भाई दो न पाई दो नारा किसने दिया ? ना एक पाई ना एक भाई का नारा किसके द्वारा दिया गया था
जाने भाई दो न पाई दो नारा किसने दिया ? ना एक पाई ना एक भाई का नारा किसके द्वारा दिया गया था ?
उत्तर : यह नारा जयप्रकाश नारायण के द्वारा दिया गया था |
प्रश्न: विनायक नरहरि भावे (विनोबा भावे)
उत्तर: विनोबा भावे महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण थे। इन्होंने नागपुर के झंडा सत्याग्रह, केरल के मंदिर प्रवेश आंदोलन, नमक सत्याग्रह एवं दांडी मार्च में सक्रियता से भाग लिया। 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के प्रथम सत्याग्रही बने एवं भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रियता से भाग लिया। ये पक्के गांधीवादी थे और स्वतंत्रता के बाद इन्होंने ‘भू-दान‘ एवं ‘सर्वोदय‘ आंदोलनों का नेतृत्व किया।
प्रश्न: श्याम जी कृष्ण वर्मा ना. श्याम जी कृष्ण वर्मा (1857-1930) भारतीय क्रांतिकारी, वकील एवं पत्रकार थे। उन्होंने इण्डिया होम रूल सोसाईटी, इण्डिया हाउस और द इण्डिया सोसियोलॉजिस्ट नामक क्रांतिकारी संस्थाओं की 1905 में लंदन में स्थापना की। इन्होंने
Indian Sociolagist News Paper प्रकाशित किया। वे दयानंद सरस्वती के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तथा हर्बर्ट स्पेंसर के आक्रमण करने के लिए प्रतिरोध उचित ही नहीं बल्कि जरूरी भी है, से प्रभावित थे। इण्डिया हाउस तथा द इण्डियन सोसियोलॉजिस्ट नामक संस्थाओं के द्वारा ब्रिटेन में रेडिकल राष्ट्रवादियों को मिलने का एक स्थान प्रदान करवाया। यह भारतीय राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों के मिलने का देश से बाहर सबसे महत्वपूर्ण केंद्र था। इस संस्था के अन्य महत्वपूर्ण सदस्य थे वी.डी. सावकर। भाई परमानंद, मैडम कामा, लाला हरदयाल, मदनलाल धींगरा आदि।
प्रश्न: भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के प्रवाह को प्रभावित करने में तिलक का क्या योगदान है ?
उत्तर: एक राजनीतिक नेता के रूप में तिलक ने ‘केसरी‘ तथा ‘मराठा‘ नामक समाचार-पत्रों द्वारा अपने विचार एवं संदेशों का प्रचार किया। 1896 के दुर्भिक्ष के समय से ही उन्होंने जनता को राजनीति का रहस्य समझाया और भारतीय राजनीति में एक प्रचंड तत्व को सक्रिय कर दिया। तिलक प्रथम कांग्रेसी नेता थे, जो देश के लिए अनेक बार जेल गये। वही पहले व्यक्ति थे, जिन्होनें स्वराज्य की मांग स्पष्ट रूप से की और नारा दिया कि, ‘‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।‘‘ यह तिलक और इनके सहयोगियों के प्रयत्नों का फल था कि 1906 में कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में स्वशासन, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा की मांग का प्रस्ताव पारित किया गया। 1916 में होम रूल आंदोलन चला कर उन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन में सामाजिक आधार को विस्तृत बनाया।
प्रश्न: अरविन्द घोष के क्रांतिकारी विचारों के बारें में बताइए।
उत्तर: घोष क्रान्तिकारी नेता थे जो कलकत्ता की अनुशीलन समिति से जुड़े थे। अपने भाई बरिन्दर के साथ मिलकर एक अरविन्द पुस्तक ‘भवानी मंदिर‘ की रचना की जिसमें उन्होंने खूनी क्रांति का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि एक राक्षस माता की छाती पर बैठा है और हमे हर संभव उपाय द्वारा उसे हुआ देना चाहिए। इस राक्षस को कोई सहयोग न दिया जाये शक्ति माता हमारा खून मांगती है।
देव प्रेषीय सिद्धान्त: भागवत गीता में कृष्ण कहते हैं कि जब अधर्म फैल जाता है तो भगवान कोई नेता भेजते हैं जो पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करता हैं। घोष इसी से प्रेरणा लेकर कहते हैं कि ईश्वर कोई नेता भेजेगा जो इस राक्षस को हुआयेगा तभी माता मुक्त होगी। अतः घोष के अनुसार दैवीय शक्ति से ही भारत को मुक्ति मिलेगी।
निबंधात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न: स्वतंत्रता के पूर्व एवं स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में जन आंदोलनों की उद्वेलित करने में जयप्रकाश नारायण के योगदान की विवेचना कीजिए।
उत्तर: भारत के समाजवादी नेताओं में जयप्रकाश का नाम उल्लेखनीय है। लेकिन उन पर मार्क्सवादी समाजवाद की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। क्योंकि जे.पी. ने 1948 में कहा कि सोवियत नेता स्टालिन दुनिया का सबसे बड़ा समाजवादी नेता है। 1933 में नासिक जेल में कांग्रेस समाजवादी पार्टी बनाई जिसमें अशोक मेहता, युसूफ मेहर अली शामिल थे। 1934 में जेल से करने के बाद पटना में इस पार्टी का विशाल अधिवेशन किया जिसकी अध्यक्षता आचार्य नरेन्द्र देव ने की। जे.पी. ने यह कोशिश की कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) का अध्यक्ष प. नेहरू को बनाया जाये परन्तु नेहरू ने अध्यक्ष बनने से इनकार कर दिया क्योंकि गाँधी को ये पंसद नहीं आई थी।
1934 में भारत सरकार ने समाजवादी पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया तब बहुत से समाजवादी नेता जे.पी. की ब्ैच् में आ से व उन्होंने संयक्त मोर्चा बना लिया। इन लोगों ने जोर डाला की कांग्रेस प्रान्तों में सरकार न बनाये। जब कांग्रेस की सरकारें बनी तो CSP वालों ने इसकी कड़ी आलोचना की। जब 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ तो जे.पी. ने नारा दिया कि – ‘ना एक पाई ना एक भाई‘। जब गाँधीजी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन चलाया तो गाँधी ने उसे बहुत तेज कर दिया।
जब भारत स्वतंत्रता के कगार पर आया तो जे.पी. ने कहा कि किसी भी कीमत पर बटवारा नहीं होना चाहिए लेकिन नेहरू ने उनका सुझाव नहीं माना। 1948 में गाँधी की मृत्यु के बाद पटेल ने कहा कि ब्ैच् को कांग्रेस में रहने का कोई हक नहीं है। अतः जे.पी. व उनके साथियों ने कांग्रेस से अलग होकर समाजवादी पार्टी बनाई। जे.पी. इसके अध्यक्ष थे। 1952 के चुनावों में सपा बुरी तरह हारी और तभी जे.पी. ने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर बिनोबा भावे के अनुयायी होकर पोनार आश्रम चले गये। वहां उन्होंने एक पुस्तक में भारतीय राजव्यवस्था की पुर्नरचना लिखी।
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