दस्तकारी किसे कहते हैं , दरी एवं दस्तरखाना क्या होता है , चटाई बुनाई के बारे में जानकारी
दस्तकारी
भारतीय दस्तकारी की परंपरा काफी पुरानी है। प्राचीन काल से ही इसका उल्लेख मिलता है, जब भारत कपास के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध था और मुख्य रूप से वस्त्र, रंगों एवं हाथी दांत के लिएएक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था। पश्चिमी तथा सुदूर पूर्व देशों के नाविक यहां से वापसी में सोने-चांदी के बदले हाथ से बुने गए सूती वस्त्र एवं हस्तकला के अन्य सामान ले जाते थे। तथापि, मुगल काल की शुरुआत में ही भारतीय दस्तकारी ने काफी प्रसिद्धि पाई। वस्त्र निर्माण व आभूषण निर्माण का काफी विकास हुआ। मखमल बनाने की नई कारीगरी सामने आई। लेकिन जैसे-जैसे मुगल शासन कमजोर पड़ता गया, दस्तकारी को मिलने वाला संरक्षण समाप्त होता गया। अंग्रेजों के साम्राज्यवादी युग में व्यापारिक दृष्टि से भारतीय दस्तकारी को काफी हतोत्साहित होना पड़ा। भारतीय दस्तकारी का मुकाबला सस्ते, आयातित एवं मशीननिर्मित उत्पादों से हुआ। महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन ने कुछ हद तक हस्तकला की प्रस्थिति में जाग फूंकने का प्रयास किया। आजादी के बाद सरकार का प्रयास दस्तकारी उपयोग के लिए विकासात्मक कार्यक्रम शुरू करने, कई परंपराग्त दस्तकारियों को पुगर्जीवित करने, नए केंद्रों का पता लगाने और इस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से अधिकाधिक लोगों को अवगत कराने का रहा है।
भारतीय दस्तकारी को समग्र रूप से तीन भागों में बांटा जा सकता है
(i) लोक दस्तकारीः इस श्रेणी में वैसी दस्तकारी को रखा जा सकता है, जिसे कुछ चुनिंदा लोगों के लिए गांव के कारीगर तैयार करते हैं, या फिर लोगों द्वारा अपने प्रयोग के लिए की जागे वाली दस्तकारी को इस वग्र में रखा जा सकता है।
(ii) व्यावसायिक दस्तकारीः किसी खास समूह के दस्तकारों द्वारा बनाई जागे वाली दस्तकारी इसमें आती है। ये दस्तकार खास किस्म की हस्तकला में दक्षता रखते हैं। यह दस्तकारी व्यावसायिक उद्देश्य के लिए होती है।
(iii) दस्तकारी की एक श्रेणी ऐसी भी है, जो जो धार्मिक स्थानों से जुड़ी है।
वस्त्र निर्माण
भारतीय वस्त्र निर्माण के कई तरीके थे और इनके डिजाइनों में भी काफी विविधता होती थी। भौगोलिक और मौसमी प्रभाव द्वारा निर्धारित होने के बावजूद इनमें एक किस्म की समानता थी। उदाहरण के तौर पर गंगा के मैदानी भागों में मुलायम और हल्के रंग के कपड़े ज्यादा बनते हैं।
