WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

जाइलम या काष्ठ ऊतक अथवा दारु ऊतक (xylem or hadrome in hindi) क्या है ? जाइलम किसे कहते है ?

(xylem or hadrome in hindi) जाइलम या काष्ठ ऊतक अथवा दारु ऊतक क्या है ? जाइलम किसे कहते है ? प्रकार , उदाहरण , वर्गीकरण |

जटिल ऊत्तक (complex tissue in hindi) : यह उत्तक एक से अधिक प्रकार की कोशिकाओं से मिलकर बनते है , अत: विषमांगी प्रकृति के होते है , अर्थात इनका संगठन संरचनात्मक और कार्यात्मक रूप से विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं के द्वारा स्थापित होता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि सरल उत्तकों से पूर्णतया भिन्न होते है , क्योंकि सरल उत्तक समांगी होते है। हालाँकि जटिल उत्तक विषमांगी प्रकृति के होते है फिर भी इनकी घटक कोशिकाओं की उत्पत्ति एक समान होती है।

संवहनी पौधों में दो प्रकार के जटिल ऊत्तक जाइलम और फ्लोएम पाए जाते है। इन दोनों को सम्मिलित रूप से संवहन उत्तक कहते है , क्योंकि यह पौधों में संवहन बंडलों का निर्माण करते है। दोनों प्रकार के संवहन ऊतकों का विस्तृत विवरण निम्नलिखित है –

A. जाइलम या काष्ठ ऊतक अथवा दारु ऊतक (xylem or hadrome)

शब्द जाइलम का गठन सर्वप्रथम जर्मन वनस्पति शास्त्री नजेली द्वारा किया गया था। इसकी उत्पत्ति जाइलोस (काष्ठ) शब्द से हुई है। जाइलम एक स्थायी जटिल ऊतक है। इसकी कोशिकाएं उत्पत्ति में एक समान होती है लेकिन यह आकृति , परिमाप और अपने विशिष्ट कार्यों में भिन्नता प्रदर्शित करती है। इसलिए इन अलग अलग प्रकार की कोशिकाओं के समूह को जटिल ऊतक कहा गया है।

संवहनी पौधों में जल और खनिज पदार्थो का जड़ के ऊपर की तरफ संवहन संचालित करने के लिए जाइलम एक विशिष्ट ऊतक है। जल और खनिज पदार्थो का संवहन संचालित करने के अतिरिक्त इसका एक और प्रमुख कार्य पादप अंग को यांत्रिक दृढ़ता और कठोरता प्रदान करने का होता है।

प्राथमिक और द्वितीयक जाइलम :- प्राथमिक जाइलम पौधे के प्राथमिक शरीर के अक्ष अर्थात जड़ और तने में उपस्थित प्रोकेम्बियम से विकसित होता है। जबकि द्वितीयक जाइलम प्राथमिक पादप शरीर की वृद्धि हो जाने के बाद द्वितीयक वृद्धि के समय संवहन केम्बियम के सक्रीय होने से निर्मित होता है और इसका प्रमुख कार्य अक्ष के आयतन अथवा मोटाई में वृद्धि करने का होता है अर्थात यह मुख्यतः पाशर्व विभाज्योतकों से विकसित होता है।

प्राथमिक जाइलम और द्वितीयक जाइलम में अन्तर (difference between primary xylem and secondary xylem)

 प्राथमिक जाइलम  द्वितीयक जाइलम
 1. इन कोशिकाओं को उत्पत्ति प्राक्एधा से होती है जो कि शीर्षस्थ विभाज्योतक में अवस्थित होते है।  इनका निर्माण पाशर्व विभाज्योतक से होती है। जिसकी उत्पत्ति द्वितीयक प्रकार की होती है।
 2. इनमें प्रोटोजाइलम और मेटाजाइलम सुस्पष्ट होते है।  ऐसी सुस्पष्टता नहीं होती।
 3. इनकी वाहिकाएँ और वाहिनिकाएं अपेक्षाकृत लम्बी और संकरी होती है।  वाहिकाएँ और वाहिनिकाएँ दोनों ही परिमाप में छोटी और चौड़ी होती है।
 4. इनकी वाहिकाओं में टाइलोसस नहीं पाए जाते है।  यहाँ टाइलोसस पाए जाते है।
 5. अन्त: काष्ठ अथवा रसकाष्ठ का विभेदन नही होता है।  अन्त:काष्ठ और रसकाष्ठ का विभेदन होता है।
 6. वार्षिक वलय नहीं बनती।  वार्षिक वलय बनती है।
 7. जाइलम रेशे प्रचुर में नहीं पाए जाते।  जाइलम रेशे प्रचुर मात्रा में पाए जाते है।

