बौद्ध दर्शन के चार आर्य सत्य की व्याख्या करें बौद्ध दर्शन के अनुसार दुःख का मूल कारण क्या है कितने , कौनसे
बौद्ध दर्शन के अनुसार दुःख का मूल कारण क्या है कितने , कौनसे बौद्ध दर्शन के चार आर्य सत्य की व्याख्या करें ?
प्रश्न: बौद्ध धर्म की शिक्षाओं में चार आर्य सत्य का क्या महत्व है ? विवेचना कीजिए।
उत्तर: बुद्ध ने ब्राह्मण ग्रन्थों द्वारा प्रतिपादित वेदों की अपौरुषेयता एवं आत्मा की अमरता के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया। किन्तु आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करने पर भी वे पुनर्जन्म तथा कर्म के सिद्धान्त को मानते थे। खर्चीले यज्ञों एवं अन्धविश्वासों के वे घोर विरोधी थे। गौतम बुद्ध ने ऋषिपत्तन (सारनाथ) में अपने पाँच साथियों को प्रथम बार उपदेश दिया। बौद्ध धर्म में इसे धर्मचक्रप्रवर्तन की संज्ञा दी जाती है। यह उपदेश दुःख, दुरूख के कारणों तथा उनके समाधान से संबंधित था। इसे श्चार आर्य सत्यश् कहा जाता है।
(1) दुःख है : बौद्ध दर्शन के अनुसार समस्त संसार दुःखमय है। दुःख की सत्ता इतनी सविहित है कि उसका उपलभं नहीं किया जा सकता। सभी प्राणी किसी न किसी दुःख से दुःखीं हैं। इसलिए तथागत ने दुःख को सभी कष्टों का मूल माना तथा चतुआर्य सत्य का प्रथम चरण माना। जिसे न झुठलाया जा सकता है और न अस्वीकार किया जा सकता है। इसलिए यह सत्य है।
(2) दुःख समुदय : दुःख के कारण को दुःख समुदय सत्य के अंतर्गत रखा गया है। जन्म, रोग, सुख, भोग की कामना, भौतिक पदार्थो की प्राप्ति की इच्छा आदि ही दुःख के कारण हैं। तृष्णा, कामना इच्छा आदि दुःख समुदय में समाहित हैं। दुःख की उत्पत्ति के अनेक कारण है। इस प्रकार बौद्ध धर्म में कारणवाद का महत्वपूर्ण स्थान है।
कारणवाद : कारणवाद की अभिव्यजंना द्वादशनिदान के अतंर्गत की गई है जो प्रत्येक वस्तु का उद्भव और अनुभव का दर्शन है। द्वादशनिदान की अभिव्यंजना प्रतीत्यसमुत्पाद के अंतर्गत की गई है।
प्रतीत्यसमुत्पाद : हेतु परम्पराध्इसके होने से यह उत्पन्न होता है अर्थात् एक वस्तु की प्राप्ति होने पर दूसरी वस्तु की उत्पति प्रतीत्यसमुत्पाद है।
द्वादशनिदान : इस पर भारतीय सांख्य एवं उपनिषद् दर्शन का प्रभाव है। इस दर्शन के अतंर्गत एक कारण के आधार पर एक कार्य उत्पन्न होता है। जो अज्ञान और अविधा का स्वरूप है और जिसका क्रम चलता रहता है।
प्रतीत्यसमुत्पाद ने दुःख के कारण को निर्दिष्ट करके उससे मुक्ति के 12 उपाय बतायें हैं जो द्वादशनिदान हैं। ये है
ं(1) अविद्यारू- अविद्या से संस्कार (7) वेदना से तृष्णा
(2) संस्काररू- संस्कार से विज्ञान (8) तृष्णा से उपादान
(3) विज्ञान से नामरूप् ा (9) उपादान से भव (संसार में रहने की प्रवृति)
(4) नामरूप से षड़ायतन (इन्द्रियाँ व एक मन) (10) भव से जाति
(5) षड़ायतन से स्पर्श (11) जाति से जरा
(6) स्पर्श से वेदना (12) जरा से मरण
