पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी देने वाले साधनों के नाम बताइये | पृथ्वी की आंतरिक संरचना का चित्र हिंदी में
पृथ्वी की आंतरिक संरचना का चित्र हिंदी में पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी देने वाले साधनों के नाम बताइये |
पृथ्वी की आंतरिक रचना
(INTERIOR OF THE EARTH)
पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हई यह आज तक पहेली है परंतु विभिन्न भूवैज्ञानिकों ने अपने-अपने तर्क देकर पृथ्वी की आंतरिक रचना व उत्पत्ति का वर्णन किया है। ज्वालामुखी के उद्गारों से निकसित पदार्थ के आधार पर सम्पूर्ण भूगर्भशास्त्री यह मानते आये हैं कि पृथ्वी की आन्तरिक रचना द्रव के समान है तथा इसके बाहर पृथ्वी की एक हल्की ठोस पपड़ी फैली है। पृथ्वी के ऊपर की यह पपड़ी कितनी गहरी है यह भी रहस्य ही है। पृथ्वी के धरातल पर जल एवं स्थल भागों का जो असमान वितरण है वह पटाओं वितरण के फलस्वरूप ही आंका जा सकता है, तथा शीर्ष रेखा में जो विसंगति समुद्र के किनारे एवं पर्वतीय भागों में लक्षित होती है उनका कारण भी पृथ्वी के आन्तरिक भाग में विभिन्न घनत्व वाले पदार्थ ही है। इतना ही नहीं बल्कि सागरों के वितरण में भी इसी का हाथ है जैसा कि प्राट महोदय के अनुसार प्रशान्त महासागर का इतना बृहद विस्तार का मुख्य कारण यह है कि पृथ्वी के केन्द्र और प्रशान्त महासागर के मध्यस्थ पदार्थ की अत्यधिक मात्रा के फलस्वरूप सागर का सम्पूर्ण जल अपनी एक निश्चित दिशा में स्थित है। अन्यथा समुद्र वहाँ से पलावित हो जाता।
सम्पूर्ण गोलार्द्ध पर पपड़ी की आपेक्षित गुरुत्व के आधार पर पृथ्वी के आन्तरिक भाग में भारी पदार्थ और धातु पिण्ड की उपस्थिति प्रतीत होती है। यदि जिस पदार्थ से पपड़ी की रचना हुई है उसी से मध्य भाग का भी निर्माण हुआ है तो अत्यधिक आन्तरिक दबाव के कारण इसका घनत्व काफी ऊँचा होना चाहिए। ग्रह के सम्पूर्ण घनत्व का परिमाण अनुमानित घनत्व से अधिक नहीं बैठता है तथा इसमें कुछ विपरीत शक्तियों के कारण दबाव पर प्रभाव पड़ता है जिसमें ताप का मुख्य स्थान है। हमें पृथ्वी के आन्तरिक भाग का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन ताप शक्तियों का अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है जिसके फलस्वरूप पदार्थ की तीन अवस्थाओं का स्पष्टीकरण हो जाये। हमें यह मालूम हो जाना चाहिए कि कम से कम दबाव पर भी गैस, वाष्प में तथा द्रव में परिणत हो जाता है तथा कभी-कभी वह ठोस अवस्था में परिणत हो जाती है। हमें यह भी मालूम है कि कुछ पदार्थों पर दबाव पड़ने से द्रवांक बिन्दु बढ़ जाता है, इसी प्रकार का प्रभाव पृथ्वी के केन्द्र की तरफ भी आंका गया है। जब हम पथ्वी की सम्पूर्ण पर्तों की रचना ठोस पदार्थ से मानते हैं तो धरातल पर तापक्रम की सामान्य स्थिति रहती है।
इस प्रकार हम कह सकते है कि पृथ्वी की रचना की अपेक्षा दबाव के कारण ही पृथ्वी के धरातल के घनत्व एवं पपड़ी में विभिन्नता प्रदर्शित करती है। लाप्लास ने एक सिद्धान्त प्रस्तुत किया है जिसके अनुसार बढ़ते हुए घनत्व के आयतन के अनुपात से दबाव बढ़ता ही जाता है जो यह सिद्ध करता है कि पृथ्वा क धरातलीय अर्द्धव्यास के अर्द्ध भाग का घनत्व 8.23 तथा केन्द्र का 10.74 है। पृथ्वी के आन्तरिक भाग की तापक्रम की वृद्धि का दूसरा सिद्धान्त प्रोफेसर डार्विन ने प्रस्तुत किया कि अर्द्धव्यास पर घनत्व 7.4 रहता है तथा ज्यो-ज्यों केन्द्र की तरफ जाते हैं त्यों-त्यों घनत्व बढ़ता ही जाता है जो एक निश्चित सामा तक बढ़ता रहता है।
