नाग कहाँ रहता है ? उरगों की आयु क्या होती है ? भारत के उरग क्या खाते है और कितने प्रकार के होते है
जाने – नाग कहाँ रहता है ? उरगों की आयु क्या होती है ? भारत के उरग क्या खाते है और कितने प्रकार के होते है ?
उरगों की आयु
धरती पर प्राणियों में परिवर्तन फिलहाल उरगों का फैलाव उतना बड़ा नहीं है जितना मछलियों, पंछियों और स्तनधारियों जैसे अन्य रीढ़धारियों का। ठंडे देशों में उरगों का लगभग अभाव है , समशीतोष्ण कटिबंध में वे थोड़ी मात्रा में हैं और केवल गरम देशों में ही उनकी विविधता पायी जाती है और बहुतायत भी। पर यह बात हमेशा ही ऐसी नहीं रही। अति प्राचीन काल में धरती पर उरगों का बहुत बड़ा फैलाव था।
फौसिलों के अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि धरती पर प्राणि-जगत् अपरिवर्तनीय नहीं रहता। अति प्राचीन काल में धरती पर कुछ ऐसे प्राणी थे जो आज नहीं मिलते। उनका लोप हो गया है और उनकी जगह दूसरे प्राणियों ने ली है। धरती के जीवधारियों का इतिहास चार युगों में बंटा हुआ है – आर्किनोजोइक , पेलिप्रोजोइक , मेसोजोइक और सेनोजोइक। इनमें से प्रत्येक युग बहुत लंबे समय तक बना रहा – पेलिप्रोजोइक लगभग ३२ करोड ५० लाख वर्ष, मेसोजोइक लगभग ११ करोड ५० लाख वर्ष। सेनोजोइक युग गत ७ करोड़ वर्षों से चला आ रहा है। आर्किोजोइक युग कितने वर्ष रहा इसकी निश्चित जानकारी नहीं है। माना जाता है कि वह लगभग १०० करोड़ वर्ष रहा होगा।
धरती की सतहों में रीढ़धारियों के अवशेष पेलिप्रोजोइक युग से लेकर पाये गये हैं। उस समय मछलियों और जल-स्थलचर प्राणियों का अस्तित्व था।
उरगों का मूल पेलिप्रोजोइक युग के अंत तक पहुंचते हुए पृथ्वी के कई एक हिस्सों का जलवायु सूखा और नंगी त्वचावाले जल-स्थलचरों के लिए प्रतिकूल हो चुका था । इन स्थितियों में कुछ जल-स्थलचरों की त्वचा का शृंगीयकरण हुआ जिससे उनके लिए जमीन पर रहना संभव हो गया।
धरती पर के जीवन में प्राणियों की शरीर-रचना में परिवर्तन हुआ- फुफ्फुसों की संरचना में अधिक पूर्णता आयी और वे शरीर की ऑक्सीजन की आवश्यकताएं पूरी तरह से पूर्ण करने में समर्थ हुए। मस्तिष्क में अधिक जटिलता आयी। उनमें पानी के बाहर मजबूत आवरणवाले अंडों के रूप में जनन की क्षमता परिवर्दि्धत हुई। इस प्रकार पेलिप्रोजोइक युग के अंत में जल-स्थलचरों से उरगों का परिवर्द्धन हुआ।
मेसोजोइक युग में उरगों का बड़ा भारी फैलाव हुआ। उस समय पंछी और स्तनधारी अभी अभी अवतरित हुए थे। इसी कारण मेसोजोइक युग आम तौर पर उरग-युग कहलाता है।
लुप्त उरगों की विविधता धरती की मेसोजोइक युग से संबंधिक सतहों में लुप्त उरगों के वहुत-से कंकाल मिलते हैं। उनमें से कुछेक आधुनिक उरगों जैसे दीखते हैं जबकि दूसरे आज के कछुओं, छिपकलियों, सांपों और मगरों से बहुत ही भिन्न हैं। धरती पर एक जमाने में विभिन्न भीमाकार डेनोजौरों का अस्तित्व था (आकृति १०३)। इनमें से कुछ तो बहुत ही बड़े ( ३० मीटर तक लंबे ) हुआ करते थे।
समुद्रों में इस्त्योजौर (आकृति १०४) रहा करते थे। इनके अलावा प्तेरोडेक्टीलों (आकृति १०५) के भी कंकाल मिले हैं। ये उड़ते उरग हुआ करते थे जिनके पंख चमड़ी के से जाल से बने हुए होते थे।
धरती के लुप्त उरगों में से शिकारभक्षी साइनोग्नेथस (आकृति १०६) विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके दांत अन्य उरगों की तरह एक-से नहीं होते थे बल्कि स्तनधारियों की तरह वे भिन्न भिन्न आकार के होते थे। साइनोग्नेथस सहित कई उरगों के अवशेष सेवे या द्वीना नदी के तटों पर पाये गये।
उरगों का लोप ऐसा क्यों हुआ कि उपरोक्त सभी भिन्न भिन्न उरग लुप्त हो गये और सेनोजोइक युग में उनका स्थान नये उरगों ने ले लिया?
