संस्कृत रंगमंच की विशेषता क्या है ? संस्कृत नाटक का उद्भव और विकास Pdf किसे कहते हैं परिभाषा
संस्कृत नाटक का उद्भव और विकास Pdf किसे कहते हैं परिभाषा संस्कृत रंगमंच की विशेषता क्या है ?
रंगमंच
संस्कृति को चाहे हम किसी भी रूप में परिभाषित करें, इतना तो निर्विवाद है कि यदि वह एक ओर मनुष्य के जीवन-संघर्ष से जुड़ी हुई है तो दूसरी ओर उसकी क्रीड़ा और मनोरंजन की आवश्यकता व प्रवृत्ति से। संभवतः इस संघर्ष के दौरान उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए या इसमें विजयी होकर उसकी खुशी और उल्लास व्यक्त करने के लिए या संघर्ष की तीव्रता में कमी आने से कुछ चैन मिलने पर उस अवकाश में कुछ दिल बहलाने के लिए वे भौतिक उपकरण और पदार्थ, बौद्धिक और आध्यात्मिक मूल्य रचे गए होंगे, जिनकी समग्रता को संस्कृति कहा जाता है।
इसलिए यह अचरज की बात नहीं है कि संस्कृति आज भी समुदाय के मनोरंजन की पद्धतियों व उपायों से अभिन्न रूप में जुड़ी हुई है। यह बात निरपवाद रूप से सभी कलाओं के लिए सच है, विशेष रूप से रंगकला (नाटक) के लिए इसका महत्व प्राथमिक और बुनियादी है।
हमारे देश में प्राचीन काल से ही रंगकला जीवन का अभिन्न अंग थी, ऐसा प्रमाण हमें गुफाओं की चित्रकला व आरेखों से मिलता है। यद्यपि भारतीय रंगमच की शुरुआत के बारे में सटीक व समयबद्ध प्रमाण तो नहीं हैं, किंतु इतना अवश्य निश्चित है कि किसी न किसी रूप मंे नाटक मौजूद था। मध्य प्रदेश की रायगढ़ पहाड़ी की सीतावंगा और जोगीमारा गुफाओं के बारे में कहा जाता है कि वे प्राचीन रंगशाला का कोई प्रकार प्रस्तुत करती हैं, किंतु संभवतः वे नृत्य, गान अथवा काव्यपाठ के लिए प्रयुक्त होती थी, नियमित नाट्य प्रदर्शन के लिए नहीं।
फिर भी लगभग 5000 वर्ष पूर्व बनी ऐसी रंगशालाओं से रंगकर्म की किसी भी रूप में विद्यमानता प्रमाणित तो होती ही है। सिंधु घाटी सभ्यता में भी नाट्यकर्म रहा होगा, एक मुद्रा पर ढोल बजाते एक युवक और बाघ का भेष बना, एक युवक की आकृति से ऐसा लगता है। वैदिक काल में भी हमें लोगों के नाटकों के प्रति रुझान का पता चलता है। वैदिक काल के अनुष्ठानों में भी नाटकीयता का रूप मिलता है। कालक्रम में नाटक या रंगकर्म एक स्वतंत्र विद्या के रूप में विकसित हुआ होगा।
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में नाटक से सम्बंधित कुछ दिशानिर्देश दिए गए हैं। कुछ ऐसे कार्य थे, जो मंच पर नहीं किए जागे चाहिए जैसे नहानाए शृंगार करना, सोना, चुंबन या आलिंगन करना, जलक्रीड़ा करना या अन्य कोई अशोभनीय कृत्य। मृत्यु दिखाने की भी वर्जना थी। हिंसक युद्धों से भी बचा जाता था। संभव है, गलत दिशा में बढ़ रहे रंगकर्म को सुधारने के लिए ये बंधन लगाए गए होंगे। फिर भी, लोक नाट्य परंपरा आगे बढ़ती रही। चाहे वह बुद्ध के नियमों का पाश हो या सम्राट अशोक की मनाही, नाट्यकर्म चलता रहा। इसी परंपरा से शास्त्रीय संस्कृत नाट्य परंपरा विकसित हुई।
संस्कृत रंगमंच
