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शीत आकार जलवायु प्रदेश क्या है ? वनाच्छादित मध्य अक्षांशीय मण्डल ? शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क मंडल

वनाच्छादित मध्य अक्षांशीय मण्डल ? शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क मंडल शीत आकार जलवायु प्रदेश क्या है ?

आकारजन्य प्रदेश
(IMORPHOGENETIC REGIONS)
भूआकृतिक विज्ञान की मूलभूत संकल्पना पर आकारजन्य प्रदेश या आकार जलवायु प्रदेश की संकल्पना अधारित है। इस संकल्पना के अनुसार “प्रत्येक भूआकृतिक‘‘ प्रक्रम अपना अलग स्थलरूप निर्मित करता है और प्रत्येक प्रक्रम विशेष जलवायु का प्रतिफल है।’’ अर्थात विशिष्ट प्रकार की जलवायु में विशिष्ट प्रकार के प्रक्रम सक्रिय होते है। 1925 में सायर ने बताया कि ‘‘विशिष्ट प्रकार की जलवायु में विशिष्ट प्रकार के स्थलरूप् निर्मित होते है। ‘‘वास्तव में सायर की भी यह राय थी कि किसी प्रक्रम तथा स्थलरूप् का सम्बन्ध न जोडकर जलवायु प्रदेश तथा स्थलरूप का सम्बन्ध जोड़ा अधिक श्रेयकर होगा। इसी प्रकार 1935 में मेयर तथा या फ्रीस ने भी अपने-अपने मत प्रकट किए।
यूरोप में बुदेल ने (1944-48) फार्मक्रीजन अथवा आकारजनक प्रदेश की संकल्पना का प्रतिपादन किया। पेंक ने स्थलरूपों को- 1. आई, 2. अर्द्ध आर्द्र, 3. शुष्क, 4. अर्द्ध-शुष्क तथा 5. हिमानी पाँच प्रकारों में विभक्त किया। 1950 में पेल्टियर ने आकारजनकर प्रदेश की संकल्पना को व्यवस्थित रूप दिया तथा इनका वर्गीकरण आकारमितिक आधारों पर करने का प्रयास किया। इस हेतु इन्होंने दो जलवायु प्राचल का चयन किया- औसत वार्षिक तापक्रम तथा औसत वार्षिक जलवर्षा। इस तरह पेल्टियर ने आकार जनक प्रदेश का निर्धारण महत्वपूर्ण प्रक्रम के आधार पर किया न कि स्थलरूपों की ज्यामिति के आधार पर। इन्होंने ग्लोब पर नौ आकारजनक प्रदेशों (1. हिमानी, 2. परिहिमानी, 3. बोरियल, 4. सागरीय, 5. सेल्वा, 6. मॉडरेट, 7. सवाना, 8. अर्द्ध शुष्क तथा 9. शुष्क) निर्धारण किया है। पेल्टियर के आकारजनक प्रदेश को निम्न तालिका द्वारा समझ सकते है।
ट्रिकार्ट तथा कैल्यू के आकार जलवायु प्रदेश
अनेक विद्ववानों की विविध परिभाषाओं के बाद ट्रिकार्ट तथा कैल्यू ने विश्व को निम्नलिखित आकार जलवायु प्रदेशों में विभाजित किया है।
(अ) प्रमुख जलवायु तथा प्राणी भौगोलिक मण्डल के आधार पर प्रमुख प्रदेश
(ब) प्रत्येक प्रमुख आकार जलवायु प्रदेश की जलवायु एवं प्राणी भौगोलिक एवं पुराजलवायु प्रदेश इन मुख्य दो संकल्पनाओं को आधार मानकर उन्होंने पुनः चार प्रकार स्पष्ट किये हैंः
(1) शीत आकार जलवायु प्रदेश :– शीत आकार जलवायु प्रदेश को दो भागों में विभक्त किया जाता है।
(प) हिमानी मण्डल- जहाँ पर वाह ठोस रूप में हिमनद के रूप में होता है।
