गतिक संतुलन सिद्धांत क्या है ? हैक का गतिक संतुलन सिद्धांत का प्रतिपादन किसने किया dynamic equilibrium theory of hack in geomorphology in hindi
dynamic equilibrium theory of hack in geomorphology in hindi geography गतिक संतुलन सिद्धांत क्या है ? हैक का गतिक संतुलन सिद्धांत का प्रतिपादन किसने किया ?
हैक का भ्वाकृतिक सिद्धान्त
हैक ने डेविस के ‘भौगोलिक चक्र‘ तथा पेंक के ‘भ्वाकृतिक तन्त्र‘ के आधार पर ‘गतिक सन्तुलन सिद्धान्त‘ का प्रतिपादन किया, जिसके आधार पर अपरदनात्मक स्थलाकृतियों की व्याख्या की जा सकती है। इनके अनुसार – स्थलाकृतियाँ एवं उसकी प्रक्रिया वहाँ की चट्टान की विभिन्नता एवं उन पर कार्यरत प्रक्रमों में घनिष्ट सम्बन्ध होता है। हैक का सिद्धान्त विवृत-तन्त्र -‘जब तक विवृत-तन्त्र में ऊर्जा विद्यमान है, अपरदन द्वारा स्थलखण्ड का अवतलन होता है तथा स्थलखण्ड स्थिर रहता है‘ पर आधारित है। इनका विचार था कि – वर्तमान कार्यरत प्रक्रमों के आधार पर वहाँ के स्थलरूपों की व्याख्या करना। इन्होंने अप्लेशियन प्रदेश की शेननडोह-घाटी के गहन अध्ययन के बाद स्पष्ट किया है कि – किसी स्थान विशेष में कार्यरत प्रक्रम की ऊर्जा तथा उनके द्वारा प्राप्त मलवा में सन्तुलन होता है जो स्थलरूपों के आकार को विकासत करता है। हैक के अनुसार – श्ज्ीम संदकेबंचम ंदक जीम चतवबमेेमे जींज तिवउ पज ंतम चंतज वत ंद वचमद ेलेजमउए ूीपबी पे पद ं ेजमंकल व िइंसंदबमण्श् इसके आधार पर निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है – (क) किसी स्थान विशेष पर संलग्न प्रक्रम एवं वहाँ की संरचना की प्रकति के मध्य संतुलन होता है, (ख) स्थलखण्ड के प्रत्येक भाग में अधः क्षय प्रक्रिया समान रूप से घटित होती है, (ग) क्षेत्रीय सम्बन्धी के आधार पर स्थलाकृतियों की विशेषताओं एवं इनकी विविधताओं का विश्लेषण प्रस्तुत किया जा सकता है, तथा (घ) वर्तमान प्रक्रम द्वारा वर्तमान स्थलाकृतियों का विकास होता है।
हैक महोदय ने स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि – समस्थिति की दशाओं में अत्यल्प परिवर्तन स्थलरूपों में भी परिवर्तन उद्भत करता है। इन्होंने जलवायविक दशाओं से स्थलरूपों में परिवर्तन घटित होता है, को प्रत्यक्ष रूप से मान्यता नहीं दिया है. अपितु इनका विचार इससे साम्य रखता है। स्थलखण्ड के उत्थान एवं अपरदन की दर के आधार पर स्थलरूपों के विकास का विश्लेषण करने का प्रयास किया है-
(क) उत्थान एवं अपरदन की दर में सन्तुलन की स्थिति विद्यमान रहती है। यदि इन दोनों की दर उच्च है, तो उच्च स्थलाकृ
तियों का सृजन होगा तथा इनकी स्थिति तब तक विद्यमान रहेगी, जब तक दोनों की दर में स्थिरता विद्यमान रहेगी।
(ख) स्थलखण्ड का उत्थान यदि समाप्त हो जाता है, तो उच्चावच का ह्रास हो जाता है। कहीं-कहीं पर उच्च स्थलाकृतियाँ भी
द्रष्टव्य होती हैं।
(ग) स्थलखण्ड के उत्थान की दर बढ़ने लगती है, तो अपरदन की दर भी इसी अनुपात में बढ़ने लगती है। परिणामतः अत्यन्त
उच्च स्थलाकृतियों का सृजन होता है।
हैक महोदय अपने सिद्धान्त में तीन आधार-तलों की कल्पना की है, जो स्थलरूपों की विकासीय स्थिति को स्पष्ट करते हैं –
(क) आधार-तल – किसी स्थलखण्ड का यदि उत्थान हो जाय तथा वह दीर्घकाल तक स्थिर रहे, तो उस पर अपक्षय तथा अपरदन की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इन क्रियाओं के फलस्वरूप स्थलखण्ड का निम्नीकरण हो जाता है। निम्नीकरण की प्रक्रिया क्रमिक घटित होती है। अन्तिम स्थिति में निम्न उच्चावच विद्यमान रहता है।
(ख) आधार-तल में घनात्मक संचलन – आधार-तल में धनात्मक संचलन होता है, तो नदी-घाटी का निचला भाग जल मग्न हो जाता है तथा उसमें जमाव प्रारम्भ हो जाता है। नदी-घाटी के ऊपरी भागों में प्रभाव परिलक्षित होता है। अर्थात् इस स्थिति में ढाल में प्रभाव ऊपरी भाग में अंकित किया जा सकता है।
