणिक एवं सामाजिक/सांस्कृतिक युक्तियों की प्रमुख भूमिका रही। यद्यपि आज ये (युक्तियाँ) इतनी प्रबल नहीं हैं फिर भी समसामयिक उच्च शिक्षा पद्धति के स्वरूप-निर्माण में इनका महत्त्व है। समय की गति तथा राष्ट्रों के उदय के साथसाथ, राजनीतिक युक्ति अधिक से अधिक महत्त्वपूर्ण होती चली गई।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब संयुक्त राज्य अमेरिका का राजनीतिक एवं आर्थिक प्रभाव (बढ़ना) प्रारंभ हुआ तो राजनीतिक युक्ति में एक नया आयाम जुड़ा। उस (अमेरिका) ने अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने के लिये विभिन्न संस्कृतियों का संश्लेषण बढ़ाने का प्रयास किया। क्षेत्रीय अध्ययनों, विदेशी भाषा प्रशिक्षण तथा विदेश में अध्ययन जैसे कार्यक्रमों के विकास के लिये मुख्यतः विदेश विभाग एवं रक्षा विभाग की संघीय निधि से वित्त-पोषण उक्त मंतव्य का प्रमाण है। इसे अमेरिकी साम्राज्यवाद के बिंब के रूप में देखा गया तथा शान्ति एवं पारस्परिक समझदारी के प्रेरक के रूप में पेश किया गया। जो भी सही, राष्ट्रपति बुश ने कहा था कि अंतर्राष्ट्रीय विनिमयों से, शान्ति के मार्ग की बाधाएँ धीरे-धीरे दूर होती जाएँगी।
शान्ति स्थापनाकारी बल के साधन के रूप में अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा के संबंध में यह आशावादी दृष्टिकोण, पिछले पचास वर्षों में अमेरिकी राजनीति तथा उच्च शिक्षा में प्रभावी रहा है किंतु यह अंतर्राष्ट्रीयकरण का संकुचित परिप्रेक्ष्य है। अंतर्राष्ट्रीयकरण की यह अवधारणा, राष्ट्रीय पहचानों की मान्यता के विपरीत है।
अंतर्राष्ट्रीयकरण से भूमंडलीय परिवेश को अपेक्षाकृत अधिक समान शर्ते प्राप्त होती हैं। इससे उच्च शिक्षा तथा समाज उन राष्ट्रों की निर्भरता के संलक्षण से मुक्त हो जाते हैं जिन्होंने प्रारंभ में अंतर्राष्ट्रीयकरण की पद्धतियों से लाभ उठा लिया है।
ऑस्ट्रेलिया के अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। परिणामस्वरूप, तथा उस अन्य (विदेशी) सांस्कृतिक परिवेश में वे अपनी राष्ट्रीय पहचान के साथ पहले की अपेक्षा अधिक संबद्ध गए।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उच्च शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण की दिशा में जो पहल हुई उसमें राजनीतिक युक्ति प्रभावी रही है। किन्तु शीत युद्ध के बाद, राजनीतिक के बजाय आर्थिक युक्ति पर जोर बढ़ता गया।
अनेक देशों में आर्थिक युक्ति, अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रेरक शक्ति रही है। आर्थिक युक्ति की अभिव्यक्ति अनेक रूपों में की जा सकती है जैसे –
ऽ विश्व भर से, आधुनिक श्रम शक्ति की अधिक आवश्यकता के कारण अंतर्राष्ट्रीयकरण पर जोर,
ऽ नई प्रौद्योगिकी में अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा की दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय शोध एवं विकास की संयुक्त परियोजनाएँः
ऽ अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उच्च शिक्षा के विपणन पर अधिक ध्यानय निर्यात की वस्तु के रूप में उच्च शिक्षा का स्थान, आदि।
अंतर्राष्ट्रीयकरण की आर्थिक युक्तियों का स्थानीय संदर्भ पर भी प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिये, अंतर्राष्ट्रीय श्रम शक्ति की कल्पित आवश्यकता की दृष्टि से, व्यापारिक शिक्षा के लिये, संबंधित विद्यालयों में, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, पाठ्यक्रम का प्रमुख अंग रखना ही होगा। यह भी कि अर्थव्यवस्था