(पप) परिहिमानी मण्डल -जहाँ पर ग्रीष्म काल में तरल वाहीजल अवश्य हो जाता है।
(2) वनाच्छादित मध्य अक्षांशीय मण्डल :  शरदकालीन तुषार की सक्रियता में अन्तर तथा पुराजलवायु प्रभावों के आधार इसे निम्न तीन उप विभागों में बांटा जाता है।
(प) सागरीय मण्डल- शरद काल सामान्य होता है, तुषार का कार्य महत्वपूर्ण नहीं होता, प्लीस्टोसीन हिमानी एवं परिहिमानी अवशिष्ट आकारों का प्रभाव अधिक होता है।
(पप) महाद्वीपीय मण्डल- शरदकाल अत्यधिक सर्द, प्लीस्टोसीन एवं वर्तमान तुषार का अत्यधिक प्रभाव।
(पपप) रूस सागरीय मण्डल- ग्रीष्मकाल शुष्क। क्वाटरनरी युगीन परिहिमानी अवशिष्ट आकारों का प्रभाव नगण्य।
(3) शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क मण्डलः इसके अंतर्गत निम्न एवं मध्य अक्षांश पेटी जिसमें स्टेपा। न्यून वनस्पति, जेरोफाइट झाड़ियाँ, रेगिस्तान, न्यून वर्षा के प्रदेशों का समावेश होता है इसके दो उपविभाग हैं।
(प) शुष्कता के आधार पर (अ) स्टेपी प्रदेश, (ब) जेरोफाइट प्रदेश तथा (स) रेगिस्तानी प्रदेश
(पप) शरदकालीन तापमान के आधार पर (अ) मध्य अक्षांशीय प्रदेश, (ब) उपोष्ण कटिबन्धी प्रदेश तथा (स) उष्ण कटिबन्धी प्रदेश।
(4) आई उष्ण कटिबन्धी मण्डलः इसके अन्तर्गत उन प्रदेशों का समावेश है जहाँ वर्ष भर तापमान तथा इतनी वृष्टि कि सरिताओं में वर्ष भर जल प्रवाह बना रहता है। वार्षिक वर्षा की मात्रा व वन के घनत्व के आधार पर इसे निम्न दो उपविभागों में बांटा जाता है।
(प) सवाना प्रदेश- शुष्क तथा आर्द्र मौसम। मौसमी वर्षा तथा सामान्य वानस्पतिक आवरण। स्थलप्रवाह प्रचुर तथा सक्रिय रासायनिक अपक्षय (वर्षाकाल में)।
(पप) वन प्रदेश-आर- आर्द्र उष्ण कटिबन्ध। वर्षा वर्ष भर। अधिकतम वानस्पतिक आवरण। रासायनिक तथा जैविक अपक्षय अधिकतम।
अब हम यहाँ इन चारों विभागों की विस्तृत जानकारी प्राप्त करेंगे-
(1) शीत आकार जलवायु प्रदेशः– शीत आकारजलवायु प्रदेश की सीमा का निर्धारण वर्षा के आधार पर किया जाता है। वर्षा ही प्रमुख आकारजनक प्रक्रम होता है जो कि न केवल विशिष्ट प्रक्रियाओं को जन्म देता है वरन् अप्रादेशिक कारको के कार्यों को भी प्रभावित करता है। इसके अंतर्गत निम्न प्रदेश आते है।
(अ) हिमानी मण्डल- इस आकारजनक प्रदेश में वर्ष भर तापमामान इतना न्यून होता है कि मिद्रवण नहीं हो पाता है। वह ठोस रूप में होता है। इनकी सीमा से सामंजस्य रखती है।
(ब) परिहिमानी मण्डल- इस मण्डल का सीमांकन उस तापमान के आधार पर होता है जिसके कारण मौसमी हिमीकरण-हिमद्रवण तथा दैनिक हिमीकरण- हिमद्रवण होता है। वर्ष भर हिमाच्छादन नहीं रहता है। ग्रीष्मकाल में वाह जल के रूप में होता है। तुषार की कालिकता वनस्पति के अवरोध तथा कल वार्षिक वर्षा के आधार पर इसके कई उप विभाग किये गये हैं।