(ग) आधार-तल में ऋणात्मक संचलन – आधार-तल में ऋणात्मक संचलन होता है, तो नदी की अपरदन-क्षमता बढ़ जाती है तथा वह निम्नवर्ती अपरदन तीव्रगति से प्रारम्भ कर देती है। यदि नदी अस्थाई आधार-तल का निर्माण करती है, तो शीघ्र ही अवरोध को दूर करके सामंजस्य स्थापित कर लेती है।
क्षेत्र-पर्यवेक्षण के द्वारा बोधगम्य है कि – किसी भी स्थलखण्ड का स्थिर रहना सम्भव नहीं है, क्योंकि इनका निरन्तर ह्रास होता है। ऐसी दशा में, स्थाई स्थलखण्ड वाले विस्वृत-तन्त्र की संकल्पना का प्रतिपादन सम्भव नहीं है, जबकि हैक का विचार है – प्रत्येक स्थलरूप में प्रक्रमों का कार्य एवं इनको मिलाने वाली ऊर्जा में अस्थिर गतिक संतुलन की अवस्था विद्यमान रहती है। अधिकांश स्थलरूप बदलते पर्यावरणीय दशाओं में संतुलन स्थापित करने में असमर्थ रहते हैं, जबकि हैक की विचारधारा है – प्रत्येक स्थलरूप बदलते पर्यावरणीय घटनाओं में समायोजन स्थापित कर लेते हैं। इन्हीं के अनुसार – विकास के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में सभी स्थलरूप कुछ सीमा तक कैदी होते हैं। हैक का सिद्धान्त अधिकांशतः सत्यापन की कसौटी पर खरा नहीं उतरा है, तथापि अनेक स्थलरूप-विकास समस्याओं का समाधान करने में समर्थ है।
6. पामक्किस्ट का सम्मिश्रित मॉडल
पामक्विवस्ट महोदय ने अपने स्वतन्त्र विचारों से सिद्धान्त का प्रतिपादन न करके डेविस, पैंक एवं हैक के विचारों के आधार पर किया है। इनके अनुसार – किसी स्थान विशेष के स्थलरूपों पर बाह्य दशाओं (उत्थान, अवतलन, जलवायु आदि) के परिवर्तन का प्रभाव पड़ता है। इन्होंने आधार-तल के आधार पर अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। आधार-तल, सागर-तल से उर्ध्वगामी प्रवणता का निर्माण करता है तथा ढाल-प्रवणता इतनी तीव्र होती है कि नदी अपरदन द्वारा प्राप्त मलवा का परिवहन आसानी से कर लेता है। इसी प्रकार नदी के पार्श्ववर्ती ढाल प्रवणता के विषय में स्पष्ट करने का प्रयास किया है। नदी के जल-मार्ग ढाल से विभाजक की ओर ढाल निरन्तर उठता जाता है तथा प्रवणता इनती रहती है कि मलवा का परिवहन जलमार्ग तक आसानी से हो जाता है। आधार-तल के ऊपर विद्यमान शैल राशि की ऊर्जा के कारण अपरदन होता है, जबकि आधार-तल पर स्थितिज ऊर्जा के कारण अपरदन नहीं होता है, क्योंकि अपरदन के लिए स्थितिज ऊर्जा को गतिज ऊर्जा में परिवर्तित होना पड़ता है।
पामक्विस्ट महोदय यह स्पष्ट किया है कि – स्थलखण्ड में अन्तः प्रवाह बाह्म-प्रवाह के बराबर होता है। यदि स्थलखण्ड का उत्थान हो जाता है तो नदी की अपरदन क्षमता बढ़ जाएगी तथा मलवा की मात्रा अधिक होगी। ऐसी दशा में जितना मलवा प्राप्त होगा, उसका निष्कासन नदी द्वारा कर लिया जाएगा। यदि मलवा एवं परिवहन दर में संतुलन रहता है तो स्थलाकृतियों के आकार में अन्तर नहीं होता है। इसके विपरीत यदि इन दोनों में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो स्थलकृतियों के आकारों में परिवर्तन होना प्रारम्भ हो जाता है। जब स्थलखण्ड का उत्थान हो जाता है तो नदी द्वारा निम्नवर्ती अपरदन तीव्रगति से किया जाता है। फलतः उच्चावच में निरन्तर वृद्धि होती जाती है। यदि स्थितिज ऊर्जा अधिक रहती है तो नदी का निम्नवर्ती अपरदन होगा तथा उच्चावच का विकास होता है। इसके विपरीत यदि स्थितिज ऊर्जा कम होती तो नदी का निम्नवर्ती अपरदन समाप्त हो जाता है तथा उच्चावच अल्प होगा। इनके सिद्धान्तों में स्थलण्ड के उत्थान के बाद अन्य दशाओं की समस्थिति की कल्पना कर ली जाय तो इनका मॉडल स्थलरूपों के विकास की समस्या का बहुत कुछ अंश तक समाधान करने में सफल रहेगा। इन्होंने जलवायु जैसे महत्वपूर्ण तत्व को केवल वहीं प्रभावी माना है, जहाँ तक यह बर्हिजात प्रक्रमों को प्रभावित करता है।
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