उच्च शिक्षा के वर्तमान संस्थानों को अधिक अंतर्राष्ट्रीयता की ओर उन्मुख करने वाली राजनीतिक, विशेषकर आर्थिक युक्तियाँ, मुख्यतः बाह्य कारक हैं। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि अधिक अंतर्राष्ट्रीय होने के लिए विश्वविद्यालयों में कोई आन्तरिक प्रोत्साहन न हो। गत पचास वर्षों में शैक्षणिक परिवेश में आमूल परिवर्तन हुआ है। उच्च शिक्षा, अधिक अनियमित, आय के स्रोतों में वैविध्यपूर्ण, निजीकृत एवं बाजारोन्मुखी हुई है। आज उद्यमोन्मुखी विश्वविद्यालय, फिर से, अधिक अंतर्राष्ट्रीय हो जाने की आन्तरिक आवश्यकता का अनुभव करते हैं। सार्वभौमिक ज्ञान एवं समझदारी की परंपरागत खोज के स्थान पर, शैक्षणिक विधि अधिक आधुनिक हो गई है।
व्यावसायिक शिक्षा एवं निरंतर शिक्षा पर अधिक बल देने तथा नवीन क्षेत्रों, जैसेः पर्यावरण संबंधी अध्ययन, सूचना-विज्ञान आदि, पर विशेष जोर देने के साथ-साथ अध्यापकों एवं छात्रों की माँगें पूरी करने के लिये भी तुलनात्मक एवं अंतर्राष्ट्रीय आयाम की आवश्यकता है। यह विदेशी तत्त्वों की भांति ही अंतर्राष्ट्रीयकरण के लिये प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य करेगा।
बोध प्रश्न 1
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से अपने उत्तर मिलाइए।
1) नाइट तथा विट के द्वारा दी गई शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण की परिभाषा से तीन सामान्य निष्कर्ष निकालिए।
2) शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण की राजनीतिक एवं आर्थिक युक्तियों को समझाइए।
ऑस्ट्रेलिया में अंतर्राष्ट्रीयकरण की नीति का विकास
उच्च शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण की दिशा में विश्व युद्धोत्तर काल में पहली बार कदम उठाया गया था। इस युग में अनेक विकसित राष्ट्रों की विदेश नीतियों में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिले थे। इन परिवर्तनों में उपनिवेशवाद के अंत, स्वतन्त्र विकासशील राष्ट्रों के उदय, बढ़ते हुए अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और विश्व व्यापार तथा विकासशील राष्ट्रों को विविध क्षेत्रों में सहायता देकर सद्भावना बढ़ाने की इच्छा के प्रति विकसित राष्ट्रों की अनुक्रियाओं की झलक मिलती है। परिणामस्वरूप जब 1951 में कोलंबो योजना प्रारंभ हुई तो ऑस्ट्रेलिया उसमें एक प्रमुख भागीदार था। अंतर्राष्ट्रीयकरण की दिशा में यह पहला कदम था जिसमें ऑस्ट्रेलिया सरकार ने, अपने देश के विश्वविद्यालयों में विदेशी छात्रों को अध्ययन कराने के लिये प्रायोजक (ेचवदेवतेीपच) के रूप में प्रवेश किया।
इसके पश्चात् प्रायोजिक (ेचवदेवतमक) तथा निजी वर्गों के विदेशी छात्रों की संख्या में भारी वृद्धि हुई। निजी छात्रों (चतपअंजम ेजनकमदजे) को ऑस्ट्रेलियन छात्रों के समान ही माना गया। उनका प्रवेश मूल रूप से आप्रवासी नीतियों के द्वारा नियंत्रित किया गया जिनमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहता था।
