मौर्यकालीन गुफाएं कौन कौनसी है , मौर्यकालीन कला एवं स्थापत्य संस्कृति एवं धर्म की विवेचना कीजिए
जाने मौर्यकालीन गुफाएं कौन कौनसी है , मौर्यकालीन कला एवं स्थापत्य संस्कृति एवं धर्म की विवेचना कीजिए ?
प्राक् मौर्य युगीन कला
छठी शताब्दी ई.पू. के प्रारंभ से 324 ई. पूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य के सत्तासीन होने तक के मध्य का काल ‘प्राक्-मौर्य काल’ के रूप में जागा जाता है। पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुरूप यद्यपि इस काल-खण्ड में कुछ स्मारक ही प्रकाश में आए हैं जो तत्कालीन स्थापत्य एवं कला की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं किंतु इस कालावधि के कई वैदिक एवं बौद्ध ग्रंथों विशेषकर जैसे महर्षि पाणिनी का अष्टाध्यायी, दीर्घनिकाय एवं महाउम्मग जातक के अनुशील से कला एवं वास्तु के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियों का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है।
इस युग में राजभवनों के अतिरिक्त मंदिरों एवं पूजा-स्थलों का भी निर्माण किया जाता था जिन्हें ‘देवकुल तथा चेतिय’ कहते थे। इसके विपरीत ग्रामीण-अंचलों के भवन-निर्माण में लकड़ी, बांस, घास-फूस तथा मिट्टी एवं गारे का प्रयोग किया जाता था। ऐसे पर्णशालाओं का उल्लेख जातकों में भी है। जातकों में ईटों एवं प्रस्तर निर्मित भवनों की भी चर्चा है।
इस काल में लौरिया नंदन गढ़ के शवधानों का विशेष महत्व है क्योंकि ये तत्कालीन वास्तु एवं कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। प्राक् मौर्यकालीन पिपरहवा स्तूप भी अपना एक स्थान रखता है जो उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में अवस्थित है। यह पूर्णतया ईंटों से निर्मित स्तूप है जिसमें बड़े आकार की ईंटों तथा मिट्टी के गारे का प्रयोग किया गया है। इस स्तूप की वास्तुकला बेहद सुंदर है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सैंधव सभ्यता के विनाश और मौर्य युग के प्रारंभ के मध्य के अंतराल में भारतीय स्थापत्य एवं कला के विकास का प्रमाण मिलता है।
मौर्यकालीन कला
हड़प्पा युग और मौर्य काल के बीच के अनेक पुरातात्विक अवशेष हमारे पास नहीं हैं। ऐसा संभवतः इस वजह से हुआ, क्योंकि उस काल में भवन पत्थर के नहीं बनते थे। मौर्य शासन काल हमारे सांस्कृतिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण युग है।
यद्यपि मौर्यों द्वारा निर्मित भवनों के अवशेष हमारे बीच नहीं हैं पर मौर्य शासन काल की कई बातों का जिक्र ग्रीक इतिहासकार मेगास्थनीज ने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में किया है। इसमें मौर्यों की राजधानी पाटलिपुत्र शहर के वैभव एवं उसकी सत्ता के बारे में भी उल्लेख किया गया है। पाटलिपुत्र शहर दस मील लंबा और दो मील चैड़ा था, जो मजबूत लकड़ी की दीवारों से घिरा हुआ था। उसमें 500 टाॅवर और 64 दरवाजे थे। उसके भीतर शाही महल था जो अपने आकार में ईरान के शाही महल की नकल पर बना था। चंद्रगुप्त के पौत्र अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया और कला तथा प्राचीन सभ्यता संस्कृति के विकास के लिए बौद्ध मिशनरियों की गतिविधियों का विस्तार किया। 400 ईसवीं के आसपास जब चीनी बौद्ध यात्री फाह्यान भारत आया, तब उसने शाही महल को खड़े हुए देखा था। शाही महल के साथ-साथ दीवारों, दरवाजों तथा अन्य कलाकृतियों को देखकर वह इतना प्रभावित हुआ कि उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि उनका निर्माण मानव कलाकारों-चित्रकारों के हाथों हुआ होगा।