प्राथमिक जाइलम पादप शरीर की प्रारंभिक अवस्थाओं से संवहन बंडलों में पाया जाता है। प्राथमिक जाइलम प्रोटोजाइलम और मेटाजाइलम में विभेदित दिखाई पड़ता है। शुरू की अवस्थाओं में इसमें अनेक संवहनी कोशिकाएँ और जाइलम मृदुतक पाए जाते है। लेकिन जब द्वितीयक वृद्धि प्रारंभ होती है तो प्राथमिक जाइलम धीरे धीरे विघटित हो जाता है। प्रोटोजाइलम के बाद विकसित होने वाले मेटाजाइलम ऊत्तक में मृदुतक अपेक्षाकृत कम मात्रा में पाए जाते है और संवहनी कोशिकाएँ और जाइलम रेशे अधिक मात्रा में होते है। पौधे की जब द्वितीयक वृद्धि हो जाती है तो मेटाजाइलम भी निष्क्रिय हो जाता है। यहाँ ध्यान रखने योग्य तथ्य यह है कि मेटाजाइलम का अनुपात सदैव प्रोटोजाइलम की तुलना में बहुत अधिक होता है लेकिन उन पौधों में (जैसे एकबीजपत्री तनो में) जहाँ द्वितीयक वृद्धि नहीं होती वहां मेटाजाइलम जीवनपर्यन्त सक्रिय होता है। इसी प्रकार से सभी वर्गों के संवहनी पौधों की पत्तियों में भी मेटाजाइलम जीवन पर्यन्त सक्रीय रहता है।

जाइलम की घटक कोशिकाएँ (elements of xylem)

मोटे तौर पर जाइलम ऊत्तक में चार निम्नलिखित प्रकार की कोशिकाएं पायी जाती है –

  1. वाहिनिकाएँ
  2. वाहिकाएँ
  3. जाइलम मृदूतक
  4. जाइलम रेशे
  5. वाहिनिकाएँ (tracheids): प्राथमिक जाइलम में इनकी उत्पत्ति प्राकएधा से होती है जबकि द्वितीयक जाइलम में यह संवहन केबियम से बनती है। प्राथमिक और द्वितीयक दोनों प्रकार के जाइलम में वाहिनिकाओं की संरचना और इनकी कार्य प्रणाली एक जैसी होती है।

संरचना : यह लम्बी , सुदीर्घित , संकरी और दोनों तरफ से नुकीली कोशिकाएं होती है और यह पूर्णतया मृत होती है , क्योंकि इनका जीवद्रव्य समाप्त हो जाता है। इन कोशिकाओं की कोशिका गुहा अपेक्षाकृत चौड़ी होती है और इनकी कोशिका भित्तियों पर लिग्निन का स्थुलन पाया जाता है। अर्थात लिग्निन के स्थूलन के कारण इनकी कोशिका भित्तियों पर अनेक प्रकार की शिल्पाकृतियां बन जाती है। अत: यहाँ लिग्निन का स्थूलन सर्पिलाकार , वलयाकार , जालिकावत और गर्तीय होता है। प्राकएधा द्वारा सर्वप्रथम निर्मित वहिनिकाओं पर वलयाकार या सर्पिल निक्षेपण पाए जाते है जबकि बाद में बनने वाली वहिनिकाओं पर गर्तमय , सीढ़ीनुमा अथवा जालिका रुपी निक्षेपण पाया जाता है। गर्तमय वाहिनिकाओं में गर्त दो प्रकार के होते है।

(i) सरल

(ii) परिवेशित

सरल गर्त में केवल प्राथमिक भित्ति होती है , इनमें द्वितीयक निक्षेपण नहीं होता। जबकि परिवेशित गर्त में द्वितीयक भित्ति का गर्त के ऊपर आंशिक रूप से विस्तार होता है , जिसके फलस्वरूप गर्त के चारों तरफ एक बॉर्डर बन जाता है।