सौर्य-मण्डल की अनियमितता तथा पृथ्वी की चट्टानी पपड़ी से स्पष्ट हो जाता है कि केन्द्राय की सम्पूर्ण रचना में कठोर धातु के यौगिकों का अंश है। पृथ्वी की आन्तरिक द्रवीयता के कारण हम सकते हैं कि पृथ्वी के केन्द्र की तरफ भारी पदार्थ तथा बाहरी भाग में हल्के पदार्थो का सम्मिश्रण हुआ पथ्वी की आन्तरिक रचना का वर्णन करने से पहले आन्तरिक तापक्रम का ज्ञान हो जाना चाहिए।
पृथ्वी की आंतरिक भाग में उच्च तापक्रम के प्रमाण
पृथ्वी के आन्तरिक भाग में जैसे-जैसे हम अंदर चलते जाएँ वैसे-वैसे तापमान में वृद्धि होती जाती है। इसके निम्नलिखित प्रमाण दिए जा सकते है।
(अ) ज्वालामुखी- पृथ्वी के कई भागों में कही-कहीं पर धुआं, वाष्प तथा पिघलते हुए पदार्थो का उद्गार होते रहते है। इस प्रकार की आकस्मिक घटनाओं के पीठे आन्तरिक ताप का ही हाथ माना गया है। ज्वालामुखी के उदगारों से जो धुआँ, राख एवं अन्य पदार्थ निकलते है उससे स्पष्ट हो जाता है कि बाह्म भाग की अपेक्षा आन्तरिक भाग में ताप की अत्यधिक मात्रा सन्निहित रहती है।
(ब) गर्म स्रोत- जहाँ एक ज्वालामुखी उद्गार अवरूढ हो चुके है वहाँ पर आन्तरिक ताप की अधिकता के कारण जल-स्रोत की गर्म धारा निरन्तर बहती रहती है।
(स) कुएँ, खान तथा गहरी सुरंगों में ताप वृद्धि- पृथ्वी के आन्तरिक भाग में गहराई बढ़ने के फलस्वरूप् तापक्रम में ऋतु सम्बन्धी परिवर्तनों के अक्षांशीय परिमाण के कई प्रत्यक्ष उदाहरण मिलते है। जिनमें मिट्टी कि तापीय संचालन शक्ति एवं अन्य कारण मुख्य है। धरातल से केन्द्र की तरफ एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर तापक्रम एक समान रहता है, तथा यह भाग शीतोष्ण कटिबन्ध में लगभग 18 से 25 मीटर की गहराई पर आंका गया है तथा साइबेरिया में स्थित इर्कुटस्क नामक स्थान जो 62° उत्तरी अक्षांश रेखा पर स्थित है वहाँ पर मिट्टी अत्यधिक शीत प्रभावित होने से यह क्षेत्र लगभग 182 मीटर की गहराई पर आंका जा सकता है। इसके विपरीत उष्ण कटिबन्ध में स्थित जावा में स्थिर तापक्रम का क्षेत्र लगभग 1/2 या 1 मीटर की गहराई पर आंका जा सकता है। यह एक प्रमाणित सत्य है कि पृथ्वी के किसी एक निश्चित क्षेत्र के उपरान्त आन्तरिक भाग में तापक्रम के ऋतु सम्बन्धी परिवर्तनों का प्रभाव लक्षित नहीं होता है या ताप की वृद्धि बहुत कम होती है रहता है परन्तु नीचे वाले क्षेत्र में न्यूनता नहीं होती है। इस क्षेत्र के परे तापक्रम बढ़ता ही रहता है तथा तापक्रम में कभी-कभी इतनी अधिक पर सामान्य औसत में कई गुना अधिक होता है।
