जौनपुर (शर्की) शैली की विशेषता और उदाहरण क्या है jaunpur style of architecture in hindi example
जानिये कि जौनपुर (शर्की) शैली की विशेषता और उदाहरण क्या है jaunpur style of architecture in hindi example ?
जौनपुर (शर्की) : शैली पर तुगलक काल की इमारतों का गहरा प्रभाव पड़ा था, लेकिन इसकी भी कुछ अपनी विशिष्टताएं थीं जैसे तोरण के पास विशाल स्तंभों वाली जालियांए जो पूजा कक्ष के या इबादतगाह के मध्य और बगल के खंडों को एक शानदार और मुखर स्वरूप प्रदान करती थीं।
दक्कन ने 14वीं और 17वीं सदी के बीच अपनी एक विशिष्ट वास्तुकला शैली का विकास किया। दक्कन शैली के प्रारंभिक निर्माण पर तुगलक वास्तुशैली का प्रभाव गजर आता है। बाद में इसने फारस की निर्माण कला से प्रभाव ग्रहण किया। फिर भी इसने अपनी एक अलग पहचान विकसित की। कल्पना की भव्यता और संरचनात्मक सिद्धांतों का सही सही अनुपालन उसके प्रमुख तत्व थे। बाद के परिपक्व चरण में संरचनात्मक स्वरूप और अलंकरण शैली में हिंदू प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। जैसे काले पत्थर से बने चिकना, हुए तक्षित द्वारपक्ष और इसकी छज्जों को सहारा देने के लिए लगाई गईं सुंदर कोष्ठकें। दक्कन में बहमनियों के पांच उत्तराधिकारी वंशों में आदिलशाही और कुतुबशाही वास्तु कला की दृष्टि से सबसे उल्लेखनीय थीं।
आदिलशाही नवाबों के काल में दक्कन शैली कल्पना, निर्माण विधियों, अलंकरण और सजावट की दृष्टि से एक परिष्कृत निर्माण शैली के रूप में उभर कर आई। इसकी विशिष्टताओं में तीन मेहराबों वाले महल का अग्र भाग था, जिसमें बीच की मेहराब बाकी दोनों से चैड़ी होती थी। उभरा हुआ गुम्बद आकार में लगभग गोल था। लम्बी, पतली, मस्जिद मीनारें, स्तंभ के स्थान पर विशाल आकार के चिनाईदार पायों का अधिक उपयोग, नक्काशीदार कोष्ठक पर बने बड़े, बाहर को निकले छज्जे या कार्निस और व्योम रेखा से ऊपर निकलते लम्बमान प्रक्षेप जिन पर छोटे-छोटे गुम्बद होते थे अन्य विशेषताएं थीं। बीजापुर के भवन एक अन्य विशिष्ट कारण से उल्लेखनीय हैं छतों के अंदरूनी भाग पर किया काम जिसे देखने से ऐसा लगता है मानो उन्हें बिना किसी सहारे के बनाया गया है, क्योंकि पत्थरों की पट्टिकाओं को लोहे के हुकों तथा मजबूत मसाले से एक साथ जोड़ा गया है। पत्थर पर बारीक कलात्मक नक्काशी इन भवनों की एक अन्य विशेषता है।
बीजापुर शैली का सर्वश्रेष्ठ स्मारक गोल गुम्बद है। मुहम्मद आदिल शाह का यह मकबरा उसके अपने जीवन काल में ही बनाया गया था। यह अपने विशाल अर्द्धवृत्ताकार गुम्बद तथा फुसफसाते गलियारे के लिए प्रसिद्ध है। यह चार कोनों पर चार बुर्जियों वाला एक विशाल घन है। गुम्बद खंभों पर खड़ा है। कहते हैं गोल गुम्बद की गुम्बदी छत दुनिया में सबसे बड़ी है।
बहमनियों के बाद गोलकुंडा की कुतुबशाही निर्माण शैली दक्कन में अधिक प्रचलित थी। इसकी प्रमुख विशेषताओं में, इसका नमूना भवनों के मुखाग्र या मुहानी तथा मुंडेरों और मीनारों पर की गई बारीक सजावट सम्मिलित है। कुतुबशाही भवनों पर हिंदू शैली का प्रभाव सज्जा के रूपांकन पर प्रकट है। इसके संरचनात्मक स्वरूप और शेष कला सज्जा पर ईरानी प्रभाव है। इस शैली के भवनों में गोलकुंडा के शाही मकबरे प्रमुख हैं। इसमें भी सर्वश्रेष्ठ है मुहम्मद कुली कुतुबशाह का मकबरा। इसे दोहरे टैरेस पर बनाया गया है तथा शानदार गुम्बद और मीनारों से सजाया गया है। इसके अंदर ऊपर की ओर तीन गलियारे बने हैं। कुतुबशाही स्मारकों में सबसे शानदार है हैदराबाद की चारमीनार। जो संभवतः शाही दरवाजे के रूप में प्रयुक्त होती थी। अपनी कल्पना में अत्यंत भव्य और कारीगरी में पूर्णतः उत्कृष्ट इस इमारत के बीच में वग्रकार प्रांगण है। जिसमें चारों दिशाओं में ऊंची मेहराबों वाले दरवाजे हैं तथा कोनों पर हैं चार सुंदर मीनारें हैं। इमारत के विभिन्न भाग अत्यंत संतुलित हैं और इसकी साज-सज्जा अत्यधिक सुंदर है।
भारतीय-इस्लामिक वास्तुकला की कश्मीर शैली अन्य किसी भी क्षेत्रीय शैली से अलग है। क्योंकि इसमें मुख्य भवन निर्माण सामग्री के रूप में लकड़ी का उपयोग किया गया है। इन भवनों पर उस क्षेत्र के बौद्धमत का प्रभाव भी दिखाई देता है।
सूरकालीन वास्तुकला को लोधी शैली का नवीनतम और सबसे भव्य स्वरूप कहा गया है। इसके दो चरण हैं पहला चरण बिहार के सासाराम में मकबरों का समूह है। इनमें सौंदर्य के साथ-साथ एक प्रकार का गांभीर्य भी है। दूसरा चरण दिल्ली स्थित पुराने किले में शेरशाह की मस्जिद है। इसमें समृद्ध साज-सज्जा की गई है। सासाराम में शेरशाह का मकबरा एक झील के बीच में बना हुआ है। इसकी नींव सीढ़ीदार तहखाने से शुरू होती है जो पानी के अंदर से सीधा ऊपर उठता दिखाई देता है। इसके ऊपर एक वग्रकार टेरेस है जो मकबरे के प्रांगण की भूमिका निभाता है और यह अष्टभुजाकार है। यह तीन घटते हुए चरणों में अभिकल्पित है। तीसरे चरण पर एक चैड़ा नीचा गुम्बद बना हुआ है।
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