बुने हुए सूती कपड़ों में जामदानी या इनले तकनीक ज्यादा उपर्युक्त बैठती है। मलमल की बुनाई में इसी का इस्तेमाल किया जाता है। पश्चिम बंगाल में, यह तकनीक काफी लोकप्रिय है। यहां बुनकर सफेद पृष्ठभूमि पर हल्के रंगीन पैटर्न डालकर साड़ी बनाते हैं। टांडा क्षेत्र में भी ऐसा ही चलन है। वहां पैटर्न में कुछ ज्यादा विस्तार देखने को मिलता है। उत्तर प्रदेश के बनारस, आंध्र प्रदेश के वेंकटगिरी, मणिपुर के मोरांगुी तथा तमिलनाडु के कोडियलकरूपार की साड़ियों में यह तकनीक देखने को मिलती है। पैठनी तकनीक में साड़ी तथा चुनरी के पल्लू व किनारी की बुनाई में धागे एक दूसरे से गुंथे रहते हैं। यह तकनीक कपड़ों पर दस्तकारी वाली बुनाई से समानता रखती है। पहले यह विधि चंदेरी में लोकप्रिय थी। अब सिर्फ पैठान में जिंदा है। छोटे चेक तथा पूरक रंगों से मुक्त माहेश्वर की सूती साड़ी, कर्नाटक की इलकाल साड़ी, आंध्रप्रदेश की साड़ियां, खास तौर पर नारायणपेत साड़ी, तमिलनाडु की परंपराग्त सिल्क पैटर्न पर आधारित कांजीवरम, मदुरै, सलेम तथा कलाक्षेत्र साड़ियां तथा केरल की बिना रसायनों से धुले धागों से बनी करालकुडी साड़ी का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।
बुने हुएरेशम के कपड़े में सोने की जरी का काम होता है। कुछ में यह काम ज्यादा और कुछ में हल्का होता है। एक किस्म गंगा-यमुना की है। लोकप्रिय अम्रू रेशमी जरी बालूचरी एवं तंचोई तकनीक (जरी लगाने की चीनी तकनीकी पर आधारित) बनारस में बखूबी इस्तेमाल होती है। बनारस रेशम की बुनाई के एक प्रमुख केंद्र के रूप में जागा जाता है। बालूचरी तकनीक काफी हद तक लघु चित्रकला शैली से ली गई है। दक्षिण भारत की कांजीवरम, कुंबकोणम तथा तंजौर की साड़ियां भारी, आकर्षक और रेशम की चैड़ी किनारी के लिए प्रसिद्ध हैं।
सूत की कताई और रंगाई की बांधनी तकनीक शुरू में फलक अलंकरण की एक किस्म थी, जो कच्छ, जामनगर, राजकोट, जोधपुर, जयपुर तथा राजस्थान के अन्य इलाकों में प्रचलित थी। बहुरंगी और तिरछे डिजाइन वाली लहरिया और मोथरा तकनीक राजस्थान में विशेष तौर पर प्रयुक्त होती है। बुनाई से पहले कच्चे एवं सूखे सूत की कताई व रंगाई को पटोला या इकत कहा जाता है। आंध्र प्रदेश में इसे चिलका तथा ओडिशा में बंधा कहा जाता है। अब यह अपने आप में नई शैली बन गई है।
छपाई
कपड़े पर छपाई के लिए कई तकनीकें इस्तेमाल में लाई जाती हैं। एक तकनीक में खांचे वाले लकड़ी के टुकड़ों का इस्तेमाल रसायनों से धुले सूती या रेशमी कपड़ों पर छपाई के लिए किया जाता है। दूसरी में लेप का इस्तेमाल कर बिना रंगे भागों की छपाई की जातीं है। कपड़े पर छपाई की बाटिक तकनीक के लि, जयपुर, बाड़मेर, पाली, सांगनेर (राजस्थान), कच्छ, अहमदाबाद, बड़ौदा (गुजरात)। मध्यप्रदेश में नंदरा और उज्जैन छपाई के लिए प्रसिद्ध है। फर्रुखाबाद (उ.प्र.) तथा दक्षिण में मछलीपत्तनम एवं तंजौर इसके प्रमुख केंद्र हैं।
सौराष्ट्र की ‘हीर’ लोक कसीदाकारी काफी प्रसिद्ध है। इसमें रेशमी कपड़े पर काफी, आकर्षक ज्यामितीय आकृतियां बनाई जाती हैं। पंजाब में सूती या रेशमी कपड़े पर की जागे वाली कसीदाकारी को ‘बांध’ के नाम से जागा, जाता है। इसमें ‘चोप’ पर विशेष बल होता है। हरियाणा तथा पंजाब की ‘फुलकारी’, हिमाचल प्रदेश की दोनों सतहों पर होने वाली कसीदाकारी ‘चंबा रूमाल’ तथा विशेष तौर पर कर्नाटक के ‘कसुटी’ में कई धागों का प्रयोग किया जाता है।
