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समुद्री अर्चिन क्या है , वर्गीकरण , संघ , वर्ग , गण , वंश , जाति sea urchin in hindi इकाइनस (Echinus) किसे कहते हैं

पढ़े समुद्री अर्चिन क्या है , वर्गीकरण , संघ , वर्ग , गण , वंश , जाति sea urchin in hindi इकाइनस (Echinus) किसे कहते हैं ?

 इकाइनस या समुद्री अर्चिन (Echinus or Sea Urchin)

वर्गीकरण (Classification)

संघ (Phylum) – इकाइनोडर्मेटा (Echinodermata)

कंटकीयत्वचा त्रिजन स्तरीय, देहगुहीय, पंच अरीय सममिति, शारीरिक गठन अंग तन्त्र स्तर का, शरीर अखण्डित तारा कार या गोलाकार या बिम्बाकार, सिर का अभाव, पाँच वीथि खांचें उपस्थित, शलों एवं डर्मिय केल्केरियाई बाह्य कंकाल, गमन नाल पादों द्वारा।

वर्ग (Class) : इकाइनोइडिया (Echinoidea)

शरीर बिम्बाकार या अण्डाकार, भुजा विहीन, चर्षणक उपकरण अरस्तु की लालटेन में दांत उपस्थित, कंकाल में गतिशील शूल एवं तीन जबड़े वाले वृन्त पाद।

गण (Order) : डाइडीमैटॉइडा (Diadematoida)

शरीर ग्लोबाकार, कवच संयुक्त वीथि प्लेटों सहित अपमुखी व केन्द्रीय गुदा।

वंश (Genus) : इकाइनस (Echinus)

जाति (Species) : इस्कुलेन्टस (esculantus)

आवास एवं स्वभाव (Habit and Habitat)

इसे सामान्य रूप से सी अर्चिन (Sea urchin) कहते हैं। यह समुद्री जल में पाया जाने वाला जन्तु है। यह एक नितलस्थ (banthnic) जन्तु होता है जो समुद्री तल में पाया जाता है। यह अर्न्तज्वारीय प्रदेश (inter tidal zone) से लगाकर 5000 मीटर की गहराई तक पाया जाता है। इकाइनस का वितरण विस्तरित होता है। यह एटलांटिक, पेसिफिक, भूमध्य सागर आदि में पाया जाता है। यह अधिकांशतः तटीय जल में पाया जाता है। यह चट्टानी या प्रवाल भित्तियों से बने कठोर तल को अधिक पसन्द करता है वैसे यह रेतीले तल पर भी पाया जाता है। यह सामान्यतया समूह में रहता है। यह बहुत धीमी गति से पाद या कटिकाओं या दोनों की सहायता से गमन करता है। यह समुद्री घास, छोटे व सुस्त प्रकृति के जीवों को भोजन के रूप में ग्रहण करता है। यही नहीं यह स्थानबद्ध जन्तुओं जैसे बार्नेकल्स, हाइड्रोइड जन्तु, स्पंज, पॉलीकीट कृमियों को भी भोजन के रूप में ग्रहण करता है। यह समुद्रतल पर पाये जाने वाले मृत कार्बनिक पदार्थों को भी भोजन के रूप में स्वीकार करता है। मछलियाँ, समुद्रीतारे, केकड़ें, स्तनधारी जन्तु आदि इसके प्रमुख शत्रु होते हैं।

बाह्य अकारिकी (External morphology) :

इसका शरीर कठोर, काँटेदार, ग्लोबाकार होता है। इसके शरीर पर लम्बे गतिशील शूल पाये जाते हैं। इसकी ध्रुवीय सीमा हल्की सी पंचकोणीय होती है। शरीर दोनों ध्रुवों की तरफ हल्का सा चपटा होता है। इसकी मुखीय व अपमुखीय सतह स्पष्ट होती है। पूर्ण विकसित जन्तु का आकार एक बड़े सन्तरें के समान होता है।