स्तंभः अशोक ने अपने शासन काल में स्तंभों का निर्माण बड़े पैमाने पर कराया था। इन स्तंभों को उसने बौद्ध धर्म, संस्कृति एवं सभ्यता के प्रचार-प्रसार के साथ अन्य महत्वपूर्ण कार्यों एवं घटनाक्रमों के प्रतीक के रूप में लगवाया था। अशोक के शासनकाल के दौरान लगाये गये श्वेत-भूरे पत्थर उसके पूरे राज्य में देखे जा सकते थे। अशोक द्वारा लगाये गये उन स्तंभों में से अनेक स्तंभों में बौद्ध धर्म (बौद्ध कानून) की इबारतें भी लिखी हुई थीं। स्तंभों के माध्यम से उसने बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया।
अशोक के शासन काल में लगे स्तंभ तकरीबन 40 फीट ऊंचे होते थे। उन स्तंभों में कलाकृतियां भी अभिचित्रित थीं। उनमें पुष्पदल, घंटी-जैसी आकृतियों के साथ-साथ जागवर भी चित्रित होते थे। स्तंभ के चारों ओर जागवरों की आकृतियां दिखायी देती थीं, जिनमें सिंह, बैल अथवा हाथी मुख्यतः होते थे।
रामपुरवा से मिले वृषभस्तंभ (जो अब नयी दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में है) में वृषभ को कुछ इस तरह से दिखाया गया है जिस तरह के चित्र सिंधु घाटी की खुदाई से प्राप्त पुरानी सीलों पर चित्रित थे। माना जाता है कि वे प्राचीन पंरपरा की वे एक कड़ी के रूप में हैं। सारनाथ, जहां बुद्ध ने अपना पहला व्याख्यान दिया, वहां सिंह स्तंभ लगे थे। उस स्तंभ में बैल, घोड़ा, सिंह और हाथी क्रमवार अंकित थे, उनके बीच में चक्र था जो वाहन का प्रतीक था। ऐसा लगता है
गुफा स्थापत्य कला
गुप्त काल से पहले मुख्य वास्तु कला केवल स्तूप, उनके द्वार माग्र एवं रेलिंग के अतिरिक्त कृत्रिम गुफाओं तक ही सीमित थी। इन गुफाओं का धार्मिक उद्देश्यों के लिए निर्माण किया जाता था। प्रारंभ में गुफाओं के जो स्वरूप मिलते हैं, उनसे पता चलता है कि पहले लकड़ी द्वारा निर्मित गुफाएं ही बनती थीं, जो धार्मिक कार्यøम स्थलों के लिए होती थीं। उनके आस-पास घास-फूस की झोपड़ियां होती थीं। प्रारंभिक दो गुफाएं बाराबर (गया के निकट) में और नागार्जुनी पहाड़ियों में स्थित हैं, जो बिल्कुल असज्जित हैं। गुफाओं की भीतरी दीवारें अच्छी तरह से पुती हुई हैं, जिसे निःसंदेह अशोक स्तंभों की पुताई करने वाले कर्मचारियों ने ही किया होगा।
बाद में गुफा मंदिर और गुफा मठ भारत के कई भागों में पाये गये, किंतु पश्चिमी दक्षिण भारत में ही सबसे अधिक संख्या में गुफा मंदिर मठ मिले जिनका निर्माण सातवाहन साम्राज्य और उनके बाद के वंशजों ने किया था। जिन गुफाओं का उत्खनन किया गया उनमें ये गुफाएं ही सबसे बड़ी और सबसे प्रसिद्ध कृत्रिम गुफाएं हैं।
प्रारंभ में भारत में पत्थर काटकर जो गुफाएं बनीं वे अशोक (273-232 ईसा पूर्व) और उसके पौत्र दसरथ के समय बनायी गयीं थीं। बहरहाल इस पत्थरजनित वास्तुकला को अशोक ने ही अपनाया और उसका विकास किया। अशोक ने ही इनको प्रभावकारी ढंग से और लोकप्रिय वास्तुकला शैली के रूप में विकसित किया। उसने देश में इस तरह की 1200 गुफाओं का निर्माण किया जिनका बाद में उत्खनन कर पुरातत्ववेदियों ने देश के कई भागों में पता लगाया। इस स्थापत्य कला को तीन चरणों में बांटा जा सकता है प्रारंभिक चरण दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी ईसवी तक, दूसरा पांचवीं शताब्दी व सातवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक। इस वास्तुकला का विकास मुख्यतः पश्चिमी घाट में हुआ और देश के अन्य भागों में विकास अंशतः ही हुआ। पत्थरजनित वास्तुकला भारत के लिए इसलिए मेल खा रही थी, क्योंकि भारत में पहाड़ों और पत्थरों की संख्या बहुतायत में है। उत्खनन के बाद जो ढांचे मिले, वे काफी मजबूत थे और वर्षों तक नष्ट न होने वाले थे।