संस्कृत रंगमंच जिसे क्लासिकल थियेटर का नाम दिया गया, की शुरुआत या विकास कैसे हुआ, इस विषय में कुछ ठोस तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन परंपराग्त व्याख्या यही कहती है कि इंद्र देवता को प्रसन्न करने के लिए नाटक अवश्य खेले गए होंगे। कुछ विद्वानों ने इसे यूनानी प्रभाव माना है और ‘यवनिका’ से यवनों का संबंध बताते हुए उन्हीं के सम्पर्क व संसग्र से इसे विकसित हुआ माना है। यवनों को मनोरंजन के रूप में नाटक प्रिय थे और संभवतः उत्तर-पश्चिम भारत के ग्रीको-वैक्ट्रियन राजाओं ने अपने दरबार में कुछ नाटक अवश्य देखे होंगे। इन्हीं से प्रेरणा पाकर अज्ञात कवियों ने तत्कालीन रंगमंच की विधा को एक शास्त्रीय कला के रूप में विकसित किया होगा।
कुछ विद्वानों का मत है कि भारतीय रंगकर्म की शुरुआत यूनानियों से प्रेरित होकर नहीं हुई, बल्कि नाटक हमारे यहां पहले से मौजूद थे और यह संभव है कि उनकी कुछ बातें हमने अपनाई होंगी। कुशीलावा नामक अभिनेताओं के दल द्वारा रामायण जैसे महाकाव्य को गीतों के रूप में एवं महाभारत को सूत्रधारों द्वारा नाट्य रूप में प्रस्तुत किया जाता था। यही संस्कृत रंगमंच के लिए प्रेरणास्रोत बना। भास ने अपने नाटकों के विषय इन महाकाव्यों से ही चुनें। प्राकृत भाषा में लिखा गया ‘उपरूपुक’ नाटक संभवतः किसी विशेष या उत्सव के मौके पर आम लोगों के सामने खेला जाता था।
अश्वघोष द्वारा लिखी गईं लघु नाटिकाओं को सबसे पुराना माना जाता है। भास ने ही संपूर्ण नाटक लिखेए जो हमारे पास उपलब्ध हैं हालांकि विद्वान इस बारे में एकमत नहीं हैं कि भास के नाटक पुराने हैं या कालिदास के। प्राचीन नाटककारों में भास, कालिदास,शूद्रक, विशाखदत्त, भवभूति इत्यादि हैं। ऐसा माना जाता है कि भवभूति के बाद (आठवीं सदी का प्रारंभ) संस्कृत नाटकों में गुणात्मक कमी आती गई।
जितने भी संस्कृत नाटक आज हमारे पास उपलब्ध हैं, उनकी विषय-वस्तु और स्वरूप में काफी विविधता है एकांकी से लेकर दस अंक वाले लम्बे नाटक। सामान्य रूप से नाटक राजप्रसादों, धनाढ्य व्यक्तियों के घरों, मंदिर के प्रांगण इत्यादि जैसे स्थानों पर विशेष अवसर पर खेले जाते थे। भरतमुनि ने नाट्य शास्त्र में तीन किस्म की रंगशालाओं का उल्लेख किया है और उन्हें बनाने की विधि बताई है। रंगशाला के तीन भाग होते हैं सभागार यानी बैठने की जगह, मंच और नेपथ्य। मंच और नेपथ्य के बीच एक पर्दा होता है। इसी के पीछे से अभिनेता/अभिनेत्री मंच पर प्रवेश करते थे। नाटक का मंचन बिना किसी मंच सज्जा के किया जाता था और कम से कम सामान प्रयोग में लाया जाता था। अभिनय करने वाले अपनी भाषा, अपने हाव-भाव से ही वातावरण और परिस्थिति का वर्णन करते थे। वस्त्राभूषण और सजना-संवरना भूमिका को देखते हुए किया जाता था, ताकि पात्र आसानी से पहचाने जा सकें। अधिकांश नाटकों में एक नायक, एक नायिका और एक खलनायक होता था। विदूषक, जो हंसाता था, की भूमिका भी अनिवार्य मानी जाती थी।
आमतौर पर नाटक का प्रारंभ मंगल गीत से होता था। फिर पात्रों या सूत्रधार के संवाद सुनने एवं देखने को मिलते थे। सूत्रधार नाटक के बारे में बताता था। नाटकों में कई सालों की गाथा और लम्बी दूरी की घटनाएं दिखाई जाती थीं। हिंसा और मृत्यु मंच पर नहीं दिखाई जाती थीं अपवाद के रूप में भास का ‘उरूभंगम’ है, जिसमें दुर्योधन को मरते हुए दिखाया गया है। नाटक के अंत में पात्र दर्शकों के प्रति आभार प्रकट करते थे।