(प) अति परिहिमानी प्रदेश अति परिहिमानी प्रदेशों में वर्षभर हिम पसारा रहता है। अन्टार्कटिका और पियरी लैण्ड इसका प्रमुख उदाहरण है।
(पप) मध्य परिहिमानी प्रदेश- के अन्तर्गत उत्तरी अमेरिका तथा यूरेशिया के बन्जर प्रदेश को सम्मिलित करते है। यूरोप को छोड़कर परमाफास्ट सर्वत्र विद्यमान रहता है। ग्रीष्मकाल में हिमद्रवण होता है। वनावरण नगण्य होता है। प्रमुख प्रक्रम तुषार अपक्षय, मृदासर्पण तथा तुषार अपरदन होते हैं। जलवायु महाद्वीपीय होती है, शुष्कता रहती है, शरदकाल तीव्र होता है, ग्रीष्मकाल कुहरा युक्त होता है, वायु का कार्य नगण्य होता है। प्रणालीकृत धरातल, मृदासर्पण ढाल, ब्लाकफील्ड, प्रस्तर सरिता, तुंग सपाटीकृत वेदिका आदि प्रमुख प्रारूप हैं।
(पपप) टुण्ड्रा प्रदेश में वनस्पति वाह (तनदविि), गहरी सक्रिय सतह के विकास, मृदा सर्पण तथा वायु के कार्य एवं प्रभाव में अवरोध प्रस्तुत करती है।
(पअ) टैगा प्रदेश- प्लीस्टोसीन युगीन अवशिष्ट परमाफ्रास्ट से सम्बन्धित है। वसंतकाल में हिमद्रवण की तीव्रता के कारण तुषार सर्पण (gelifluction) में स्थगन हो जाता है। इस प्रदेश का विकास सतत् परमाफ्रास्ट तथा अविच्छिन परमाफ्रास्ट पर आधारित होता है।
(2) वनाच्छादित मध्य अंक्षाशीय मण्डल- इस आकारजलवायु या आकारजनक प्रदेश का विस्तार दोनों गोलाद्र्धों में मध्य अक्षांशीय प्रटेशों में पाया जाता है परन्त उत्तरी गोलार्द्ध में यह आधक विस्तृत है। यूरेशिया में इसका विस्तार एक लम्बी पटी के सहारे पाया जाता है जो अटलांटिक तट से प्रारंभ होकर बेकाल झील तक फैला है। इसके आगे यह आमूर बेसिन, कोरिया तथा जापान में भी विस्तृत है। उत्तरी अमेरिका में इसका विस्तार टेक्सास में लेब्राडोर तक पूर्वार्द्ध भाग में तथा फ्लोरिडा से यूकान घाटी तक है। दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणी अमेरिका में प्रशान्त तट के सहारे सेण्टियागो टक्षिणी चिली के दक्षिण, नैटाल तट, आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट, तस्मानिया तथा न्यूजीलैण्ड में यह प्रदेश विस्तृत है। इस प्रदेश में आकारजनक तीव्रता न्यून होती है। उच्चावच का जनन एवं विकास मन्द गति से सम्पन्न होता है। घने वनावरण के कारण पत्तियों के गिरने से तृण-बिछावन की मोटी परत बन जाती है क्योंकि हमस का खनिजीकरण कम हो जाता है। इस तृण बिछावन के कारण स्थलप्रवाह कम हो जाता है जिस कारण यान्त्रिक अपरदन न्यून हो जा मिलाकर इस प्रदेश में भौतिक और यान्त्रिक, रासायनिक और जैविक आकारजनक प्रक्रमों की सक्रिय न्यून होती है। इसे मुख्यतः तीन निम्न भागों में विभाजित किया जाता है।
