WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

पत्ती में अनुकूलन : जलाभाव के प्रति पत्तियों में अनुकुलन (adaptation of leaves to reduce water loss in hindi)

(adaptation of leaves to reduce water loss in hindi) जलाभाव के प्रति पत्तियों में अनुकुलन : प्रकृति में पौधों को प्राय: अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों , जैसे – उच्च तापमान , उच्च लवण सान्द्रता , शुष्क अथवा शरद हवाओं और जलाभाव की स्थिति आदि का सामना करना पड़ता है।

उपरोक्त सभी परिस्थितियाँ पौधों के लिए प्रतिबल अवस्थाओं का कार्य करती है। प्रतिबल स्थिति का प्रभाव पौधों की बाह्य संरचना , आंतरिक संरचना और शरीर क्रियाओं पर स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।
जल प्रतिबल अथवा जलाभाव की अवस्था पौधों के अस्तित्व के लिए हमेशा एक चुनौतीपूर्ण विषय रहा है। जलाभाव की स्थिति मृदा में सामान्यतया जल की कमी के कारण उत्पन्न होती है। मृदा में जलाभाव का कारण वर्षा की कमी या फिर मृदा की कम जल अवधारणा क्षमता होती है। इसे मृदा की भौतिक शुष्कता कहते है।
जलाभाव की स्थिति मृदा में केवल जल की कमी के कारण ही नहीं अपितु जल की अधिकता अथवा पर्याप्त जल की उपस्थिति में भी उत्पन्न हो सकती है। अनेक कारणों , जैसे – जड़ों को ऑक्सीजन की अनुपलब्धता , निम्न तापमान अथवा मृदा में लवणों की अधिकता के कारण पौधे इस जल का उपयोग नहीं कर पाते है। इस अवस्था को मृदा की शरीर क्रियात्मक शुष्कता (physiological dryness) कहते है।
जल प्रतिबल की स्थिति का सामना करने के लिए पौधों में अनेक संरचनात्मक अनुकूलन पाए जाते है। यहाँ कुछ आकारिकीय और शारीरिकी अनुकूलनों का वर्णन किया जा रहा है।

1. आकारिकीय अनुकूलन (morphological adaptation)

मरुदभिद पौधों में अभिव्यक्त सर्वाधिक महत्वपूर्ण और स्पष्ट आकारिकीय अनुकूलन लक्षण इनकी पत्तियों की आकृति और परिमाप में कमी अथवा इनका छोटा होना है। अनेक पौधों जैसे नागफनी की पत्तियाँ काँटो में रूपांतरित हो जाती है। कुछ पौधों जैसे इफीड्रा और केस्यूराइना की पत्तियाँ शल्क पर्णों में रूपान्तरित हो जाती है। अनेक पौधों जैसे बबूल में पर्ण फलक की आकृति छोटी हो जाती है। विलायती बबूल में रेकिस मोटा , हरा और चपटा हो जाता है और इसकी पत्ती में पर्णक बहुत ही छोटे होते है। रेकिस पर्णकों की तेज धूप में गर्मी और तापाघात से सुरक्षा करता है। इसी प्रकार ऑस्ट्रेलियन बबूल में पाए जाने वाले रूपान्तरित पर्णाभवृन्त भी महत्वपूर्ण आकारिकीय अनुकूलन का लक्षण है। इसमें जलक्षति को कम करने के लिए संयुक्त पर्ण के पर्णक विलुप्त हो जाते है और इसका पर्णवृंत और रेकिस चपटे और हरे हो जाते है और जल संचयन तथा प्रकाश संश्लेषण का कार्य करते है।
कुछ पौधों , जैसे लेप्टाडीनिया और कैर में पत्तियाँ आशुपाती होती है और बरसात के बाद शीघ्र ही झड़ जाती है। इन पौधों में तना और शाखाएँ हरी हो जाती है और मुख्य रूप से प्रकाश संश्लेषण का कार्य करती है। चीड़ के पौधों में सूच्याकार पत्तियाँ पायी जाती है। आयतन और क्षेत्रफल के कम होने से इनमें वाष्पोत्सर्जन द्वारा जल की क्षति भी कम मात्रा में होती है।
अनेक पौधों जैसे बरगद और पीपल में पर्ण की आकृति और क्षेत्रफल में कमी नहीं आती परन्तु पत्ती की सतह मोम और क्यूटिन के निक्षेपण के कारण चमकीली और चिकनी होती है। इसके कारण प्रकाश की अधिकांश मात्रा परावर्तित हो जाती है और पत्ती का तापमान कम रहने से वाष्पोत्सर्जन द्वारा वाष्पीकृत जल की मात्रा में कमी आती है।
अनेक मरुस्थलीय पौधों जैसे – हीलियोट्रोपियम और वरबेसिना में पत्तियों की सतह पर एक या बहुकोशीय रोमों की एक सघन परत पायी जाती है। इसके परिणामस्वरूप नमी इनके आस पास ही बनी रहती है और वाष्पोत्सर्जन की मात्रा में कमी आती है। कुल एस्टेरेसी के एक मरुस्थलीय क्षुप एनसेलिया फेरिनोसा में दो प्रकार की पत्तियाँ मौजूद होती है। सर्दियों में अरोमिल पत्तियाँ और गर्मियों में रोमिल और चिपचिपी पत्तियाँ उत्पन्न होती है। इस वजह से वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है। अनेक मरुदभिद मांसल पौधों की पत्तियाँ गुद्देदार होती है जैसे साल्सोला में। इन पत्तियों में जल का संग्रहण होता है। यह संचित जल , शुष्क परिस्थितियों में पौधों की उपापचयिक गतिविधियों के सञ्चालन हेतु प्रयुक्त किया जाता है। पोएसी कुल की अनेक घासों जैसे एग्रोपायरोन , सेमा और एमोफिला में जलाभाव , तेज धूप और गर्मी के कारण पत्तियाँ भीतर की तरफ लिपट कर नली के समान हो जाती है। इस कारण वाष्पोत्सर्जन की दर में अत्यधिक कमी आ जाती है।