केलविन ने ज्वालामुखी के उद्गारों से निकसित लावा के ठण्डे होने की गति से आधार तल के पिण्डों के समय का निर्धारण किया। इसके विपरीत पृथ्वी के उन क्षेत्रों में जहाँ कई वर्षों तक हिमागर स्थित रह हों वहाँ पर भी समताप-क्रम की रेखाएँ नीचे की झुकी रहती हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस भाग में नीचे की तरफ कुछ सीमा तक तापक्रम में न्यूनता आंकी जा सकती है। लार्ड कैलविन के मतानुसार यदि पृथ्वी के किसी भी भाग में हजारों वर्ष तक बर्फ जमी रहे या पीछे हटती रहे तो 900 वर्षों के अन्दर 13 सेन्टीग्रेड तापक्रम घट जाता है तथा बर्फ के समाप्त हो जाने के उपरान्त भी 3600 वर्षों के पश्चात भी उस क्षेत्र में शीत लहरों का प्रभाव लक्षित रहेगा परन्तु फिर भी ऊपरी धरातल की अपेक्षा आन्तरिक भाग में तापक्रम वृद्धि होती जाती है तथा 600 मीटर की गहराई पर सामान्य तापक्रम की स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं।
पृथ्वी का सतह के नीचे जहाँ पर ताप की ऋतु परिवर्तन की सीमा स्थित है वहाँ पर आन्तरिक भाग की तरफ विभिन्न दूरी पर तापक्रम बढ़ता ही जाता है जिसका प्रत्यक्ष ज्ञान गहरी खानों एवं विभिन्न खुदाई वाले स्थानों में स्पष्ट हो जाता है। पृथ्वी की सतह पर समताप रेखाएँ धरातल की बनावट से प्रभावित होती है। पृथ्वी की सतह पर सकरी घाटियों के नीचे तापक्रम की वृद्धि एकदम तथा पहाड़ियों के नीचे अंश में होती है। पृथ्वी के आन्तरिक भाग में तापक्रम की वृद्धि होने पर भी उसकी दर में एक समान वृद्धि नहीं होती है। साइबेरिया में इर्कुटस्क नामक स्थान में यह वृद्धि हर 9 मीटर पर आंकी गई है जबकि वहाँ पर अधिक ठण्ड रहता है। इसके विपरीत ए. अगाजिज के अन्वेषणों के आधार पर मिशिगन झील के समीप लगभग 1434 मीटर की गहराई में हर 67 मीटर पर 1 फा. औसत तापक्रम में वृद्धि होती देखी गई। इतना ही नहीं बल्कि अर्वाचीन काल में भी एक खान या खदाई वाले स्थानों में तापक्रम की वृद्धि में जो विभिन्नता लक्षित होती है। उससे स्पष्ट हो जाता है कि एक ही स्थान में एक ही खुदाई वाले क्षेत्र में तापक्रम एक समान नहीं रहता।
फ्रांस में ला चापला स्थान में जो कुआँ खोदा गया वहाँ पर विभिन्न गहराई पर तापक्र में जो हुई जिसक वर्णन निम्न तालिका में करेंगे।
गहराई के अनुसार तापक्रम में वृद्धि
गहराई (मी.) में तापमान (डिग्री फारेनहाइट)
50 56.2
100 59.5
200 61.8
300 65.5
400 69.0
500 72.6
600 75.0
600 76.0
चट्टानों की ताप संचालन वृद्धि- प्रोफेसर इभीरेट ने ब्रिटेन की रोजब्रिज नामक कोयले की खान के धरातल का तापक्रम लगभग 49 फारेनहाइट आँका है तथा प्रथम 503 मीटर की गहराई पर 1° फारेनहाइट तापक्रम बढ़ता है तथा दूसरे 231 मीटर की दूरी 12 मीटर पर 1° फारेनहाइट और 544 तथा 603 के मध्यम 58 मीटर की दूरी पर 1° फारेनहाइट तापक्रम बढ़ता है तथा सबसे निचले भाग में 13 मीटर की गहराई पर लगभग 16 मीटर पर 1° फारेनहाइट तापक्रम बढ़ता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ही जगह में तापक्रम की जो विभिन्नता है उससे औसत तापक्रम में जो विभिन्नता प्रतीत होती है यह कोई आश्चर्यजनक नई है। इसमें कोई शंका नहीं कि तापक्रम की इतनी असमानता को उत्पन्न करने में चट्टानों की ताप संचालन का मुख्य हाथ है जो पृथ्वी की पपड़ी पर फैले हैं।
सामान्यतया देखा गया है कि हल्की तथा छिद्रकार चट्टानें ताप तथा संचालन का सर्वोत्तम माध्यम है तथा इसके विपरीत भारी एवं कठोर रवेदार चट्टानें ताप संचालन की कुचालक हैं। भूगर्भवत्ताओं ने इस चट्टानों की ताप संचालन शक्ति को आँकड़ों में प्रदर्शित किया है जैसे सफेद क्वार्टज के लिए ताप संचालन शक्ति 1538 है जो ऊपर वर्णित सफेद क्वार्टज से तेरह गना अधिक है। चट्टानों की रचना एवं बनावट के अनुसार एक ही प्रकार की चट्टानों में ताप संचालन की मात्रा में असमानता प्रतीत होती है। प्रयोगों के आधार पर स्पष्ट हुआ है कि एक ही प्रकार की चट्टानों के रवों तथा पर्तों में ताप संचालन में जो विभिन्न लक्षित हुई है उसका मुख्य कारण चट्टानों का कोणिक झुकाव एवं संरचना ही है।