मुखीय सतह (Oral surface) : शरीर की अधिक चपटी ध्रुवीय सतह मुखीय सतह कहलाती है। इस सतह के मध्य में एक गोलाकार छिद्र पाया जाता है जिसे मुख कहते हैं। मुख चारों तरफ से एक पतली कोमल, लचीली, वृत्ताकार झिल्ली द्वारा घिरा रहता है, जिसे परिमुख झिल्ली (peristome) कहते हैं। मुख में से पांच कठोर, सफेद, केल्शियम युक्त दांत बाहर निकले रहते हैं।

अपमुखीय सतह (Aboral surface) : मुखीय सतह की विपरीत ध्रुव की ओर की सतह को अपमुखीय सतह कहते हैं । अपमुखीय सतह के केन्द्र में गुदा स्थित होती है। गुदा के निकट ही प्ररन्ध्रक (medriporite) पाया जाता है। गुदीय छिद्र चारों ओर से एक चिम्मड (leathery) क्षेत्र से घिरा रहता है जिसे परिगुदीय क्षेत्र (periproct) कहते हैं।

कंटिकाएँ (Spines) : इकानस का यह प्रमुख लक्षण होता है कि इसका सम्पूर्ण शरीर केवल परिमुखीय व परिगुदीय क्षेत्र को छोड़कर, घने रूप से व्यवस्थित कटिकाओं से घिरा रहता है। ये कटिकाएँ ठोस, तीक्ष्ण, बेलनाकार लम्बवत् खांच युक्त केल्शियमी उपांग होती है। बड़ी कटिकाओं के आधार के चारों तरफ छोटी कंटिकाओं के समूह पाये जाते हैं। प्रत्येक कटिका गतिशील होती है तथा शरीर से कन्दुक कोटर (ball and socket ) सन्धि द्वारा जुड़ी रहती है। कटिका का प्यालेनुमा आधार कवच के गांठ नुमा प्रवर्ध पर फिट रहता है। सी अर्चिन की कटिकाएँ अपने स्वयं की पेशियों द्वारा गति करती है।

वृन्त पाद (Pedicellariae) : वृन्तपाद छोटी-छोटी संरचनाओं के रूप में कटिकाओं के आधार तथा पेरिस्टोम पर बहुतायत में पाये जाते हैं। प्रत्येक वृन्तपाद का सिर तीन गतिशील जबड़े या ब्लेड का बना होता है जो एक वृन्त (stalk) पर स्थित होता है। यह वृन्त (stalk) कन्दुक एव कोटर (ball and socket) सन्धि द्वारा शरीर से जुड़ा रहता है। समुदी अर्चिनों में निम्न प्रकार के वृन्त पाद पाये जाते हैं

(a) जिमीफोर्म या ग्लोबीफेरस (Gemmiform or globiferous) वृन्तपाद : इनमें एक कठोर वृन्त तथा गोलाकार सिर पाया जाता है। इन वृन्त पादों के प्रत्येक जबड़े में विषग्रन्थि पायी जाती है। यह इन वृत्तपादों का प्रयोग बड़े शत्रुओं के विरूद्ध अपनी सुरक्षा के हथियार के रूप में करता है।

(b) ट्राइडेन्टेट या ट्राइडेक्टाइल (Tridentate or tridactyle) वृन्तपाद : ये वृन्तपाद सबसे बड़े व सबसे अधिक समान्य होते हैं। इनमें एक लचीला वृन्त तथा लम्बे, दांतेदार व किनारे की और पतले तीन जबड़े पाये जाते हैं। इन वृन्त पादों की सहायता से यह छोटे-छोटे शत्रुओं या जन्तुओं को भींच कर या दबाकर मार देते हैं।

(c) ऑफियोसिफेलस प्रकार के वृन्तपाद (Ophiocephalus type) : इस प्रकार के वृन्तपाद छोटे होते हैं। इनमें लचीला वृन्त तथा छोटा किन्तु चौड़ा सिर पाया जाता है। सिर पर भोंथरे सिरे वाले दाँत युक्त जबड़े पाये जाते हैं। ये मुख्य रूप से पेरिस्टोम पर पाये जाते हैं। ये वृन्त पाद छोटे भोजन योग्य जन्तुओं को कसकर पकड़ लेते हैं।