ये 12 स्वरूप चार आर्य सत्यों से ही निकले हैं। इस प्रकार जगत में फैले हुए समस्त दुःखों का मूल कारण है, अविद्या व तृष्णा।
(3) दुःख निरोध रू दुःख का उद्भव अज्ञान व तृष्णा से होता है इसलिए अज्ञान और तृष्णा का अंत आवश्यक है। सांसारिक आंकाक्षाओं का
त्याग और अवरोध ही दुःख निरोध के अंतर्गत ग्रहित किया गया है। विद्या अथवा ज्ञान द्वारा निरोध कर देने पर दुरूख का निरोध हो जाता
है। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान का अवरोध ही दुः,ख निरोध है।
(4) दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा रू दुःख से मुक्ति पाने के लिए जिस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, वह चैथ ज्ञान तत्व के अतंर्गत सम्मिलित किया गया है। बुद्ध के अनुसार सुख, दुरूख को किसी भी मार्ग को अपनाने से मुक्ति नहीं मिल सकती। अतः मुक्ति के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए विषय आसक्ति, घोर तपस्या और कठोर काया व क्लेश का साधना की त्याग कर दोनों के मध्यवर्ती मार्ग को अपनाना चाहिए। जिसे मध्यममार्ग कहा गया है।
प्रश्न: बौद्ध धर्म में आष्टांगिक मार्ग (मध्यम मार्ग) का महत्व क्या है ?
उत्तर: विराग, निरोध, उपशय (शासन), अविज्ञा, सम्बोधि और निर्वाण के लिए बुद्ध ने जो आठ मार्ग सझाया, उसे अष्टांगिक मार्ग कहा गया है। अष्टांगिक मार्ग को निर्वाण की ओर ले जाने वाला बताया गया है। वस्तुतः प्रत्येक साधक के लिए अष्टांगिक मार्ग का अनुवर्तन करना आवश्यक माना गया, क्योंकि निर्वाण पद की प्राप्ति इसी से सम्भव है।
अष्टांगिक मार्ग निम्नलिखित हैं रू
(1) सम्यक् दृष्टि -नीर क्षीर विवेकी दृष्टि (पहचानना)
(2) सम्यक् संकल्प – प्रवृत्ति मार्ग से निवृति मार्ग का अनुसरण
(3) सम्यक् वाणी- अनुचित कटु भाषणों की जगह मृदु भाषण
(4) सम्यक् कर्मात् – हिंसा, वासना की जगह सत्यकर्म
(5) सम्यक् आजीव- न्यायपूर्ण व उचित आधार पर जीवनयापन
(6) सम्यक् व्यायाम् – बुराईयों को समाप्त कर अच्छे कर्म
(7) सम्यक् स्मृति – विवेक व अनुसरण का अनुपालन
(8) सम्यक् समाधि – चित्त की एकाग्रता
प्रश्न: बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धांतों व दर्शन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर: चार आर्य सत्य रू बुद्ध के धर्म सिद्धान्त में आर्य सत्य का प्रधान योग था। जीवन में दुःख की अपरिहार्यता से उनके धर्म का. प्रारंभ हुआ था
जो सत्य था, अतः बुद्ध ने दुःख को आर्य सत्य के अंतर्गत रखा। जिसमें दुःख, दुःख समुदय, दुःख निरोध और दुःख निरोधगामी प्रतिपदा सम्मिलित थे जो श्चत्वारी आर्यसत्यानीश् कहलाते हैं। इन्हीं चार आर्य सत्यों का शास्ता ने उपदेश दिया।
अष्टांगिक मार्ग रू विराग, निरोध, उपशय (शासन), अविज्ञा, सम्बोधि और निर्वाण के लिए बुद्ध ने जो आठ मार्ग सुझाया, उसे अष्टांगिक मार्ग कहा गया है।
निर्वाण
अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करने से निर्वाण प्राप्ति संभव है। यह इसी जीवन में सम्भव है। जिसका बौद्ध धर्म में अर्थ परम ज्ञान है। बुद्ध के अनुसार प्रत्येक वस्तु किसी न किसी कारण से उत्पन्न होती है, यदि उस कारण का विनाश हो जाय तो वस्तु का भी विनाश हो जाएगा। अतरू यदि दुखों के मूल कारण अविद्या का विनाश कर दिया जाय, तो दुःख भी नष्ट हो जाएगा। दुःख-निरोध को ही श्निर्वाणश् कहा जाता है। निर्वाण का अर्थ जीवन का विनाश न होकर उसके दुरूखों का विनाश है। मनुष्य जरा, मरण के चक्कर से छुटकारा पा जाता है। इस संदर्भ में अपने प्रिय शिष्य आनन्द के लिए महात्मा बुद्ध ने यह वक्तव्य दिया है श्सभी संस्कार व्ययधर्मा हैं। अप्रमाद के साथ अपने मोक्ष का सम्पादन करें।श्
दसशील का सिद्धान्त रू पाँचशील गृहस्थों के लिए व इनके अतिरिक्त और पाँचशील भिक्षुओं के लिए बताये हैं।
गृहस्थों के शील रू हिंसा से विरत रहना, प्राप्त न होने वाली वस्तु को न लेना, काम व झूठं आचार से बचना, झठ से विरत रहना, नशीली व सुस्तीदायक चीजों से बचना।
भिक्षुओं के लिए 5 और अतिरिक्त रू कुशन व भोजन से विरत रहना, नाच, गान, वाद्य से विरत रहना, गंध, लेप. भंगार से बचना, ऊँचे पलंग आदि से बचना, स्वर्ण, रजत व धन सम्पति का संग्रह न करना।
बौद्ध त्रिरत्न रू जैन धर्म की भांति बौद्ध धर्म में भी त्रिरत्न को स्थान दिया गया है जो है
ं(1) प्रज्ञा रू श्रृद्धा व सहृदय भावना का ज्ञान।
(2) शील रू सदाचरण और सचरित्रता की उत्कृष्टता।
(3) समाधि रू चित्त और मन की एकाग्रता।।
कर्मवाद रू बुद्ध कर्मवाद की महत्ता को स्वीकार करते हैं। उन्होंने कहा जिस कर्म से सभी सुखी हैं, वही कर्म ठीक है. अन्य नहीं। वे कहते हैं ष्मैने चेतना को कर्म कहा है। चेतनापूर्वक कर्म किया जाता है काया से, मन से, वाणी से। बुद्धघोष ने भी कर्म के इसी भाव को स्पष्ट करते हुए कहा है कि कुशल और अकुशल की चेतना ही कर्म है।
जगत संबंधी विचार रू रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान के 5 स्कंदो से जगत् निर्मित है। जिसका अंत सम्भव है। अविद्या के कारण ही ऐसा है। अविद्या के समाप्त होने पर यह भी ओझल हो जाता है। जगत रूप से मनुष्य आबद्ध है। ये कार्यकलाप कार्यकारण के तारतम्य में रहते हैं। प्रत्येक वस्तु किसी का कार्य और किसी का कारण होती है और स्वयं समाप्त होकर किसी और को उत्पन्न करती है। यही क्रम चलता रहता है।
अनश्वरवाद रू महात्मा बुद्ध ने ईश्वर को सष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया, क्योंकि ऐसा होने पर ही सृष्टि करने वाला भी मानना पड़ता।
अनात्मवाद रू बुद्ध ने आत्मा के बारे में न यह कहा कि आत्मा है और न यह कहा कि नहीं है। जगत 5 स्की हुआ है, जिनमें आत्मा नहीं है। इसलिए यह नश्वर है।
पुनर्जन्मवाद रू कर्मों के फल से ही मनष्य अच्छा बरा जन्म पाता है। एक जन्म की अंतिम चेतना का विलय होते ही दूसरे जन्म की प्रथम चेतना का जन्म हो जाता है।