पृथ्वी के आन्तरिक भाग की स्थिति
पृथ्वी की आन्तरिक रचना के विषय में भूगर्भशास्त्रियों एवं वैज्ञानिको में बहुत बड़ा मतभेद है इस विषय में सामान्यतः तीन विचारधाराओं का वर्णन किया जा सकता है।
(1) द्रवता की स्थितिः- पृथ्वी के आंतरिक भागों में द्रव पाया जाता है इसके लिए निम्न प्रमाण दि गए हैं-
(i) पृथ्वी के धरातल से आन्तरिक भाग में तापक्रम में जो वृद्धि होती है इसका प्रत्यक्ष प्रभाव सामान्यतया पदार्थो के द्रवणांक से स्पष्ट हो जाता है। यदि द्रवणांक को ध्यान में रखते हुए तापक्रम में लगातार वृद्धि होती रहे तो यह अनमान लगाया जा सकता है कि 32 किलोमीटर की गहराई पर अन्वेष्णों के आधार पर तापक्रम 1760 फारेनहाइट हो जायेगा। यदि तापक्रम इससे भी अधिक गहराई पर संक्षिप्त रहे और उसका सावधानी से अध्ययन किया जाये तो 80 किलोमीटर की गहराई पर वह तापक्रम बढ़ते-बढ़ते 46000 फारेनहाइट हो जायेगा जो विदरण विद्युतिक से कई गुना अधिक है।
(ii) समुद्र के तटों का उपर उठना तथा गहरे अवसादों का पत्रदार एवं मोड़दार स्थिति में बदलना इसी तथ्य के प्रतीक है कि जब पृथ्वी के पपड़ी के आन्तरिक भाग में द्रवतायुक्त पदार्थ पर ही अन्यथा ठोस पदार्थो की उपस्थिति में अवसादों की बनावट में इतना महान् परिवर्तन कठिन लगता है।
(iii) यदि हम पृथ्वी के विभिन्न ज्वालामुखी क्षेत्र के लावा का तुलनात्मक अध्ययन करें तो भी वही निष्कर्ष निकलता है कि पृथ्वी के आतंरिक भाग में द्रव्य समाया है।
(iv) पृथ्वी के आन्तरिक भाग को द्रवता की रचना की स्थिति के लिए भूगर्भशास्त्री या प्रमाण देते है कि ज्वालामुखी की क्रियाओं से यह स्पष्ट होता है कि इसकी आन्तरिक रचना में चिपके हुए पदार्थो का मुख्य हाथ है। पृथ्वी के जिस भाग में सक्रिय ज्वालामुखिया है या उत्पन्न होती है यहाॅ पर ज्वालामुखी के विकसित पदार्थों के साथ लावा, पिघले हुए पदार्थ, राख और कीचड़ से यही सिद्ध होता है कि पृथ्वी के आन्तरिक भाग की रचना में पिघले हुए पदार्थ मुख्य स्थान रखते है।
(2) ठोस अवस्था के प्रसारणः- पृथ्वी के आन्तरिक भाग की रचना के विषय में दूसरा मत वह है जिससे ठोस अवस्था प्रतीत होती है। पृथ्वी की आन्तरिक रचना ठोस अवस्था में है उसके प्रमाण निम्नलिखित दिये जाते हैं-
(प) पृथ्वी की पूर्व गति एवं झुकावों के प्रमाणों के आधार पर- सर्वप्रथम 1839 ई. में होपकिन नामक वैज्ञानिक ने पृथ्वी की गति एवं झुकाव के आधार पर पृथ्वी की आन्तरिक रचना चाहे ठोस हो या द्रव, परन्तु इसकी गति एवं झुकाव का प्रभाव उसकी आन्तरिक रचना पर पड़ता है। होपकिन्स के अनुसार यदि पृथ्वी का आन्तरिक भाग पहिले द्रव या पिघली अवस्था में रहा हो तो इसकी गति एवं झुकाव इतना नहीं हो सकता है जितना की आज है। यदि इसकी पपड़ी की मोटाई 40 से 48 किलोमीटर आंकी गई है। तो इसकी औसत गति 1280 से 1600 किलो मीटर रही होगी। इससे स्पष्ट होता है कि इसके आन्तरिक भाग की सम्पूर्ण रचना ठोस है तथा इसमें कहीं-कहीं पर खाली स्थानों में पिघली चट्टाने भरी पड़ी है।