वितरण : यह संवहनी पौधों टेरिडोफाइट्स और जिम्नोस्पमर्स के जाइलम उत्तक में प्रमुख रूप से पायी जाती है और जल और खनिज पदार्थो के ऊपरी गमन का कार्य केवल वाहिनिकाओं के द्वारा ही संपन्न होता है लेकिन आवृतबीजियों में वाहिनिकाओं के साथ वाहिकाएँ भी पायी जाती है।

कार्य : इनका कार्य जल और खनिज पदार्थो का संवहन , विलयन का संचालन और पौधों को यांत्रिक क्षमता प्रदान करना है।

  1. वाहिकाएँ (vessels): यह लम्बी बेलनाकार और नलिका के समान संरचनाएं होती है .इनकी उपस्थिति आवृतबीजी पौधों के जाइलम का एक प्रमुख लक्षण है। एक लम्बी नलिका के समान वाहिका वस्तुतः अनेक वाहिकीय सदस्यों से जुड़कर बनती है। वाहिकीय सदस्य एक के ऊपर एक पंक्तिबद्ध रूप से अथवा रैखिक क्रम में व्यवस्थित होती है और इनकी अनुप्रस्थ विभाजन भित्तियों के गल जाने से बेलनाकार संरचना वाहिका बनती है।

संरचना : वाहिनिकाओं के समान ही परिपक्व वाहिकाएँ मृत होती है और इनकी भित्तियों पर लिग्निन का स्थूलन पाया जाता है। लिग्निन युक्त कोशिका भित्तियों की भीतरी सतह पर द्वितीयक स्थूलन की विभिन्न आकृतियाँ जैसे – वलयाकार , सर्पिलाकार , सोपानवत , जालिकारुपी और गर्तीय स्थूलन पाए जाते है। सामान्यतया प्रत्येक वाहिका की लम्बाई कुछ सेंटीमीटर तक की हो सकती है लेकिन विभिन्न प्रकार के आरोही पौधों में इनकी लम्बाई कुछ मीटर तक भी पायी जाती है अर्थात आरोही पौधों में यह बहुत अधिक लम्बी होती है।

वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार , विकास क्रम में वाहिकाओं का परिवर्धन वाहिनिकाओं से हुआ होगा। विकास की प्रक्रिया में वाहिनिकाओं की लम्बाई तो घटती गयी लेकिन इनका व्यास चौड़ा होता गया। अत: विकासीय दृष्टिकोण से लम्बी और संकरी वाहिका पुरातन या आदिम होती है जबकि छोटी लेकिन चौड़ी वाहिका प्रगत अथवा आधुनिक मानी जाती है।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वाहिनिकाओं या वाहिकाओं में पहचान इनकी लम्बाई , इनके व्यास और अनुप्रस्थ भित्ति में छिद्रों की उपस्थिति के आधार पर होती है। आधारीय भाग पर बड़े छिद्रों के बन जाने से जल और घुलनशील खनिज पदार्थो का संवहन अपेक्षाकृत सुचारू रूप से होता है। वाहिकाओं के मध्य गली हुई अनुप्रस्थ भित्ति जिसमें एक अथवा अधिक छिद्र होते है , उसको छिद्रित पट्टिका कहते है। यदि अनुप्रस्थ भित्ति में इसके व्यास के लगभग बराबर एक ही बड़ा छेद हो तो इसे सरल छिद्रण पट्टिका कहते है। परन्तु यदि अनुप्रस्थ भित्ति में एक से अधिक छिद्र हो तो इसे बहुलित छिद्रण पट्टिका कहते है।

विकास की दृष्टि से सरल छिद्रण पट्टिका युक्त वाहिकाएं बहुलित छिद्रण पट्टिका युक्त वाहिकाओं से अधिक प्रगत होती है। सरल छिद्रण पट्टिका का विकास संभवतः बहुछिद्रण पट्टिका से द्वितीयक निक्षेपण के लुप्त होने से हुआ है। वाहिनिकाओं के समान ही इनका निर्माण एधा (cambium) से होता है।

वितरण : संवहनी पौधों में यह केवल आवृतबीजियो में पायी जाती है .लेकिन कुछ पुरातन आवृतबिजियों जैसे – ड्रीमिस , टेट्रासेंट्रोन और ट्रोकोडेंड्रॉन में वाहिकाएँ नहीं पायी जाती। इसके अतिरिक्त टेरिडोफाइट्स और जिम्नोस्पर्म्स में भी कुछ अपवादों को छोड़कर वाहिकाएँ प्राय: अनुपस्थिति होती है।