2. आन्तरिक संरचना के अनुकूलन (anatomical adaptation)

शुष्कता और जलाभाव से प्रभावित मरुस्थलीय पौधों के विभिन्न भागों विशेषकर पत्तियों की आंतरिक संरचना में भी निम्नलिखित महत्वपूर्ण अनुकूलन लक्षण पाए जाते है –
(i) स्फीति : शुष्कता और जलाभाव की परिस्थितियों के परिणामस्वरूप पर्ण कोशिकाओं में जल की कमी के कारण ये सिकुड़ जाती है और इनमें स्फीति की कमी आ जाती है। ये शुष्क परिस्थितियों जैसे जैसे और अधिक बढती है तो पत्तियों की कोशिकाएं और अधिक सिकुड़ने लगती है। इसके परिणामस्वरूप पत्ती का आकार छोटा हो जाता है। इन छोटी पत्तियों का पृष्ठीय क्षेत्रफल कम हो जाने के कारण वाष्पोत्सर्जन भी कम मात्रा में होता है। शुष्कता और जलाभाव में उच्च तापक्रम में तेज धूप के कारण पर्ण रन्ध्र बंद हो जाने के कारण वाष्पोत्सर्जन की मात्रा तो कम हो जाती है परन्तु ऊष्मा निष्कासन पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता।
(ii) क्यूटिकल : जलाभाव और शुष्कता के कारण मरुस्थलीय पौधों की पत्तियों में बाह्यत्वचा के ऊपर क्यूटिकल की बहुत मोटी परत पायी जाती है। इसके परिणामस्वरूप वाष्पोत्सर्जन की दर में कमी आ जाती है। कुछ उदाहरणों जैसे प्रोसोपिस में तो अन्दर और बाहर उगने वाले पौधों में क्यूटिकल का फर्क दस गुना तक पाया गया है। अत्यधिक शुष्क परिस्थितियों में तो कुछ पौधों जैसे ब्लूमिया में तो पत्ती के ऊपर क्यूटिकल की मोटाई बाह्यत्वचा की मोटाई के बराबर हो जाती है। कभी कभी बाह्यत्वचा कोशिकाओं की भित्तियाँ लिग्निन युक्त हो जाती है। अनेक पौधों जैसे एट्रिप्लेक्स कैनेसेन्स में पर्ण की पूरी सतह विशेषकर रन्ध्रों के पास विभिन्न प्रकार के रोम पाए जाते है जो पत्ती को अधिक प्रकाश से बचाकर वाष्पोत्सर्जन की दर को कम करते है।
(iii) बाह्यत्वचा की प्रकृति : कुछ पौधों जैसे बरगद और कनेर में बहुस्तरीय बाह्यत्वचा आंतरिक ऊत्तको को तेज धुप से बचाने के लिए एक प्रकार से परदे का काम करती है। अनेक पौधों , जैसे ब्लेनवेलिया में बाह्यत्वचा कोशिकाएं अरीय रूप से दीर्घित होती है।
(iv) गर्तीय रन्ध्र : कुछ पौधों , जैसे हेकिया , जैन्थेरिया और कनेर में धंसे हुए पर्ण रन्ध्र पर्ण की निचली सतह पर पाए जाते है। कनेर में तो पर्णरंध्र विशेष प्रकार की रन्ध्रीय गुहाओं में पाए जाते है , जिनमें बाह्यत्वचा रोम भी होते है। इन कारण से पर्णरन्ध्रों का शुष्क और गर्म तेज हवाओं से सीधा सम्पर्क नहीं हो पाता अत: वाष्पोत्सर्जन भी कम मात्रा में होता है।
(v) पर्ण वेलन : पोएसी कुल की कुछ मरुदभिदीय घासों जैसे – एमोफिला , एग्रोपाइरोन और सेमा में पत्तियों की बाह्यत्वचा पर कुछ विशेष प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती है। जिनको मोटर कोशिकाएँ (motor cells) अथवा बुलीफार्म कोशिकाएं (bulliform cells) कहते है।