(प) सागरीय मण्डल (maritime zone)- यह मण्डल आर्द्र होता है, तापान्तर तथा आर्द्रता की विभिन्नता न्यून होती है। इसका सबसे अधिक विकास पश्चिमी यूरोप में नार्वे से पेरेनीज तक हुआ है. परन्तु पोलैण्ड तक भी इसका विस्तार पाया जाता है। इसके अलावा ब्रिटिश कोलम्बिया, चिली, तस्मानिया तथा न्यूजीलैण्ड में इसका विकास हुआ है। ग्रीष्मकाल में भी वृष्टि होने से मिट्टी का शुष्कन नहीं हो पाता है। यान्त्रिक प्रक्रम सामान्य होते हैं परन्तु रासायनिक अपरदन सर्वाधिक होता है। ह्यूमस में अम्ल की मात्रा होने से ग्रेनाइट का वियोजन अधिक होता है।
(पप) महाद्वीपीय मण्डल- इसका विकास एशिया तथा उत्तरी अमेरिका के पूर्वी भाग पर हुआ वर्ष में मौसम संबंधी विभिन्नता अधिक होती है। शरदकाल तीव्र होता है। वर्षा तेज होती है। परिणामस्व यान्त्रिक प्रक्रम अधिक सक्रिय होते हैं। तुषार अधिक तीव्र होता है तथा शैलस्तर तक पहुँच जाता है। बसन्तका में हिमद्रवण जल तथा जलवृष्टि के कारण स्थल प्रवाह अधिक होने से चादरी अपरदन होता है तथा अवनालिकीकरण होता है।
(पपप) गर्म शीतोष्ण या उपोष्ण मण्डल – इसका सर्वाधिक विकास रुम सागरीय जलवायु में हुआ है। तुषार प्रायः अनुपस्थित रहता है। वर्ष में क्रम से शुष्क एवं तर मौसम के कारण जलज शैल के आयतन में क्रमशः विस्तार एवं संकुचन के कारण भूस्खलन अधिक होता है।
3. शुष्क मंडल – यह मण्डल मध्य अक्षांशीय वनाच्छादित मण्डल तथा आर्द्र उष्ण कटिबन्धीय मण्डल के मध्य पाया जाता है। वनस्पति स्टेपी से रेगिस्तानी प्रकार की होती है। वानस्पतिक आवरण न्यन होता है। शुष्कता अधिक होती है। वर्षा अत्यधिक अनियमित होती है। जब कभी भी तीव्र वर्षा होती है, वानस्पतिक आवरण के अभाव तथा पतले मृदा आवरण के कारण जल के अन्तःस्पन्दन न होने के कारण वाहीजल अधिक सक्रिय हो जाता है। वायु का कार्य अधिक सक्रिय होता है। बालुकास्तूप निर्मित होते हैं। इस विभाग को निम्न तीन भागों में बांटा जाता है।
(प) उपार्द्र स्टेपी प्रदेश – इसका विस्तार सहारा के उत्तर तथा दक्षिण, पूर्वी अफ्रीका, कालाहारी के चतुर्दिक, एशिया माइनर, मध्य एशिया, आस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका के उच्च मैदान, कनाडा के प्रेयरी प्रदेश, मेक्सिको के पठार तथा अर्जेनटाइना के पम्पाज में पाया जाता है। इसका प्रमुख उदाहरण चीन में पाया जाता है। जहाँ पर अचानक तीव्र अपरदन होने से अवनलिकाओं का निर्माण होता है। शुष्कता के कारण निक्षालन नहीं हो पाता है।
(पप) अर्द्धशुष्क प्रदेश – इसमें स्टेपी वनस्पति अविच्छिन्न रूप में पायी जाती है। जलवृष्टि सामान्य होती है। परन्तु आकस्मिक तीव्र वृष्टि के कारण स्थानीय वाही जल विकसित हो जाता है। इस प्रदेश में पेडीमेण्ट तथा इन्सेलबर्ग का सर्वाधिक विकास होता है। वर्षा इतनी नहीं हो पाती कि क्रमबद्ध अपवाहजाल का विकास हो सके। वनस्पति के अभाव में धरातल को संरक्षण नहीं मिल पाता है।