(d) ट्राइफोलिएट (Trifolliate) वृन्त पाद : ये वृन्तपाद सबसे छोटे होते हैं। इनमें लचीला वृन्त तथा छोटे व चौड़े जबड़े पाये जाते हैं। वृन्त पाद शरीर की सतह पर जमें मलबे को हटा कर शरीर को साफ सुथरा बनाये रखते हैं।

स्फेइरिडिया (Sphaeridia) : ये छोटी-छोटी गोलाकार संरचनाएँ होती है जो कटिकाओं के मध्य छितरायी रहती है इनमें गुच्छक कोशिकाएँ पायी जाती है। इनकी खोज 1874 में लोवेन (Loven) ने की थी। ये संभवत सन्तुलन व रसायन ग्राही संवेदाग होते हैं।

नालपाद (Tube feet) : सी अर्चिन की सम्पूर्ण सतह पर कटिकाओं के बीच अनेक नाल पाद उभरे रहते हैं। ये नाल पाद जन्तु के एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव तक मध्यान्तर रेखा पर पाच दोहरी पंक्तियों में समान दूरी पर स्थित होते हैं। वह क्षेत्र जिसमें दोहरी पंक्तियों में नाल पाद पाये जाते हैं उसे वीथि क्षेत्र (ambulacral area) कहते है। ये वीथि क्षेत्र पेरिस्टोम से पेरिप्रोक्ट तक फैले रहते हैं। वीथि क्षेत्र एक-दूसरे से अन्तर वीथि क्षेत्रों से पृथक रहते हैं इन अन्तर वीथि क्षेत्रों में नालपाद अनुपस्थित होते हैं। सी-अर्चिन में पाये जाने वाले वीथि क्षेत्र तारामछली में पाये जाने वाले पांच वीथि खाँचों के समान होते हैं।

नालपाद लम्बे, बेलनाकार होते हैं तथा प्रसरण की अपूर्व क्षमता पायी जाती है। नालपाद के अन्तस्थ सिरे पर चूषक समान संरचना पायी जाती है जो कई केल्केरियाइ संरचनाओं से, जो वृताकार रूप में विन्यासित होती है, आलम्बित रहती है। नाल पाद मुख्य रूप से गमनांग होते हैं परन्तु ये श्वसन में भी सहायक होते हैं। वीथि खांचों के मुखीय सिरों की तरफ, पेरिस्टोम पर एक वृत में उपस्थित पांच जोड़ी छोटे व मजबूत मुखीय पाद (oralpodia) या मुखीय स्पर्शक (oral tentacles) पाये जाते हैं। ये मुखीय पाद सम्भवतः रसायनग्राही (chemoreceptor) अंगों की तरह कार्य करते हैं।

क्लोम (Gills) : पेरिस्टोम के बाहरी किनारे पर दस छोटे घने एवं शाखित क्लोम (cile) या त्वचीय क्लेम (dermal branchiae) पाये जाते हैं। एक जोड़ी क्लोम प्रत्येक अन्तर वीथि क्षेत्र के सम्मुख स्थित होते हैं। ये सी अर्चिन के श्वसनांग होते हैं।

कवच (Shell) : सी अर्चिन के शरीर से कटिकाएँ हटा देने के पश्चात् शरीर पर उपस्थित दिखाई देता है। सी अर्चिन का सम्पूर्ण शरीर एक कठोर, मजबूत एवं सतत अन्त:कंकाल से रहता है जिसे कवच (shell) या टेस्ट (test) कहते हैं। यह एक कोमल पक्ष्माभी उपकला द्वारा रहता है  सी अर्चिन का कवच पंक्तिबद्ध अनेक छोटी केल्शियमी त्वचीय प्लेटों का बना होता लवचीय प्लेटें आपस में किनारे से किनारे की ओर अगतिशील रूप से फिट रहती है। ये प्लेटें तीन प्रकार की हो सकती है- (i) कोरोनल (Coronal) (ii) पेरिस्टोमल (Peristomal) (iii) एपिकल (Apical)।