बीसवीं शताब्दी के नवें दशक के मध्य में दो प्रमुख प्रतिवेदनों – ऑस्ट्रेलिया द्वारा विदेशों को दी जाने वाली सहायता के कार्यक्रम का पुनरीक्षण करते हेतु गठित जैक्सन समिति का प्रतिवेदन तथा समुद्रपारीय (विदेशी) व्यक्तिगत छात्रों से संबंधित नीति पुर्वावलोकन के लिए गठित गोडिंग समिति के प्रतिवेदन – के प्रकाशन के साथ महत्त्वपूर्ण नीतिगत परिवर्तन देखने को मिले। सरकार ने जैक्सन प्रतिवेदन (रिपोर्ट) की सिफारिशों को लागू कर दिया और 1985 में विदेशी छात्रों के लिये एक नई नीति की घोषणा की जिसमें आर्थिक सहायता प्राप्त छात्रों के अतिरिक्त अन्य छात्रों के नामांकन का मार्ग भी खोल दिया गया। इन छात्रों को प्रवेश संबंधी अपेक्षाओं की पूर्ति तो करनी ही थीय अपने पाठ्यक्रम का संपूर्ण वित्तीय भार भी उठाना था। इसके बाद, पूरे शुल्क का भुगतान करने वाले छात्रों के प्रवेश को सुगम बनाने के लिये शैक्षिक सेवाओं के निर्यात की नीति बनाई गई। परिणामस्वरूप, विदेशी छात्रों के नामांकन का मार्ग घटने की अपेक्षा अधिक संख्या में खुला। संस्थाओं को यह सुनिश्चित करना होता था कि विदेशी छात्रों, को प्रवेश ऑस्ट्रेलियायी छात्रों के स्थान पर न दिया गया हो। सामान्यतः कहा जाता है कि यह शिक्षा के व्यापारीकरण का प्रारंभ था।
सन् 1989 में सरकार ने यह नीतिगत घोषणा की कि 1990 से कोई भी सहायता प्राप्त विदेशी छात्र (ेनइेपकपेमक ेजनकमदजे) नहीं होंगे। सरकार ने यह घोषणा भी की कि संघीय सरकार द्वारा प्रदत्त आर्थिक अनुदान, स्वदेशी छात्रों भी संख्या के आधार पर होगा। जिन संस्थाओं में बड़ी संख्या में वित्तीय सहायता प्राप्त छात्र थे उनके लिये इस घोषणा से गंभीर परिणाम निकल सकते थे क्योंकि वित्त-पोषण का स्तर स्थिर रखने के लिये उन्हें पूरे शुल्क का भुगतान कर सकने वाले छात्रों की उतनी ही संख्या का प्रवेश देना पड़ता।
नई नीति में शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण पर विशेष बल दिया गया था। ऑस्ट्रेलिया की सरकार मानती है कि शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण का राष्ट्र के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अधिकाधिक महत्त्व है। इसके द्वारा सभी संबद्ध पक्षों के बीच सांस्कृतिक समझदारी के विकास में सहायता प्राप्त होती है। अधिक व्यापक अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण को प्रोत्साहन मिलने के कारण इसके द्वारा ऑस्ट्रेलिया की शिक्षण एवं प्रशिक्षण पद्धतियाँ एवं ऑस्ट्रेलियायी समाज समृद्ध होता है। इस नई नीति का लक्ष्य एशियाप्रशान्त क्षेत्र था और इसमें अनुसंधान कार्य तथा छात्रों एवं अध्यापकों के विनिमय एवं सहयोग जैसे विषयों को भी सम्मिलित कर लिया गया था।
मन्त्रियों के 1992 के वक्तव्य और उसके बाद रोजगार, शिक्षा एवं प्रशिक्षण की राष्ट्रीय परिषद के वक्तव्य से शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण के एक नए परिप्रेक्ष्य का उदय हुआ। यह नया परिप्रेक्ष्य व्यापार एवं ज्ञान के विस्फोट के सम्मिलित अवयवों तथा बहुसंस्कृतिवाद की नीति के ढाँचे में अंतर्राष्ट्रीय एवं अंतर्सास्कृतिक संबंधों के अपने केन्द्र से बहुत अलग था। परिणाम यह हुआ कि ऑस्ट्रेलिया में पूरे शुल्क का भुगतान करने वाले विदेशी छात्रों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई।
बोध प्रश्न 3
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से अपने उत्तर मिलाइए।
1) ऑस्ट्रेलिया ने 1989 में शिक्षा के क्षेत्र में वित्तीय सहायता के लिए क्या मुख्य नीतिगत कदम उठाए?
