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मनोवृत्ति की परिभाषा क्या है ? अभिवृत्ति / मनोवृत्ति किसे कहते हैं विशेषता निर्माण तथा परिवर्तन की विवेचना कीजिए।

अभिवृत्ति / मनोवृत्ति किसे कहते हैं विशेषता निर्माण तथा परिवर्तन की विवेचना कीजिए। मनोवृत्ति की परिभाषा क्या है ?

अभिवृत्ति/मनोवृत्ति
मनोवृत्ति एक प्रचलित शब्द है जिसका व्यवहार प्रायः हम अपने दैनिक जीवन में दिन-प्रतिदिन करते हैं। वस्तुतः मनोवृत्ति किसी व्यक्ति की मानसिक तस्वीर या प्रतिच्छाया है जिसके आधार पर वह व्यक्ति, समूह, वस्तु, परिस्थिति या फिर किसी घटना के प्रति अनुकूल या प्रतिकूल दृष्टिकोण अथवा विचार को प्रकट करता है। मनोवृत्ति का प्रभाव व्यक्ति के व्यवहार पर दिशासूचक रूप से पड़ता है। मनोवृत्ति व्यक्ति की शक्ति को एक खास दिशा में लगा देती है, जिसके कारण वह अन्य दिशाओं को छोड़कर एक निश्चित दिशा में व्यवहार करने लगता है। जैसा कि इसकी परिभाषा से स्पष्ट है- मनोवृत्ति सकारात्मक भी हो सकती है और नकारात्मक भी। अगर व्यक्ति की मनोवृत्ति सकारात्मक है तो उसकी प्रतिक्रिया भी अनुकूल होगी, परन्तु अगर मनोवृत्ति नकारात्मक है तो प्रतिक्रिया अनुकूल नहीं बल्कि प्रतिकूल होगी। अर्थात् व्यक्ति की मनोवृत्ति तथा उसके व्यवहार के बीच सदा सम्बद्धता होती है। दूसरे शब्दों में, अगर एक व्यक्ति की मनोवृत्ति अपने काम अथवा संगठन (जिसका वह सदस्य है) के प्रति सकारात्मक है तो उससे इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि वह अपने संगठन के प्रति अपना महत्तम योगदान देगा। ऐसे में सकारात्मक मनोवृत्ति के कारणों की पहचान और उनका विश्लेषण अवश्य किया जाना चाहिए।

मनोवृत्ति के संघटक
मनोवृत्ति के तीन महत्वपूर्ण घटक हैं। ये हैं-
ऽ संज्ञानात्मक संघटक (Cognitive Component)
ऽ भावात्मक संघटक (Affective Component)
ऽ व्यवहारात्मक संघटक (Behavioural Component)
संक्षेप में इसे कैब (CAB) कहा जाता है।

संज्ञानात्मक संघटक (Cognitive Component)

किसी वस्तु से संबंधित व्यक्ति के विचार और विश्वासों को संज्ञानात्मक घटक कहते हैं। अर्थात् किसी वस्तु के बारे में उपलब्ध सूचना के आधार पर ही हम उसके बारे में अपनी धारणा बनाते हैं या फिर कोई निर्णय देते हैं। इसी आधार पर उस वस्तु के बारे में हमारी मनोवृत्ति सकारात्मक या नकारात्मक होती है। मनोवृत्ति का यही संघटक संज्ञानात्मक कहलाता है। उदाहरण के लिए, अगर हम किसी व्यक्ति के प्रति यह विश्वास रखते हैं कि हंै वह असभ्य है तो इसका अर्थ यह है कि हम उसे एक असभ्य मनुष्य के रूप में देखते हैं। उस व्यक्ति के प्रति हमारे इसी विश्वास की संज्ञानात्मक घटक कहा जाएगा।

भावात्मक संघटक (Affective Component)

मनोवृत्ति की संरचना में भावात्मक घटक की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वस्तुतः वह संघटक मनोवृत्ति परिवर्तन, निर्णयन, सामाजिक प्रभाव तथा प्रत्यायन (Persuasion) सभी में समान रूप से पाया जाता है। भावात्मक संघटक का तात्पर्य किसी मनोवृत्ति वस्तु (attitude object) के प्रति व्यक्ति भाव अथवा पसंद या नापसंद तथा सहानुभूति आदि से है। भावात्मक संघटक वास्तव में मनोवृत्ति का सारभाग (Core) होता है तथा अन्य संघटक सिर्फ सहायक की भूमिका में होते हैं। भावात्मक संघटक का मापन भी प्रत्यक्ष रूप से संभव है।

व्यवहारात्मक संघटक (Beharioural Component)
किसी वस्तु के प्रति व्यवहार या क्रिया करने की तत्परता को व्यवहारात्मक संघटक कहते हैं। यह क्रियात्मक संघटक के नाम से भी जाना जाता है। क्रियात्मक संघटक का तात्पर्य किसी मनोवृत्ति-वस्तु के प्रति व्यक्ति की क्रिया प्रवृत्ति से है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति किसी मनोवृत्ति-वस्तु के प्रति कैसा व्यवहार करता है। उदाहरण के लिए, अगर एक व्यक्ति को यह विश्वास है जिस संस्था में वह कार्यरत है वहां का मालिक भ्रष्ट है तथा संस्था के पैसों का दुरुपयोग कर रहा है तो ऐसे में हो सकता है अपने मालिक के प्रति वह वैसा व्यवहार करे जैसा कि उसमें उम्मीद की जाती है या फिर यह भी हो सकता है कि वह अपनी नौकरी ही छोड़ दे। इसीलिए कहा जाता है कि मनोवृत्ति अनुकूल या प्रतिकूल प्रतिक्रिया करने की मानसिक तत्परता है।
मनोवृत्ति के प्रकारः मनोवृत्ति को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है- व्यक्त (प्रत्यक्ष) और अंतर्निहित (अप्रत्यक्ष)। दोनों में मौलिक अन्तर यह है कि जहां मनुष्य व्यक्त (प्रत्यक्ष) मनोवृत्ति के निर्माण के प्रति सजग रहता है अर्थात् उसे अपनी मनोवृत्ति का ज्ञान रहता है वहीं अंतर्निहित अर्थात् अप्रत्यक्ष मनोवृति के प्रति वह सचेत नहीं रहता बल्कि भूतकाल की यादें इस मनोवृत्ति के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
ऽ व्यक्त अथवा प्रत्यक्ष मनोवृत्ति – सजगता का परिणाम
ऽ अंतर्निहित अथवा अप्रत्यक्ष मनोवृत्ति – अचेतन मन में निहित

व्यक्त या प्रत्यक्ष मनोवृत्तियां (Explicit Attitudes)

ऐसी मनोवृत्ति की खास बात यह है कि व्यक्ति ऐसी मनोवृत्तियों के प्रति सचेत रहता है अर्थात् ऐसी मनोवृत्तियां सोच समझकर बनाई जाती हैं। व्यक्ति अपने आस-पास की घटनाओं से अवगत है और उन्हीं से प्रभावित होकर वह एक खास दिशा में एक विशिष्ट तरीके से सोचता है या फिर व्यवहार करता है। उसके इसी व्यवहार में उसकी मनोवृत्ति परिलक्षित होती है और इस बात का भी संज्ञान उसे रहता है। इस मनोवृत्ति के निर्माण में प्रेरक शक्ति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हाल ही में हुई आस-पास की घटनाओं आदि का संज्ञान एवं उससे प्रेरित होकर ही व्यक्ति का व्यवहार निर्देशित होता है। इसलिए कभी-कभी इसे स्व अर्जित मनोवृत्ति भी कहा जाता है।

अंतनिर्हित या अप्रत्यक्ष मनोवृत्तियां (Implicit Attitudes)

अंतर्निहित या अप्रत्यक्ष मनोवृत्तियों का स्रोत हमारी भूतकाल की घटनाएं हैं। ये घटनाएं यादों के रूप में हमारे अचेतन मन में अपना पैठ बना लेती हैं। अचेतन मन में बैठे इन्हीं बातों से प्रेरित होकर हम किसी खास वस्तु या व्यक्ति के विषय में एक विशेष तरीके से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यह हमारी अंतर्निहित अथवा अप्रत्यक्ष मनोवृत्ति का ही परिचायक है। ऐसी मनोवृत्तियां जानबूझ कर या फिर सजग होकर नहीं बनायी जाती बल्कि ये स्वतः ही हमारे मन मस्तिष्क में उपस्थित होकर हमारे व्यवहार को निर्देशित करते है अर्थात् अंतर्निहित मनोवृत्तियों में संज्ञानात्मक घटक अनुपस्थित रहता है और हमारे पूर्व के अनुभवों की ही इसमें केन्द्रीय भूमिका होती है। अंतर्निहित मनोवृत्तियां ज्यादातर संवेगात्मक घटक से ही प्रभावित रहती है। संवेगात्मक घटकों के अन्तर्गत व्यक्ति की पसंदगी-नापसंदगी, घृणा-सहानुभूति आदि के भाव आते हैं जो किसी न किसी रूप में हमारी संस्कृति से जुड़े होते हैं। अतः अंतर्निहित अथवा अप्रत्यक्ष मनोवृत्तियों में हमारे सांस्कृतिक प्रतिरूपों का निश्चित प्रभाव पड़ता है।

मनोवृत्ति का विकास तथा निर्माण (Formation of Attitude)

मनोवृत्तियां मानव का एक अर्जित गुण होती हैं अर्थात् जन्म के समय किसी व्यक्ति का किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थान या परिस्थिति के प्रति न तो अनुकूल मनोवृत्ति रहती है, न प्रतिकूल। लेकिन आयु में वृद्धि होने के साथ अनुभव अथवा शिक्षण के कारण अनुकूल या प्रतिकूल तथा सकारात्मक या नकारात्मक मनोवृत्ति का निर्माण जन्म के बाद व्यक्ति की सामाजिक अंतः क्रिया और प्राप्त अनुभव द्वारा होता है। अतः मनोवृत्ति एक अर्जित गुण है। हालांकि कुछ ऐसे भी प्रमाण मिले हैं जिसके आधार पर यह कहा जाने लगा है कि मनोवृत्तियों के निर्माण में आनुवांशिक कारकों की भी सक्षम भूमिका होती है। .
मनोवृत्तियों के निर्माण व विकास के संबंध में कई सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं, जैसे-
ऽ क्लासिकल या पावलोवियन अनुकूलन (Classical or Pavlovian Conditioning)
ऽ साधनात्मक अनुकूलन (Instrumental Conditioning)
ऽ स्थानापन्न शिक्षण (Observational or Vicarious Learning)
ऽ आनुवांशिक कारक (Genetic Factors)

क्लासिकल या पावलोवियन अनुकूलन
क्लासिकल अनुकूलन कुछ और नहीं बल्कि व्यवहार में एक खास तरह का परिवर्तन है जो मनोवृत्ति से ही निर्देशित होता है। क्लासिकल अनुकूलन के रूप में सामाजिक शिक्षण का प्रभाव मनोवृत्ति निर्माण पर पड़ता है। व्यक्ति जब बार-बार किसी वस्तु या घटना के बारे में सकारात्मक अथवा नकारात्मक दृष्टिकोण या विचार सुनता है अथवा देखता है तो वह अनुकूलित हो जाता है तथा उसी तरह की मनोवृत्ति भी उसमें विकसित हो जाती है। पावलोव ने अपने प्रयोगों के द्वारा क्लासिकल अनुकूलन को सिद्ध करने की कोशिश की है। पावलोव ने कुछ कुत्तों को भोजन परोसा लेकिन उसके ठीक पहले उसने कुत्तों के सामने बजती हुई घंटी रख दी। भोजन को देखते ही कुत्तों में इसके प्रति उद्दीपन दृष्टिगोचर हुआ जो स्वाभाविक था। इसी तरह कुत्तों के सामने बजती हुई घंटी तथा भोजन को एक साथ बार-बार रखा गया तो पाया गया कि कुत्तों में बजती हुई घंटी के प्रति वहीं उद्दीपन दृष्टिगोचर हुआ जैसा कि भोजन परोसने पर होता था अर्थात् भोजन के बजाए सिर्फ बजती घंटी को देखकर भी कुत्तों ने वही प्रतिक्रिया व्यक्त की जो कि वे भोजन परोसने पर स्वाभाविक रूप से करते हैं। अतः क्लासिकल अनुकूलन में उद्वीपकों/प्रेरकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
यही नहीं बल्कि क्लासिकल अनुकूलन मनोवृत्ति और पूर्वधारणा के संवेगात्मक घटक के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। यह क्लासिकल अनुकूलन है जिसके कारण किसी व्यक्ति की मनोवृत्ति में अचानक और जबरदस्त बदलाव आ सकता है। यह बदलाव किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति उसके व्यवहार में परिलक्षित हो सकता है भले ही उस व्यक्ति या वस्तु के संबंध में उसे कोई पूर्वज्ञान या अनुभव न हो। जैसे- छोटे बच्चों का अधिकांश समय उसके सामने बार-बार यह दुहराया जाए कि हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे के प्रति क्रूर तथा पशुवृत्ति जैसा व्यवहार करते हैं तो दोनों समुदायों के बच्चों को गहरा संवेगात्मक आघात पहुंचता है और उनकी मनोवृत्ति एक-दूसरे के प्रति नकारात्मक बन जाती है।

साधनात्मक अनुकूलन (Instrumental Conditioning)

साधनात्मक अनुकूलन के रूप में भी सामाजिक शिक्षण का प्रभाव मनोवृत्ति निर्माण पर पड़ता है व्यक्ति उस मनोवृत्ति को जल्द ग्रहण करता है जिसमें पुरस्कार प्राप्त होता है और उस मनोवृत्ति को नहीं ग्रहण करता है जिसमें दण्ड प्राप्त होता है। सामाजिक परिस्थितियों में सामाजिक स्वीकृति एवं अस्वीकृति क्रमशः अच्छे एवं बुरे परिणामों के रूप में मनोवृत्ति के निर्माण एवं विकास के लिए प्रेरक का काम करते हैं। उदाहरण के लिए, बच्चों को अगर उनकी पढ़ाई तथा अच्छे अंक के लिए माता-पिता से प्रशंसा एवं प्रोत्साहन मिलता है तो ज्यादातर इस बात की उम्मीद रहती है कि वे और अधिक मेहनत और उत्साह के साथ पढ़ना शुरू कर दे। ऐसा इस कारण है क्योंकि पढ़ाई के प्रति उनकी मनोवृत्ति प्रोत्साहन एवं प्रशंसा के कारण सकारात्मक बन जाती है। वहीं पर जिनके बच्चों के माता-पिता अपने बच्चों की उपलब्धियों को नजरअंदाज करते हैं और उन्हें प्रोत्साहन देने जैसा कुछ भी नहीं करते उन बच्चों में पढ़ाई के प्रति नकारात्मक मनोवृत्ति घर कर लेती है। यह कुछ और नहीं साधनात्मक अनुकूलन है जो इस तरह की मनोवृत्ति के निर्माण एवं उनकी प्रकृति को निर्धारित करता है।

अवलोकन/स्थानापन्न शिक्षण (Observational Learning)

स्थानापन्न अथवा अवलोकन के द्वारा शिक्षण से मनोवृत्ति निर्माण एवं विकास में सहायता मिलती है; अर्थात इस प्रकार के सामाजिक शिक्षण का भी प्रभाव मनोवृत्ति निर्माण पर पड़ता है। जैसे- एक व्यक्ति जब किसी दूसरे को किसी खास मनोवृत्ति के कारण पुरस्कार अथवा दंडित होते देखता है, या अवलोकन करता है तो इसके आधार पर वह सकारात्मक या नकारात्मक मनोवृत्ति सीख लेता है अर्थात् व्यक्ति दूसरों के मात्र निरीक्षण के आधार पर कई प्रकार की मनोवृत्तियों को अपना लेता है। धर्म एवं समुदाय से संबंधित मनोवृत्तियों के निर्माण में स्थानापन्न अथवा अवलोकन की यह प्रक्रिया विशेष महत्व रखती है।

आनुवंशिक कारक (Genetic Factors)

मनोवृत्ति निर्माण में आनुवंशिक कारकों की भी भूमिका पाई गई है। परन्तु हर प्रकार की मनोवृत्ति के निर्माण में आनुवंशिक कारकों की भूमिका नहीं होती बल्कि कुछ खास तरह की मनोवृत्तियों के लिए ही ये कारक उत्तरदायी होते हैं। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति अगर एक खास प्रकार का व्यंजन विशेष रूप से पसंद करता है तो इसका कारण वंशानुगत हो सकता है न कि संज्ञानात्मक। अर्थात् किसी व्यंजन विशेष के प्रति खास रुचि प्रदर्शित करना आस-पास के परिवेश अथवा माहौल का परिणाम नहीं भी हो सकता है बल्कि जैविक कारकों द्वारा इस तरह की मनोवृत्ति को सही ढंग से विश्लेषित किया जा सकता है।