  1. कोरोनल (Coronal) : ये कवच का अधिकांश भाग बनाती है एवं कोरोना (corona) कहलाती है। कोरोना बहुकोणिय प्लेटों (polygonal plates) की 20 लम्बवत् पक्तियों का बना होता है जो दो पंक्तियों के दस क्षेत्रों में विन्यासित रहती है। ये लम्बवत पक्तियाँ मखीय सतह के पेरिस्टोम से लगाकर अपमुखीय सतह पर पेरिप्रोक्ट तक फैली रहती है। दस क्षेत्रों में से पांच वीथि क्षेत्रों में तथा शेष पांच क्षेत्र एकान्तरित अन्तर वीथि क्षेत्रों में पाये जाते हैं। वीथि क्षेत्र में पायी जाने वाली प्लेटस बाहरी किनारे की ओर छिद्रयुक्त होती है। इन छिद्रों को वीथि छिद्र कहते हैं जो युग्म में विन्यासित होते हैं। ये छिद्र नाल पादों के बाहर निकलने के लिए होते हैं। इन छिद्रों का प्रत्येक युग्म एक नाल पाद के अनुरूप होता है क्योंकि प्रत्येक नाल पाद का वन्त द्विशाखित होता है अतः बाहर निकलने के लिए दो छिद्रों की आवश्यकता होती है। प्रत्येक प्लेट पर तीन जोड़ी वीथि छिद्र पाये जाते हैं। अन्तर वीथि क्षेत्रों में उपस्थित प्लेटों में छिद्रों का अभाव होता है। कोरोनल प्लेट्स गोलाकार गाठों (tubercles) से सुसज्जित होती है जो कटिकाओं के जुड़ने का स्थान उपलब्ध कराती है।

(ii) पेरिस्टोमल (Peristomal) : पेरिस्टोम क्षेत्र में दस छोटी-छोटी केल्शियमी अस्थिकाएँ धंसी रहती है जिन्हें मुखीय प्लेट्स (buccal plates) कहते हैं। प्रत्येक वीथि क्षेत्र में एक जोड़ी अस्थिकाएँ पायी जाती है। प्रत्येक छिद्र युक्त होती है जिसमें से मुखीय स्पर्शक बाहर निकलता है।

  • एपिकल (Apical) : अपमुखीय सतह पर उपस्थित पेरिप्रोक्ट कई छोटी, अनियमित आकार का प्लेटा से ढका रहता है जिन पर कुछ वृन्तपाद पाये जाते हैं। दस एपिकल प्लेट्स की एक कठोर वलय पेरिप्रोक्ट को घेरे रहती है जो मिल कर प्लेट्स के एपिकल तन्त्र का निर्माण करती है। दस एपिकल प्लेटों में से पांच छोटी व पांच बड़ी होती है। पांच छोटी प्लेटे वीथि क्षेत्रों के अन्तस्थ सिरे पर स्थित होती है तथा इन्हें ऑक्युलर प्लेट्स (ocular plates) कहते हैं। क्योंकि ये प्लेटें छिद्रित होती है जिनमें से एक मध्यवर्ती, अन्तस्थ स्पर्शक (terminal tentacle) बाहर निकला रहता है। किसी समय में इन्हें वर्णक की उपस्थिति के कारण अल्पविकसित नेत्र माना जाता था। ऑक्युलर प्लेट्स की बीच भीतर की ओर पांच बड़ी पंचकोणीय प्लेटें पायी जाती है, जिन्हें जननिक प्लेट्स (genital plates) कहते हैं। ये प्लेटें अन्तर वीथि क्षेत्र के सम्मुख उपस्थित होती है। प्रत्येक जननिक प्लेट के बाहरी किनारे पर एक बड़ा छिद्र पाया जाता है जिसे जनन छिद्र (gonopore) कहते हैं। इन जननिक प्लेटों में से एक प्लेट बड़ी फूली हुई स्पंजी होती है जो मेड्रिपोराइट (medriporite) के रूप में रूपान्तरित होती है। इस मेड्रीपोराइट पर जल संवहनी तन्त्र के अनेक छिद्र पाये जाते हैं। जो बाहर की ओर खुलते हैं। मेडिपोराइट में निकटवर्ती दो वीथि क्षेत्र वाइवियम या द्विभुज (bivilum) बनाते हैं तथा शेष तीन वीथि क्षेत्र ट्राइवियम या त्रिभुज बनाते हैं।