ऑस्ट्रेलिया में अंतर्राष्ट्रीयकरण के मुख्य मुद्दे
ऑस्ट्रेलिया की केन्द्र सरकार शिक्षा के अंतर्राष्ट्रीयकरण का समर्थन करती है क्योंकि ऑस्ट्रेलिया में अध्ययन के लिये आए विदेशी छात्रों ने पूरे ऑस्ट्रेलिया में विभिन्न स्थानीय समुदायों को सांस्कृतिक संपत्ति, अंतर्राष्ट्रीय गतिशीलता और सामर्थ्ययुक्त आर्थिक लाभ प्रदान करने में योगदान किया है। विदेशी छात्रों से प्राप्त आय तथा विदेशों में शिक्षा हेतु किए गए प्रावधानों ने शिक्षण संस्थाओं की वृद्धि, अवसंरचना, विकास एवं प्रौद्योगिक उन्नति हेतु धन की व्यवस्था करने तथा राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा एवं प्रशिक्षण के क्षेत्र में हजारों नौकरियों के अवसर जुटाने में भी सहायता दी है।
एक ओर जहाँ अंतर्राष्ट्रीयकरण के बहुत से सामाजिक-आर्थिक लाभ हैं वहीं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उसके प्रभाव की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। एक ओर इसके कारण उनकी अपनी शिक्षा-पद्धति समृद्ध हुई है और स्वदेशी छात्रों के लिये कार्य के अधिक अवसर बने हैं तो दूसरी और विदेशी छात्रों को आकर्षित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अधिक से अधिक नए पाठ्यक्रमों पर ध्यान दिया जा रहा है जिससे ऑस्ट्रेलियायी छात्रों को भी शैक्षिक दृष्टि से लाभ पहुंच रहा है।
समाज को भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ
अंतर्राष्ट्रीयकरण ने समुदायों, अर्थव्यवस्था एवं श्रम-बाजारों का भूमंडलीकरण जन्य आवश्यकताओं एवं चुनौतियों के प्रति, उच्च शिक्षा के संस्थानों को संवेदनशील बनाया है। अधिकांश ऑस्ट्रेलियायी विश्वविद्यालय, विश्व भर में बढ़ती हुई स्पर्धा के वातावरण में फलने-फूलने के लिये, अपनी कार्य विधि में उद्यमोन्मुखी होने और परिस्थितियों एवं छात्र-छात्राओं की विविध आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अपनी शैक्षिक अनुक्रियाओं में नवीनता लाने का प्रयत्न कर रहे हैं। विश्व बाजारों में अनेक विश्वविद्यालयों की सफलता उनकी अनुक्रियात्मकता, (तमेचवदेपअमदमेे), लचीलेपन, ग्राहक केन्द्रिता, (बनेजवउमत विबने) उपयुक्त बाजारीकरण, मिश्रित-संस्कृति-तंत्र, समझौतों तथा संबंधों पर आधारित प्रतीत होती है।
विश्वविद्यालय, प्रायः विदेशों में अपनी गतिविधियों को, संभावित राजस्व (आय के) साधन के रूप में बढ़ाते जा रहे हैं। अपने वर्तमान बाजारों में अपनी स्थिति को बृहद करते हुए एशिया में आर्थिक मंदी के चलते वे नए बाजार भी तलाश रहे थे। विदेश में अध्ययन तथा विनिमय कार्यक्रमों के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के विकास पर अधिक जोर देने के लिये विश्वविद्यालय अपनी आंतरिक गतिविधियों पर भी फिर से ध्यान केन्द्रित करने लगे हैं। शैक्षिक गुणवत्ता एवं प्रबंधन पर अपनी छाप छोड़ने तथा विकास के द्वार पर दस्तक देने के लिये कुछ विश्वविद्यालय नए अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लाभ भी उठा रहे हैं।
अंतर्राष्ट्रीयकरण में विदेशी विश्वविद्यालयों एवं अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के द्वारा स्वदेशी छात्रों के सामने लगातार उपस्थित की जाने वाली स्पर्धाओं को भी शामिल किया जाता है। इन स्पर्धाओं की चुनौतियों से निपटने के लिये, ऑस्ट्रेलियाई संस्थाएँ अपने कार्यक्रमों को आवश्यकता के अनुरूप बना रही हैं, प्रौद्योगिकी के प्रयोग द्वारा अपनी क्षमताओं को सुधार रही है, और अनेक स्थितियों में, अपने पाठ्यक्रमों का अंतर्राष्ट्रीयकरण कर रही है।