डोलडनी के अनुसार यदि पृथ्वी के आन्तरिक भाग की रचना में तरल पदार्थों की अधिकता होती तो उसके फलस्वरूप पृथ्वी की पूर्व गति एवं झुकाव प्रभावित नहीं होता है। लार्ड कैलविन ने अपने अन्वेषणों के आधार पर यह सिद्ध किया कि पृथ्वी की आन्तरिक रचना ठोस है तथा इसके अनुसार जो आन्तरिक भाग की रचना द्रव एवं अर्द्ध-ठोस पदार्थों का हाथ मानते हैं वह सिद्धान्त एक सामान्य अनुमान के आधार पर लम्बवत् दबाव से पृथ्वी की पूर्व गति एवं झुकाव को सिद्ध नहीं कर पाता। लाई केलविन के अनुसार सूर्य की अर्द्धवार्षिक एवं चन्द्रमा की पाक्षिक झकावों से यह पूर्णरूपेण सिद्ध होता है कि इसके आन्तरिक भाग में तरल पदार्थ की अपेक्षा ठोस पदार्थ भरा पड़ा है। पोफेसर जार्ज डार्विन ने तरल पदार्थ से निमित वृत्त को आधार मानकर पृथ्वी की पूर्ण गति के अन्वेषण का निष्कर्ष निकाला जो कि लाई कैलविन के अन्वेषणों से समरूपता प्रदर्शित करती है तथा केवल तरल एवं ठोस परिधि में ही कुछ अन्तर लक्षित होता है। इस भौतिक शास्त्रियों के अनुसार यह निश्चित किया गया है कि पृथ्वी की पपड़ी से कुछ ही दूर तक तरल पदार्थ के उपरान्त आन्तरिक भाग ठोस पदार्थों से निर्मित है।
पृथ्वी का का ठोस पिण्ड प्राचीन काल से सर्य एवं चन्द्रमा की शक्तियों से निर्मित लहरों से रूपान्तरित होता गया तथा यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता है कि इसके रूपान्तरण में कितना समय लगा होगा क्या पृथ्वी की ठोस रचना कांच या इस्पात के समान ही होगी? परन्तु अर्याचीन अन्वेषणों के आधार पर पृथ्वी की पूर्व गति एवं झुकाव आज से बहुत अधिक रहा होगा जो अब लुप्त सा हो गया। इस प्रकार
लार्ड कैलविन के अनुसार पृथ्वी काँच के सदृश ठोस पिण्ड के समान रही होगी। न्यूकाम्ब ने पृथ्वी की ठोस स्थिति इस्पात से भी अधिक कठोर आंकी हैं। पी.रूडस्की ने विस्तृत अन्वेषणों के आधार पर पृथ्वी की कठोरता की तुलना इस्पात से भी दो गुना अधिक बतलाई है।
(2) लहरों के प्रमाण- समुद्री लहरों की घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि पृथ्वी एक ठोस पिण्ड है जो केन्द्र में काफी कठोर है या इसकी पपड़ी लगभग 4000 किलोमीटर या इससे भी मोटी है। लार्ड कैलविन के अनुसार पृथ्वी की पपड़ी इस्पात के तुल्य कठोर है तथा यह 500 किलोमीटर के लगभग मोटी है। इस पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति का प्रभाव पड़ता रहता है तथा दूसरी तरफ स्वतन्त्र रूप से प्रभाव डालते है तो इसमें जो जल भण्डार या समुद्र भरे पड़ें हैं उसका पानी अपने साथ ही आकर्षण शक्ति के साथ उपर नीचे प्रभावित होते रहता है। परन्तु पृथ्वी पर यह उतार-चढ़ाव मालूम नहीं पड़ता है पृथ्वी की कठोरता का प्रभाव सम्पूर्ण धरातल पर लक्षित होता है बाद को डार्विन ने जो अन्वेषण किये उनके आधार पर हम पृथ्वी की सम्पूर्ण कठोरता पर एकदम कोई मत प्रकट नहीं कर सकते।
(3) आपेक्षिक घनत्व के पदार्थ एवं ठोस चट्टानों के प्रमाण– अब एक कठिनाई और उपस्थित होती है कि पिघले हुए पदार्थ के चारों तरफ पृथ्वी की पपड़ी का एक हल्का आवरण फैला है। ठोस चट्टाने जो कि काफी ठण्डी हैं वे पिघली चट्टानो की अपेक्षा अधिक घनत्व वाली हैं। इस प्रकार हम कह सकते है कि यदि केन्द्र की तरफ पिघले पदार्थ हैं तो बाह्म पपड़ी के टूटने से जो भाग पृथक् हुए उन्हें एक दम अन्दर केन्द्र के पिघले पदार्थ में धंस जाना चाहिए था।
भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार उपर्युक्त सिद्धान्त पृथ्वी की पूर्ण ठोस अवस्था पर एक शंका उत्पन्न कर देता है कि भौतिकशास्त्री इसकी कठोरता की कल्पना इस्पात या शीशे से करते हैं। परन्तु वह कल्पना वास्तविकता से दूर जा बैठती है। पृथ्वी तो इस्पात एवं शीशे के समान तो नहीं बल्कि इसमें कुछ अंश में कठोरता है। प्रोफेसर डार्विन ने अपने अनुसन्धानों एवं आँकड़ों के आधार पर पृथ्वी की कठोरता का अनुमान लगाया तथा यह सिद्ध किया कि धरातल से लगभग 1600 किलोमीटर की दूरी पर ग्रेनाइट के तुल्य कठोर पदार्थ भरा है जिसके कारण तरलता की शक्ति में न्यूनता के फलस्वरूप पर्वत श्रृंखलाए एवं महाद्वीप के भार को स्थिर बनाए हुए हैं। परन्तु अधिक कठोरता किसी भी रूप में तरल पदार्थ की विपरीतता का प्रतीक नहीं हो सकती है क्योंकि इस्पात के समान कठोर पदार्थ भी अत्यधिक दबाव पड़ने पर उसी प्रकर तैर सकता है जैसा कि निकाला हुआ मक्खन। इसमें कोई शंका नहीं कि यदि पृथ्वी इस्पात के तुल्य कठोरता लिए हुए है तो अत्यधिक दबाव पड़ने पर उसका बाहा भाग तरलता की स्थिति में न्यूनता प्रदर्शित कर देती है। यहाँ पर हमें विभिन्न प्रकार की तरलता का स्पष्टीकरण हो जाना चाहिए जिसके फलस्वरूप इसमें से अल्प शक्तियों के कारण कुछ सीमा तक जो विकृतता उत्पन्न होती है।
पृथ्वी के आन्तरिक भाग में गैसीय अवस्था के प्रमाण
पृथ्वी के आन्तरिक भाग में गैसीय अवस्था के प्रमाण विशेषकर अर्वाचीन भौतिक एवं रासायनिक अन्वेषणों पर आधारित हैं। पृथ्वी के आन्तरिक भाग की रचना गैसीय है। यह सिद्धान्त सर्वप्रथम ए.रिटर ने अपने ‘वायुमण्डल की ऊँचाई और आकाश की गैसीय रचना‘ नामक लेखों में प्रकाशित की। डार्विन महोदय ने एन्ड्र, के अन्वेषणों के आधार पर यह सिद्ध किया की उच्च दबाव में प्रतिरोधक बिन्दु के उपरान्त केवल कार्बोनिक एसिड ही में नहीं बल्कि किसी भी पदार्थ से क्रमशः दो अवस्थाएँ प्रथम गैसीय एवं द्वितीय ठोस अवस्था का स्पष्ट ज्ञान हो सकता है। इसके आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि पृथ्वी के केन्द्रम गैस तथा पपड़ी ठोस है। अर्वाचीन समय में स्वेडन के भौतिक शास्त्री प्रोफेसर एस. अहीनियस महोदय श्ने अत्यधिक दबाव एवं उच्च तापक्रम के आधार पर पृथ्वी की ठोस, पिघली एवं गैसीय आन्तरिक रचना का अनुमान लगाया।
स्वीडन के भौतिकशास्त्री पृथ्वी के आन्तरिक भाग की रचना को तापक्रम एवं दबाव के आधार पर गैसीय मानते है परन्तु यह तत्व उपर्युक्त विचारधारा से कुछ अंशों में भिन्न सा लगता है। जिस पदार्थ का घनत्व, बदाव और तरलता सबसे अत्यधिध्क हो और उसको बिना प्रत्यक्ष देखे ठोस भी नहीं कहा जा सकता है। पृथ्वी के आन्तरिक भाग की रचना कैसी है इस इस विषय पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि 40 किलोमीटर पर तापक्रम 12000 सेन्टीग्रेड और वायु-भार 10,840 रहना चाहिए जिस पर सामान्यतया साधारण खनिज भी द्रवावस्था में परिणत हो सकता है तथा पृथ्वी के पदार्थ इसी गहराई पर पिघली अवस्था धारण कर सकते है जो भूगर्भशास्त्र में मैग्मा कहलाता है, यह पिघली एवं न्यून खिंचाव तरल रूप में रहता है। पृथ्वी के धरातल से 300 किलोमीटर की गहराई पर जो प्रतिरोधक तापक्रम का अनुमान लगाया है उस स्थिति में कोई भी पदार्थ पिघली अवस्था में नहीं रह सकता है। इस प्रतिरोधक तापक्रम पर ‘मैग्मा‘ की द्रवता और शंकुचन शक्ति में वृद्धि होती है उसके परिणामस्वरूप ‘मैग्मा‘ अत्यधिक तरल अवस्था में परिणत हो जाता है।