इन बुलिफार्म कोशिकाओं में शुष्क परिस्थितियों के दौरान जल की कमी हो जाने से इनकी स्फीति कम हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप पत्तियाँ नली के रूप में गोलाई में लिपट जाती है। या अन्दर की तरफ मुड़ जाती है। इसकी वजह से वाष्पोत्सर्जन कम मात्रा में होता है। पर्ण बाह्यत्वचा की अन्य कोशिकाएँ मोटी भित्तियुक्त और छोटी आकृति की हो जाती है।
(vi) पर्ण विलगन : अनेक पादपों में पत्तियाँ परिपक्व होने पर जलाभाव की स्थिति में झड़ कर गिर जाती है , जिससे पादप में वाष्पोत्सर्जन की मात्रा कम हो जाती है।
(vii) खम्भ ऊत्तक की मात्रा : मरुदभिद पौधों विशेषकर तेज धूप और शुष्क वातावरण में उगने वाले पौधों की पत्तियों में खम्भ ऊतक , स्पंजी मृदुतक की तुलना में अधिक विकसित पाया जाता है। अनेक उदाहरणों में तो स्पंजी मृदुतक के क्षय के परिणामस्वरूप खम्भ ऊतक का परिवर्धन होता है जैसे स्फेरेल्सिया इन्काना (sphaeralcea incana) और एट्रीप्लेक्स में।
(viii) रन्ध्रों का बंद होना : अनेक मरुस्थलीय घासों और पौधों जैसे एरिस्टडा सिलीएटा में पर्णरंध्र ग्रीष्म ऋतू में स्थायी रूप से बंद हो जाते है। ऐसा इनमें संभवत: रक्षक कोशिकाओं की भित्ति स्थूलन के कारण होता है। कुछ पौधों , जैसे कैपेरिस स्पाइनोसा और पिटीरेन्कस में उपस्थित धंसे हुए पर्णरंध्र , रेजिन अथवा मोम के निक्षेपण के कारण बंद हो जाते है।
(ix) संवहन बण्डल : प्राय: सभी मरुद्भिद पौधों में संवहन बंडल सुविकसित होते है। इनके जाइलम ऊतक में वाहिनिकाएँ , वाहिकाएँ और रेशे बहुतायत से पाए जाते है। इसके साथ ही मरुदभिद पौधों में मृदुतक भी कभी कभी स्थुलित हो जाता है।
(x) यांत्रिक ऊत्तक : अधिकांश मरुदभिद पौधों में स्थूलित यांत्रिक ऊतक विशेषकर दृढोतक बहुलता से पाया जाता है। कुछ पौधों जैसे नेरियम की पर्ण में मध्य शिरा संवहन बंडल के ऊपर और नीचे की तरफ स्थूलकोणोतक पाया जाता है , जिसकी बाहरी कोशिकाएँ अत्यधिक स्थुलित और भीतरी कोशिकाओं में स्थूलन क्रमिक रूप से कम होता जाता है। इसके अलावा भी अधिकांश मरुस्थलीय पौधों में संवहन बंडलों के अन्दर और बाहर दृढोतकी कोशिकाएं पायी जाती है। ये दृढोतकी कोशिकाएँ , बाह्यत्वचा अथवा अधोत्वचा के निचे एक पूरी परत अथवा छोटे छोटे समूहों के रूप में हो सकती है। विभिन्न मरुस्थलीय घासों में संवहन बण्डल के ऊपर और नीचे दोनों तरफ दृढोतकी कोशिकाएं पायी जाती है।
(xi) लेटेक्स की उपस्थिति : कुछ मरुदभिद पौधों जैसे अरजीमोन और युफोर्बिया में रबड़क्षीर ऊतकों द्वारा रबड़क्षीर स्त्रावित होता है जिसकी श्यानता के कारण भी वाष्पोत्सर्जन की मात्रा कुछ कम हो जाती है।
(xii) जल संचय : विभिन्न गुद्देदार और मांसल मरुदभिद पौधों और लवणोदभिदों जैसे साल्सोला और एलोय की पत्तियों में जल संचय ऊत्तक पाया जाता है जिसकी कोशिकाएँ बड़ी आकृति की और पतली भित्ति वाली होती है। इन कोशिकाओं में म्यूसीलेजयुक्त कोशिका रस से भरी हुई रस धनियाँ पायी जाती है। प्रकाश संश्लेषी कोशिकाएँ जलाभाव की परिस्थितियों में इन कोशिकाओं से जल प्राप्त करती है।