भारतीय नाटकों में सुखांत ही देखने को मिलता था। दुखांत नाटकों से बचा जाता था यद्यपि करुण दृश्यों का मंचन नाटकों में अक्सर होता था। स्त्री और पुरुष दोनों अभिनय करते थे।
प्राचीनकाल के नाटकार
भासः विद्वानों ने ईसा पूर्व चैथी सदी और ईसा पश्चात् दसवीं सदी के बीच भास का समय माना है। वह उत्तरी भारत में रहते थे और उन्होंने महाभारत एवं रामायण से विषय लेकर अनेक नाटकों की रचना की। ‘मध्यमव्यययोग’ नामक एकांकी में भीम अपने ही पुत्र घटोत्कच से लड़ बैठते हैं। घटोत्कच को भी भीम के बारे में ज्ञात नहीं था। भीम ने एक ऐसे ब्राह्मण परिवार को बचाना चाहा था, जिसे घटोत्कच वध हेतु अपनी माता हिडिम्बा के पास ले जागा चाहता था। जब ब्राह्मण परिवार के बदले भीम स्वयं हिडिम्बा के पास जाते हैं तो हिडिम्बा उन्हें पहचानते हुए घटोत्कच को बताती है कि ये उसके पिता हैं और फिर परिवार का मिलन होता है।
‘उरूभंगम’ में महाभारत युद्ध के दौरान भीम द्वारा दुर्योधन की जंघा तोड़ने पर हुई उसकी मृत्यु दर्शाई गई है। संस्कृत नाटकों में एकमात्र यही दुखांत नाटक माना जाता है। पांचों पांडव पुत्रों की सोते हुए अश्वत्थामा द्वारा की गई हत्या इसे और नाटकीय बनाती है।
‘प्रतिजन्य योगंधरायण’ और ‘स्वप्नवासवदत्ता’ उदयन नामक व्यक्ति की कथाओं पर आधारित हैं। हाथी का शिकार करते हुए उदयन को उज्जैनी के राजा बंदी बना लेते हैं। राजकुमारी वासवदत्ता को वीणा सिखाते हुए उदयन को उससे प्रेम हो जाता है। उदयन का मंत्री योगंधरायण उन्हें भागने में सहायता करता है। अंत में इसका सुखद परिणाम ही सामने आता है, क्योंकि उज्जैनी के राजा दोनों के विवाह पर राजी हो जाते हैं।
‘स्वप्नवासवदत्ता’ में राजनीतिक मजबूरियों के तहत् योगंधरायण यह अफवाह उड़ाता है कि अग्नि में जलकर वासवदत्ता की मृत्यु हो गई है, ताकि उदयन मगध की राजकुमारी पर्ािंवती से विवाह कर ले। विवाह के पश्चात् ऐसी परिस्थितियां पैदा होती हैं कि उदयन नींद में बोलता है और वासवदत्ता (जो उस समय पर्ािंवती की कैद में होती है और उसे, वासवदत्ता कौन है, यह ज्ञात नहीं होता) उसके प्रश्नों का उत्तर देती है। जागने पर उदयन भ्रम की स्थिति में होता है। बाद में सभी बातों का खुलासा होता है और दोनों प्रेमी मिल जाते हैं।
कालिदासः संस्कृत के सबसे प्रसिद्ध कवि और नाटककार कालिदास के बारे में भी बहुत कुछ ज्ञात नहीं है। सामान्यतः उनका समय चैथी और पांचवीं सदी के बीच रखा जाता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि वह उज्जैनी के राजा विक्रमादित्य के दरबारी कवि थे और उनके दरबार के नवरत्नों में से एक थे। जनश्रुतियों के अनुसार कालिदास गंवार और अनपढ़ थे। काली की कृपा से वह विद्वान कवि बने। उन्होंने कई काव्य लिखे। रघुवंशम्, ऋतुसंहार, कुमारसंभव, मेघदूत। तीन नाटक भी इन्होंने लिखे मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीयम और अभिज्ञान शाकुंतलम्। मालविकाग्नि मित्र प्रणय कौमुदी नाटक है, जिसमें विदर्भ की राजकुमारी मालविका और राजा अग्निमित्र का प्रेम दिखाया गया है। इसमें विदूषक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विक्रमोर्वशीयम में अप्सरा उर्वशी और राजा पुरुरवा की प्रेमकथा दिखाई गई है। अभिज्ञान शाकंुतलम् को उनकी सर्वश्रेष्ठ नाट्यकृति माना जाता है। इसमें दिखाया जाता है कि किस प्रकार राजा दुष्यंत और शकुंतला मिलते हैं, उनमें प्रेम होता है, विवाह होता है, कैसे अंगूठी खो जाती है और राजा शकुंतला को भूल जाते हैं, फिर अंगूठी मछली के पेट से एक मछुआरे को मिलती है, वह राजा को देता है और फिर उनकी याददाश्त लौट आती है तथा दुष्यंत एवं शकुंतला का मिलन होता है। प्रेम में मिलना, बिछड़ना और दुःख झेलना तथा फिर मिलना इस नाटक को अविस्मरणीय बना देता है।