(पप) शुष्क प्रदेश – ये उष्ण शुष्क रेगिस्तानी भाग होते हैं जहाँ वर्षा का अभाव होता है। वाहीजल तो पूर्णतया अनुपस्थित ही रहता है। धरातल रेतीला तथा चट्टानी होता है, तथापि वह पारगम्य होता है जिस कारण जल का अन्तःस्पन्दन हो जाने से वाही जल नहीं हो पाता है। सहारा का रेगिस्तान इसका प्रमुख उदाहरण है। जलवर्षा के अभाव में उच्चावच्च का विकास अत्यन्त मन्द गति से सम्पादित होता है। वायु यद्यपि सक्रिय होती है परन्तु उसकी सामर्थ्य मात्र ढीले कर्णों वाले जमाव को एक जगह से उड़ाकरदूसरा जगह तक ले जाने में ही लगी रहती है। इसका आकारजनक कार्य नगण्य होता है।
4. आर्द्र उष्ण कटिबन्धीय मण्डल – इस मण्डल में आद्रता के आधार पर सवाना तथा वन प्रदेश के दो उपमण्डल होते है। जहाँ पर वार्षिक जल वर्षा 600 से 800 मिमी. (24 से 32 इंच) होती है और शुष्क तथा आर्द्र मौसम स्पष्ट रूप् से परिलक्षित होते है, सवाना प्रदेश का विकास हुआ है। उष्णा वन प्रदेश का विस्तार 1500 मिमी. (60 इंच) से अधिक वार्षिक जल वर्षा वाले भागों में पाया जाता है बशर्ते कि शुष्क मौसम न तो अधिक लम्बा हो और न ही अत्यधिक शुष्क हो। दोनों प्रदेशों में वर्ष भर उच्च तापमान रहता है, तुषार का अभाव होता है अतः चट्टानों का विघटन नगण्य होता है, तापमान का अन्तर कम होता है। का आकाश प्रायः मेघाच्छादित रहता है। इस प्रकार उच्च तापमान एवं अधिक वर्षा के कारण रासायनिक अपक्षय तथा अपरदन अधिक होता है।
(प) सवाना प्रदेश – आर्द्र तथा शुष्क मौसम का आकार जनक प्रक्रमों पर महती प्रभाव होता है। कठोर तथा शुष्क धरातल पर जब अचानक तीव्र जलवृद्धि होती है तो अस्फालन अपरदन तथा नालिका घुलन अधिक होता है। जहाँ पर वानस्पतिक आवरण सघन होता है वहाँ पर नलिका घुलन का स्थान चादरी बाढ़ ले लेती है। ऊँचाई से जब जल नीचे की ओर चलता है तो वह मिट्टी तथा घलाकर अलग किये गये पदार्थों से भारित हो जाता है, परिणामस्वरूप उन्हें निम्न भागों में निक्षेपित कर देता है, जिस कारण उच्चावच्च का अन्तर घटने लगता है और समतलीकरण प्रारम्भ हो जाता है। कवच का जहाँ पर निर्माण हो जाता है वहाँ पर वह निचले भाग को संरक्षण प्रदान करता है तथा कम ढाल वाले छोटे-छोटे पठारों का निर्माण करता है। इस कवच के कारण वाही जल तथा स्थल प्रवाह अधिक तो होता है परन्तु भौतिक अपक्षय के अभाव में निष्क्रिय ही रहता है।
(पप) उष्णाई वन प्रदेश – इस प्रदेश में वर्ष भर उच्च तापमान तथा अत्यधिक वृष्टि के कारण सर्व प्रमुख प्रक्रम रासायनिक अपक्षय होता है जिसके कारण मोटे रिगोलिथ का निर्माण होता है। चट्टानों में चूना घुल जाता है। ग्रेनाइट, नीस तथा उनसे सम्बन्धित शैलों पर जलज अपक्षय होने से 10मीटर तक मोटे रिगोलिथ का निर्माण हो जाता है। जलवर्षा का 98 से 99 प्रतिशत भाग इस रिगोलिथ में स्पंज के समान प्रविष्ट हो जाता है जिस कारण रासायनिक अपक्षय की गहराई बढ़ती जाती है।