प्रारंभिक बौद्ध वास्तु कला दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर दूसरी शताब्दी ईसवी तक है। पश्चिमी भारत में उत्खनन का प्रारंभिक चरण, विशेषरूप से प्रारंभिक बौद्ध धर्म से जुड़ा हुआ है, जिसका तात्पर्य बुद्ध की पूजा है जो प्रतीकवाद का प्रतिनिधित्व करता है। उत्खनन कुछ इस तरह हुआ
(1) चैत्य अथवा प्रार्थना सभागार और (2) विहार अथवा मठ। दोनों का ही निर्माण पत्थरों से हुआ था। उनका जो ढांचा मिला, वह अस्थायी तौर पर यानी कम ही मजबूत रहा, क्योंकि उसमें लकड़ी जैसी चीजों का आर्थिक इस्तेमाल किया गया था।
इन प्रारंभिक मंदिरों की प्रमुख विशेषताएं यही थीं कि उनमें दो प्रतिष्ठान थे। प्रत्येक एक दूसरे से जुड़े थे और उनमें एक चैत्य यानी प्रार्थना सभागार तथा दूसरा एक मठ यानी विहार था, जो वहां के पुजारियों के रहने के काम में आता था। चैकोर केंद्रीय सभाकक्ष को उससे सटे एक बरामदे अथवा पोर्टिको द्वारा खोजा जा सकता था, इसके अतिरिक्त द्वार माग्र होते थे जो कमरों में जाते थे। ये कमरे सन्यासियों के लिए होते थे। प्रारंभिक बौद्ध वास्तु कला के उदाहरण अभी भी कारला, कन्हेरी, नासिक, भाजा एवं बेडसा तथा अजंता में देखे जा सकते हैं।
दूसरा चरण पांचवीं शताब्दी से शुरू हुआ। इस चरण की विशेषता यह थी कि इसमें स्थापत्य कला में लकड़ी का प्रयोग बिल्कुल खत्म कर दिया गया और वास्तु कला प्रतिरूप प्रमुख रूप से बुद्ध की प्रतिमाओं को ही ध्यान में रखकर तैयार किए गये तथापि विशेष रूप से चैत्य की उत्खनन योजना प्रारंभिक चरण की वास्तुकला के समान ही थी। कभी-कभी बुद्ध की प्रतिमाएं काफी बड़े आकार की बनायी गयीं। विहार में भी कुछ परिवर्तन किये गये। भीतरी कक्षए जो पहले मंदिर के पुजारियों के लिए होता था, उनमें भी बुद्ध की प्रतिमाओं को स्थापित किया गया।
महायान स्कूल के बौद्धों ने भी उन्हीं वृहद वास्तु कला सिद्धांतों को अपनाया, जो उनके पूर्ववर्ती लोगों यानी हीनयान बौद्धों ने अपनाये थे, उनकी वास्तु कला में भी चैत्य और विहार बनाये गये।
बाद में हिंदुओं और जैनियों ने बौद्ध वास्तु कला परंपरा का विस्तार किया तथा उनमें कुछ सुधार भी किया। उन्होंने अपने धार्मिक तौर तरीकों और जरूरतों के हिसाब से उसमें कुछ निश्चित संशोधन भी किये।
द्रविड़ पत्थर जनित शैली की मुख्य विशेषता मंडप और रथ थी। मंडप एक खुला बरामदा-जैसा था जो पत्थर से बनाया जाता था। यह एक साधारण कक्ष के आकार का होता था जिसमें दो या दो से अधिक कक्ष होते थे जो धर्मगुरुओं के ठहरने के लिए होते थे। रथ का निर्माण भी एक बड़े पत्थर को काटकर किया जाता था।
एलिफैंटा गुफाएं : बम्बई हाॅर्बर के पास एलिफैंटा के द्वीप में इस तरह की गुफाएं आठवीं शताब्दी ईसवी की हैं। इस द्वीप का नाम एलिफैंटा इसलिए पड़ा, क्योंकि ये एक विशाल हाथी के आकार की गुफाएं थीं जिनका प्रयोग कई तरह से किया जाता था।
गणेश गुफा ब्राह्मी मंदिर के प्रारंभिक उदाहरणों में एक है और यह पत्थर जनित है। इसके बाहर बरामदा है जहां बनी हाथियों की मूर्तियां वास्तु कला का एक अनोखा उदाहरण हैं। प्रत्येक भवन के आखिरी हिस्सा के वग्रकार खम्भे दीवार से लगे हुए हैं। उन्हें इस तरह बनाया गया है जैसे वे द्वारपाल हों। इसका उत्कृष्ट उदाहरण तीन चेहरों वाली एक मूर्ति (त्रिमूर्ति) है जो शिव के माहेश्वर रूप का प्रतिनिधित्व करती है। बायां चेहरा शिव का भयंकर पुरुष रूप प्रदर्शित करता है जबकि दांया भाग सुंदर है और स्त्रियोचित सौंदर्य से भरा दिखायी देता है। इस मूर्ति का दूसरा पक्ष त्रिमूर्ति ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता), विष्णु (पालनकर्ता) और शिव (सहांरकर्ता) का भाव उत्पन्न करता है। गुफा में प्रमुख उल्लेखनीय वास्तुकृतियां हैं शिव-पार्वती का विवाह, भैरव, तांडव नृत्य में शिव, कैलाश को हिलाते राक्षसराज रावण, अर्द्धनारीश्वर आदि।