कश्मीरी शाॅल उत्कृष्ट किस्म के ऊन पर गहन डिजाइन के लिए प्रसिद्ध है तथा ये हस्तशिल्प के बेहतरीन नमूने हैं। यहां का कानी (बना हुआ पश्मीना शाॅल), दोरुखा (दोनों ओर इस्तेमाल किया जागे वाला शाॅल) तथा शहतूस काफी प्रसिद्ध है। बौद्धधर्म से जुड़े हुए लोग कुल्लू शाॅल को प्रयोग में लाते हैं। यह चेक पैटर्न पर बना होता है। सैनिकों के शाॅल के नाम से जागा जागे वाला नागालैण्ड का ‘तुसुंगकोटेपसु’ भी काफी प्रसिद्ध है।
दरी एवं दस्तरखाना
फर्श पर बिछाई जागे वाली दरी सामान्य तौर पर महीन सूती कपड़े से बुनी जाती है। इसमें डिजाइनों की पूरी रेंज विद्यमान है। इसमें पंजाब, हरियाणा तथा राजस्थान की पंजा दरी, उत्तर प्रदेश की जाह नमाज दरी (नमाज पढ़ने के लिए इस्तेमाल में लाई जागे वाली दरी), तमिलनाडु के सलेम की सघन पैटर्न वाली नवलगुंड तथा रेशम और सूती कपड़े से बनने वाली भवानी दरी, वारंगल की बंधा (इकत) दरी, (इसमें सूती धागे की पहले कताई और रंगाई की जाती है), को शामिल किया जा सकता है। कश्मीर की दरी में पारसी तथा मध्य एशियाई दस्तकारी का प्रभाव है। फर्श पर बिछाने के लिए कश्मीर की और भी कई चीजें प्रसिद्ध हैं नमदा, गाबा तथा हुकरग जैसे विशेष किस्म के कम्बल।
मृद्भांड
भारत में बिना शीशे की पालिश वाले मिट्टी के बर्तन सर्वोत्कृष्ट माने जाते हैं। इस किस्म में अलवर के हल्के ‘कागजी’ बर्तन, कांगड़ा के काले रंग के मिट्टी के बर्तन, आजमगढ़ (उ.प्र.) तथा कच्छ के काले मृद्भांड (इस पर सिलवर का पैटर्न भी बना रहता है), आभूषणों की तरह पैटर्न से अलंकृत पोखरन के मृद्भांड और कश्मीर के मिट्टी के पतले बर्तन शामिल हैं। इसमें सर्वाधिक प्रसिद्ध नीले रंग के मिट्टी के बर्तन हैं। ये बर्तन परंपराग्त तरीके से नहीं बना, जाते हैं। जयपुर और दिल्ली इसके प्रमुख केंद्र हैं। रामपुर और खुर्जा में लाल मिट्टी के विभिन्न किस्म के बर्तन बना, जाते हैं। उत्तर प्रदेश का चुनार सुराही के लिए प्रसिद्ध है। वहां सुराही को आकर्षक बनाने के लिए भूरे शीशे का प्रयोग किया जाता है।
मृणमूर्ति टेराकोटा
मिट्टी से बनी देवी.देवताओं की मूर्तियों का प्रयोग आमतौर पर त्यौहारों में होता है। मिथिला बिहार, की ‘शामा चक’ की मिट्टी से बनी मूर्तियां, पश्चिम बंगाल के ‘बांकुरा’ के घोड़े की मूर्तियां, राजस्थान में हाथ से बनी गणेश की मूर्तियां और तमिलनाडु की अयनार की मूर्तियों का उल्लेख इस क्रम में किया जा सकता है।
आभूषण