कार्य : जल और खनिज पदार्थो का ऊपर की ओर संचरण और पौधे को यांत्रिक दृढ़ता प्रदान करना , उपर्युक्त दोनों कार्यों में वाहिकाएँ तुलनात्मक रूप से अधिक कार्यकुशल होती है।

वाहिकाओं और वाहिनिकाओं में अंतर (difference between tracheids and vessels)

 वाहिनिकाएँ  वाहिकाएँ
 1. लम्बी , संकड़ी और दोनों सिरों पर नुकीली होती है।  यह अपेक्षाकृत छोटी , अधिक चौड़ी और दोनों सिरों पर छिद्र वाली होती है।
 2. वाहिनिकाएं नलिका के समान जुडी हुई नहीं होती है।  अनेक वाहिकाएं अनुप्रस्थ छिद्रों के द्वारा जुड़कर एक लम्बी बेलनाकार पाइप के समान संरचना बनाती है।
 3. इसमें केवल एक कोशिका निरुपित होती है।  जबकि लम्बे , बेलनाकार पाइप में अनेक वाहिकाओं की लम्बी श्रृंखला प्रदर्शित होती है।
 4. इनकी अनुप्रस्थ भित्ति पूर्ण होती है , छिद्र अनुपस्थित होते है।  वाहिकाओं की अनुप्रस्थ झिल्ली छिद्रित होती है।
 5. यह एक दुसरे के पाशर्व झिल्लियो पर उपस्थित गर्तों के द्वारा सम्बन्ध स्थापित करती है।  यह अनुप्रस्थ छिद्रों के द्वारा एक दुसरे से जुडती है।

 

  1. जाइलम मृदूतक (xylem parenchyma): जाइलम ऊत्तक में यह काष्ठ मृदूतक कोशिकाएँ अपेक्षाकृत अधिक अनुपात में पायी जाती है। यह प्राय: जीवित कोशिकाएं होती है और इनका प्रमुख कार्य खाद्य पदार्थों का संचय करने का होता है।

मृदुतकी कोशिकाएं प्राथमिक और द्वितीयक दोनों प्रकार के जाइलम में पायी जाती है। प्राथमिक जाइलम का अधिकांश भाग मृदूतकीय कोशिकाओं से बना होता है। द्वितीयक जाइलम में उपस्थित मृदूतकीय कोशिकाओं को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है –

(i) अक्षीय मृदूतक : ये कोशिकाएँ जाइलम के अन्य तत्वों के साथ कैम्बियम की तर्कुरुपी प्रारम्भिक से विकसित होती है। ये उर्ध्वाधर अक्ष में लम्बी होती है और उसी क्रम में व्यवस्थित रहती है।

(ii) रश्मि मृदूतक : ये अरीय अक्ष में लम्बी होती है और अरीय अनुप्रस्थ क्रम में व्यवस्थित होती है। ये कैम्बियम की रश्मि प्रारम्भिक से विकसित होती है और अरीय संवहन में सहायक होती है।

जाइलम में केवल काष्ठ मृदूतक कोशिकाएँ ही जीवित होती है। शेष तीनों प्रकार की कोशिकाएं (वाहिनिकाएं , वाहिकाएं और लाइजम रेशे) मृत होती है। जाइलम मृदूतक कोशिकाओं में सुगन्धित तेल और अन्य प्रकार के पदार्थ भी संचित होते है।

4. जाइलम रेशे (xylem fibres)

जाइलम में पायी जाने वाली रेशे के समान दृढोतक कोशिकाओं को जाइलम अथवा काष्ठ रेशे कहते है। यह दृढोतक कोशिकाएं अथवा रेशे लम्बी , पतली और निर्जीव संरचनाओं के रूप में पायी जाती है। इनके अंतिम सिरे नुकीले होते है। इनकी कोशिका भित्ति अत्यंत मोटी लिग्निन युक्त होती है और इनमें कोशिका गुहा बहुत संकरी अथवा लगभग समाप्त प्राय: होती है। कोशिका भित्ति में अनेक छोटे और सरल गर्त भी पाए जाते है। वनस्पतिशास्त्रियो के अनुसार जाइलम रेशों की उत्पत्ति वाहिनिकाओं से भी हो सकती है। ऐसे तंतुओं को वाहिनिका तन्तु कहते है। काष्ठ तन्तुओं का प्रमुख कार्य पौधे को यांत्रिक दृढ़ता और बल प्रदान करने का होता है।