जोगीमारा की गुफा कहां स्थित है , जोगीमारा की गुफा किस धर्म से संबंधित है , कुल कितनी गुफाएं हैं
पढ़िए जोगीमारा की गुफा कहां स्थित है , जोगीमारा की गुफा किस धर्म से संबंधित है , कुल कितनी गुफाएं हैं ?
जोगीमारा (22.89° उत्तर, 82.90° पूर्व)
जोगीमारा गुफाएं तथा सीता बेंगरा गुफाएं छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में नर्मदा नदी क्षेत्र के समीप अमरनाथ (रामगढ़ पहाड़ियां) में स्थित हैं। ये गुफाएं अपनी सुंदर चित्रकारियों, जो कि 1000 ई.पू. से 300 ई.पू. के बीच की हैं, के लिए प्रसिद्ध हैं तथा ऐसा माना जाता है कि ये गुफाएं विश्व की प्राचीनतम नाट्यशालाओं में से एक हैं। 300 ई.पू. से पहले की इन गुफाओं में जानवरों, पक्षियों, मानवों तथा फूलों की चित्रकारियां मिली हैं। इन चित्रकारियों को सफेद लेप को आधार बनाकर किया गया है, जिसमें लाल, काले, सफेद तथा पीले रंग का प्रयोग हुआ है। प्रत्येक चित्र को लाल रंग द्वारा बाह्य रूप से रेखांकित किया गया है।
गुफाओं की छत पर लगभग सात चित्र बनाए गए हैं जो मानव आकृतियों, मछली तथा हाथियों को परिलक्षित करते हैं। इन चित्रों की दो परतें हैंः ऐसा प्रतीत होता है कि मूल परत निपुण चित्रकारों द्वारा बनाई गई है तथा दूसरी परत अनुभवहीन चित्रकारों द्वारा बनाई गई है। इन चित्रों की विषयवस्तु लौकिक है तथा इस रूप में ये ऐतिहासिक काल के अन्य गुफा चित्रों से भिन्न हैं। हालांकि, ये चित्रकारी मानव द्वारा पारंगत चित्रकला की ओर किए गए प्रारंभिक प्रयासों में से एक जान पड़ती है।
यहां पर ब्राह्मी लिपि तथा प्राकृत भाषा में लिखे गए अभिलेख भी हैं, जिन्हें हम दो प्रकार से परिभाषित कर सकते हैंः एक तो भावना व साहस जबकि दूसरा यथार्थवाद से संबंधित है।
इतिहासकारों के अनुसार, पृष्ठभूमि में सीता बेंगरा तथा जोगीमारा गुफाओं के साथ बनी अर्धवृत्ताकार घाटी ग्रीक थिएटर की भांति एक बहुत अच्छी नाट्यशाला का रूप देती है। सीता बेंगरा गुफा के सामने अर्धचन्द्राकार रूप में कतार में व्यवस्थित गोलाकार आसन बने हैं जो पत्थर को काटकर बनाए गए हैं। नाट्यशाला में दर्शकों के लिए लगभग पचास आसन बने हैं। मंच को एक खड़ी चट्टान को तराश कर बनाया गया है। सीता बेंगरा गुफा एक प्राकृतिक गुफा है, जिसमें एक चट्टान को काटकर कक्ष बनाया गया है। यह कक्ष किसी मंच के सदृश है। गुफा की लम्बाई 14 मी., चैड़ाई 5 मीटर तथा ऊंचाई 1.8 मी. है। मंच के सामने पत्थर को काटकर एक चबूतरा बनाया गया है जो किसी उच्च वर्गीय परिवार हेतु बनी दीर्घा की ओर संकेत करता है। सीता बेंगरा गुफा में मिले दो पक्तियों वाले अभिलेख हमें उन प्रतिष्ठित कवियों के बारे में बताता है जो अपनी कृतियों द्वारा लोगों का दिल जीतते थे। ये कवि अपने गले में चमेली के पुष्पों की माला पहनते थे।
जोगीमारा गुफा, सीता बेंगरा गुफा से छोटी थी तथा कृत्रिम रूप से पत्थर काटकर बनाई गई थी। ऐसा प्रतीत होता है कि ये गुफा नाट्यशाला की अभिनेत्रियों के आराम करने की जगह थी। जोगीमारा में एक पांच पंक्तियों वाला अभिलेख भी है जो नाट्यशाला की एक अभिनेत्री सुतनुका तथा देवदिना नामक रूपदक्ष (चित्रकला व हस्तलिपि विधा में दक्ष कलाकार) की प्रेमकथा का चित्रण करता है। देवदिना ने इस गुफा में चित्रों को बनाया था।