शूद्रकः शूद्रक कौन थे, इसकी जागकारी उपलब्ध नहीं है, किंतु मृच्छकटिक की प्रस्तावना में ऐसे संकेत मिलते हैं कि वह एक राजा थे जिन्हें वैदिक साहित्य, गणित एवं नाट्य शास्त्र का अच्छा ज्ञान था। भास के अधूरे नाटक ‘चारूदत्त’ के चार अंकों को लेकर, उनमें मामूली परिवर्तन कर और छह अन्य अंक जोड़कर उन्होंने मृच्छकटिक (मिट्टी की छोटी गाड़ी) की रचना की। इसमें एक खूबसूरत व सुबोध गणिका वसंतसेना तथा एक गरीब ब्राह्मण चारूदत्त का प्रेम दर्शाया गया है। राजनीतिक उथल-पुथल का एक छोटा सा अंश भी इसमें जोड़ा गया है। इसके सभी पात्र उल्लेखनीय हैं बहुत कम समय के लिए भी आए पात्र को एक अलग ही चरित्र दिया गया है, जो याद रहता है।
विशाखदत्तः संभवतः छठी सदी के विशाखदत्त राजनीति से जुड़े विषयों के नाटककार थे। उनके एकमात्र बचे हुए नाटक ‘मुद्राराक्षस’ में नंद शासकों के आखिरी शासक के मंत्री राक्षस के षड्यंत्रों को नाकाम करते हुए चाणक्य की योजनाएं दिखाई गई हैं, जिनकी सहायता से चंद्रगुप्त गद्दी पर बैठता है। कथानक को बहुत ही खूबसूरती से तैयार किया गया है। इसमें एक दृश्य ऐसा आता है, जब आखिरी क्षण में एक मुख्य पात्र को मरने से बचा लिया जाता है। चंद्रगुप्त द्वितीय के सत्तारूढ़ होने के बारे में लिखे गये ‘देवी चंद्रगुप्त’ नाटक के कुछ अंश ही उपलब्ध हैं।
हर्षः कन्नौज के शासक हर्षवर्धन ने तीन नाटक लिखे हैं। ‘रत्नावली’ में राजा उदयन और उसके अंतःपुर में भेष बदलकर रहने वाली राजकुमारी रत्नावली का प्रेम दिखाया गया है। ‘प्रियदर्शिका’ में भी राजा उदयन का ही प्रेम प्रसंग है। ‘नागनंद’ में राजकुमार जिमुतावाहन को गरुड़ के समक्ष सर्पों की बलि रोकने के लिए स्वयं की बलि देते हुए दर्शाया गया है।
महेंद्रविक्रमनः हर्षवर्धन के समकालीन पल्लव राजा महेंद्रवर्मन ने ‘मत्तविलास’ नामक प्रहसन लिखा था। इसमें तत्कालीन समाज के जीवन और विभिन्न धर्मों में आए गिराव पर व्यंग्य किया गया है।
भवभूतिः कालिदास के बाद विद्वता में शीर्ष स्थान रखने वाले भवभूति कान्यकुब्ज में रहते थे और इन्हीं के बाद कमोबेश संस्कृत नाटकों के नाटककार नहीं हुए। इनके ‘महावीरचरित’ और ‘उत्तररामचरित’ राम कथा पर आधारित हैं। पहले में राम के विवाह से लेकर राज्याभिषेक तक की कहानी है और दूसरे में सीता वनगमन से लेकर वाल्मिकी की कुटिया में सीता से राम के पुनर्मिलन की कथा है। इसमें बड़ा ही कारुणिक वर्णन है। ‘मालती-माधव’ दो ऐसे युवा प्रेमियों की गाथा है, जो एक बौद्ध भिक्षुणी कमनदकी की चतुराई से ही मिल पाते हैं। तंत्र-मंत्र की इसमें प्रधानता है। भवभूति ने अपने नाटकों में अन्य नाटककारों की भांति विदूषक की भूमिका नहीं रखी है।
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