1998 में पूरे संसार से ऑस्ट्रेलिया में अध्ययन के लिये आए हुए छात्रों ने देश भर के स्थानीय समुदायों की सांस्कृतिक संपन्नता, अंतर्राष्ट्रीय सक्रियता एवं उनको आर्थिक लाभ पहुँचाए। अंतर्राष्ट्रीय (विदेशी) छात्रों से होने वाली आय तथा विदेशों में किए गए शैक्षिक प्रावधानों ने इन संस्थाओं की संवृद्धि, अवसंरचनात्मक विकास (पदतिंेजतनबजनतंस कमअमसवचउमदज) एवं प्रौद्योगिक प्रगति में बहुत योगदान किया है तथा देश भर में शिक्षा एवं प्रशिक्षण के क्षेत्र में हजारो नौकरियों का सर्जन किया है।
ऑस्ट्रेलियायी विश्वविद्यालयों ने अपनी भूमंडलीय रणनीति पर पुनर्विचार किया है जिसके अनुरूप उन्होंने अनेक नए दृष्टिकोणों को अंगीकार किया है, जिनमें महत्त्वपूर्ण पुनर्थिति, पाठ्यक्रम की पुनर्रचना, नई वितरण प्रौद्योगिकी (जिसमें ऑन लाइन ऐक्सेस भी शामिल है), क्रेडिट अंतरण एवं स्पष्ट अभिव्यक्ति तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संस्थाओं, एवं कार्यक्षेत्रों के पार उद्योगों के साथ सहयोग आदि शामिल हैं।
निगमित एवं वास्तविक प्रदायकों की भूमिका
उच्च शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थानों के रूप में परंपरागत विश्वविद्यालयों की भूमिका को अब अपारंपरिक निगमित एवं वास्तविक शिक्षा प्रदायकों (चतवअपकमते) के द्वारा चुनौती दी जा रही है। निगमित प्रदायकों में उन कंपनियों (जैसे, कॉलगेट, मॅक्डॉवल्ड्र, मोटोरोला आदि) के नाम गिनाए जा सकते हैं जिन्होंने मूल रूप से अपने कर्मचारियों की प्रशिक्षण संबंधी संगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अपने ही पाठ्यक्रमों का अनुसरण करने वाले विश्वविद्यालयों की स्थापना की है।
संयुक्त राज्य अमेरिका तथा यूनाइटेड किंगडम में इन का उदय इसलिए हुआ कि विश्वविद्यालयों ने उद्योग जगत की अपेक्षाओं को समझने और उन पर ध्यान देने की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया। ऑस्ट्रेलियायी कंपनियों एवं विश्वविद्यालयों ने ऐसी आवश्यकताओं का पूर्वानुमान करते हुए, पारस्परिक सहयोग के द्वारा एक अलग ही दृष्टिकोण अपनाया जहाँ विश्वविद्यालय कंपनियों के कर्मचारी वर्ग के लिये संगत विशिष्ट पाठ्यक्रम के अनुरूप शिक्षा देते हैं। उदाहरणार्थय वैस्टर्न सिडनी विश्वविद्यालयय काल्टैक्स, आई. सी. आई. (प्.ब्.प्.) और ऑस्ट्रेलियाई परमाणु विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के लिये विशिष्ट कार्यक्रम चलाता हैय या डीकिन विश्वविद्यालयय फोर्ड के लिये ऐसे ही कार्यक्रम चलाती है।
वास्तविक प्रदायकों (टपतजनंस चतवअपकमते) का एक लक्षण यह है कि उनमें ‘इंट. और गारे के दृष्टिकोण का अभाव है। पारंपरिक कक्षा-शिक्षण में जिस प्रकार अध्यापक और छात्र, पुस्तकों तथा स्टेशनरी के साथ कार्य करते थे, वास्तविक प्रदायकों की पद्धति उससे भिन्न है। वे अपने ग्राहकों को इंटरनेट तथा तेजी से विकसित अन्य प्रौद्योगिकियों के माध्यम से अन्योन्य क्रियात्मक बहुमाध्यमी आरूप के द्वारा शिक्षण एवं प्रशिक्षण सामग्री प्रदान करते हैं जिससे छात्रगण, पठन-सामग्री तथा अन्य छात्रों के साथ अन्योन्य रूप से जुड़ते हैं। वास्तविक शिक्षा निगम (टपतजनंस म्कनबंजपवदंस ब्वतचवतंजपवद) तथा फीनिक्स विश्वविद्यालय इसके उदाहरण हैं। कुछ ‘निगम‘ भी अब वास्तविक सहायक होते जा रहे हैं।
