पौधों में जल अवशोषण की क्रियाविधि को समझाइए , जल अवशोषण को प्रभावित करने वाले कारक क्या है
जाने पौधों में जल अवशोषण की क्रियाविधि को समझाइए , जल अवशोषण को प्रभावित करने वाले कारक क्या है ?
जल अवशोषण की क्रियाविधि (Mechanism of absorption of water )
क्रेमर (Kramer, 1949) के अनुसार पादपों में जल अवशोषण दो स्वतंत्र विधियों से सम्पन्न होता है।
- सक्रिय अवशोषण (Active absorption)
- निष्क्रिय अवशोषण (Passive absorption)
- सक्रिय अवशोषण (Active absorption )
मूल, विशेष कर मूल रोम की क्रिया द्वारा जल अवशोषण को सक्रिय अवशोषण (active absorption) कहलाते है। यह दो प्रकार से सम्पन्न हो सकता है-
(i) परासरणी प्रक्रम द्वारा जल का सक्रिय अवशोषण (Active absorption of water through osmotic mechanism)- डयूट्रोचट (Dutrochet, 1837) ने सर्वप्रथम परासरण प्रक्रम द्वारा जल अवशोषण की विधि की व्याख्या की। इस व्याख्या को बाद में अरस्प्रिंग एवं ब्लम (Urspring and Blum, 1916) ने विकसित रूप दिया। उन्होंने दर्शाया कि जल का गमन वास्तव में विसरण दाब (DPD) अथवा चूषण दाब (suction pressure, SP) की प्रवणता की दिशा में होता है। मूल की वल्कुट कोशिकाओं (cortical cells) का DPD जायलम रस (xylem sap) के DPD से कम होता है। सम्पूर्ण मूल वल्कुट (cortex) चयनात्मक पारगम्य झिल्ली ( differentially permeable membrane) की भांति कार्य करता है। कोशिका रसं का OP, 28 atm होता है जबकि मृदा जल का 1 atm से कम होता है इसलिए कोशिका रस का जलविभव (water potential) मृदा जल कम होता है। यह जल कोशिका रस में जल विभव प्रवणता (water potential gradient) के कारण प्रवेश कर जाता है। यह जल एक कोशिका से दूसरी कोशिका में सांद्रता प्रवणता अथवा जल विभव प्रवणता की दिशा में गति करता हुआ अन्त में अन्तश्त्वचा (endodermis ) तथा परिरंभ (pericycle) में पहुँचता है। यहाँ से यह जल जायलम तत्वों (xylem elements) में प्रवेश कर ऊपर की ओर गति करता है। यह सिद्धान्त जल की सरलतम गति को दर्शाता है अर्थात जल एक जीवित कोशिका के जीवद्रव्य में प्रवेश कर दूसरी जीवित कोशिका के जीवद्रव्य में गति कर जाता हैं।
(ii) अपरासरणी प्रक्रम द्वारा जल का सक्रिय अवशोषण (Active absorption of water through non-osmotic mechanism)– ऐसा देखा गया है कि मूल रोम कोशिका रस की सांद्रता मृदा जल की सांद्रता से कम होने पर भी जल अवशोषण होता रहता है। बेनेट-क्लार्क एवं साथियों (Bennet – Clark et al. 1936), थीमन (Thimann, 1951), बोगेन एवं प्रेल (Bogen and Prell, 1953) एवं क्रेमर (Kramer, 1955) ने यह सुझाव दिया कि सांद्रता प्रवणता (concentration gradient) की दिशा के विपरीत जल अवशोषण के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है जो श्वसन द्वारा मुक्त होती है। यह देखा गया है कि वे कारक जो श्वसन को कम करते / बढ़ाते हैं जल अवशोषण को भी कम करते / बढ़ाते हैं ।
- जल का निष्क्रिय अवशोषण (Passive water absorption)
जब वाष्पोत्सर्जन (transpiration) अवशोषण से अधिक होता है तब जल का निष्क्रिय अवशोषण (passive absorption) होता है। इस परिस्थिति में सक्रिय अवशोषण कोई भूमिका नहीं दर्शाता क्योंकि तेजी से वाष्पोत्सर्जन होने से जल की कमी होती है जिससे मूल की सजीव कोशिकाओं का स्फीत दाब कम हो जाता है तथा जल के तीव्र गमन से वह विलेय हट जाते – हैं जिन पर सक्रिय अवशोषण निर्भर करता है। तीव्र वाष्पोत्सर्जन की स्थिति में जल पर एक तनाव पड़ता है तथा जायलम .. वाहिकाओं (xylem vessels) के जल पर दाब वातावरणीय दाब से कम होता है। स्कॉलेन्डर ( Scholander, 1965) ने इस तनाव का प्रयोगात्मक प्रदर्शन किया। तेज गति करते हुए जल के कारण उत्पन्न चूषण बल मूल में पहुँच जाता है जिसके द्वारा मृदा से जल ऊपर की ओर खींच लिया जाता है। कोशिका का DPD बढ़ जाता है परिणामस्वरूप जल अवशोषण बढ़ता है । इस प्रकार की जल गति को निष्क्रिय अवशोषण (passive absorption) कहते हैं क्योंकि जल अवशोषण के लिए आवश्यक बलों की उत्पत्ति पादप के वायवीय भागों (transpiration pull) में होती है न कि मूल में। लगभग 98% जल निष्क्रिय अवशोषण द्वारा मूल में अवशोषित होता है।
जल का अभिगमन मुख्यतः एपोप्लास्ट (apoplast) अर्थात कोशिका भित्ति एवं अन्तरकोशिकीय स्थानों द्वारा होता है। अन्तश्त्वचा तक जल एपोप्लास्ट द्वारा पहुँच सकता है परन्तु आगे इसकी गति सिमप्लास्ट (symplast) (कोशिका द्रव्य का बाह्य भाग) द्वारा होता है ।