इन गुफाओं के अभिलेखों में भारत में प्रथम बार ‘देवदासी‘ शब्द का उल्लेख हुआ है। यह भी समझा जाता है कि यह नाट्यशाला उन सांस्कृतिक केंद्रों में से एक थी जहां से देवदासी परम्परा का उद्भव हुआ। आरम्भ में देवदासियां कम उम्र की एवं विशेष रूप से चयनित कन्याएं होती थीं जिनका विवाह देवताओं से किया जाता था और जो मंदिरों में सेवा हेतु नियुक्त की जाती थीं। ये लौकिक रूप से अविवाहित होती थी और धार्मिक कर्मकांडों को करती थीं। ये शास्त्रीय कलाओं एवं परम्पराओं में पारंगत होती थीं तथा इनका समाज में काफी सम्मान व प्रतिष्ठा थी। इन्होंने स्वयं की परम्परा, कला तथा संगीत शैली विकसित की। बाद में देवदासी परम्परा में काफी गिरावट आई और इनका धर्म के नाम पर शोषण आरम्भ हो गया।
झांसी (25°26‘ उत्तर, 78°34‘ पूर्व)
झांसी मध्यप्रदेश के ग्वालियर नामक शहर के समीप उत्तर प्रदेश की उस भौगोलिक पट्टी पर अवस्थित है, जो मध्य प्रदेश को स्पर्श करती है। इसे बुंदेलखंड का प्रवेशद्वार कहा जाता है।
झांसी पर चंदेल शासकों का सशक्त शासन था, किंतु 11वीं शताब्दी में इस वंश के पतनोपरांत इस शहर का महत्व भी समाप्त हो गया। राजा बीर सिंह बुंदेला के समय 17वीं शताब्दी में इसका गौरव पुनः स्थापित हुआ। राजा वीर सिंह बुंदेला, मुगल शासक जहांगीर का घनिष्ठ सहयोगी था तथा जहांगीर के आदेश पर ही वीर सिंह ने अकबर के मंत्री एवं विशेष कृपापात्र अबुल फजल की हत्या करवाई थी। यद्यपि वीर सिंह बुंदेला के उत्तराधिकारी झुज्झर सिंह बुंदेला के समय झांसी एवं मुगल साम्राज्य के संबंध बिगड़ने लगे। शाहजहां ने झुज्झर सिंह पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया तथा उसके महल पर अधिकार कर लिया।
1857 के विद्रोह के समय झांसी एक बार पुनः सुर्खियों में आ गया, जब यहां की रानी लक्ष्मीबाई ने विद्रोहियों को प्रशंसनीय नेतृत्व प्रदान किया। इस वीरांगना ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी। प्रसिद्ध कवियत्री सुभद्रा कुमारी चैहान की ये पंक्तियां ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी‘ आज भी इस वीरांगना की शौर्यगाथा का बखान करती हैं। प्रत्येक वर्ष फरवरी-मार्च में झांसी उत्सव की शुरुआत कर, इस ऐतिहासिक स्थल में एक नया आयाम जोड़ दिया गया।
जोधपुर (26.28° उत्तर, 73.02° पूर्व)
जोधपुर जो वर्तमान राजस्थान का एक जिला है, प्राचीन मारवाड़ (मृत्यु की धरती) रियासत की राजधानी था। यह राजपूताना की सबसे बड़ी रियासत थी तथा कश्मीर एवं हैदराबाद के पश्चात यह भारत की तीसरी बड़ी रियासत थी।
राठौर राणा चुन्दा के समय इस रियासत का महत्व अत्यधिक बढ़ गया। उसके उत्तराधिकारी राणा जोधा ने 15वीं शताब्दी में यहां एक नया शहर बसाया तथा उसके पश्चात् ही इसका नाम जोधपुर पड़ा।
शेरशाह ने थोड़े समय के लिए ही सही किंतु मारवाड़ पर अधिकार कर लिया था। राणा मालदेव से संघर्ष के पश्चात शेरशाह ने यह प्रसिद्ध उक्ति कही थी कि श्एक मुट्ठी बाजरे के लिए मैं सम्पूर्ण भारत का साम्राज्य खो देता।श् यद्यपि जब मुगल शासक अकबर ने राजपूतों के प्रति धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई, तब मारवाड़ के शासकों ने भी इसके संबंध में सकारात्मक प्रत्युत्तर दिया तथा अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। उत्तरवर्ती मुगल शासकों के समय जोधपुर के शासक अजीत सिंह ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। 1818 में जोधपुर ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की अधीनता स्वीकार कर ली। 1947 में इसने भारतीय संघ में मिलने का निश्चय किया।
वर्तमान समय में जोधपुर वायुसेना की पश्चिमी कमान का मुख्यालय है तथा पाकिस्तान की सीमा से सटा होने के कारण सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। जोधपुर में उम्मेद भवन एवं शीशमहल धावा वन्यजीव अभ्यारण्य जैसे कई दर्शनीय स्थल भी हैं।
जोरवे
महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में गोदावरी-प्रवर नदी तंत्र क्षेत्र में स्थित जोरवे की पहचान एक ताम्रपाषाण कृषि स्थल के रूप में हुई है। इस स्थल का उत्खनन एच.डी. संकालिया तथा शांताराम बालचन्द्र देव के निर्देशन में 1950-51 में हुआ। अन्य स्थल जैसे नेवासा, अहमदनगर जिले में स्थित देमाबाद, पुणे जिले में स्थित चंदोली, सोनगांव तथा इनामगांव भी जोरवे संस्कृति से संबंधित हैं तथा प्रवर नदी के बाएं तट पर स्थित स्थलों को जोरवे के नाम पर ही जोरवे प्रकार के संस्कृति स्थल कहा गया।
जोरवे संस्कृति कोंकण के तटीय क्षेत्रों को एवं विदर्भ के भाग को छोड़कर वर्तमान महाराष्ट्र के क्षेत्रों में फैली थी। इसका काल 1400 ई.पू. से 700 ई.पू. का है। ये सभी स्थल काली-भूरी मृदा वाले अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में स्थित परंतु नदी के तटवर्ती भू-भाग के निकट थे। यहां बेर व बबूल वृक्षों की अधिकता थी। यद्यपि जोरवे संस्कृति अधिकांशतः ग्रामीण थी परंतु कुछ बस्तियां जैसे कि देमाबाद व इनामगांव शहरी स्तर पर पहुंच गई थी।
जोरवे संस्कृति के निवासी बड़े आयताकार घरों में रहते थे जिनकी छत छप्पर की बनी होती थी एवं दीवारें पुताई की हुई होती थीं। वे अनाज का संग्रहण बड़े-बड़े बर्तन अथवा गड्ढे में करते थे। भोजन को घर के अन्दर चूल्हे में पकाते थे एवं जानवरों के मांस को । आंगन में भूनते थे। ये लोग मृतकों को घर में ही फर्श के नीचे उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर दफनाते थे। हड़प्पा निवासियों की तरह ही जोरवे संस्कृति के लोग भी शवाधान के लिए अलग से शवागृह नहीं बनाते थे। उनका विश्वास था कि मृत्यु के पश्चात् भी जीवन है एवं बर्तन व ताम्र की वस्तुओं को कब्रों में इसी विश्वास के साथ रखा जाता था कि मृतक अपने अगले जन्म में ये प्रयोग कर सके।
जुन्नार (19.2° उत्तर, 73.88° पूर्व)
मराठा छत्रपति शिवाजी का जन्मस्थान जुन्नार के पास शिवनेर में हुआ था। जुन्नार, मुंबई-औरंगाबाद मार्ग पर मुंबई से 177 किमी. की दूरी पर स्थित है। जुन्नार का समतल मैदान चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इन पहाड़ियों में कई बौद्ध गुफाएं हैं, जो तीन समूहों में विभक्त हैं-तुलिजा लेन समूह, मान मोदी पहाड़ियों की ओर का गुफा समूह एवं गणेश लेन गुफा समूह।
जुन्नार की गुफाएं 100 ईसा पूर्व से 200 ईस्वी काल की मानी जाती हैं। ये गुफाएं पश्चिम भारत में शैल स्थापत्य के प्रारंभिक चरण का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा लकड़ी की संरचना पर निर्मित इन गुफाओं में से कुछ में असामान्य विशेषताएं परिलक्षित होती हैं। जैसे-तुलिजा लेन की गुफा संख्या 3 में चैत्य कक्ष में गोलाकार गुम्बदनुमा सीलिंग हैं। इस समूह में कई छोटी गुफाएं एवं विहार हैं। मुख्य चैत्य गुफा संख्या 6 में हैं तथा विहार को गणेश लेन के नाम से जाना जाता है।
शक एवं सातवाहन शासकों के समय जुन्नार कला, संस्कृति एवं वाणिज्य का एक प्रमुख केंद्र था। इसके रोम के साथ भी व्यापारिक संबंध थे। यह पश्चिमी तट के कल्याण से पैठन के बीच के व्यापारिक मार्ग पर स्थित था।
काबुल (34°32‘ उत्तर, 69°10‘ पूर्व)
काबुल जो वर्तमान अफगानिस्तान की राजधानी है, कभी भारतीय उपमहाद्वीप का उत्तर-पश्चिमी भाग निर्मित करता था। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य ने 305 ईसा पूर्व में सिकंदर के यूनानी सेनापति सेल्यूकस निकेटर को पराजित कर काबुल (परिपेनिसदाई) पर अधिकार कर लिया था।
काबुल दक्षिण एशिया से मध्य एशिया को जोड़ने वाले व्यापारिक मार्ग पर स्थित था। कुषाण काल के उपरांत यह काफी लंबे समय तक भारत से अलग रहा किंतु बाबर ने इसे पुनः भारतीय उपमहाद्वीप का हिस्सा बना लिया। अकबर ने राजा मानसिंह को काबुल का सूबेदार नियुक्त किया।
मुगलों के पश्चात काबुल पर क्रमशः नादिरशाह, अहमदशाह अब्दाली एवं फिर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया। कुछ समय पूर्व काबुल उस समय सुर्खियों में आया, जब अमेरिका ने यहां से तालिबानी शासन को उखाड़ फेंका। इसके उपरांत यहां हामिद करजई के नेतृत्व में नई सरकार का गठन किया गया।
कलाड़ी (10.16° उत्तर, 76.43° पूर्व)
कलाड़ी एक गांव है, जो दक्षिण केरल में अल्बी नदी के तट पर स्थित है। यह प्रारंभिक मध्यकाल में चर्चा में आया। अद्वैत दर्शन के प्रतिपादक शंकराचार्य का जन्म इसी गांव में हुआ।
788 ई. में मालाबार तट के नम्बूदरी ब्राह्मण परिवार में जन्मे शंकराचार्य का 820 ईस्वी में 32 वर्ष की अवस्था में देहावसान हो गया। अल्पायु में विद्वता प्राप्त कर शंकर ने हिंदू धर्मग्रंथों का विस्तृत अध्ययन पूर्ण कर लिया तथा अपनी तरुणावस्था में ही लेखन को अपनी आजीविका बनाया। शंकर का लक्ष्य था वेदों को हिंदू धर्मग्रंथों के आधार पर प्रतिपादित करना। एक ऐसी अकाट्य आस्था जो कि हिंदुओं में व्याप्त आस्थाओं की विविधता को समाप्त कर उन्हें जोड़ कर एक ही मंच पर ले आए। उन्होंने विभिन्न तीर्थस्थलों पर चार पीठों की स्थापना की। उत्तर में बद्रीनाथ, पूर्व में पुरी, पश्चिम में द्वारका, तथा दक्षिण में शृंगेरी, जहां से उनके सन्यासी अनुयायियों ने अद्वैत मत का संदेश दिया।
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