WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

टिड्डा, ग्रास होपर या लोकर क्या है , Grasshopper or Locust in hindi इन्सेक्टा (Insecta) टेटीगोटा (Pterygota)

टिड्डा, ग्रास होपर या लोकर (Grasshopper or Locust)

वर्गीकरण (Classification)

संघ (Phylum) – आर्थोपोड़ा (Arthropoda)

द्विपाश्व सममित त्रिस्तरीय खण्डयक्त शरीर देहगहीय, शरीरिक गठन ऊत्तक अग स्तर त का होता है। संधि युक्त उपांग पाये जाते हैं। काइटिनी क्यूटिकल का बाह्य ककाल पाया जाता है।। परिसंचरण तन्त्र खुले प्रकार का होता है। उत्सर्जन मेल्पिजियन नलिकाओं या ग्रीन ग्रन्थियों द्वारा।

वर्ग (Class) : इन्सेक्टा (Insecta)

शरीर तीन भागों में विभेदित सिर, वक्ष एवं उदर। वक्ष पर तीन जोड़ी टांगे व दो जोड़ी पंख पाये जाते हैं। कुछ में पंख अनुपस्थित होते हैं।

उपवर्ग (Sub class) : टेटीगोटा (Pterygota)

वयस्कों में पंख पये जाते हैं। कायान्तरण पूर्ण या अपूर्ण होता है।

प्रभाग (Division) : एक्सोप्टेरीगोटा (exopterygota)

पंख बाह्य कलिकाओं से विकसित होते हैं। कायान्तरण सरल परिवर्धन के दौरान प्यूपा अवस्था अनुपस्थित होती है। शिशु निम्फ कहलाते हैं जो धीरे-धीरे वयस्क में रूपान्तरित होते हैं।

गण (Order) : आर्थोप्टेरा (Orthoptera)

प्रथम जोड़ी पंख संकरे व चिम्मड होते हैं तथा दूसरी जोड़ी पंख पतले व झिल्लीनुमा होते हैं। मुखांग काटने व चबाने के उपयुक्त होते हैं।

वंश (Genus) : ग्रासहोपर या लोकस्ट (Grass hopper or Locust)

शिसटोसर्का अमेरिकाना (Schistocerca americana) :

आवास, स्वभाव एवं वितरण (Habit habitat and Distribution) :

टीडडों का वितरण विश्वव्यापी होता है। ये खुले घास के मैदानों तथा अत्यधिक पत्तीदार वनस्पतियों वाले क्षेत्र में पाये जाते हैं। ट्डिडे बहुत भुक्कड स्वभाव के (voricious eater) व शाकाहारी होते हैं। ये घास व पत्तियों को कुतर-कुतर कर चबा कर खाते हैं। इस प्रकार ये वनस्पतियों खेतों में खडी फसल को अत्यधिक हानि पहुँचाते हैं। घास के मैदान व वनस्पति वाले क्षेत्र इनके। रहने के लिए सर्वथा उपयुक्त होते हैं क्योंकि वहाँ इनको खाने के लिए भोजन व अण्डे देने के लिए स्थान की कोई कमी नहीं होती है। सामान्यतया छोटे पंख वाले या पंख विहीन टिड्डे एकल (solitary) होते हैं और अपने-अपने स्थानों तक ही सीमित रहते हैं।

कुछ विशेष प्रकार की अफ्रीकी और एशियाई जातियाँ झुण्ड में रहने वाली तथा प्रवासी होती है। इनमें से शिसटोसर्का ग्रिगेरिया (Schistocerca geregaria) एवं शिस्टोसर्का माइग्रेटोरिया (Schistoserca migratoria) मरूस्थली और सामान्य टिड्डियाँ (Locust) है। इनके लम्बे पंख होते हैं और रास्ते में पड़ने वाले पत्तीदार पौधों, घास के मैदानों, वृक्षों तथा फसलों को खाते हुए झुण्ड में एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश को जाती है। ये उत्तरी अफ्रीकी से उत्तरी भारत तक पायी जाती है। एकल टिड्डे अधिक हानिकारक नहीं होते हैं जबकि झुण्ड में आने वाली दिदियाँ तबाही मचा देती है व सम्पूर्ण वनस्पतियों का नाश कर देती है।

बाह्य अकारिकी (External morphology)

  1. आकार एवं परिमाण (Shape and Size) : एक सामान्य टिड्डे या ग्रास होपर का शरीर बड़ा, लम्बा, संकरा बेलनाकार तथा द्विपार्श्व सममित होता है। इसका शरीर लगभग 8 सेमी तक लम्बा होता है।
  2. रंग (Colour) : ग्रासहोपर के शरीर का रंग पीताभ या भूरा होता है जिस पर विभिन्न रंगों के धब्बे और धारियाँ पायी जाती है। आक के टिड्डे (पोइसिलोसीरस Poocillocerus) का रंग नीला व पीला होता है। इसके झिल्ली नुमा पंखों का रंग नारंगी होता है।
  3. बहिकंकाल (Exoskeleton) टिड्डे का सम्पूर्ण शरीर काइटिन से निर्मित क्यूटिकल द्वारा ढका रहता है, जो इसका बाह्य कंकाल बनाती है। क्यूटिकल का स्रावण इसके नीचे स्थित हाइपोडर्मिस की कोशिकाओं द्वारा होता है।

शरीर के प्रत्येक खण्ड पर पृथक कठोर बहिकंकाली प्लेटें पायी जाती हैं जिन्हें कठक (sclerites) कहते हैं। खण्डों के मध्य लचीली क्यूटिकल पायी जाती है जिसे सुचर या सीवन (suture) कहते हैं, जिसके कारण खण्डों व उपागों में गति हो सकती है।

  1. खण्डी भवन (Segmentation) : टिड्डे या ग्रास होपर का शरीर खण्डयुक्त होता है जिसे तीन प्रारूपी भागों में विभेदित किया जा सकता है- (i) सिर (Head) (ii) वक्ष (Thorax) (III) (Abdomen) सिर में छः खण्ड, वक्ष में तीन खण्ड तथा उदर में 11 खण्ड पाये जाते हैं। सम्पूर्ण शरीर में कुल 20 खण्ड पाये जाते हैं।

(i) सिर (Head) : यह शरीर का सबसे अग्र भाग होता है जो 6 भ्रूणीय खण्डों के संगलन बनता है। खण्डों के संगलन के कारण सिर एकल संरचना के रूप में दिखाई देता है। सिर में पाये जाने वाले युग्मित उपांगों से यह सिद्ध होता है कि यह 6 खण्डों के संगलन से निर्मित होता है। इसका सिर गतिशील होता है।

इसका सिर नाशपति के आकार का (peoar shaped) और अधोहनु प्रकार (hypogmalio type) का होता है। अर्थात् यह वक्ष से उर्ध्वाधर रूप से इस प्रकार जुड़ा रहता है कि मुख वाला  भाग नीचे की ओर लटका रहता है।

सिर का बहिककाल या सिर सम्पुट (head capsule) अधिकपाल (epicranium) से जुड़ी काइटिनी प्लेटों का बना होता है। सिर के ऊपरी पृष्ठ भाग को टेक्स (veries) पा भाग को जीनी वा कपोल (gonac) और सामने वाले भाग को फ्रॉन्स (frons) कहते हैं।

फ्रॉन्स के नीचे एक चौड़ी आयताकार प्लेट पायी जाती है जिसे क्लाइपियस य मुख पालि (clypeus) कहते हैं। सिर के पीछे की तरफ एक बड़ी वलयाकार प्लेट पायी जाती है जिसे ऑक्सीपुट (occiput) कहते हैं, यह सिर का पिछला भाग बनाती है।

सिर के पृष्ठ पार्श्व में एक जोड़ी संयुक्त नेत्र, तीन सरल नेत्र या नेत्रक (ocelli). एक जोड़ी बाखण्डीय श्रृंगिकाएँ तथा मुख के चारों ओर कृतक व चवर्ण प्रकार के मुखांगों का एक समुच्य पाये जाते हैं।

(i) संयुक्त नेत्र (Compound eyes) : सिर के प्रथम खण्ड पर दोनों पृष्ठ पार्श्व तलों पर। एक-एक बड़ा वृक्काकार संयुक्त नेत्र स्थित होते हैं। संरचना में ये कॉकरोच या प्रॉन के संयुक्त नेत्रों के समान ही होते हैं परन्तु इनमें वृन्त का अभाव होता है। दोनों संयुक्त नेत्र अपेक्षाकृत एक बड़े क्षेत्र में सिर के दाएँ व बाएँ तलों पर स्थित होते हैं तथा एक विस्तृत क्षेत्र पर दृष्टि बनाये रखते हैं। सम्भवत: टिड्डों में रंगों को पहचानने की क्षमता पायी जाती है। (संयुक्त नेत्र के विस्तृत विवरण हेतु अध्याय 3 देंखे)

(ii) नेत्रक (Ocelli) : सिर के प्रथम खण्ड पर ही दोनों संयुक्त नेत्रों के मध्य तीन सरल नेत्र या नेत्रक (ocelli) स्थित होते हैं। प्रत्येक नेत्रक में एक मोटी पारदर्शक क्यूटिकल का बना लैंस तथा कछ गहराई में स्थित संवेदी कोशिकाओं का समूह पाया जाता है जिसे रेटिना कहते हैं। सरल नेत्र या नेत्रक में वर्णक कोशिकाएँ भी पायी जाती है। नेत्रक एक प्रकाश ग्राही संवेदांग होता है। इसका वास्तविक कार्य अज्ञात है।

(ii) शृंगिकाएँ (Antennae) : सिरे के द्वितीय खण्ड पर एक जोड़ी धागे समान पतली, अशाखित और बहुखण्डीय शृंगिकाएँ पायी जाती है। ये शृगिकाएँ संयुक्त नेत्रों के सम्मुख शृंगिक गर्तिकाओं (antennal sockets) में स्थित रहती है। प्रत्येक शृंगिका में एक बड़ा आधारी खण्ड स्केप (scape), एक छोटा वृन्त (pediccl) तथा अनेक खण्डों का बना कशाभ (flegellum) पाया जाता है। शृगिका के कशाभ पर स्पर्शकी शूक (tactile bristles) और घ्राणगर्त (olfactory pits) पाये जाते हैं जिससे ये विशिष्ट संवेदी अंग के रूप में कार्य करती है।

(iv) मुखांग (Mouth part) : टिड्डे में मुखांग सिर के नीचे की ओर अधर तल पर उपस्थित मुखपूर्वी गुहिका (prcoral cavity) के चारों तरफ स्थित होते हैं।

टिड्डे के मुखांग कृतंक व चवर्ण (biting and chewing type) या मेन्डिबुलेट (mandibulate) प्रकार के होते हैं जो पोधों की पत्तियों को काट कर चबाने में सहायक होते हैं। इसमें निम्न प्रकार के मुखांग पाये जाते हैं जो कॉकरोच के समान होते हैं

(a) ऊपरी ओष्ठ या लेब्रम (Labrum) : यह एक चौड़ी आयताकार प्लेटनुमा संरचना होती है जो क्लाइपियस के निचले किनारे से जुड़ी रहती है।

(b) अद्योग्रसनी (Hypopharynx) : यह एक झिल्ली के समान मध्यवर्ती जिव्हा की भांति संरचना होती है जो ऊपरी ओष्ठ या लेब्रम के नीचे स्थित होती है।

(c) चिबुक या मेन्डिबल (Mandible) : कपोल के दोनों पार्यों की ओर एक-एक भारी, कठोर, त्रिभुजाकार गहरे रंग के जबड़े या मेन्डिबल स्थित होते हैं। इनकी भीतरी सतह दाँतेदार होती है जो भोजन चबाने के उपयुक्त होती है। दोनों मेन्डिबल एक-दूसरे के सम्मुख स्थित होते हैं जो अपनी क्षैतिज गति द्वारा भोजन चबाते हैं।

(d) जम्भिकाएँ (Maxillae) : दोनों मेन्डिबलों के पीछे की ओर एक-एक जम्भिका  (maxilla) स्थित होती है। प्रत्येक जभिका निम्न खण्डों से मिल कर बनी होती है-आधारी खण्ड-काडों (cardo), मध्यवर्ती खण्ड स्टीपेज (stipase), दूरस्थ बदाम गीय खण्ड गेलिया (salem और पल्पिफर का पेल्पिफर से एक पतला पाँच खण्डीय

संवेदी जम्भिका स्पर्शक (maxillary palp) निकला रहता है। जम्भिकाएँ भोजन को पकड़ कर मुख में धकेलते हैं।

(e) निचला ओष्ठ या लेबियम (Labium: यह एक चौड़ी मध्यवर्ती संरचना होती है जो अधराय ओष्ठ या लेबियम कहलाती है। लेवियम को संगलित द्वितीय जोड़ी जम्पिकाए भी माना जाता है। लेबियम में एक आधारी सबमेन्टम (submentum), एक केन्द्रीय मेन्टमा (montum) तथा पागातशाल पल्ले (laps) या लिग्यूली (digulac) पाये जाते हैं। दोनों ओर तीन खण्डों वाला एक-एक सवेदी लेबियल स्पर्शक dabial palp) पाया जाता है। प्रत्येक लिप्यूला एक भीतरी छोटे ग्लासा (glossa) तथा एक बड़ी बाहरी पेराग्लोसा (paraglossa) से मिलकर बनी होती है।

(ii) वक्ष (Thorax) : यह शरीर का मध्य भाग होता है जिसके आगे की ओर सिर व पीछे की ओर उदर स्थित होता है। वक्ष तीन खण्डों का बना होता है जिन्हें क्रमश: अग्रवक्ष (prothorax), मध्यवक्ष (mesothorax) तथा पश्च वक्ष (metathorax) कहते हैं। प्रत्येक खण्ड का बाह्य कंकाल कई प्लेटों या कठकों (sclerites) से मिलकर बना होता है। प्रत्येक खण्ड का पृष्ठ कठक (sclerite) पृष्ठक या टरगम (tergum) कहलाता है, जो चार कठकों के संगलन से मिलकर बनता है। इनमें आगे की ओर अग्र स्कूटम (prescutum), उसके पीछे स्कूटम (scutum) फिर प्रशल्क (scutellum) तथा सबसे पीछे की तरफ पश्च प्रशल्क (post scutellum) होते हैं। प्रत्येक खण्ड के पार्श्व की तरफ पाये जाने वाले कठक पार्श्वक या प्लुरोन (pleuron) कहलाते हैं जो तीन कठकों से मिलकर बना होता है ये कठक है अग्रपार्श्वक या एपिस्टरनम (episternum) पश्च पार्श्वक या एपिमेरोन (cpimeron) तथा परापक्ष ककत या पेराष्टेरोन (parapteron)। प्रत्येक खण्ड की अधर की तरफ केवल एक कंकाली प्लेट या कठक पाया जाता है जिसे अधरक (sternum) कहते हैं। अग्रवक्ष का पृष्ठक या टरगम प्रवक्षपृष्ठक या प्रोनोटम (pronotum) कहलाता है यह बहुत बड़ा व काठी के समान (saddle like) होता है। मध्य वक्ष (mesothorax) तथा पश्च वक्ष (metathorax) के दोनों पार्श्व की ओर वक्ष के अधर तट के निकट एक-एक जोड़ी श्वास रन्ध्र (spiracles) पाये जाते हैं।

  • टाँगें (Legs) : प्रत्येक वक्षीय खण्ड के अधर पाश्र्वय भाग में एक जोड़ी खण्डयुक्त टांगें पायी जाती है। प्रत्येक टांग में रेखिक क्रम में स्थित पांच खण्ड पाये जाते हैं जो क्रमश निम्न होते हैं- (i) एक छोटा आधारी और वक्ष से जुड़ा खण्ड कक्षांग (coxa) (ii) एक छोटा शिखरक (trochanter) यह एक लम्बे दृढ़ तीसरे खण्ड फीमर को कक्षांग से जोड़ता है। (iii) फीमर (femur) टांग का तीसरा लम्बा व दृढ़ खण्ड होता होता है जो आगे की ओर ट्रोकेन्टर या शिखरक द्वारा कक्षांग से जुड़ा रहता है व पीछे की ओर टिबिया नामक खण्ड से जुड़ा रहता है। (iv) टिबिया

एक लम्बा पतला और कंटकीय खण्ड होता है। (v) गुल्फ (Tarsus) : यह छोटे-छोटे तीन से मिलकर बना होता है जिन्हें गुल्फ खण्ड (tarsomeres) कहते हैं। गुल्फ खण्डों के अध पर छोटी-छोटी गद्दीयाँ या पदवद्य (plantulae) पायी जाती है। तीसरे व अंतिम गुल्फ खण्ड के अन्तिम सिरे पर एक मध्यवर्ती मांसल गद्दी या पादतल्प (pulvillus) या एरोलियम (arolium) पास जाती है जो इस गुल्फ खण्ड के अन्तिम सिरे पर उपस्थित एक जोड़ी नखरों (claws) के बी उपस्थित होती है।

टिड्डे की सभी टांगे चलने और उछलने के काम आती है। परन्तु इनमें से अन्तिम या तीन पश्च वक्षीय टांगे जिनमें अधिक बडी व पेशीय फीमर तथा लम्बी टिबिया पायी जाती है जो कटर या उछलने के लिए विशिष्ट हो जाती है। इन्हें साल्टेटोरियल टाँगे (saltatorial legs) कहते हैं। गल्फ खण्डों पर उपस्थित गद्दियाँ व पदतल्प चिकनी सतह पर रूकने तथा गुल्फी नखर एवं टिबियाई कंटक रूक्ष (rough) सतहों पर रूकने के काम आते हैं।

(b) पंख (Wings) : ग्रासहोपर के मध्यवक्ष तथा पश्चवक्ष में एक-एक जोड़ी पंख पाये जाते हैं। कीटों के पंख खण्डों के पृष्ठक व पार्श्वक के बीच के भाग से पाश्र्वीय रूप से निकलते हैं। पंख निकलते समय दोहरे स्तर के कोष नुमा एपिडर्मिस के उभार के रूप में निकलते हैं। पूर्ण विकसित पंख में एपिडर्मी कोशिकाएँ विलुप्त हो जाती है तथा पंख इन कोशिकाओं द्वारा स्रावित क्यूटिकल की दोहरी पर्त के बने कठोर शुष्क ओर निर्जिव रूप में रह जाते हैं। प्रत्येक पंख अनेक अनुदैर्घ्य क्यूटिकली शिराओं (veins) द्वारा समर्थित रहता है। ये शिराएँ संकरी नलिकाएँ होती है जिनमें प्रारम्भ में श्वास नलिकाएँ, तन्त्रिकाएँ एवं रूधिर पाये जाते हैं। भिन्न-भिन्न जातियों के कीटों में इन शिराओं की संख्या और उनकी व्यवस्था पंख-शिरा विन्यास (wing venation) भी भिन्न होता है। परन्तु एक ही जाति के सभी जन्तुओं में यह पंख शिराविन्यास समान होता है जो इनका एक विशिष्ठ लक्षण होता है तथा वर्गीकरण में भी सहायक होता है।

टिड्डे के दोनों जोड़ी पंख एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। मध्यवक्षीय पंख संकरे कठोर, चिम्मड या पार्चमेन्ट के समान होते हैं व टेग्मिना (tegmina) कहलाते हैं। ये पंख उड़ने के काम नहीं आते हैं बल्कि पश्च पंखों को ढकने के काम आते हैं। पश्च वक्षीय पंख बड़े चौड़े व झिल्लीमय होते हैं तथा उड़ने के काम आते हैं। विश्राम की स्थिति में ये पंख पंखें के समान सिमट कर अग्र पंखों के नीचे छिप जाते हैं।

(iii) उदर (Abdomen) : ग्रासहोपर का उदर पतला व बेलनाकार होता है। इसका उदा ।। खण्डों का बना होता है। प्रत्येक खण्ड की पृष्ठ व अधर सतह पर पायी जाने वाली कंकाली प्लेटे क्रमश: पृष्ठक या टरगम (tergum) तथा अधरक या स्टरनम (stermum) कहलाती है। इसके उदर का प्रथम खण्ड अपूर्ण होता है क्योंकि इसका अधरक (sternum) पश्च वक्ष (metathore साथ संगलित रहता है तथा केवल पृष्ठक (tergum) ही उपस्थित होता है।

प्रथम उदर खण्ड के प्रत्येक पार्श्व में एक अण्डाकार कर्णपटह (tvmpanic ma. पायी जाती है जिसके नीचे एक श्रवण कोष (auditory sac) या श्रवण अंग (organ of heari. पाया जाता है।

उदर के दसरे खण्ड से लगा कर नवें खण्ड तक एक जोड़ी प्रतिखण्ड के हिसाब से आठ जोड़ी शवसन रन्ध्र (siracles) पाये जाते हैं। प्रथम जोड़ी श्वास-रन्ध्र अन्य की अपेक्षा बड़े होते हैं तथा कर्णपटह  के सामने स्थित रहते हैं। नवें व दसवें खण्ड के पष्ठक आंशिक रूप से संगलित रहते है। अधरक पूर्ण रूप से संगलित होते हैं। ग्यारहवें खण्ड में केवल पष्ठक ही पाया जाता है जो टाके ऊपर अधि गुदीय प्लेट (supra anal plate) के रूप में स्थित होता है। दसवें खण्ड के पीछे कानों पावों में एक-एक छोटा प्रवध पाया जाता है जिन्हें गदीय लम (anal cerii) कहते हैं। ।

लैंगिक द्विरूपता एवं बाह्य जननेन्द्रियाँ (Sexual dimorphism and external genetalia) :

नर टिड्डा मादा की अपेक्षा छोटा होता है। इसी प्रकार नर व मादा दोनों में उदर का पश्च सिरा मशः मैथुन क्रिया करने तथा अण्डनिक्षेपण हेतु रूपान्तरित होता है।

नर टिड्डे के उदर का पश्च भाग गोलीय होता है। नवें खण्ड का अधरक लम्बा ओर ऊपर की ओर वक्रित होकर मैथुन अंगों को ढके रखता है। इसमें एक अवजनद प्लेट (genital plate) पायी जाती है जो नर जनन रन्ध्र को ढके रखती है। मादा का उदर अपेक्षाकृत अधिक नुकीला या शण्डाकार होता है। मादा में नौवां अधरक लम्बा होता है जिस पर मादा जनन छिद्र खुलता है। मादा के उदर के अन्तस्थ सिरे पर तीन जोड़ी काइटिनी प्लेटें पायी जाती है जो मिलकर अण्डनिक्षेपक (ovipositor) का निर्माण करती है।