एक कारण था जलवायु में परिवर्तन । मेसोजोइक युग के अंत में वह ठंडा हो गया। यह उरगों के लिए प्रतिकूल था। उनके शरीर का तापमान तो परिवर्तनशील था। नयी परिस्थिति में उनमें से बहुतेरे टिक न पाये।
इसके अलावा मेसोजोइक युग में उरगों से सुसंगठित पंछी और स्तनधारी . परिवर्दि्धत हुए थे। इन प्राणियों के शरीर का तापमान स्थायी था। उनका मस्तिष्क उरगों की अपेक्षा सुविकसित था। सेनोजोइक युग में पंछियों और स्तनधारियों ने अधिकांश उरगों को खदेड़ दिया और खुद बहुत बड़े पैमाने पर फैल गये।
कुछ उरग – कछुए , सांप , छिपकलियां और मगर – बचे रहे और उनके वंशधर तो आज भी मौजूद हैं।
प्रश्न – १. धरती पर प्राणि-जीवन को हम कौनसे युगों में विभाजित करते हैं ? हर युग कितने समय तक बना रहा? २. मेसोजोइक युग क्यों उरगयुग कहलाता है ? ३. मेसोजोइक युग में कौनसे उरग रहे ? ४. उरगों के लोप की व्याख्या करो।
भारत के उरग
भारत का जलवायु गरम है और वहां उरगों की बहुतायत है। इस देश में विभिन्न सांपों , छिपकलियों , मगरों और कछुओं के ५०० से अधिक प्रकार मौजूद हैं।
सांप भारत में २५० से अधिक प्रकारों के सांप मिलते हैं। इनमें से बहुत-से विषैले हैं और काफी नुकसान पहुंचाते हैं। विषेले सांप के काटे जाने से हर साल हजारों लोगों को अपने प्राणों से हाथ धोने पड़ते हैं – खासकर देहाती इलाकों में।
सांपों में से नाग (प्राकृति १०७) एक सर्वाधिक विषैला प्राणी है। इसकी लम्बाई डेढ़ मीटर से भी अधिक होती है। अधिकांशतः इसका रंग पीला होता है पर काले-भूरे या कत्थई रंग के नमूने भी मिलते हैं। नाग जिस जमीन पर रहता है, अपने रंग के कारण मुश्किल से ही जमीन से अलग पहचाना जा सकता, है। उसकी गर्दन पर एक विशिष्ट काली आकृति होती है जिसकी शक्ल चश्मे जैसी होती है। जब नाग अपना सिर उठाकर और फन निकालकर हमले का खतरनाक पैंतरा लेता है तो यह आकृति स्पष्ट दिखाई देती है।
नाग पत्थरों के नीचे या खंडहरों के बीच रहता है और कभी कभी रेंगकर घर में भी चला आता है। वह छिपकलियों , नन्हे नन्हे सांपों, पंछियों और छोटे छोटे स्तनधारियों को खाकर जीता है। वह अन्य सांपों की तरह अपने शिकार को पूरा का पूरा निगल जाता है। इसमें उसके चल जबड़े उसे मदद देते हैं ।
नाग आदमी पर अपने आप हमला नहीं करता पर यदि उसे परेशान किया . जाये तो वह प्राणघातक रूप से काट लेता है। अन्य विषैले सांपों की तरह नाग के भी दो विष-ग्रंथियां होती हैं। ये ग्रंथियां ऊपरवाले जबड़े के दो बड़े बड़े दांतों से संबद्ध रहती हैं। काटते समय इन दांतों की ऊपरी सतहवाली नालियों में से होकर विष घाव में बहता है और फिर नाग के शिकार के रक्त में समा जाता है। जब विष-दंत टूट जाता है तो शीघ्र ही उसकी जगह ऐसा ही दूसरा दांत निकल आता है।
विष नाग को अपना भोजन ढूंढने में मदद देता है। विष की मात्रा अत्यल्प अर्थात् हर काटने के समय केवल चार-छः बूंदें होती हैं पर पकड़े हुए शिकार को मार डालने के लिए यह काफी है। हां , कुछ प्राणी ऐसे भी हैं (मोर, तीतर इत्यादि) जिनपर नाग के विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। स्पष्ट है कि इन प्राणियों के रक्त में ऐसे द्रव्य होते हैं जो विष को प्रभावहीन कर देते हैं।
यदि फौरी इलाज न किया जाये तो नाग का दंश मनुष्य के लिए प्राणघातक सिद्ध होता है। विष तंत्रिका-तंत्र पर असर डालता है। नाग के काटे आदमी को थकान और दुस्तर निद्रालुता घेर लेती है। वाद में सांस में रुकावट आती है और फिर सिर चकराने लगता है और के आने लगती है। शरीर का तापमान गिर जाता है और हृदय की गति शिथिल पड़ जाती है। आखिरी नतीजा यह होता है कि संबंधित व्यक्ति मर जाता है।
अतः यथासंभव नाग का सामना नहीं करना चाहिए और यदि वह काट ही डाले तो फौरन जरूरी इलाज – घाव से विषमय रक्त निचोड़ लेना और पोटेशियम परमैंगनेट के एक प्रतिशतवाले घोल से घाव को धोना – करने चाहिए ताकि विष रक्त में प्रवेश न कर पाये। साथ हो साथ डॉक्टर को फौरन बुला लेना चाहिए। रक्त में एक खास सीरम की सूई लगवाने से विष का प्रभाव रोका जा सकता है।
आसाम राज्य में महानाग पाया जाता है जिसकी लंबाई चार मीटर तक हो सकती है। यह दूसरे सांपों को खाकर रहता है जिनमें साधारण नाग भी शामिल हैं। महानाग कभी कभी अपने आप आदमी पर धावा बोल देता है।
भारत में कराइत नामक सांप बहुत ही अक्सर पाया जाता है। यह साधारण नाग से छोटा ( लंबाई १३० सेंटीमीटर से अधिक नहीं होती) होता है पर होता है बहुत ही विपैला। चिकित्सा सहायता के अभाव में इसका दंश प्राणघातक सिद्ध होता है। कराइत विशेष भयानक इस लिए है कि वह अक्सर घर में रेंग आता है और उसके भूरे रंग के कारण वह लोगों की नजर से बचा रह सकता है। इस सांप का मुकाबला करने में नेवले (आगे देखिये , पृष्ठ २६१) से बड़ी मदद मिलती है।
पेलामीडा नामक समुद्री सांप (आकृति १०८) भारत के समुद्र-तटों पर. पाया जाता है। यह भी मनुष्य के लिए प्राणघातक सांपों की जाति में आता है। इस सांप की विशेषता यह है कि वह, अन्य सांपों के विपरीत, पानी में रहता है। उसकी शरीर-रचना पानी में रहने के लिए पूर्णतया अनुकूल होती है। उसकी छोटी-सी पूंछ दोनों ओर से चिपटी और डांड़ की शकल की होती है। नासा-द्वारों पर वैल्व होते हैं और वे ऊपर की ओर खुलते हैं। यह मछलियों को खाता है और इसका जनन भी पानी ही में होता है। वह छोटे छोटे सपौले पैदा करता है।
भारत में कई विषहीन परंतु शिकारभक्षी सांप पाये जाते हैं। इनमें से एक है शेर पिथोन (आकृति १०६)। यह चार-छः मीटर तक की लंबाईवाला बड़ा सांप होता है। हमला करते हुए यह अपने शिकार को ( मुख्यतया छोटे छोटे स्तनधारियों को) चारों ओर से लपेट लेता है और अपने मजबूत लंबे शरीर से उसे इतने जोर से मसल लेता है कि वह प्राणी पिसकर मर जाता है। फिर पिथोन उसे निगल लेता है।
पिथोनों की विशेषता यह है कि उनमें पिछली टांगों के छोटे छोटे अवशेष पाये जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि विना टांगों वाले सांप टांगों वाले उरगों के वंश में ही पैदा हुए हैं।
ब्रह्मा में और भी बड़े जालदार पिथोन पाये जाते हैं जो ६ मीटर तक लंबे हो सकते हैं।
मगर नगरों से उरगों की एक पृथक् श्रेणी बनती है। भारत में इनके कई प्रकार मौजूद हैं। इनमें से सबसे अधिक फैलाव दलदल के खोटी थूथनीवाले मगर का है। यह लगभग सभी ताजे पानी के जलाशयों अर्थात् नदियों, तालावों और बड़े बड़े दलदलों में पाया जाता है। यह लगभग सारी जिंदगी पानी में बिताता है और कभी-कभार ही जमीन पर आता है। दलदल का मगर अन्य मगरों से छोटा होता है, फिर भी उसकी लंबाई साढ़े तीन मीटर तक हो सकती है।
मगर जमीन पर बड़े बेहूदे ढंग से चलता है पर वह तैरता है भली भांति। तैरने में वह अपनी लंबी पूंछ और जालदार पिछले पैरों का उपयोग करता है। उसकी पूंछ दोनों ओर से चिपटी होती है। जलगत जीवन के लिए अनुकूल अन्य अनुकूलताएं भी उसके शरीर में होती हैं। उसके नासा-द्वार और आंखें सिर के ऊपर और ऊपर की ओर कुछ उभड़े हुए होते हैं। इस सुविधा के कारण मगर अपना सिर पानी से जरा-सा बाहर निकालकर सांस ले सकता है और देख सकता है। इस समय उसका शरीर पानी में डूबा रहता है और दिखाई नहीं देता। पानी में कानों के गड्ढे और नासा-द्वार वैल्वों से बंद रहते हैं।
पर मगर के पुरखे जमीन पर रहते थे। यह इस बात से स्पष्ट होता है। कि अन्य उरगों की तरह मगर के शरीर पर भी शृंगीय आवरण की एक परत होती है और मछलियों के मीन-पक्षों के बदले मगर के दो जोड़े उंगलीदार पैर होते हैं। मगर वायुमंडलीय हवा में सांस करता है और जमीन पर ही बच्चे पैदा करता है – वह रेत में बड़े बड़े अंडे देता है जिनपर चूने का सख्त कवच होता है।
मगर एक शिकारभक्षी प्राणी है। वह केवल मछलियों को ही नहीं बल्कि दुसरे प्राणियों, पंछियों और स्तनधारियों को भी खाता है। वह इन्हें किनारों पर पकड़कर पानी में घसीट ले जाता है। भोजन को वह अपने मजबूत दांतों से पीस लेता है।
भारत में दलदल के मगर के अलावा मगर के दो और प्रकार मिलते हैं। ये हैं महामकर और घड़ियाल (ग्राह)।
महामकर नौ मीटर तक लंबा होता है और बड़ी नदियों के महाने के खारे जल में और बंगाल तथा मलाबार तटों के बंधे हुए पानी में रहता है।
गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियां लंबी थूथनीवाले घड़ियाल (प्राकृति ११०) के घर हैं। सिरे पर सूजनवाले लंबे जबड़ों के कारण यह आसानी से अन्य मगरों से अलग पहचाना जा सकता है। इसका शरीर छः मीटर लंबा होता है। घड़ियाल केवल नदियों में रहता है। वह मछलियों और गंगा-जल में फेंके गये शवों को खाता है।
कुछ लोग घड़ियाल को एक पवित्र प्राणी मानते थे। वे उन्हें मंदिरों के पास जलागयों में पाल भी रखते थे और उनकी अच्छी चिंता करते थे। पर वस्तुतः मगरों का कोई उपयोग नहीं है बल्कि उल्टे वे बड़े नुकसानदेह होते हैं। वे मछलियों और अन्य उपयुक्त प्राणियों को चट कर जाते हैं ।
सभी मगरों की कुछ विशेषताएं होती हैं जिनसे अन्य उरगों से उनकी भिन्नता स्पष्ट होती है। उदाहरणार्थ , पीठ पर के शृंगीय शल्कों के नीचे अस्थि-शल्कों की परत होती है। यह उसके लिए एक मजबूत बख्तर का काम देती है। दांत अपनी कोशिकाओं में मजबूती से गड़े रहते हैं और उसका हृदय चार कक्षों वाला होता है।
कछुआ छिपकलियों, सांपों और मगरों के अलावा उरगों में कछुए शामिल हैं। भारत की नदियों और दलदलों में अक्सर तीन उररूकूटों वाला कछुआ पाया जाता है। इस कछुए का शरीर जैसे हड्डियों के बस्तर में बंद रहता है और लंबी गरदन के सहारे उसका सिर, दो जोड़े छोटे छोटे पैर और छोटी-सी पूंछ बाहर की ओर निकली रहती है। संकट का शक होते ही कछुआ ये सभी अंग कवच के अंदर समेट लेता है। इस प्रकार कछुआ शत्रुओं से अपना बचाव कर लेता है।
अपने छोटे छोटे पैर बाहर निकालकर का जमीन पर और पानी में भी चल सकता है।
कवच या बख्तर हड्डियों की दो ढालों का बना रहता है- पृष्ठीय ढाल और औदरिक ढाल। बगलों में जुड़ी हुई ये ढाले मोलस्क के कवच की तरह न केवल बाहर से शरीर को ढंकती हैं बल्कि यह कछुए के कंकाल का एक भाग होती है। अतः कछुए के शरीर को कवच से बाहर नहीं निकाला जा सकता।
कछुए के कंकाल (आकृति १११)का परीक्षण करते समय हम देख सकते हैं कि पृष्ठीय ढाल, रीढ़ और फैली हुई पसलियों को लेकर एक पूरी इकाई बनाती है।
हड्डियों की ढाल बाहर से बड़ी शृंगीय पट्टियों और शरीर का बाकी हिस्सा (पैर, सिर, गरदन और पूंछ) पतले शृंगीय शल्कों से ढंका रहता है। का अपनी जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा पानी में बिताता है। वहीं उसे अपना भोजनमछली आदि विभिन्न जलचर प्राणी – मिलता है। कछुए के दांत नहीं होते। इसके बदले उसके जबड़ों के किनारे सख्त , धारदार शृंगीय आवरणों से ढंके रहते हैं।
कछुआ जमीन पर बच्चे पैदा करता है। वह किनारे पर रेत में बड़े बड़े अंडे देता है। अंडों पर चूने का सख्त आवरण होता है।
जलचर कछुओं के अलावा स्थलचर कछुए भी होते हैं। इनका भोजन है पौधे, जिन्हें वे अपने तेज जबड़ों से काट काटकर खाते हैं। स्थलचर कछुए की पृष्ठीय ढाल जलचर कछुए की तुलना में अधिक फूली और उभड़ी हुई होती है।
भारत का स्पर्श करनेवाले समुद्रों में हरे रंग के बड़े कछुए रहते हैं। इनके कवच की लंबाई एक मीटर तक और वजन ३००-४०० किलोग्राम तक हो सकता है। हरा कछुआ मीन-पक्षों जैसे अपने पैर चलाता हुआ अच्छी तरह तैरता है। वह जल-पौधों और विभिन्न प्राणियों को खाता है। फिर भी अंडे वह किनारे पर की रेत ही में देता है।
नरम और जायकेदार मांस के लिए हरे कछुए का शिकार किया जाता है।
प्रश्न- १. नाग का विष कहां उत्पन्न होता है और शिकार के घाव में कैसे प्रवेश करता है ? २. नाग या दूसरे विषैले सांप से काटे जाने पर कैसे इलाज किये जाने चाहिए ? ३. शेर पिथोन अपने शिकार को कैसे मार डालता है ? ४. मगर का शरीर किस प्रकार जलगत जीवन के लिए अनुकूल है ? ५. किन विशेषताओं के कारण मगर को उरग मानते हैं ? ६. कछुए को कवच से बाहर क्यों नहीं निकाला जा सकता?
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