कन्हेरी गुफाएंः बम्बई के निकट ये गुफाएं बौद्ध वास्तुकला के हीनयान चरण से संबंधित हैं, जबकि चैत्य सभागार में बुद्ध की पांचवीं शताब्दी की प्रतिमा इसके बाद की वास्तु कला परंपरा को दर्शाती हैं कुल मिलाकर यहां 100 से अधिक गुफाएं हैं। उनकी मुख्य विशेषता सीढ़ी का ऊंचा पायदान तथा पत्थरजनित स्थान हैं जो धार्मिक गुरुओं के आराम के लिए होता था। यद्यपि कई गुफाएं वास्तु कला का महान उदाहरण नहीं है, लेकिन पुरातात्विक दृष्टिकोण से उनकी महत्ता अधिक है क्योंकि वे दूसरी शताब्दी से नौंवी शताब्दी के दौरान की हैं।
जोगेश्वरी गुफाएंः ये गुफाएं सेलेटे के द्वीप में है जिसमें मूलतः बंबई द्वीप भी शामिल है। यद्यपि इनका स्वरूप काफी बिगड़ चुका है, क्योंकि वे महायान बौद्ध कला के अंतिम चरण से संबंधित है। यहां के मंदिरों-मठों में ब्राह्मी प्रभाव खत्म हो गया है। वे एक सभाकक्ष के केंद्र में स्थित हैं जहां एक से अधिक प्रवेश हैं। ये गुफाएं आठवीं शताब्दी के मध्य काल की बनी हुई हैं।
मांडपेश्वरः इनका भी अपना महत्व है क्योंकि ये एकमात्र ऐसी ब्राह्मी गुफाएं हैं जो ईसाई धर्म स्थल के रूप में परिवर्तित हुई हैं। यहां तक कि आज भी वहां ईसाई अनाथालय बना हुआ है, जो प्राचीन पुर्तगली चर्च तथा पास के एक फ्रांसीसी मठ द्वारा चलाया जाता था। यहां की तीन गुफाएं आठवीं शताब्दी की हैं।
कारला, भाजा एवं बेडेडसा गुफाएंः कारला गुफाएं बौद्ध स्थापत्य कला के हीनयान काल की हैं। इन गुफाओं की प्रमुख विशेषता बृहत् व भली-भांति संरक्षित चैत्य का निर्माण है। जिसके प्रवेश द्वार पर दो विशाल स्तम्भ स्थित हैं। जिन पर एक बड़े चक्र के सहारे खड़े शेरों का समूह अंकित है। ये स्तम्भ अपनी पूर्व दशा में लगभग 50 फीट ऊंचे रहे होंगे क्योंकि अब इनका अधिकांश भाग नष्ट हो चुका है। मुख्य द्वार के पश्चात् विशाल दालान है जिसकी सुसज्जित रेलिंग व हर कोने पर स्थित हाथी अलंकार पूर्ण कला की स्थिति को दर्शाते हैं। अंदर का स्थान अथवा चैत्य सभागार में एक स्तंभावलि गुंबज एवं सूर्य की रोशनी हेतु एक खिड़की है। इस खिड़की से सूर्य की रोशनी बड़े अद्भुत तरीके से छन-छन कर ऐसे आती है जिसकी किरणें जब स्तूप, स्क्रीन, खम्भों के आधे भाग एवं पाश्र्व भाग के अंधेरे हिस्से में पड़ती हैं तो बेहद कलात्मक लगती हैं।
भाजा की 18 गुफाएं बौद्ध धर्म सन्यासिनियों के लिए बनायी गयी थीं। इनका निर्माण ईसा पूर्व की दूसरी शताब्दी में किया गया था। समय के थपेड़ों के साथ मुख्य गुफा (नं-12) का प्रवेश एवं मुख्य द्वार अब खुल गया है और यह सभाकक्ष का पूरा परिदृश्य दिखाता है। खम्भे ढलान पर हैं किंतु खंभों पर किया गया कलात्मक कार्य अत्यंत उत्कृष्ट है। स्तूप अत्यंत समतल है और दो भागों में है। ऐसा माना जाता है कि उसकी दीवारों में मूलतः कलाकृतियां उत्कीर्ण की गयीं थीं, जो अब बहुत कम बची हैं। दक्षिण दिशा की अंतिम गुफा में शिल्प का उत्कृष्ट नमूना देखने को मिलता है, इसमें प्रमुख है हाथी के ऊपर बैठा राजकुमार व रथ पर सवार राजकुमार की मूर्ति तथा शस्त्रों से सजी तीन मूर्तियां।
बेडसा स्थित गुफाएं भाजा में मिली गुफाओं से कुछ बाद की हैं। कारला में पायी गयी गुफाओं में चैत्य एक बड़ा सभागार है, लेकिन बेडसा में चैत्य छोटा है। उसमें चार खंभे हैं, जिसमें घोड़े, बैल तथा हाथी उत्कीर्ण किये गये हैं, उसमें पुरुष एवं महिला सवार बैठे दिखा, गये हैं। उसकी छत दस फीट ऊंचे एवं 26 अष्टीाुजीय खम्भों पर टिकी है।
