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पाइला ग्लोबोसा के बारे में जानकारी , पाइला किसे कहते हैं , वर्गीकरण , संघ , वर्ग क्या है गण वंश और जाति

जाने पाइला ग्लोबोसा के बारे में जानकारी , पाइला किसे कहते हैं , वर्गीकरण , संघ , वर्ग क्या है गण वंश और जाति ?

पाइला ग्लोबोसा (Pila globosa)

वर्गीकरण (Classification)

संघ (Phylum): मोलस्का (Mollusca): शरीर खण्ड विहीन तथा द्विपार्श्व सममित होता है

शरीर में सिर, प्रावार पेशीय पाद, तथा आन्तरांग पुंज पाये जाते हैं।

कैल्शियम कार्बोनेट का बना बाह्य कवच पाया जाता है।

देहगुहा समानीत होती है। मुख पुंज में रेडूला या रेतनांग पाया जाता है। श्वसन गिलों या फुफ्फुसों दारा होता है। उत्सर्जन मेटानेफ्रिडिया या युग्मित वृक्कों द्वारा।

वर्ग (Class) : गेस्ट्रोपोडा (Gastropoda)

शरीर पुंज में ऐंठन पायी जाती है। कवच एक कपाटीय सर्पिलाकार रूप से कुण्डलित होता है।

पाद बड़ा व चपटा होता है।

सुविकसित नेत्रों एवं स्पर्शकों युक्त सिर पाया जाता है।

गण (Order) – पेक्टिनोब्रेकिएटा (Pectinobranchiata)

एक कंकती जलीय क्लोम पाया जाता है। हृदय में एक आलिन्द पाया जाता है। उत्सर्जन के लिये एक वृक्क पाया जाता है। तंत्रिका तन्त्र में पाद तंत्रिका रज्जुओं का अभाव होता है।

आन्तरिक निषेचन व वेलिजर लार्वा पाया जाता है।

वंश (Genus) : पाइला (Pila)

जाति (Species) : ग्लोबोसा  (globosa)

स्वभाव एवं आवास (Habits and habitat):

वंश पाइला के जन्तुओं का कवच सेव के समान दिखाई देता है, अत: इन्हें सेवाभ घोंघा (apple snail) भी कहते हैं। इस तरह के प्राणियों को घोंघे (snail) कहा जाता है। यहाँ हम पाइला ग्लोबोसा (Pila globosa) नामक जाति के घोंघे के विस्तार पूर्वक अध्ययन करेंगे।

यह प्राणी सामान्यत: स्वच्छ जलीय आवासों जैसे तालाबों, पोखरों, जलप्लावित चावल के खेतों. झीलों, आदि में पाया जाता है। यह स्थलीय आवास में भी रहने के लिए उपयुक्त होता है। अत: इसे उभयचारी (amphibious) प्राणी भी कहते हैं। इस प्रकार दोनों आवासों में रहने के लिए इसमें क्लोम तथा फफ्फस दोनों संरचनाएँ पायी जाती हैं। यह उन जलाशयों में अधिक पाया जाता है जिनमें जलीय वनस्पतियाँ अधिक पायी जाती है। यह जलीय वनस्पतियों को भोजन के रूप में ग्रहण करता है तथा अपने काइटिनी जबड़ों तथा रेतनांग की सहायता से पौधों को काट कर खाता है। इसमें रेंग कर होता है। इसका शरीर एक कपाटीय कवच में बन्द रहता है गति करते समय तथा भोज ग्रहण करते समय यह कवच से बाहर निकलता है, परन्तु हर समय कवच को अपने साथ रख है। खतरे का आभास होने पर यह शीघ्रता से कवच में घुस जाता है तथा प्रच्छद (operculum), जी कि कवच के सुरक्षात्मक द्वार की तरह कार्य करती है, द्वारा कवच के द्वार को बन्द कर लेता है

बाह्य संरचना (External Features)

कवच (Shell) : पाइला में सर्पिलाकार, शंकुरूपी, एक कपाटीय कवच पाया जाता है। कवच पाइला के लिए घर समान होता है। पाइला का कवच दक्षिणावर्त (dextral or right handed) सर्पिल के रूप में कुण्डलित रहता है। कवच का सबसे ऊपरी भाग शिखर (apex) कहलाता है। इला के कवच में कुल 6% चक्र (whorls) होते हैं। सबसे पहला चक्र (whorl) सबसे छोटा होता है तथा सबसे पहले निर्मित होता है इसे प्राक्शंख (protoconch) या प्रथम कवच (first shell) कहते हैं। यह इसके लार्वा द्वारा बनाया गया होता है। इसके पश्चात् के सभी चक्कर (whorls) परिमाण में उत्तरोत्तर बड़े होते जाते हैं। सबसे अन्तिम चक्कर सबसे बड़ा होता है तथा इसे देह चक्र (body whori) कहते हैं। इससे पूर्व का चक्कर पेनल्टीमेट चक्कर (penultimate whorl) कहलाता है। पाइला के आन्तरंग इन्हीं दो चक्करों (whorls) में पाये जाते हैं। बाहर की तरफ चक्करों के मध्य रेखाएँ इन्हें विभेदित करती है जिन्हें सीवन अथवा सूचर (suture) कहते हैं। भीतर की ओर कवच में इन चक्करों को अलग करने के लिए कोई पर्दे नहीं पाये जाते हैं। देह चक्र (body worl) एक बड़े छिद्र के द्वारा बाहर खुलता है जिसे मुख कहा जाता है तथा इस छिद्र के सीमान्त को परिमुख (peristome) कहते हैं। परिमुख के बाहरी सीमांत को बाहरी होठ (outer lip) तथा भीतरी सीमान्त जो स्तम्भिका या कॉलुमेला (columella) के निकट पाया जाता है, को आन्तरिक या कॉलुमेलीय (collumellar) होठ कहते हैं। इस छिद्र से सिर व पाद (head and foot) बाहर आते हैं।..

कवच (shell) के भीतर मध्य में एक खड़ी अक्ष पायी जाती है जिसे स्तम्भिका या कॉलुमेला (columella) कहते हैं। इस अक्ष के चारों तरफ कवच के चक्करों (whorls) की कुण्डलियाँ पाई जाती है। यह अक्ष या स्तम्भिका (columella) भीतर से खोखली होती है तथा एक संकरे छिद्र द्वारा बाहर खुलती है इस छिद्र को नाभि (umblicus) कहते हैं। अक्ष छड़नुमा तथा ऐंठनदार होती है।

पाइला के कवच की बाहरी सतह पर असंख्य उभरी हुई रेखाएँ पायी जाती हैं जिन्हें वृद्धि रेखाएँ (lines of growth) कहते हैं। इन रेखाओं में से कुछ सुचिन्हित उभारों के रूप में पायी जाती हैं इन्हें उत्कूट (vartices) कहते हैं। पाइला का कवच पीले या भूरे या काले रंग का होता है।

कवच के मुख को बन्द करने के लिए एक मोटी अण्डाकार प्लेट पायी जाती है जिसे प्रच्छद (operculum) कहते हैं। जब प्राणी अपने सिर व पाद को कवच के भीतर समेट लेता है तो इस प्रच्छद की सहायता से यह कवच को बन्द कर लेता है। प्रच्छद (operculum) एक कैल्शियमी प्लेट होती है इसका निर्माण पाद की ग्रन्थिल कोशिकाओं के स्रावण से होता है। प्रच्छद के बाहरी सतह पर अनेक वृद्धि वलय (growth rings), एक केन्द्रक (nucleus) के चारों तरफ संकेन्द्रीय रूप में । पायी जाती हैं। भीतरी सतह, जो क्रीम रंग की होती है, पर एक दीर्घ वृत्ताकार संरचना पायी जाती है जिसे बॉस (boss) कहते हैं। इसके चारों तरफ एक खांच का घेरा बना रहता है। इस भाग से प्रच्छद पेशी जुड़ी रहती है जो प्रच्छद को खोलने व बन्द करने का कार्य करती है।

कवच की सूक्ष्मदर्शीय संरचना (Microscopic Structure of Shell)

कवच का अनुप्रस्थ काट काटकर सूक्ष्मदर्शी से देखने पर पता चलता है कि पाइला का निम्नलिखित तीन स्तरों का बना होता है

  • परिकवच (Periostracum) ,
  • ओस्ट्रेकम (Ostracum)

(iii) मुक्ताभ स्तर (Nacreous layer)

(i) परिकवच (Periostracum): यह कवच की सबसे बाहरी परत होती है। यह एक अंगी। जैविक पदार्थ कॉन्चियोलिन (conchiolin) की बनी होती है। इसी स्तर में वर्णक भी पाये जाते है जो कवच के रंग के लिए जिम्मेदार होते हैं।

(ii) ओस्ट्रेकम (Ostracum): यह कवच की मध्यवर्ती परत होती है। यह कैल्शियम कार्बोनेट की बनी होती है। इस स्तर में खड़ी क्रिस्टलीय कैल्शियमी प्लेटें पायी जाती है। प्लेटें कुण्डलन की दिशा में फैली रहती है।

(iii) मुक्ताभ स्तर (Nacreous layer): यह कवच की सबसे आन्तरिक परत होती है। यह कैल्शियम कार्बोनेट की प्लेटों की बनी होती है। इन प्लेटों में तन्तुक पाये जाते हैं।

कवच के नीचे प्रावार (mantle) पायी जाती है जो कवच का स्रावण करती है। कवच रासायनिक रूप में एक एल्बुमिनाभ (albuminous) शृंगी पदार्थ कॉन्चियोलिन (conchiolin) तथा कैल्साइट (calcite) या ऐरेगोनाइट (aragonite) के कणों में उपस्थित कैल्शियम कार्बोनेट का बना होता है।

शरीर या देह (Body) : पाइला का शरीर कोमल होता है तथा यह बाह्य कवच द्वारा ढका रहता है। कवच को हटाने पर पाइला का शरीर दिखाई देता है जो तीन भागों में बंटा होता है

  1. सिर (Head)
  2. पाद (Foot)
  3. आंतरांग पुंज (Visceral mass)

इनमें से सिर तथा पाद तो द्विपार्श्व सममित होते हैं परन्तु आंतरांग पुंज असममित होता है। सिर तथा पाद तो कवच से बाहर निकाले जा सकते हैं परन्तु आंतरांग पुंज कवच के भीतर ही रहता है। देह का अधिकांश भाग मजबूत स्तम्भिका पेशियों (columellar muscles) द्वारा स्तम्भिका (columella) से जुड़ा रहता है।

  1. सिर (Head): यह शरीर का अग्र एवं मांसल भाग होता है जो पाद के ऊपर लटका रहता है। यह आगे की तरफ एक संकुचनशील तुण्ड (snout) या प्रोथ के रूप में निकला रहता है। सिर में दो जोड़ी स्पर्शक, एक जोड़ी नेत्र तथा एक मुख पाया जाता है। स्पर्शकों में से प्रथम जोडी स्पर्शक लेबियल स्पर्शक (labial tentacles) कहलाते हैं। ये सिर के पार्श्व में स्थित होते हैं। ये लम्बे एव संकुचनशील होते हैं। इनके नीचे की तरफ एक उदग्र खांच के रूप में मुख पाया जाता है। दूसरी जोड़ी स्पर्शक, लेबियल स्पर्शकों के पीछे स्थित होते हैं। ये संकुचनशील, लम्बी व खोखली संरचनाएं होती है। इन स्पर्शकों के पीछे एक जोड़ी सवन्त नेत्र पाये जाते हैं।
  2. पाद (Foot) : पाइला में पाद शरीर की अधर सतह पर, सिर के नीचे पाया जाता है। यह अत्यधिक पेशीय एवं तिकोनी संरचना होती है । पाइला में पाद को खोल के बाहर निकाला जा सकता है व संकुचित कर खोल के भीतर खींचा जा सकता है । पाद के पिछले सिरे की पृष्ठ सतह पर ऊपर की तरफ प्रच्छद (operculum) पाया जाता है। इस भाग को प्रच्छदी पालि (operculiferous lobe) कहते हैं। जब पाद को संकुचित कर खोल के भीतर खींच लिया जाता है तो यह प्रच्छद (operculum) खोल का मुंह बन्द कर लेता है। पूर्णरूप से बहि:प्रसारित पाद तिकोना होता है जिसका शीर्ष पीछे की तरफ होता है। इसकी ऊपरी सतह चिकत्तेदार ( spotted) होती है तथा निचली सतह धूसर (grey) रंग की, चौड़ी व चपटी होती है जिसे तली या सोल (sole) कहते हैं। इस की सहायता से पाइला धरती पर रेंगता है अत: इसे क्रीपिंग सोल (creeping sole) कहते हैं। पाद में असंख्य पादिक ग्रन्थि-कोशिकाएँ (pedal gland cells) पायी जाती हैं जो श्लेष्मा का स्रावण करती है। पाद में कई पेशीय तन्तु पाये जाते हैं जो लम्बाई में तथा अनुप्रस्थ रूप से फैले हुए रहते हैं। इन्ही पेशीय तन्तुओं के कारण पाद अत्यधिक पेशीय एवं संकुचनशील होता है। इन पेशियों के संकुचन के कारण पेशीय तरंगें उत्पन्न होती है जो गमन के लिए मुख्य शक्ति प्रदान करती है। पाइला के पाद को तीन भागों में विभेदित कर सकते हैं- अगला पेशीय भाग प्रोपोडियम (propodium) पिछला प्रच्छद युक्त भाग मेटापोडियम (metapodium) तथा मध्य का भाग मीजोपोडियम (mesopodium) कहलाता है।
  3. आंतरांग पुंज (Visceral mass) : यह शरीर के पृष्ठ भाग में एक कूबड़ (hump) के रूप में पाया जाता है। इसके भीतर शरीर के सभी आंतरांग उपस्थित होते हैं। यह कवच की तरह ही कुण्डलित होता है। आंतरांग पुंज का अधिकांश भाग कवच के देहवृत में पाया जाता है तथा कुछ भाग अन्य वृत्तों में पाया जाता है। इसके कुण्डलन को ऐंठन ( torsion) कहते हैं। इसका रंग गहरा भूरा होता है।

प्रावार (Mantle) : प्रावार (mantle) की उपस्थिति संघ मोलस्का के प्राणियों की वि होती है। यह आंतरांग पुंज तथा कवच के मध्य पाया जाने वाला एक पतला व कोमल आवरण” है। प्रावार ही कवच का स्रावण करती है। प्रावार का अग्र भाग मोटा तथा वर्णक युक्त होता है सिर और उपांगों का सुरक्षात्मक आवरण बनाता है। प्रावार के स्वतन्त्र किनारे पर एक संकरी.” (groove) पायी जाती है जिसे अधि सीमान्त खांच (supra marginal groove) कहते हैं। इसी कवच स्रावी ग्रन्थियाँ पायी जाती है। पाद के ऊपर तथा सिर के दोनों पार्श्व सतहों पर प्रावार और संकुचनशील, पेशीय प्रवों का निर्माण करती है, जिन्हें नकल पालियाँ (nuchal lobes) कहते हैं। इनमें से बांयी नकल पालि, दाहिनी नकल पालि से बड़ी होती है। वायवीय श्वसन के समय बांगरी नूकल पालि लम्बी होकर श्वसन साइफन का निर्माण करती है। .

प्रावार गुहिका एवं प्रावार कॉम्पलेक्स (Mantle cavity and Pallial organs)

पाइला के पृष्ठ पार्श्व भाग में प्रावार भित्ति के नीचे एक बड़ी प्रावार गुहा (mantle cavitty पायी जाती है। विश्राम के समय पाइला अपने सिर व पाद को इसी गुहा में समेटे रहता है। इस गहा में पायी जाने वाले अंगों को प्रावार कॉम्पलेक्स (pallial complex) के अंग कहते हैं। प्रावार गहा एपिटिनिया (epitaenia) नामक कटक द्वारा दो प्रकोष्ठों में बंटी रहती है। इनमें से दाहिने प्रकोष्ठ को क्लोम प्रकोष्ठ (branchial or ctenidial chamber) तथा बांयें प्रकोष्ठ को फुफ्फुस प्रकोष्ठ (pulmonary chamber) कहते हैं। एपिटिनिया प्रावार गुहा के फर्श पर एक स्पष्ट कटक के रूप में पायी जाती है। यह दाहिनी नकल पालि के अगले किनारे से निकल कर गुहा के पीछे तक फैली रहती है।

क्लोम प्रकोष्ठ जलीय श्वसन का प्रमुख कार्य करता है तथा इसमें निम्नलिखित अंग पाये जाते

(i) क्लोम या गिल (Ctenidium or gill): यह प्रावार गुहा में दाहिनी तरफ पृष्ठ पार्श्व भित्ति से लटका रहता है। यह एक एककंकती (monpectinate) प्रकार का होता है अर्थात् इसमें एक पंक्ति में, लगभग त्रिभुजाकार, पटलिकाएँ (lamellae) पायी जाती है, जो क्लोम प्रकोष्ठ में लटकी रहती

(ii) मलाशय (Rectum): यह प्रावार गुहा में क्लोम के बांयी तरफ पायी जाती है। यह एक फूली हुई नलिकाकार संरचना होती है। यह गुदा छिद्र द्वारा बाहर खुलती है।

(iii) जननिक वाहिका (Genital duct): नर पाइला में शुक्रवाहिका तथा मादा पाइला में अण्डवाहिनी, मलाशय एवं एपिटिनिया के मध्य स्थित होती है। ये गुदा द्वार के समीप जनन छिद्र द्वारा बाहर खुलती है। नर में एक हुक समान शिश्न, नर जनन छिद्र से निकला रहता है। शिश्न की अधर सतह पर अधोक्लोम ग्रन्थि (hypobranchial gland) पायी जाती है।

  • अग्र वृक्क प्रकोष्ठ (Anterior renal chamber): यह एपिटिनिया के पिछले अन्तस्थ भाग के समीप एक लाल रंग के थैले समान संरचना के रूप में क्लोम प्रकोष्ठ में लटका रहता है। यह एक तिरछी दरारनुमा छिद्र द्वारा बाहर खुलता है, जिसे वृक्कक छिद्र (renal aperture) कहते हैं।

फुफ्फुस कोष्ठ वायवीय श्वसन का प्रमुख कार्य करता है इसमें निम्नलिखित संरचनाएँ पायी जाती हैं

  • फुफ्फुस कोष (Pulmonary sac): प्रावार गुहा की छत से एक बड़े थैले समान संरचना लटकी रहती है जिसे फुफ्फुस कोष (pulmonary sac) कहते हैं। यह एक तिरछे छिद्र द्वारा फुफ्फुस प्रकोष्ठ में खुलता है।

(ii) जलेक्षिका (Osphradium) : बायीं नकल पालि के समीप प्रावार गुहा की छत से एक कंघीनुमा संरचना लटकी रहती है, जिसे जलेक्षिका (osphradium) कहते हैं। यह एक द्विकंकती (bipectinate) संरचना होती है। यह प्रावार गुहा में प्रवेश करने वाले जल की रासायनिक जांच करती

अध्यावरण (Integument) : पाइला की त्वचा अधिचर्म (epidermis) तथा चर्म (dermis) की बनी होती है। त्वचा की मोटाई में विविधता पाई जाती है अर्थात् शरीर के विभिन्न स्थानों पर इसकी मोटाई अलग-अलग होती है। अधिचर्म केवल एक स्तरीय उपकला कोशिकाओं की बनी होती है। अधिचर्म उपकला की बहुत सी कोशिकाएँ रूपान्तरित होकर एक कोशिय ग्रथियों का निर्माण करती है, जो श्लेष्म, वर्णक एवं चूने का स्रावण करती है। ये कोशिकाएँ प्रावार के किनारे पर बहुतायत में पायी जाती है। चर्म (dermis) संयोजी ऊत्तक तथा पेशी तन्तुओं की बनी होती है। इसमें वर्णक कोशिकाएँ बहुतायत में पायी जाती है।

गमन (Locomotion)

पाइला में गमन पेशीय पाद की सहायता से होता है । पाइला अपने पाद के पेशी सोल (sole) की विसर्पी क्रिया (sliding) द्वारा गमन करता है। जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है कि पाद में लम्बे व अनुप्रस्थ पेशीय तंतु पाये जाते हैं, जिनके आगे से पीछे एवं पीछे से आगे व फैलाव के कारण उत्पन्न तरंगें विसर्पण गति के लिए शक्ति प्रदान करती हैं। इन तरंगों के कारण पाइला पाद की सहायता से सतह पर खिसकता या रेंगता है। सतह पर गमन करते समय पाद में उपस्थित पादिक ग्रन्थिल कोशिकाएँ श्लेष्म का स्रावण करती हैं जो एक अवपंकी चिन्ह बनाती जाती है। प्रारम्भ में यह चिन्ह चिपचिपा होता है परन्तु में बाद में सूख कर कठोर हो जाता है। इस प्रकार पाइला अपने द्वारा निर्मित कालीन रूपी अवपंकी मार्ग पर ही गमन करता है। ये श्लेष्म पथ पाइला के गमन मार्ग को प्रदर्शित करते हैं।

गमन क्रिया में पाद का प्रसारण इसमें उपस्थित रक्त कोटरों में रक्त दाब की स्थिति एवं पेशीय संकुचन की संयुक्त क्रिया द्वारा होता है।