आभूषणों का प्रयोग मुख्यतः महिलाएं अपने को संवारने में करती रही हैं। आदिवासी समुदाय में इनका महत्व बुरी आत्माओं को दूर भगाने के लिए है। इसीलिए देवी.देवताओं की मूर्तियों के आकार वाले ताबीजों एवं लटकनों का प्रयोग भी ये करते हैं। अलग-अलग अंगों के लिए इन आभूषणों की पूरी किस्म मौजूद है। उदाहरण के लिए, चेहरे को अलंकृत करने हेतु, नाक, कान और ललाट के आभूषण हैं। ‘नथ’ और ‘फुली’ इसी में आते हैं। हाथों को सजागे के लिए चूड़ी, गजरा, करधा, बैंज, बाजू, चूड़ा का नाम लिया जा सकता है। गले के लिए हार या लाॅकेट हैं। पैर की अंगुलियों के लिए ‘बिछुआ’ का प्रयोग किया जाता है। आदिवासी एक विशेष प्रकार की बिंदी का प्रयोग करते हैं। चांदी से बनी यह बिंदी पूरी ललाट को ढंके रहती है। सौराष्ट्र तथा महाराष्ट्र में चांदी की बनी हुई ‘हंसली’ का प्रयोग गर्दन की संुदरता के लिए किया जाता है। राजस्थान और पंजाब में इनकी अपेक्षा कुछ हल्की हंसली पहनी जाती है। कुल्लू में नाक में महिलाएं ‘नथ’ या ‘बुलाक’ पहनती हैं। कुल्लू और किन्नौर में चांदी की बजाय पीपल के पत्ते से बना एक आभूषण ‘पीपल पत्र’ माथे पर पहना जाता है। कश्मीर में कानों को सजागे के लिए ‘कानबाली’ तथा ‘झुमका’, पश्चिम बंगाल में बालों की सजावट के लिए ‘तारकांता’ तथा ‘पानकांता’ का प्रयोग होता है। ओडिशा और केरल के स्वर्णांभूषण भी काफी प्रसिद्ध हैं।
धातु से बनी सामग्री
देवी देवताओं की मूर्तियों से लेकर घरेलू इस्तेमाल की वस्तुएं बनाने में धातुकला से सम्बंधित कई तकनीकियों का इस्तेमाल होता है। मिश्रित धातु से सामान बनाने के लिए केरल, ओडिशा, पश्चिम बंगाल तथा बिहार प्रसिद्ध हैं। चादरनुमा धातु का सामान बनाने की कला में तंजौर, तमिलनाडु में मद्रास, उत्तर प्रदेश में वाराणसी तथा गुजरात में भुज का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त एक और धातु कला है, जिसमें धातु को ढालकर उससे सामान बनाया जाता है। उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद तथा हरियाणा में जगाधरी इसके प्रमुख केंद्र हैं। कांसे को ढालकर मोम की तरह मुलायम बनाकर उससे सामान बनाने की (साइरे परड्यू) गुम हो गई कला को एक बार फिर विकसित किया गया है। धातु की सतह को अलंकृत करने के लिए नई तकनीकों का प्रयोग किया जाता है। इसमें प्रमुख हैं ‘गंगा-यमुना तकनीक, केरल की कोफ्तगारी बिदरी तांबे पर चांदी मढ़ना जिंक वेसेल्स, तंजौर का प्लेट का कार्य तथा, कश्मीर का निएलों।
प्रस्तर कला
भारत प्रस्तर कला में काफी समृद्ध रहा है। यह यहां के कई प्राचीन स्मारकों को देखने से स्पष्ट होता है। देवी देवताओं की मूर्तियों तथा पूजा स्थल पत्थरों को तराशकर बना, जाते रहे हैं। पत्थरों में संगमरमर का प्रयोग बहुतायत में होता रहा है। मकराना का संगमरमर काफी प्रसिद्ध है। जयपुर और आगरा भी संगमरमर पत्थर के लिए प्रसिद्ध हैं। राजस्थान का डूंगरपुर तथा मैसूर काले पत्थरों के लिए जागे जाते हैं। तमिलनाडु के महाबलीपुरम में कठोर ग्रेनाइट पत्थरों का प्रयोग किया गया है। ओडिशा की पाषाण कला अनुष्ठानों और रीति-रिवाजों तथा धार्मिक मान्यताओं से गहराई से जुड़ी हुई है।
हाथी दांत की कला
यह एक प्राचीन कला है, जो विभिन्न जगहों पर अपने-अपने ढंग से विकसित हुई है। इसका सबसे ज्यादा चलन दिल्ली (हाथी दांत से बने आभूषण), राजस्थान तथा गुजरात (चूड़ियां बनाने में), वाराणसी, उत्तर प्रदेश (बुद्ध तथा कृष्ण की मूर्तियां बनाने में), पश्चिम बंगाल (खेलने वाली नाव तथा दुग्र की प्रतिमा बनाने में) तथा केरल (देवी.देवताओं की मूर्तियां बनाने) मंे है।
हड्डी तथा सींगंग से सम्बद्ध कला
ओडिशा में जागवरों की आकृति बनाने के लिए तथा हिमालय के क्षेत्रों में धार्मिक कर्मकांडों के लिए आभूषण तैयार करने में हड्डी का प्रयोग किया जाता रहा है। सींग, विशेषकर भैंस के सींग का इस्तेमाल कंघी, बटन, डिब्बी, कलश जैसे सामानों के निर्माण में किया जाता है। इस कला के प्रमुख केंद्र कटक, परलाकिमेदी (ओडिशा), सराय तारीन (उ.प्र.), त्रिवेंद्रम तथा मैसूर हैं।
काष्ठ कला
काष्ठ कला की परंपरा काफी पुरानी है तथा हर क्षेत्र की अपनी अलग शैली है। असम की मिथकीय मूर्तियां तथा वहां के पूजा स्थल (नामधर) परंपराग्त ढंग से लकड़ी से बने हैं। गुजरात के सांखेड़ा के फर्नीचर, अहमदाबाद में मकानों की बालकनी तथा ओसारा, पश्चिम बंगाल के गांवों में बने मकानों के बीम व खम्भे, ओडिशा के रथों और मंदिरों में काष्ठकला के उत्कृष्ट नमूने दिखाई देते हैं।
दक्षिण भारत में लकड़ी को तराशकर बना, गए रथ काफी प्रसिद्ध हैं। कर्नाटक लकड़ी से बने बक्से के लिए जागा जाता है। केरल के मकानों में बीम, खंभे, चैखटें, छत से संबंधित सामान लकड़ी के बने होते हैं। कश्मीर में घरेलू इस्तेमाल के अधिकांश सामान लकड़ी से बना, जाते हैं। यहां तक कि लकड़ी की बनी मस्जिदें भी वहां देखने को मिल जाती हैं। लकड़ी से जुड़ी लोक कला बस्तर, आंध्रप्रदेश के तिरूपति और निर्मल गांवों में तथा राजस्थान के बासी गांव में देवी.देवताओं की मूर्तियों व खिलौनों में दिखाई देती है। तंजौर लकड़ी से बनी गुड़ियों के लिए प्रसिद्ध है।
चटाई बुनाई
विभिन्न सामानों से चटाई की बारीक बुनाई की जाती है। तमिलनाडु के तिरुनेल्वेली में ‘पट्टमढ़ई’ नामक चटाई, मणिपुर में ‘फाक’ बेंत की चटाई, केरल की घास से बनी अत्यंत सघन पैटर्न वाली ‘कोरा’ चटाई तथा पश्चिम बंगाल की ‘शीतलापट्टी’ तथा ‘मधुर कोठी’ चटाइयां प्रसिद्ध हैं।
टोकेकरी बुनाई
स्थानीय परंपराओं के अनुरूप टोकरी बुनाई कई तरह से की जाती है। उत्तर-पूर्व का क्षेत्र अच्छी किस्म की बेंत तथा बांस से बनी टोकरी के लिए काफी प्रसिद्ध है। बंगाल की बांस से बनी टोकरी ‘कुलास’, तमिलनाडु की ‘चेट्टीनड़’ टोकरी और मैसूर की बेंत की टोकरी काफी लोकप्रिय है। जंगली घास ‘सरकंडा’ तथा ताड़ के पत्ते से बनी पंजाब की टोकरी, मानसूनी घास ‘मंूज’ से बनाई गई उत्तर प्रदेश की टोकरी, बरसाती घास से बनी हुई बिहार की टोकरी तथा एक किस्म के मुलायम पौधे से बनी हुई कश्मीर की टोकरी उल्लेखनीय हैं।
फर्श तथा दीवार अलंकंकरण
फर्श की सजावट आमतौर पर त्यौहारों के अवसर पर की जाती है। इसमें चावल के दाने एवं सिंदूर वगैरह से चित्रक्रम में प्रतिकृति बनाई जाती है। पश्चिम बंगाल में इसे ‘अल्पना’, बिहार तथा उत्तर प्रदेश में ‘अरिपन’, महाराष्ट्र तथा गुजरात में ‘रंगोली’, दक्षिण भारत में ‘कोलम’ कहा जाता है।