चोर्ले, शूम तथा सगडेन के आकारजनक प्रदेश- विभिन्न विद्ववानों के आकारजनक वर्गीकरण का अध्ययन कर चोर्ले शूम तथा सगडेन ने निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया है। आर.के. चोर्ले, एस.ए.शूम तथा डी.ई. सगडेन ने 1985 में तापमान, वर्षा एवं मौसमापन के आधार पर आकारजनक प्रदेशों का वर्गीकरण किया तथा सभी पहले के वर्गीकरण की योजनाओं का समेकन करके एक नयी योजना प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इन्होंने दो स्तरों पर वर्गीकरण किया है-
(1) प्रथम श्रेणी के आकारजनक प्रदेशः- प्रथम श्रेणी के आकारजनक प्रदेशों की निम्न विशेषतायें होती है- अमौसमी प्रक्रम, निम्न औसत अपरदन दर, अति असामयिक एवं खण्डकालिक अपरदन कार्य। यथा- हिमानी तंरग मरू वृष्टि तूफान, भूस्खलन आदि द्वारा। इस श्रेणी के अन्तर्गत तीन आकारजनक प्रदेश होते है- (1) हिमानी, (2) शुष्क एवं (3) आर्द्र उष्ण कटिबन्धी आकारजनक प्रदशन
(2) द्वितीय श्रेणी के आकारजनक प्रदेशः- द्वितीय श्रेणी के आकारजनक प्रदेशों के अन्तर्गत 5 आकारजनक प्रदेश आते है- (1) उष्णकटिबन्धी आर्द्र-शुष्क, (2) अर्द्ध-शुष्क, (3) शुष्क महाद्वीपीय, (4) आर्द्र मध्य अक्षांशीय तथा (5) परिहिमानी आकारजनक प्रदेश। इन प्रदेशों की विशेषता स्पष्ट करते हुए। कहा गया है कि आकारजनक प्रक्रमों के प्रचालन में मौसमीपन, विशेष परिस्थितियों में कतिपय क्षेत्रों में आकस्मिक तीव्र अपरदन दर, खण्डकालिक प्रकृति के होते हए अपरदन क्रिया में कुछ हद तक निरन्तरता, जलवायु परिवर्तनें के परिणामों के परिवर्तन आदि में सहायक होते हैं।
महत्वपूर्ण प्रश्न
दीर्घउत्तरीय प्रश्न
1. ट्किार्ट तथा कैल्यू के आकार जलवायु प्रदेशों को स्पष्ट कीजिए।
लघुउत्तरीय प्रश्न
1. वनाच्छादित मध्य अक्षांशीय मण्डल से क्या तात्पर्य है?
2. टैगा प्रदेश पर टिप्पणी लिखिए।
3. शुष्क मण्डल पर टिप्पणी लिखिए।
4. आर्द्र उष्ण कटिबन्धीय मण्डल पर टिप्पणी लिखिए।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. 1925 में किस विद्ववान ने बतलाया कि विशिष्ट प्रकार की जलवायु में विशिष्ट प्रकार के स्थलरूप् निर्मित होते है-
निर्मित होते है-
(अ) सायर (ब) रोसेल (स) पेण्डकार्ड (द) रूसल
2. हिमानी क्षेत्र में औसत वार्षिक तापमान-
(अ) 15 – 10 (ब) 0-20 (स) 38-85 (द) 10-85
3. इनमें से किन क्षेत्रों में उपार्द्र स्टेपी प्रदेश पाया जाता है-
(अ) कालाहारी का चतुर्दिक (ब) एशिया माइनर
(स) कनाडा का प्रेयरी प्रदेश (द) उपरोक्त सभी
4. चोर्ले, शूम तथा सगडेन ने तापमान, वर्षा एवं मौसमीपन के आधार पर आकारजनक प्रदेशों का वगीकरण कब किया-
(अ) 1985 (ब) 1880 (स) 1910 (द) 1899
उत्तरः 1.(अ), 2.(ब), 3.(द), 4.(अ)