जल अवशोषण को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting water absorption )
- मृदा का तापमान (Temperature of soil) – मृदा के तापमान में एक सीमा तक वृद्धि होने पर अवशोषण की दर बढ़ती है। कम ताप पर जल शयान (viscous) हो जाता है, जीवद्रव्य की पारगम्यता कम हो जाती है तथा मूल की वृद्धि भी रूक जाती है। इसलिए जल अवशोषण की दर घट जाती है। इससे हम कह सकते हैं कि निम्नताप पर मृदा कार्यिकी रूप से शुष्क होती है ।
- मृदा का वातन (Aer: tion of soil) – मूल की वृद्धि एवं उपापचयी अभिक्रियायें निम्न वातन की परिस्थितियों में रूक जाती है। मृदा जल निकास की सुविधा न होने से पादप मुरझा जाते हैं। मृदा में 02 की कमी से यह CO2 एवं अम्लों से संतृप्त हो जाती है जिससे जीवद्रव्य शयान तथा कम पारगम्य हो जाता है। ये दोनों स्थितियाँ जल अवशोषण को कम करती हैं।
- मृदा का प्रकार (Soil type) – विभिन्न प्रकार की मृदा की जल को पकड़े रखने (holding ) की क्षमता भिन्न-भिन्न होती हैं चिकनी (clay) मिट्टी की जल पकड़ क्षमता बालूई मिट्टी से अधिक होती है।
- मृदा विलयन की सांद्रता (Concentration of soil solution) – मृदा के जल में अधिक मात्रा में घुले लवण व खनिज के कारण इसकी सांद्रता अधिक हो जाती है तथा इसका परासरण दाब कोशिका रस के परासरण दाब से अधिक हो जाता. है। इससे मूल द्वारा जल अवशोषण रूक जाता है।
रसारोहण (Ascent of sap)
पादपों की मूल से उनके शीर्ष तक रस के गमन को रसारोहण (ascent of sap) कहते हैं। इस रस में लवण एवं खनिज जल में घुले रहते हैं जो कि मूल द्वारा अवशोषित किया जाता हैं। छोटी शाकों एवं झाड़ियों में रस द्वारा तय किया गया मार्ग कुछ सेन्टीमीटर से मीटर तक होता है । परन्तु वृक्षों में यह मार्ग बहुत ही लम्बा होता है। जैसा कि सबसे लम्बा (100.8मी) वृक्ष रेडवुड (redwood) का है जो कैलिर्फोनिया, यू. एस. ए. में पाया जाता है। यूक्लिप्टस का वृक्ष भी लगभग 91 मी. तक लम्बा होता है।
इन लम्बे वृक्षों में जल को ऊपर खींचने के लिए बहुत अधिक बल की आवश्यकता होती है। 91 मी लम्बे वृक्ष में जल को ऊपर खींचने में 10 atm दाब की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त 10 atm दाब घर्षण बल (friction force) से उत्पन्न प्रतिरोध को खत्म (overcome) करने के लिए आवश्यक होता है। वह क्रियाविधि जिसके द्वारा यह कार्य वृक्षों में सम्पन्न होता है पादप कार्यिकी की पहेली बनी हुई है। इसकी व्याख्या के लिए अनेक मत दिये गये हैं ।
जल गमन का पथ (Path of water movement),
यह स्थापित किया जा चुका है कि पादपों में जल को उर्ध्व संचलन जाइलम वाहिकाओं एवं वाहिनिकाओं द्वारा होता है।
- वलय प्रयोग (Ringing experiment) – मालपिघि (Malpighi, 1671) ने वलय प्रयोग से स्थापित किया कि जल का उर्ध्वसंचलन जाइलम ऊत्तकों द्वारा होता है।
इस प्रयोग में पौधे की दो शाखाऐं लेते हैं। एक शाखा (A) में तेज धार के चाकू की सहायता से छाल उतार दी जाती है तथा दूसरी शाखा (B) से जाइलम को इस प्रकार हटाते हैं अथवा ग्रीस या मोम की सहायता से इसे इस प्रकार से अवरूद्ध करते हैं कि इससे बाहर के उत्तकों को कम से कम क्षति पहुँचे। अब शाखा A एवं B को दो अलग-अलग जल से भरे बीकर में रख देते हैं। कुछ समय पश्चात शाखा A की पत्तियाँ स्फीत तथा शाखा B की पत्तियाँ मुरझाई हुई दिखती हैं। दोनों शाखाओं में यह अन्तर इसलिए होता है क्योंकि शाखा A को जायलम (xylem) के द्वारा जल प्राप्त होता रहता है परन्तु शाखा B . जल का संवहन (conduction) जायलम के अवरूद्ध होने से नहीं हो पाता। इस प्रयोग से यह सिद्ध हो जाता है कि पादपों में जल का संवहन फ्लोएम (pholem) से न होकर जायलम (xylem) से होता है।
- इओसिन अभिरंजक विधि (Eosin stain method)
इस प्रयोग में बालसम (Balsam) की तरुण पर्णयुक्त शाखा को जल में काट कर इओसिन अथवा अन्य किसी अभिरंजक के जलीय विलयन में रखा जाता है। कुछ समय पश्चात यदि स्तम्भ को दो टुकड़ों में बाँटा जाये तथा इनका अनुप्रस्थ काट लिया जाय तो वाहिनिकाओं (tracheids) एवं वाहिकाओं (vessels) की भित्ति रंगीन पायी जाती हैं। परन्तु अन्य ऊत्तक रंगीन दिखाई नहीं देते। इससे यह स्पष्ट होता है कि रस का संवहन जायलम द्वारा ही होता है।
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