विदेशी छात्रों के लिये प्रतियोगिता अब प्रचंड हो चुकी है क्योंकि देशों और संस्थाओं ने अपने विपणन प्रचारों (उंतामजपदह बंउचंपहदे) में बहुत वृद्धि कर दी है।
एशिया की आर्थिक मंदी का प्रभाव उन विश्वविद्यालयों पर बहुत कम पड़ा जिनमें विदेशी छात्रों ने किसी न किसी रूप में देश के भीतर पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों या कार्यक्रमों को लेकर प्रवेश लिया। उच्च शिक्षा प्रदायकों ने अपनी शिक्षा/ विशेषज्ञता को छात्रों/ग्राहकों तक ले जाने के अधिक प्रयास किए है न कि छात्रों/ग्राहकों को ऑस्ट्रेलिया लाने के, अर्थात उन्होंने विदेशों में जाकर प्रशिक्षण देना पसंद किया, बजाय छात्रों को ऑस्ट्रेलिया आमंत्रित करने के।
कुछ विश्वविद्यालयों ने अपनी पाठ्यसामग्री को परिपाटीबद्ध कर लिया है और वे स्थानीय प्रदायों . एवं व्यावसायिक निकायों की साझेदारी में प्रायः स्नातक पूर्व स्तरीय शिक्षा तथा कार्यक्रम प्रदान करते हैं। धीरे-धीरे व्यावसयिक एवं स्नातकोत्तर स्तरीय शिक्षा के लिए भी इसी प्रकार की व्यवस्था की जा रही है। इस प्रकार के पाठ्यक्रमों एवं कार्यक्रमों में सबसे अधिक माँगय लेखाविधि (।बबवनदजपदह) तथा वित्त एवं व्यापार प्रबंधन की है जिनके द्वारा स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं एवं उद्योगों की अपेक्षाओं एवं आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। कुछ विश्वविद्यालयों ने अपनी विदेशों में चलाई जा रही गतिविधियों के द्वारा ऑस्ट्रेलियायी व्यापार को कार्य पर आधारित शिक्षण की व्यवस्था प्रदान की है। कुछ विश्वविद्यालयों ने विदेशों की कुछ शिक्षण संस्थाओं को अपना प्रतिनिधित्व करने (तिंदबीपेपदहध्सपबमदेपदह) का अधिकार देकर उनके माध्यम से अपने पाठ्यक्रम विदेशी छात्राओं तक पहुँचाना आरंभ किया है।
ऽ ग्रथन (ज्ूपददपदह) उस व्यवस्था को कहते हैं जिसमें किसी पाठ्यक्रम का कुछ भाग की प्रशिक्षण मेजबान देश में कराया जाता है और शेष भाग ऑस्ट्रेलिया में कराया जाता है। कार्यक्रम के पूर्ण हो जाने पर ऑस्ट्रेलियायी विश्वविद्यालय उपाधि प्रदान करता है। ऐसे ग्रथित कार्यक्रम की ओर विदेशी छात्र इसलिए आकर्षित होते हैं कि इससे कम खर्चे में अपने देश में रहकर विदेशी विश्वविद्यालय (ऑस्ट्रेलिया के किसी विश्वविद्यालय) की उपाधि प्राप्त हो जाती है।
ऽ प्रतिनिधित्त्व/अनुज्ञापत्र व्यवस्था (थ्तंदबीपेपदहध्स्पबमदेपदह ंततंदहमउमदज) में प्रदायक संस्था किसी अन्य देश में, सहमति के आधार पर कुछ शर्तों के साथ, किसी संस्था को मेजबान के रूप में नियुक्त करके अपनी उपाधि देने की अनुमति या अनुज्ञा प्रदान करती है। इसके बाद उस कार्यक्रम के अंतर्गत कैसे शिक्षा दी जाए, इस पर प्रदायक संस्था का नाममात्र का नियंत्रण रह जाता है।
ऽ क्रैडिट हस्तांतरण/उच्चारण (ब्तमकपज ज्तंदेमित) व्यवस्था में छात्र, प्रदायक संस्था में प्रवेश नहीं लेते वरन् उनके कार्यक्रम के अंतर्गत अध्ययन करते हैं जिसके फलस्वरूप उन्हें स्थानीय (अपने देश की) संस्था की ही कोई उपाधि मिलती है और प्रदायक संस्था उस उपाधि को मान्यता प्रदान करती है।