आन्तरिक शारीरिक संरचना (Internal Anatomy)

अरिस्टोटल का लालटेन (Arstotle’s Lantern) : यह एक विशिष्ट, अनूठा, जमिन चवर्णक उपकरण (masticatory apparatus) होता है जो पाचन तन्त्र से सम्बन्धित होता खोजकर्ता के नाम के साथ-साथ इसकी आकृति प्राचीन यूनानी जहाज की लालटने के समान होने या इससे मिलती जुलती होने के कारण चर्वणक उपकरण का नाम अरिस्टोटल की लालटेन रखा गया है यह चवर्णक उपकरण मुख को चारों और से घेरे रहता है।

कवच के भीतर, पेरिस्टोम के समीप भीतर की और पांच उभार पाये जाते हैं जिन्हें ऑरिकल्स (auricles) कहते हैं। प्रत्येक ऑरिकल वीथि क्षेत्रों के सम्मुख उपस्थित होता है। अरिस्टोटल की लालटेन ऑरिकल्स के वलय की भीतर स्थित होता है। यह उपकरण एक पंचभागी उल्टे पिरामिड जैसी सरंचना का बना होता है। यह उपकरण मुख से उभरा हुआ रहता है। इस उभार में पांच दांत दिखाई पड़ते हैं। यह उपकरण पांच बड़ी केलकेरियाई प्लेटों का बना होता है। जिन्हें पिरेमिड्स (pyramids) या कूपिकाएँ (alvoli) कहते हैं। ये अनुप्रस्थ पेशी रेशों द्वारा अरीय रूप से व्यस्थित रहती है। जब प्रत्येक कूपिका को पृथक करते हैं तो यह तिकोनी या ‘V’ के आकृति की दिखाई देती है। प्रत्येक कूपिका दो अर्धन्शों की बनी होती है जो एक लम्बवत् सीवन (suture) से आपस में जुड़े रहते हैं। प्रत्येक कूपिका दांत के लिए ढाँचे का कार्य करती है, जो कूपिका के दो अर्धन्शों के मध्य अधूरे रूप से समावृत व समर्दिशत रहता है। दांत एक लम्बी संकरी तीक्ष्ण मुड़ी हुई एवं छैनी के आकार की संरचना होती है। इसका मुखीय सिरा अत्यधिक कठोर होता है तथा मुख से बाहर निकला रहता है। दांत का मध्य व अप मुखीय भाग कोमल न नवसृजित होता है। दांत का स्वतन्त्र, लचीला मुड़ा हुआ अपमुखीय सिरा दन्त कोष (dental sac) में बन्द रहता है। कुछ विशेष अपान्कूचक (protractor) एवं आंकुचक (retractor) पेशियोंके द्वारा यह उपकरण मुख से बाहर एवं खींचा जा सकता है। अन्य पेशियाँ दांतों के खुलने व बन्द होने पर नियंत्रण करती है।

चर्वणक उपकरण की प्रमुख पेशियाँ निम्न प्रकार है

(i) पांच छोटी अन्तर कूपिकीय या अन्तर पिरामिडल (ienter alveolar on inter pyramidal) पेशियाँ जो कूपिकाओं को आपस में जकड़े रहती है।

(ii) पांच जोड़ी चपटी अपांकुचक (protractor) पेशियाँ जो चवर्णक उपकरण को मुख से बाहर निकालती है जिससे दांत बाहर आ जाते हैं।

  • पांच जोड़ी आकुंचक पेशियाँ (retractor muscles) जो कूपिकाओं के निचले सरे से जडी रहती है व चवर्णक उपकरण को पुनः भीतर खींचती है। . सम्पूर्ण चवर्णक उपकरण मुख कोटर में बन्द रहता है तथा एक पतली पेरिटोनियम झिल्ली द्वारा मुख्य आन्तरांग गुहा से पृथक रहता है। सी अर्चिन द्वारा इस उपकरण का प्रयोग अशन क्रिया में होता है। दांत भोजन को टुकड़ों में पीसने का कार्य करते हैं।