प्रोफेसर अर्हीनियस ने पृथ्वी की आन्तरिक रचना रचना के बारे में जो विचार प्रकट किये वे आधुनिक अन्वेषणों एवं ीाूकम्पों के आधार पर सत्य बैठती है। इन अनुमानों एवं तथ्यों के आधार पर अर्डीनियस पृथ्वी के आन्तरिक भाग को कदापि ठोस नहीं मानते। इनके अनुसार ‘आन्तरिक भाग का घनत्व बहुत वृहद क्षेत्र में जैसा कि पूर्ववर्णित है वह 80 प्रतिशत अर्द्धव्यास के भाग का निर्माण करती है जो कि क्वार्ट्ज से लगभग तीन गुना अधिक है। पृथ्वी के आन्तरिक भाग में भूकम्प लहरों की संप्रेषण गति भोइट के अनुसार 11.3 किलोमीटर प्रति सैकण्ड आंकी गयी है। जबकि उस क्षेत्र की दबाव शक्ति क्वार्ट्ज से लगभग 31 गनी कम है तथा यह ठोस इस्पात से आठ गुना कम है।
इस प्रकार केवल 40 किलोमीटर की ठोस पपड़ी को छोड़कर पृथ्वी के आन्तरिक भाग में 100 से 200 किलोमीटर की गहराई में मैग्मा भरा है जो केन्द्र की तरफ गैसीय भाग से मिला है, केन्द्र की तरफ गैस एवं तरल पदार्थ में द्रवता और दबाव की न्यूनता से उसको ठोस माना जाता है। सर्वप्रथम इन्हीं तथ्यों को लेकर इसकी आन्तरिक रचना में विभिन्नता आको गयी है। दूसरे जब दबाव लगातार बढ़ता जाता है और उसकी वृहद् मात्रा से रूपान्तरण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार अत्यधिक दबाव पर पिघले पदार्थ में फैलाव या गति उत्पन्न होकर वह तरल पदार्थ की भाँति गतिशील हो जाता है। यह पद्धति आयतन के बढ़ने से सामान्य द्रवणांक एवं ताप से तरलता की अपेक्षा कुछ ही अंश में भिन्न है और इसके वास्तविक रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन के आधार पर पृथ्वी के आन्तरिक भाग की रचना का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है। इसके द्वारा हमें केवल भूकम्प का ज्ञान ही नहीं बल्कि अर्हीनियस के द्वारा बतलाये गये तथ्यों के आधार पर ज्वालामुखी की प्रतिक्रिया के कुछ गूढ़ पहलुओं के विषय में हमारी शंका का समाधान सरलता से हो जाता है।
स्वेस के अनुसार पृथ्वी की आन्तरिक रचना
जर्मनी के विद्वान प्रोफेसर स्वेस ने पृथ्वी की सम्पर्ण रचना को तीन मुख्य भागों में बाँटा है जो इस प्रकार है-
(1) सबसे ऊपरी पर्त जिसको स्वेस ने सियाल नाम दिया। सियाल शब्द की उत्पत्ति एल्यूमीनियम के प्रथम दो अक्षरों के संयोग से हुई। महाद्वीपीय क्षेत्रों की रचना में सियाल के अत्यधिक अंश सम्मिलित रहते है। इनका आपेक्षिक घनत्व 2.69 तथा 2.90 के लगभग है।
(2) स्वेस महोदय के मतानुसार दूसरी पर्त सीमा है जो सियाल के नीचे फैली है। सीमा शब्द सिलिका तथा मैग्नीशियम के संयोग से बना है। सीमा में मुख्यकर बैसाल्ट तथा ग्रेबो की अधिक मात्रा के अतिरिक्त पोटेशियम, कैलशियम लौह-खनिजों के साथ सोडियम की न्यून मात्रा भी सम्मिलित रहती है।
(3) स्वेस के अनुसार तीसरी पर्त निफे है जिसमें निकिल तथा लोहे के खनिज मुख्य है। इसका औसत घनत्व 11 या इससे भी अधिक आँका गया है। इसका व्यास लगभग 6900 किमी0 आंका गया है।
