WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

डॉक्टर बी आर अंबेडकर द्वारा शुरू की गई पत्रिका नाम बताइए , कौन सी पत्रिका डॉक्टर आंबेडकर ने शुरू नहीं की थी?

पढेंगे डॉक्टर बी आर अंबेडकर द्वारा शुरू की गई पत्रिका नाम बताइए , कौन सी पत्रिका डॉक्टर आंबेडकर ने शुरू नहीं की थी ?

उत्तर : डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा 1. मूकनायक (1920) 2. बहिष्कृत भारत (1927) नामक दो पत्रिकाएं प्रारम्भ की गयी थी |

प्रश्न: डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा दलितोत्थान के लिए किए गए कार्यों के बारे में बताइए।
उत्तर: भीमराव रामजी अम्बेड़कर जो (1891-1956) जो बाबासाहेब के नाम से प्रसिद्ध हुये। अम्बेड़कर भारतीय विधिवेत्ता, राजनीतिक नेता, दार्शनिक, मानवशास्त्री, इतिहासकार, लेखक, अर्थशास्त्री, अध्यापक एवं संपादक थे। वे भारतीय संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। इनका जन्म एक गरीब अस्पृश्य परिवार (महार) में हुआ था। बाबासाहेब अंबेडकर ने अपना सारा जीवन हिंदू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली और भारतीय समाज में सर्वव्यापित जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में बिता दिया। उन्हें बौद्ध महाशक्तियों के दलित आंदोलन को प्रारंभ करने का श्रेय भी जाता है। बाबासाहेब अम्बेडकर को भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया है।
इन्होंने मूकनायक (साप्ताहिक) के जरिये रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना की। बहिष्कृत हितकारिणी सभा (1924) की स्थापना कर दलित वर्गों में शिक्षा का प्रसार किया और उनके सामाजिक आर्थिक उत्थान के लिये काम किया। 1927 में अम्बेडकर ने छुआ-छूत के खिलाफ व्यापक आंदोलन शुरू किया। उन्होंने सार्वजनिक संसाधनों एवं हिन्दू मंदिरों में अछूतों के प्रवेश के अधिकार दिलाने के लिए सघर्ष किया।
राजनीतिक जीवन में उन्होंने दलितों की अधिकारों के लिये जीवन पर्यन्त संघर्ष किया। पूनापैक्ट (1932) के जरिये दलितों की राजनीतिक अधिकारों को सुरक्षित करवाया तथा संविधान निर्माण में उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान रहा।
अम्बेडकर द्वारा स्थापित संस्थाएं
1. बहिष्कृत हितकारिणी सभा (1924)
2. अखिल भारतीय दलित संघ (1924)
3. रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया
4. इंडिपेडेंट लेबर पार्टी (1936)
5. बौद्ध सोसाइटी ऑफ इण्डिया (1955)
पत्रिकाएं
1. मूकनायक (1920)
2. बहिष्कृत भारत (1927)
पुस्तकें
1. जाति के विनाश
2. थॉटस ऑफ पाकिस्तान
3. वॉटस कांग्रेस एण्ड गांधी हैव डन टू अनटचेबल्स
4. हू वर द शूद्राज
5. द अनअचेबल्सः ए थीसिज ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी
6. द बुद्ध एंड हिज धम्म
बौद्ध धर्म ग्रहण करना
1956 में अपने हजारों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया।
गांधी ने भी दलितों के लिए कुछ संघ बनाएं –
1. अखिल भारतीय अस्पृश्ता निवारण संघ (1932)।
2. हरिजन सेवक संघ (1932-33)।
अध्यक्ष – घनश्याम दास बिड़ला तथा ए.वी. ठक्कर को महासचिव बनाया।
इसी समय गांधीजी ने हरिजन नामक पत्रिका निकाली, जिसमें स्वर्ण जातियों से यह आह्वान किया गया कि वे निम्न जातियों के लिए एक ट्रस्टी की भांति कार्य करें।
प्रश्न: 19वीं शताब्दी का सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन मध्यमवर्गीय स्वरूप को दर्शाता है तथा इसकी कमजोरियाँ या सीमाएँ क्या थी?
उत्तर: आंदोलन का कार्यक्षेत्र मुख्यतः शहर के शिक्षित मध्यम वर्ग की समस्याओं तक ही सीमित रहा। सुधारक कृषि समस्या एवं आर्थिक शोषण को समाप्त करने में सफल नहीं हुए। उनके विचारों की जटिलता ने आम लोगों व निरक्षर लोगों में सुधारों को लोकप्रिय नहीं होने दिया।
इस आंदोलन के साथ भारत में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का आरंभ माना जाता है किन्तु इस आंदोलन में जो त्रुटियाँ विद्यमान रही थीं उसका प्रभाव वर्तमान तक निरन्तर देखा जा सकता है। जैसे-
इस काल के अधिकांश सुधारकों ने समाज सुधार के लिए सरकारी विधेयन पर बल दिया वहीं सामान्य जन के स्तर पर उसके विरुद्ध आंदोलन छेड़ने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। यही वजह है कि समाज सुधार से संबंधित विधि-निर्माण के बावजूद व्यवहारिक रूप में बहुत कम प्रगति हुई।
सर्वेक्षण करने पर ज्ञात होता है कि संपूर्ण 19वीं शताब्दी में केवल 36 विधवाओं का विवाह हो सका। फिर आज भी भारतीय समाज में विधवा तथा बाल-विवाह जैसी कुरीति कमोबेश विद्यमान है।
उसी प्रकार सती प्रथा उन्मूलन से संबंधित विधि निर्माण के बावजूद भी मिथक, साहित्य तथा लोगों के मस्तिष्क में सती की एक आदर्श छवि बनी रही। यही वजह है कि 1987 में देवराला सती काण्ड तथा यदा कदा ऐसी घटनाएँ घटित होती रहती हैं।
सभी सुधारकों ने किसी न किसी धर्म तथा सम्प्रदाय की चैहद्दी में बंधकर कार्य किया। अर्थात् हिन्दू सुधारकों ने हिन्दू समाज की कुरीतियों में सुधार की आवाज उठायी तो मुस्लिम सुधारकों ने मुस्लिम समाज की। उस काल में कोई भी सुधारक ऐसा नहीं दिखता जो संप्रदाय की चैहद्दी से ऊपर उठकर संपूर्ण भारतीय समाज की कुछ मूलभूत समस्याओं के सुधार की बात कर सके। सुधार आंदोल की यह सीमा आगे भारत में सांप्रदायिक संकीर्णता, जातिवाद व्यवस्था की कठोरता को बढ़ाने में सहायक रही तथा इससे आगे भारत में एक समान नागरिक संहिता के निर्माण में बाधक सिद्ध हुई। इसलिए आज भारत में भारतीय विधि की बजाय मुस्लिम विधि, हिन्दू विधि एवं अन्य विधियाँ प्रचलित हैं। जबकि अन्य देशों में एक समान नागरिक संहिता लागू हैं। जैसे चीन में चाइना लॉ।
ऽ केवल शहरी, मध्यम व ऊच्च वर्ग तक सीमित (आर्य समाज अपवाद)
ऽ पश्चिमी प्रभाव से प्रभावित होने पर सुधारकों में स्वतंत्र चिंतन की प्रक्रिया कमजोर।
ऽ सुधारकों का ब्रिटिश राज व भारत के प्रति उनके दृष्टिकोण ब्रिटिश प्रतिरूप आदर्श के रूप में समझा।
ऽ अतीत की महानता का गुणगान अधिक धर्मग्रन्थों को आधार बनाने की प्रवृत्ति।
ऽ कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया।
ऽ सामाजिक कुरीतियों व बुराइयों को समाप्त नहीं कर सकें।
ऽ महिला क्षेत्र के अलावा कोई खास उपलब्धि नहीं।
ऽ आंदोलन छदम वैज्ञानिकता का पोषक एवं रूढ़िवादी था। लगभग सभी आंदालनों में धर्म एक प्रमुख मुद्दा रहा। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन आदि का चिंतन हिंदू धर्म पर तथा अलीगढ़ आंदोलन का चिंतन इस्लाम धर्म पर आधारित था।
ऽ व्यापक दृष्टिकोण का अभाव। कोई भी आंदोलन समस्त भारतीय जनजीवन को अपना कार्यक्षेत्र नहीं बना सका। बाल हत्या, विधवा विवाह आदि सिर्फ हिन्दू समाज के दोष थे तो कुरान की आधुनिक व्याख्या केवल मुसलमानों से सम्बद्ध थी।
ऽ इन आंदोलनों में आंतरिक द्वन्द एवं अन्तर्विरोध की स्थिति थी। स्वयं सुधारक ही अपने-अपने धर्म मान्यताओं एवं रुढ़ियों से पूर्णतः मुक्त नहीं थे। केशवचन्द्र सेन बाल-विवाह के विरोधी थे, लेकिन उन्होंने अपनी 13 वर्षीय कन्या का विवाह पूरे कर्मकाण्ड से कूच बिहार (असम) के राजा से कर दिया। राजा राममोहनराय व सर सैयद खान के प्रयत्न भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के औपनिवेशिक ढांचे पर तालमेल बिठाने तक सीमित था। सैयद अहमद खां आधुनिक पश्चिम विचारों से प्रभावित थे लेकिन पर्दा प्रथा जैसे मुद्दों पर उनका दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं था।
ऽ सैयद अहमद व इकबाल दोनों के प्रारंभिक व बाद के विचारों में पृथकतावादी अन्तर्विरोध झलकता है। इस प्रकार आंदोलन की धर्म पर अत्यधिक निर्भरता ने इसमें संकीर्णता एवं कट्टरता के तत्वों का समावेश किया। जो बाद में साम्प्रदायिकता का आधार बनी। यह गैर-ऐतिहासिक व गैर-वैज्ञानिक भी था।
अतीत पर अधिक जोर, मध्यकाल की उपेक्षा
ऽ हिन्दू सुधारक वेदों से प्रेरणा ले रहे थे तो मुसलमान सुधारक कुरान से। प्रायः सभी हिन्दू वैदिक जीवन को आदर्श मानते थे, विशेषकर आर्य समाजी। वैदिककालीन जीवन को आदर्श मानना उसके समतावादी चरित्र एवं अतीत के गौरव के दृष्टिकोण से तो अच्छा था, लेकिन इसका अर्थ यह भी होता है कि पिछले तीन हजार सालों की भारतीय सभ्यता की उपलब्धियों को नकार दिया गया। जैसे मध्यकालीन सुधार आंदोलनों को नकारना मध्यकालीन कला एवं सांस्कृतिक प्रगति को नजरअंदाज करना। कुछ खास वर्ग तथा खास धर्म के लोगों की उपलब्धियों को नकारना। इस तरह अतीत के गौरव गान से उच्च वर्ग एवं निम्न वर्ग के हिन्दुओं में भेदभाव बढ़ा।
ऽ धर्म का प्रयोग सुदूर अतीत में ही मानवीय संगठन को प्रभावशाली बना सकता था। 19वीं शताब्दी में अतीत एवं धर्म बहुत सशक्त माध्यम नहीं बन सका।
ऽ बुद्धिवाद एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बढ़ते प्रभाव की पृष्ठभूमि में विवेकपूर्ण एवं आधुनिक सामाजिक दर्शन से संबंधित ठोस विचारधारा की आवश्यकता थीं न कि धर्म एवं अतीत का गौरवगान।