इन व्यवस्थाओं से विदेशी छात्रों को अपने अध्ययन का एक भाग अपने देश में ही पूर्ण करना होता है। शेष के लिये वे ऑस्ट्रेलिया जाते हैं और उपाधि प्राप्त करते हैं या आगे अध्ययन करते हैं। इस प्रक्रिया में उन्हें क्रैडिट अंतरण की सुनिश्चित सुविधा प्राप्त रहती है।
विदेशों में शैक्षणिक केन्द्रों का विकास
अनेक विश्वविद्यालयों की कार्यनीतियों में अपतटीय (विदेशों में) शैक्षणिक केन्द्रों के विकास की प्रवृत्ति दिखाई दी है। ये केन्द्र या तो एक ही संस्था के विभिन्न परिसरों के जाल के रूप में होते हैं या ऑस्ट्रेलिया में एक मूल अंतर्राष्ट्रीय परिसर होता है जिसकी शाखाएँ चुने हुए विदेशी नगरों में होती हैं। ये केन्द्र या परिसर विदेशी छात्रों के सतत स्रोतों की तरह होते हैं अतः उनसे आय भी होती रहती है। स्नातक पूर्व एवं स्नातकोत्तर, दोनों ही स्तरों पर ये केन्द्र न केवल मेजबान देश के छात्रों को आकर्षित करते हैं वरन दूसरे देशों के छात्र भी उनमें अध्ययन करने आते हैं। विश्वविद्यालयों के लिये ये केन्द्र (या परिसर) दूरवर्ती शिक्षण पद्धति (कपेजंदज मकनबंजपवद ेलेजमउ) के अध्ययन केन्द्रों के रूप में भी काम देते हैं जहाँ प्रत्येक केन्द्र पर पूरे शुल्क का भुगतान करने वाले विदेशी छात्रों को, सुयोग्य अध्यापकों द्वारा अध्यापन तथा अधिगम की सुविधा प्राप्त होती है।
कुछ विश्वविद्यालय अपने विदेशी केन्द्रों का अधिक से अधिक उपयोग उन देशों के छात्रों के लिये वैकल्पिक अध्ययन स्थल के रूप में कर रहे हैं जिन्हें ऑस्ट्रेलिया का वीजा (प्रवेश पत्र) मिलने में कठिनाई होती है। इन अंतर्राष्ट्रीय परिसरों से ऑस्ट्रेलियायी अध्यापकों तथा छात्रों को लाभ तो होता ही है, उन्हें मुक्त रूप से घूमने तथा अपनी कुशलता को बढ़ाने के अवसर भी मिलते हैं।
बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 1
1) अंतर्राष्ट्रीयकरण, भूमण्डलीय परिवर्तनों के परिणामस्वरूप शिक्षा के कार्यक्षेत्र को विस्तृत करने वाली पद्धति है। यह भूमंडलीकरण का प्रत्युत्तर है किन्तु इसे भूमंडलीकरण पद्धति ही मान लेने का भ्रम नहीं होना चाहिए। इसमें अंतर्राष्ट्रीय कारकों के साथ अंतर्सास्कृतिक कारणों को भी ध्यान में रखा जाता है। (अधिक विवरण के लिए भाग 27.2 देखें)
2) अंतर्राष्ट्रीयकरण, भूमंडलीय परिवेश को समान स्तर पर लाता है। जिन राष्ट्रीय नेताओं ने विदेशों में, एक भिन्न सांस्कृतिक परिवेश में शिक्षा प्राप्त की वे अपनी राष्ट्रीय पहचान के साथ अधिक गहराई के साथ जुड़े थे। आर्थिक संगति में आधुनिक प्रौद्योगिकी से संबंधित आवश्यकताएँ शामिल होती हैं जिसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त शोध कार्य तथा उच्च शिक्षा के विपणन पर अधिक से अधिक ध्यान देना होता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये विश्व स्तर पर बहुत अधिक श्रम शक्ति भी चाहिए। (अधिक विवरण के लिए उपभाग 27.2.2 देखें)
बोध प्रश्न 3
1) आर्थिक सहायता प्राप्त (ेनइेपकपेमक) छात्रों को अब प्रोत्साहन नहीं मिलता। संघ-सरकार द्वारा स्वदेशी छात्रों की संख्या के आधार पर अनुदान दिया जाता है। इसके कारण उन संस्थाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ा है जिनमें अधिकांश छात्र विदेशी हैं। (अधिक विवरण के लिए उपभाग 27.3.1 देखें)
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics