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मंडी कलम चित्र शैली क्या है , मंडी कलम चित्रकला के प्रमुख कलाकारों के नाम शुरुआत किसके शासन काल में हुई

जाने मंडी कलम चित्र शैली क्या है , मंडी कलम चित्रकला के प्रमुख कलाकारों के नाम शुरुआत किसके शासन काल में हुई  ?

मंडी कलम चित्र शैली : पहाड़ी चित्रशैली में यह एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। मंडी कलम की शुरुआत सोलहवीं शताब्दी में हुई जब मुगलकाल का दौर परवान पर था। कांगड़ा कलम की तरह मंडी कलम को उतनी ख्याति नहीं मिल पाई। मंडी राज्य की स्थापना के साथ ही मंडयाली लोक संस्कृति और लोक कला के उत्थान की प्रक्रिया आम जनमानस के बीच शुरू हुई। जिसमें पहाड़ी चित्रशैली में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाली मंडी कलम भी एक है।
मंडी कलम की शुरुआत मंडी के शासक केशव सेन के शासन काल में हुई, जो मुगल सम्राट अकबर का समकालीन था। मंडी चित्रशैली में लोककला और राजसी वैभव का समावेश रहा है। साधारण जनमानस के हाथों संवरी और कुशल चितेरे के संरक्षण में बढ़ी मंडी कलम निचले स्तर की आम गृहिणी से लेकर राजदरबार में संरक्षण प्राप्त चित्रकार की तूलिका तक से उकेरी गई। गृहिणियों द्वारा घर के आंगन में लिखणू और डहर के रूप में तथा पंडितों और विद्वानों द्वारा जन्मपत्रियों, धार्मिक और तांत्रिक पुस्तकों, पांडुलिपियों से लेकर आदमकद तस्वीरों, भित्ति चित्रों और कपड़ों पर मंडी कलम उकेरी गई। यहां तक कि कामशास्त्र के रंगीन चित्रों को भी बारीकी से उकेरा गया है।
मंडी कलम का विकास 17वीं शताब्दी में अधिक हुआ है। इस दौरान बहुत सारे चितेरे मुगल शासक औरंगजेब के भय से पहाड़ों की ओर रुख कर चुके थे। मंडी रियासत में भी ऐसे कुछ चितेरों को पनाह मिली, जिसके कारण मंडी कलम पर मुगल चित्रशैली का प्रभाव भी देखने को मिलता है। मंडी कलम में तत्कालीन वेशभूषाए जगजीवन और नायिकाओं के तीखे नैन-नक्श बारीकी से उकेरे गए हैं। मंडी रियासत के सबसे पुराने राजमहल दमदमा महल की दीवारों पर आज भी मंडी कलम के चित्र उकेरे हुए हैं। हालांकि उनका रंग फीका पड़ गया है।
मंडी कलम के चितेरों में पं. ज्वाला प्रसाद और पं. भवानीदत्त शास्त्री का नाम भी लिया जा सकता है। वास्तव में सदियों पुरानी इस पहाड़ी चित्रशैली की परम्परा को आगे बढ़ाने वाला आज कोई चित्रकार मौजूद नहीं है। लेकिन ग्रामीण अंचलों में आज भी यह लोक कला के रूप में महिलाओं द्वारा बना, जागे वाले लिखणु, डहर और छापे के माध्यम से जिंदा है।

तंजंजावुर चित्रकला
17वीं से 19वीं शताब्दी तक तंजावुर शैली की चित्रकला काफी प्रसिद्ध थी, जो तंजौर के मराठा शासकों साराभोजी द्वितीय (1797-1833) और शिवाजी द्वितीय (1833-58) और मैसूर में मुम्मादि कृष्णराजा वोदयार (1799-1865) (जिसने टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद साम्राज्य में हिंदू शासन पुनस्र्थापित किया) के काल में फली-फूली।
विष्णु, शिव और कृष्ण कलाकारों को प्रिय थे। परंपराग्त रूप से, चित्रकार मूर्ति शिल्प के सिद्धांत का पालन करते थे, क्योंकि ये चित्र पूजा और आनुष्ठानिक कार्यों के लिए बना, जाते थे, ना कि प्रदर्शन के लिए, जैसा कि आजकल होता है।
तंजौर शैली में एक चित्र को बनाने में लगभग तीन हफ्ते लगते थे। जो पद्धति इस्तेमाल की जातीए वह बहुत ही मजेदार होती थी। ये चित्र जैक की लकड़ी पर बना, जाते थे, जिस पर अविरंजित वस्त्र चिपकाया जाता था। (तेलुगू में इसे ‘गादा’ कहते हैं) इसके ऊपर चूना-पत्थर, चाक पाउडर,गोंद और शहद के मिश्रण को प्रतिमा के रेखाचित्र के ऊपर तहों में लगाया जाता था। इसके बाद हजारों बिंदुओं वाले परंपराग्त रूप को इस मिश्रण के साथ समुद्भृत किया जाता था। पीछे की तरफ से पृष्ठ भूमि के कुछ भागों को उभारा जाता था तथा साड़ी की किनारी, फर्नीचर, वस्त्र और आभूषणों को इस मिश्रण द्वारा अतिरिक्त तह दी जाती थी।
एक बार सूखने के बाद इसमें रत्न लगा, जाते थे, पहले हीरे, माणिक्य और लाल का उपयोग होता था और सोने की पत्तियां इमली और शक्कर के घोल से तैयार गोंद द्वारा चिपकाई जातीं थीं। अंत में सजावट की जाती थी।
परंपरा के अनुसार रंगों का इस्तेमाल शुद्ध और समतल होता था। पृष्ठीाूमि हमेशा लाल और हरी चित्रित की जाती थी। हरे रंग के वस्त्र पार्वती के लिए बना, जाते थे। बाल गोपाल को सफेद दिखाया जाता था, जबकि वयस्क कृष्ण नीले दर्शाए जाते थे। आकृति के बाहरी किनारे गहरे लाल व भूरे रंग के होते थे। कला इतिहासकारों के अनुसार परम्परागत तंजौर कला ऐसे लोगों की देन थी, जो उस समय अपने देवी.देवताओं में अपने लिए राहत व सांत्वना तलाश रहे थे और अपनी पहचान के लिए तत्पर थे, यह उस समय की बात है जब देशी राजाओं ने अपने आपको विदेशियों (अंग्रेजों) के हाथों बेच डाला था।
हालांकि तंजौर शैली की चित्रकला को उच्चकोटि की कला नहीं माना जाता है, फिर भी इस शैली का ऐतिहासिक महत्व है। मराठा काल, जिसमें यह शैली पनपी व विकसित हुई, और उसके बाद आधुनिक चित्रशैली के आगमन तक भारत की दृश्यमान कलाओं की परंपरा अवरु) ही रही।
मैसूर चित्रशैली
1565 ईस्वी में जब विजयनगर साम्राज्य का पतन हुआ, तो इस पर निर्भर रहने वाले चित्रकारों एवं उनके परिवारों को बड़ा धक्का लगा। हालांकि, चित्रकारों के परिवारों के पुनर्वास के लिए राजा बोदयार (1578-1617) ने उन्हें जरूरी सेवाएं प्रदान कीं। राजा बोदयार के उत्तराधिकारियों ने भी विभिन्न मंदिरों के निर्माण एवं महलों के चित्रकारी के माध्यम से चित्रकारों का संरक्षण किया। हालांकि हैदरअली और टीपू सुल्तान का ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध के परिणामस्वरूप कोई भी पेंटिंग अक्षुण्ण नहीं रह सकी। 1799 में टीपू सुल्तान की मृत्यु के पश्चात्, राज्य मैसूर के पूर्व राजवंश परिवार के पास पहुंच गया। मैसूर के राजा मुमादी कृष्णराजा वोदयार (1799-1868) ने मैसूर की प्राचीन परम्परा का पुनरुद्धार किया और कला को अपना संरक्षण प्रदान किया। मैसूर स्कूल की मौजूद अधिकतर पेंटिंग्स इसी शासनकाल की हैं। अधिकतर चित्रकारी को मैसूर के जगन मोहन महल की दीवारों पर देखा जा सकता है। इन चित्रों में मैसूर शासकों, उनके पारिवारिक सदस्यों और भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों को उकेरा गया है। शैलचित्रों में पुराणों एवं महाकाव्यों से लिए गए दृष्टांतों को प्रदर्शित किया गया है।