एलोरा एवं अजंता गुफाएं : एलोरा और अजंता गुफाएं औरंगाबाद के निकट स्थित हैं।
चालुक्य एवं राष्ट्रकुट शासकों ने छठीं शताब्दी ईसवी के मध्य से लेकर लगभग 12वीं शताब्दी के आखिर तक दक्षिण में शासन किया था। दोनों ही धर्म सहिष्णु तथा सब धर्मों को मानने वाले शासक थे और उनकी उदारता के किस्से मशहूर थे। उनके शासनकाल में ही पत्थर जनित मंदिर निर्माण की तकनीक विकसित होकर परिपक्वता की ऊंचाइयों तक पहुंची। दक्षिण में राष्ट्रकूट शक्तियों के उदय से बौद्ध धर्म का प्रभाव कम हुआ, लेकिन कलात्मक गतिविधियां इसके बावजूद निरंतर जारी रहीं।
पत्थर जनित वास्तु कला पश्चिमी भारत में पहुंची, क्योंकि पश्चिमी क्षेत्र ने निर्माण एवं वास्तु के लिए उचित स्थान प्रदान किया। हालांकि इस तरह की किसी भी गुफा का उपयोग नहीं किया गया। इस प्रकार वास्तु कला बड़े पैमाने पर एक तरह की मूर्ति कला थी। पत्थर जनित जो निर्माण किया गया, उसकी देखभाल एवं उसकी समय-समय पर मरम्मत की भी आवश्यकता थी, और यही कारण है कि आज भी बहुत से मंदिर अच्छी हालत में हैं। वास्तु कला में जो तकनीक और जो साधना इस्तेमाल की जाती थी, वह आज भी आधुनिक तकनीक के समक्ष एक गूढ़ ‘रहस्य है। यह जागकर आश्चर्य होगा कि पत्थर जनित जो निर्माण कार्य हुआ, वह अक्सर ऊपर से नीचे हुआ क्योंकि नीचे के पत्थर प्राकृतिक रूप से एक प्लेटफार्म का स्वरूप प्रदान करते थे और इससे मचान की आवश्यकता खत्म हो गयी।
अजंता गुफाओं को 1829 में एक शिकारी गश्तीदल ने खोजा था। वे पत्थरों को काटकर इस तरह बनायी गयी थीं और इस तरह गहरी घाटी के किनारे स्थित थी जैसे चंद्रकार हों। पूर्णरूपेण वे बौद्धों की थीं और करीब 200 ईसा पूर्व से 650 ईसवी के मध्य बनायी गयी थीं। यह जागकर आश्चर्य होगा कि चीनी बौद्ध यात्रियों ह्वेनसांग व फाह्यान ने भी अपनी यात्राओं में अजंता गुफाओं का उल्लेख किया था।
29 गुफाओं में चार चैत्य सभाकक्ष हैं जो अलग-अलग आकार के हैं एवं शेष विहार हैं। इन गुफाओं की सज्जा समय के साथ बदलती रही। इन गुफाओं द्वारा हीनयान व महायान पक्ष प्रत्यक्ष रूप से परिलक्षित होता है। जहां हीनयान मत की गुफाएं साधारण मानी जाती हैं वहीं महायान मत की गुफाएं अत्यधिक अलंकारिक व बुद्ध की मूर्तियों से युक्त हैं। ये गुफाएं इसलिए अनोखी एवं दुर्लभ समझी जाती हैं क्योंकि इनमें कला के तीनों रूप-वास्तु कला, मूर्ति कला एवं चित्र कला का सम्मिश्रण मिलता है। दीवारों में चित्र बनाने के लिए जो तकनीक अपनायी गयी, उसमें गोबर और चावल की भूसी को मिलाकर एक घोल तैयार किया गया जिसे गुफा की छत दीवारों में लगाया गया था। कभी-कभी ईंटों के पिसे बुरादे को भी मिश्रित किया गया। फिर प्लास्टर किया गया और उस प्लास्टर में रंगों का प्रयोग किया गया। गुफा में दीवारों पर मूर्तियां चित्रित करने के पहले उनमें कई तरह के घोलों का मिश्रण चढ़ाया गया, साथ ही रंगों का प्रयोग करने से पहले सतह को नम रखने के लिए सफेद प्लास्टर को लगाया गया। रेखांकन पहले लाल रंग से किया गया। रंगों का प्रयोग स्थानीय रंगों द्वारा किया गया और नीले रंग को छोड़कर बाकी सारे रंग निकट की पहाड़ियों से एकत्र किये गये। चित्रकला की प्रेरणा जातक की प्रसिद्ध बौद्ध कहानियों से ली गयी।