पृथ्वी की आन्तरिक रचना के विषय में तथ्य
पृथ्वी के आन्तरिक भाग की रचना ठोस है इस विषय को सिद्ध करने के लिए वृथ्ची के बहृा भाग में जो तरंगें परावर्तित हुई हैं उनसे स्पष्ट होता है कि च् एवं ै तरंगे एक-दूसरे से परिवर्तित हो जाती है। इस प्रकार इन तरंगों की संख्या अधिक हो सकती है। चित्र 12.1 एवं 12.2 में दिखाये गये। जिन्हें निश्चित नामों से प्रदर्शित किया गया है। केन्द्रीय भाग से लौटने के बाद इनका विच्छेदन हो जाता है तथा इन्हे तो च् या ै तरंगें कहा जा सकता है यदि ये आवरण पर स्थितहैं तो इन्हें ज्ञ कहा जा सकता है। आन्तरिक भाग से परावर्तन होने पर इन्हें ै से दिखाया गया है। इस प्रकार च्च् वे तरंगें है जो पृथ्वी के धरातल से परावर्तित हुई हैं। च्च्ै तरंगों का प्रारम्भ च् से हुआ, ये केन्द्रीय भाग की आड़ी दिशा में प्रसारित होती हैं तथा जब आवरण से टकराती हैं तो ै तरंगों में बदल जाती है। दो तरंगें जो कि च्ज्ञच् एवं च्ज्ञच्2 या च्च्2 कहलाती हैं वे च्ज्ञच् पर टकराती हैं। यदि आन्तरिक भाग या केन्द्रीय भाग में कोई धरातल सदृश रचना नहीं हैं तो ये तरंग तीन दिशाओं से प्रसारित होती है तथा एक पर तरंगें मुख्य रूप से बाह्य धरातल पर परावर्तित होती हैं। इनमें से एक परावर्तन ऊपरी केन्द्र पर आँका गया है जो च्च् च्ै च्च्ै तथा च् कहा गया तथा तीसरे च्च् का परावर्तन मुख्यकर विपरीत अवस्था च्ज्ञप्ज्ञच् अथवा च्च् पर आँका जा सकता है। केन्द्रीय भाग में प्रसारित तरंगों के मार्ग को च् से दिखाया गया है।
गहराई के अनुसार वेग में विभिन्नता
अनुदैर्ध्य (P) एवं अनुप्रस्थ (S) तरंगों के प्रसारण के समय का अनुमान वैज्ञानिकों ने बड़े धैर्य से आंका है। भूकम्पों के घटित होने का समय एवं उपरिकेन्द्र का अनुमान कई स्थानों पर आँका गया है। कई स्थानों में घटने वाले भूकम्पों एवं उपरिकेन्द्र की एक सारणी प्रस्तुत करके विद्वानों ने तब कहीं एक निश्चित समय एवं उपरिकेन्द्र का पता लगाया है। इनका ठीक-ठीक पता चलाने के लिए पृथ्वी की अण्डवृत्ताकृति का भी ध्यान रखा गया है। जेफ्रीज एवं बुलन ने इस क्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से कार्य किया है तथा गटनबर्ग व रीचर्टर के द्वारा निकाले गये परिणाम इनसे कुछ अंश में मिलते हैं च् एवं ै के परिणामों में कई रुकावटें भी हैं जैसे कि च् का आधी दूरी के लिए च्च् तरंगै दूने समय में प्रसारित होती हैं।
केन्द्रीय भाग के अर्द्धव्यास का निर्धारण च्ैच् के द्वारा भी निर्धारित हो सकता है। जेफ्रीज ने इसकी 3473-2.5 किलोमीटर माना है जो कि धरातल से 2898 किलोमीटर की गहराई पर च् तरंग के पारिणामों में एकरूपता रखता है।
इस प्रकार जितने भी अन्वेषण हुए उनसे यहीं स्पष्ट हुआ कि पृथ्वी के अन्दर पपड़ी के उपरान्त कोई एक समान पदार्थ स्थिर नहीं है। 35 किलोमीटर की गहराई के बाद का क्षेत्र भूगर्भशास्त्र की दृष्टि से काफी जटिल बैठता है क्योंकि जिस धरातल पर कई चीजें स्थिर रहती हैं उसके विषय में यह माना गया है कि वह केन्द्र की अपेक्षा पपड़ी के समीप आँकी जाती है परन्तु पृथ्वी के आन्तरिक भाग में यह तत्व कम महत्व रखता है।
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