प्रश्न: महात्मा बुद्ध के जीवन का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर: महात्मा बुद्ध का जन्म-कपिलवस्तु (आधुनिक त्रिलोटापाट) के शाक्य गणराज्य के मुखिया शुद्धोधन के घर 566 ई. पू. में लुम्बिनी वन में हुआ।
बुद्ध की माता का नाम महामाया था, जो कोलिय गणराज्य की राजकुमारी थी। जन्म के बाद उनकी माता का देहांत हो गया, तो इनका लालन-पालन इनकी मौसी गौतमी महाप्रजापति ने किया। बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। गौतम गोत्र होने के कारण गौतम तथा शाक्यवंशी होने के कारण शाक्यसिंह या शाक्यमुनि कहलाये।
सिद्धार्थ का विवाह कोलिय कुल की राजकन्या यशोधरा के साथ हुआ जिसका बौद्ध ग्रंथों में बिम्बा, गोपा. भदकच्छना आदि नाम मिलता है। एक दिन जब सिद्धार्थ अपने सारथी छेदक के साथ नगर भ्रमण के लिए निकले तो उन्हें देवदतों ने कुछ क्रियाएँ दिखाई। जिनके कारण सिद्धार्थ का सांसारिकता से मोह उठ गया। ये क्रियाएं थी-जन्म, जरा, रोग, मत्य. संन्यासी और अपवित्रता। इन क्रियाओं से वे प्रवृतिमार्ग की ओर से निवृति की ओर बढ़े। गौतम के एक पत्र हआ। जब इसका समाचार उसे मिला तो सहसा उनके मुख से यह निकला राहु (बंधन) उत्पन्न हुआ। इसी से नवजात शिश का नाम राहुल पड़ गया। सांसारिक समस्याओं से व्यथित होकर सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग दिया। गहत्याग की इस क्रिया को बौद्ध साहित्य में श्श्महाभिनिष्यक्रमणश्श् कहा गया है। जिसका अर्थ है श्श्महज सत्य की खोज के लिए प्रयाणश्श्। वे सर्वप्रथम वैशाली के समीप आलार कालाम नामक संन्यासी के आश्रम में गये जो कि सांख्य दर्शन आचार्य था। रूद्रक रामपुत्र से योगध्यान साधना का ज्ञान प्राप्त किया। यहां से सिद्धार्थ ने उरूबेला (बोधगया) नामक स्थान को प्रस्थान किया। छः वर्ष की कठोर तपस्या के बाद निरंजना नदी के तट पर वट वृक्ष के नीचे बैसाख पूर्णिमा को 35 वर्ष की आय में सम्बोधि प्राप्त हुई। अब वे श्बुद्धश् और श्श्तथागतश्श् कहलाये। स्थान का नाम श्बोधगयाश् और वृक्ष का नाम श्बोधिवृक्षश् हो गया। जिसे बाद में गौड के शशांक ने काट कर गंगा नदी में फिंकवा दिया। सम्बोधि का अर्थ यथार्थ ज्ञान, बुद्ध का अर्थ प्रज्ञावान और तथागत का अर्थ जिसने सत्य को जान लिया हो।
उरुवेला से बुद्ध सर्वप्रथम ऋषिपत्तन (सारनाथ) आये। उन्होंने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया जबकि महायान ग्रंथ में अनुसार गंधकूट पर्वत (बिहार) पर धर्मचक्रप्रर्वतन दिया। इस प्रथम उपदेश को श्धर्मचक्रप्रवर्तनश् की संज्ञा दी जाती है। उपदेश दुःख, दुःख के कारणों तथा उनके समाधान से संबंधित था। 483 ई. पू. में कुशीनारा में महात्मा बुद्ध महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ। बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् उनके अवशेषों पर साँची में स्तूप का निर्माण अशोक द्वारा किया गया
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