गुफा नं- 13, 12, 10, 9 और 8 (पुरातात्विक निर्माण क्रमानुसार) हीनयान काल की हैं, जबकि गुफा नं- 11, 14, 15, 16, 17, 19, 18 एवं 20 तथा संभवतः गुफा नं- 6 और 7 भी बाद के महायान काल की हैं जो तकरीबन 580 ईसवी तक रहा। गुफा नं- 1 से 5 तथा 21 से 29 में भी महायान की विशेषताएं मिलती हैं। ये गुफाएं 500 से 650 ईस्वी के बीच की हैं। गुफा 19 और गुफा 26 (चैत्य) एवं गुफा 1 और 16 (विहार) अच्छी स्थिति में हैं। गुफा नं- 16 अत्यंत महत्वपूर्ण गुफाओं में है, क्योंकि वास्तुकला के दृष्टिकोण से यह सर्वाधिक उत्कृष्ट है, यह मठ में व्याख्यान देते हुए बुद्ध की विशाल प्रतिमा है। गुफा में प्रसिद्ध भित्ति चित्र ‘द डांइग प्रिंसेस’ भी है। एलोरा गुफाएं इसलिए अनोखी हैं, क्योंकि पर्यटक वहां एक ही स्थान पर वास्तुकला की तीन शैलियां देख सकता है। 12 बौद्ध, 4 जैन एवं 16 ब्राह्मी गुफाएं यहां एक के पास एक स्थित हैं। अजंता गुफा मंदिर के विपरीत एलोरा गुफाएं पहाड़ी के ढलान की ओर स्थित हैं। फलतः अधिकांश मंदिरों में आंगन है और कहीं-कहीं एक बाहरी दीवार अथवा चट्टान है जहां से प्रवेश किया जाता रहा है। 10वीं शताब्दी में अरबी भूगोल शास्त्री मसूदी एवं यूरोपीय भूगोल शास्त्री थेवनाट 1667 में इन मंदिरों में पहुंचे थे तथा अपने यात्रावृतांत में उन्होंने इन मंदिरों का उल्लेख किया था।
बौद्ध मंदिरों का उत्खनन 350 से 700 ईसवी में हुआ। ब्राह्मी मंदिरों की तुलना में ये मंदिर शांत और अलग हैं। गुफा नं- 10, जो एलोरा में अकेला चैत्य है, एक सांचे की तरह है और अजंता और एलिफैंटा के संस्मृति रूप में है। इसे विश्वकर्मा कहा जाता है। शिल्पी महापुरुष विश्वकर्मा को यह समर्पित है।
गुफा नं- 11 और 12, भारत की उन कुछ गुफाओं में से हैं जो एक मंजिल से अधिक मंजिलों वाली हैं।
दूसरा समूह ब्राह्मी गुफाओं का है जिनका उत्खनन सातवीं और आठवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल के मध्य हुआ। गुफा नं–18, रावण की खाई (रावण द्वारा उत्खनित) बौद्ध मंदिरों से अलग है। इसमें 4 खंभे सामने पाश्र्व में हैं, 12 स्तंभ केंद्रस्थ सभागार में हैं और उसके बाहर सभागार के आखिर में एक चैत्य है। दक्षिण दीवार में शैव मूर्तियां चित्रित हैं, उत्तरी दीवार में वैष्णव (विष्णु), दुग्र, लक्ष्मी मूर्तियां व विष्णु के प्रतीक वाराह की मूर्तियां अभिचित्रित हैं। चैत्य के अंदर दुग्र की एक मूर्ति भी है। गुफा नं- 15 दसावतार गुफा है।
कैलाश मंदिर शिव को समर्पित है। कैलाश मंदिर को हिंदुओं की एक महान उपलब्धि माना जाता है। यह मंदिर कैलाश पर्वत में शिव के निवास का प्रतीक है। इसका उत्खनन राष्ट्रकूट के शासक कृष्णा-प् के शासनकाल में हुआ। यह संभवतः एक शिला पर किए गए उत्खनन कार्य का संसार का सबसे महान नमूना है। वास्तुकला में ऊपर से नीचे तक उत्खनन कार्य किया गया। वास्तुशिल्पियों ने एक चट्टान को तब तक तराशा, जब तक उसने एक मंदिर का रूप नहीं ले लिया। चट्टान की निचले स्तर तक छंटाई की गयी और अनुमान है कि 30 लाख घन फीट पत्थरों की छंटाई की गयी। विचारणीय बात यह है कि इसके उत्खनन में कितने वर्ष लगे होंगे और कितना श्रम किया गया होगा तब जाकर यह महान आकार रूप ले पाया होगा। उसके बाद वहां शिव की मूर्ति तैयार हो पायी। इस महान कार्य की तारीफ परसी ब्राउन ने इस तरह की ‘‘यह मिट्टी की साज सज्जा कलात्मक रूप के सभी प्रतिमानों से श्रेष्ठ है, यह एक महानतम आध्यात्मिक उपलब्धि है, जिसके प्रत्येक भाग का विशेष अर्थ है।’’
कैलाश विशाल आंगन के मध्य स्थित है जिसमें हाथी तथा अन्य जागवरों की मूर्तियां अभिचित्रित हैं। मुख्य मंदिर शिव को समर्पित है। मंदिर एक कुर्सी जैसे स्थान पर बना है और उसमें हाथियों एवं सिंहों के भित्तिचित्र सुंदर ढंग से अंकित हैं। मंदिर के बाहर ऊंचाई पर सीढ़ियां हैं और सांचा दो मंजिल का है। भिक्षु सभागार और सांचा दोनों ही चट्टान को काटकर बनाये गये हैं।