त्यौहारों के अवसर पर दीवारों पर चित्र वगैरह बनाकर उसे सजाया जाता है। हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान में नवरात्र के अवसर पर दीवारों पर मिट्टी से ‘सांझी’ बनाई जाती है। गाय के गोबर से भी दीवारों को सजाया जाता है। कच्छ के ‘ढेभबरिया रावरीज’ का नाम इस क्रम में लिया जा सकता है।
दस्तकारी क्षेत्र का मूल्यांकन
दस्तकारी आज भी भारतीय संस्कृति एवं समाज का एक विविध पहलू है। दस्तकारी भारत में मानव इतिहास के प्रारंभ से संस्कृति से घनिष्ठ रूप से गुंथा हुआ है। दस्तकारी गांवों, कस्बों, अदालतों और धार्मिक संस्थानों के दैनंदिन जीवन का एक अभिन्न अंग रहा है। भारत में मौजूद विभिन्न प्रकार की दस्तकारी एवं कौशल और पूरी सदी उनके निरंतर विकास ने पूरे विश्व में भारत को एक अद्वितीय स्थान प्रदान किया। विश्व में हम उन चुनिंदा देशों में हैं जहां पूरे देश में कई लोगों द्वारा दस्तकारी कौशल किया जाता है।
दस्तकारी क्षेत्र बड़ी संख्या में लोगों को आजीविका प्रदान करता है और भारत की विदेशी आय में एक बड़ा योगदान देता है। कालीन उद्योग, हीरे-जवाहरात उद्योग के साथ दस्तकारी भारत के कुल निर्यात में पांचवे हिस्से की भागीदारी करती है। एक आकलन के अनुसार दस्तकारी क्षेत्र में 12 मिलियन से अधिक कलाकार कार्यरत हैं। हालांकि, आज भारत दस्तकारी के विश्व उद्योग में मात्र 2 प्रतिशत की भागीदारी रखता है जबकि चीन में सरकारी सहायता एवं समर्थन के बूते उसकी इस क्षेत्र में वैश्विक भागीदारी 17 प्रतिशत की है।
भारत में दस्तकारी क्षेत्र को एक बड़ा संकट देश एवं विदेश में औद्योगिक विनिर्माण से है, जो बड़ी मात्रा में सस्ते उत्पाद उत्पन्न करते हैं और त्वरित तौर पर बदलते प्रारूप एवं फैशन की मांग को पूरा करते हैं। आज व्यापार नीतियों के वैश्वीकरण एवं उदारीकरण का अर्थ है अन्य देशों से गुणवत्तापरक दस्तकारी सामान भारत में प्रवेश कर सकता है और भारत में दस्तकारी उद्योग के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकता है। देश के भीतर दस्तकारी उद्योग को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ प्रतिस्पद्र्धा करनी पड़ रही है क्योंकि युवा लोग ब्रांडेड कपड़े एवं लाइफस्टाइल उत्पाद खरीदते हैं।
दस्तकारी क्षेत्र की महत्ता को समझते हुए भारत में सरकारी नीति को परिवर्तित करने की आवश्यकता है। इसके लिए दस्तकारी से रोजगार एवं आय अवसरों को सुनिश्चित करना होगा। दस्तकारी के घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय दोनों बाजारों के विस्तार द्वारा इसे एक आर्थिक गतिविधि बनाने की आवश्यकता है। विलुप्ति के संकट से जूझ रहे दस्तकारी कौशल के परम्परागत सुंदरता का संरक्षण करना होगा, और फिर से उन्हें भारत के दैनंदिन जीवन का एक अभिन्न अंग बनाना होगा।
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