मंदिर का ऊपरी भाग तीन श्रेणीय है। आगे का भाग छतरी या गुंबज-जैसा प्रतीत होता है। अंदर का भाग एक खंभीय सभागार है जो स्वस्तिकाकार केंद्रस्थ पाश्र्व में स्थित है। दीवार में जो भित्तिचित्र अंकित हैं उनमें रामायण के दृश्य हैं। ये भित्तिचित्र उत्कृष्ट चित्रकला एवं शिल्पकला के अनुपम उदाहरण हैं। मंडप के सम्मुख शिव के बैल नंदी विराजमान हैं। जिसके दोनों तरफ स्थित दो खंभे ध्वजस्तंभ कहलाते हैं। इनमें शिव उपासना पद्धति को प्रतीकात्मक ढंग से उत्कीर्ण किया गया है, जो उत्कृष्ट कलात्मक कार्य है।
पांच एलोरा गुफाओं का अंतिम भाग जैन का है। इसमें सबसे रोचक इंद्रसभा (देवों के राजा इंद्र का सभाकक्ष) एवं जगन्नाथ सभा (ब्रह्मांड के स्वामी का सभाकक्ष) हैं। इंद्र सभा दो मंजिला चैत्य है जो चट्टान को 200 फीट की गहराई तक काटकर बनाया गया है और एक चैकोर आंगन में पत्थर जनित द्वार-माग्र से जुड़ा है। उसके दायीं ओर एक हाथी की आकर्षक मूर्ति बनी हुई है। ऊपरी मंजिल 12 उत्कृष्ट मूर्तिकला युक्त खंभों पर टिकी है। निचला हिस्सा तथा ऊपरी मंजिल सुंदर ढंग से अभिचित्रित की गयी हैं। ऊपरी हिस्से में 24 जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। छत का ऊपरी भाग एक विशाल कमल पुष्पाकार के रूप में है। प्रत्येक सभाकक्ष सिरे का आखिरी भाग एक विशाल चैत्य है जहां महावीर की प्रतिमा स्थित है। माना जाता है कि यह मंदिर जैन समुदाय द्वारा बनाये गये प्रारंभिक मंदिरों में से एक है।
जगन्नाथ सभा भी इंद्रसभा की तरह ही निर्मित है, लेकिन वह इंद्रसभा से छोटी है। चैत्य में भी एक छोटी उपशाला है जिसमें एक तोराण है और उसके भीतर महावीर की मूर्ति स्थित है। जगन्नाथ सभा की दीवारें मूर्तियों से अभिचित्रित हैं और खम्भे भी सर्वोत्तम जैन परंपराओं से अलंकृत हैं। पहाड़ी के ऊपर जहां जैन गुफाएं हैं, वहां पारसनाथ की एक पत्थर जनित प्रतिमा स्थित है और एक भवन द्वारा यह 200 वर्षों से अधिक समय से संरक्षित है।
ऐहेहोलेल, पट्टाडकाल एवं बादामीः इन तीनों स्थानों की वास्तुकला पारंपरिक हिंदू मंदिरों की तरह हैं तथा ये 600 और 650 ईसवी के मध्य बने थे। सबसे पहले ऐहोल है जहां करीब 60 मंदिर हैं और उनमें करीब 30 मंदिर एक अहाते के भीतर एक दीवार से घिरे हैं।
सबसे प्राचीन लाद-खान कहलाता है, जहां ड्योढ़ी में हम आसन की स्ािापना पाते हैं बाद में यह आसन मध्यकालीन हिंदू मंदिरों में अनिवार्य रूप से पाया गया। दुग्र मंदिर एक निम्न तलीय मंदिर है और उसके ऊपर एक छोटा पिरामिडाकार बुर्ज अथवा शिखर है जो हिंदू मंदिरों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। दुग्रमंदिर भी मूर्तिकला का एक अनुपम उदाहरण है।
ऐहोल में बने आखिरी मंदिरों में मेगुती का जैन मंदिर भी 634 ईसवी में बना। इसमें पत्थरों के छोटे टुकड़ों का इस्तेमाल किया गया जो भवन निर्माण तकनीक की प्रगति दिखाता है। मंदिर नं- 53 (ब्राह्मी) एवं मंदिर नं- 39 (जैन) मेगुती मंदिर के साथ हैं जो द्रविड़ शैली का प्रभाव दिखाता है जिसकी विशेषता कई मंजिलों में चैकोर पिरामिडाकार का होना है। इनकी सजावट भी उनके मुकाबले कम है। यह पारंपरिक चालुक्य वास्तुकला की विशेषता दर्शाता है।
पट्टाडकाल के मंदिर भी हिंदुओं एवं जैनों के हैं जो चालुक्यों के साथ-साथ द्रविड़ शैली से जुड़े हैं। इनमें से अधिकांश सातवीं से आठवीं शताब्दी ईसवी के मध्य बने। चालुक्य मंदिरों की सामान्य विशेषता यह होती है कि उनमें भूतल में काफी जगह होती है। पापनाथ का मंदिर चालुक्य शैली में बना हुआ है। द्रविड़ शैली के मंदिरों में वीरूपाक्ष सबसे अच्छा भाग होता था। ये अलग तरह के होते हैं, जिनकी पहचान उनके चैकोर पिरामिडाकार शिखरों द्वारा होती है। इन शिखरों ने बाद में गुम्बद का रूप ले लिया। यद्यपि वे उतने सुंदर नहीं थे जितने चालुक्य शैली के थे, लेकिन फिर भी उनकी अपनी खुद की कुछेक निश्चित विशेषताएं थीं।
छठी शताब्दी के प्रारंभ में चालुक्य अत्यंत मजबूत शक्ति थे। वटापी (बादामी) उनके महान शासक पुलकेसिन-प्प् की राजधानी थी, जिसे 640 ईसवी में पल्लवों द्वारा जीता गया था। 653 ईसवी में राष्ट्रकूटों ने उस पर कब्जा कर लिया।
वहां के मंदिरों में तीन ब्राह्मी (550 से 580 ईसवी) और एक जैन मंदिर है जो 650 ईसवी के आस-पास का है। ये सभी मंदिर ऐहोल के समय से ही वास्तुकला की प्रगति का संकेत देते हैं। कुछ निश्चित विशेषताएं उन सभी में हैं जैसे खम्भायुक्त बरामद, स्तंभयुक्त सभाकक्ष एवं छोटा चैकोर कक्ष (एक मूर्ति के लिए चैत्य), जो पत्थरों को काटकर बनाया गया था। विरूप गणों के एक भाग को छोड़कर उसका बाहरी हिस्सा समतल होता था। अंदर का भाग अत्यंत सुंदर मूर्तिकला से सुसज्जित होता था। सजावट उत्कृष्ट होती थी, किंतु समान्य योजना कुल मिलाकर अनिश्चित होती थी, क्योंकि हिंदू मंदिर उस समय तक विकास के प्रारंभिक चरण में थे।
विष्णु को समर्पित मंदिर एक पुरातात्विक इतिहास है जो बताता है कि उसका निर्माण 573 ईसवी में हुआ था और वह सभी मंदिरों में सबसे बड़ा है। दो मंदिर चट्टान को काटकर बनाये गये हैं और प्रत्येक के अगले भाग में चार खंभों की एकस्तंभावलियां हैं जो बारामदे की शक्ल प्रदान करती हैं। दो खंभे केंद्रीय कक्ष के प्रवेश द्वार के रूप में हैं।
जैन मंदिर, ब्राह्मी मंदिरों की नकल हैं। किंतु आकार में छोटे हैं। जैन धर्म की परंपरा के अनुकूल वे विशेष आकार के हैं, पत्थर जनित वास्तु कला का यह चरण एक अस्थायी दौर था और शीघ्र ही यह कला पूरी तरह से ओझल हो गयी।
नासिक गुफाएं : नासिक के दक्षिण-पश्चिम में मुख्य मुम्बई रोड पर 23 बौद्ध गुफाओं का एक अत्यंत महत्वपूर्ण समूह है जो बौद्ध वास्तुकला के हीनयान काल से संबंधित है तथा यह ईसा की पहली शताब्दी का है। जब बुद्ध ने शारीरिक रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कहीं करायी थी तो उनकी आध्यात्मिक उपस्थिति एक सिंहासन व खड़ाऊं अथवा पदचिन्हों द्वारा व्यक्त की जाती रही। गुफाओं का यह समूह पाण्डू लेना कहलाता था जो पहाड़ियों के सुंदर परिसर के आखिरी छोर में तीन शंक्वाकार चोटियों पर स्थित था। इसमें तीन बड़े सभागार और एक सुंदर मंदिर था।
जूनागढ़ गुफाएं : अपरकोट एक प्राचीन किला था जो ईसा की 16वीं शताब्दी के आखिर एवं 14वीं शताब्दी के मध्य का ऐतिहासिक दस्तावेज है। इसका प्रवेश एक सुंदर द्वारमाग्र है जो हिंदू तोरण द्वार का एक उत्कृष्ट नमूना है। अपरकोट में अनेक आश्चर्यजनक बौद्ध गुफाएं हैं जो प्राचीन काल में बौद्ध भिक्षुओं की महान शरणस्थली रही हैं। कुछ गुफाएं तो दो या तीन मंजिल ऊंची हैं। ये गुफाएं 300 ईसवी के मध्य की हैं और अपने विशाल सभागार,एवं उससे जुड़ी घुमावदार सीढ़ियों, की बनावट के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण कलात्मक योगदान को दर्शाती हैं। ऊपरी कक्ष में एक छोटा स्थान है तथा एक गलियारे से घिरा टैंक है; जो उत्कृष्ट शिल्पकला से उत्कीर्ण छह सुंदर खंभों पर टिका है।
बाघः मध्य प्रदेश के बाघ में नौ बलुई पत्थर युक्त बौद्ध गुफाएं हैं जो सुंदर भित्तिचित्र एवं पत्थरों पर उत्कीर्ण उत्कृष्ट शिल्पकला से युक्त हैं इनका निर्माण संभवतः छठी शताब्दी ईसवी में हुआ, किंतु वे अजंता भित्तिचित्र से पहले की भी हो सकती है।
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics